मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

ईमानदार

ईमानदार

प्रहरी रहता ऊंघता , चोर करें निज काम ,
आफिस में कुछ लोग हैं ,जिनको काम हराम .
जिनको काम हराम , न कभी पैसे खावें ,
रखते धरम -ईमान ,जगत में नाम कमावें ।
मनमोहन की नीति, लगे सबको है न्यारी ,
रुपये से रहो दूर, करो जमकर मक्कारी ॥

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

म.प्र. के मुख्य सचिव की कार्य प्रणाली

.प्र. के मुख्य सचिव को गुस्सा क्यों आता है

म.प्र. के मुख्य सचिव श्री अवनी वैश्य ने प्रदेश के कलेक्टरों की विडिओ कांफेरेंस के माध्यम से क्लास ली । क्लास में कलेक्टरों को समझाइश दी गई कि मुख्य मंत्री की घोषणाओं को गंभीरता से लें. हुआ यह था कि मुख्यमंत्री खंडवा गए थे । उन्हें जो कार उपलब्ध करवाई गई ,उसके टायर फट गए । दूसरी गाड़ी मुख्यमंत्री का भार ढोने में नाकामयाब रही । अब इसमें नाराजगी कि कौन सी बात है । जो सरकार कि गाड़ी होगी वही न मिलेगी ! यदि यह गुस्सा मुख्य सचिव उस दिन दिखाते जिस दिन भोपाल के हमीदिया अस्पताल में कैदियों को लाने वाली पुलिस की गाड़ी ने ७ लोगों को कुचल दिया था तो मुख्य मंत्री जी को ऐसी गाड़ी न मिलती । गैस कांड में मरने वाले लोगों की क्षतिपूर्ति के लिए इसी सरकार के मंत्री भी १० लाख रूपये मुआवजे की बात करते हैं । पुलिस वैन से मरने वाले होनहार मेडिकल कालेज के छात्रों को २ लाख मुआवजा किस आधार पर दिया गया । यदि गाडी का बीमा नहीं था तो यह सरकार की गलती है । बीमा होता तो सबको उचित मुआवजा मिलता । बिना बीमा के खटारा गाड़ी चलाने के लिए मुख्य मंत्री या मुख्य सचिव झूठी ही अप्रसन्नता व्यक्त कर देते तो समझ में आता कि उन्हें प्रदेश की चिंता है । परन्तु प्रदेश की चिंता करने का अर्थ कर्ज लेकर बाँटने और वाह- वाही लूटने को मानने वाले नेता - अफसर जमीनी वास्तविकताओं से दूर स्वप्न लोक में विचरण करते प्रतीत हो रहें हैं ।
गुजरे जमाने की घटना है । म.प्र . में सकलेचा जी की सरकार में एक अति सिद्धांत वादी समाजवादी मंत्री थे .सतना से आगे निकलते ही कार ख़राब हो गई । साथ चल रहे अधिकारी ने आनन् - फानन में बिरला सीमेंट फैक्ट्री से गाड़ी बुलवा दी । मंत्री जी ने आपत्ति की कि समाजवादी मंत्री , मैं पूंजीपति कि गाडी में कैसे चढ़ सकता हूँ !वह साईकिल का ज़माना था । स्कूटर भी कम थे । अधिकारी जी ने कहा ," गाड़ी पूँजी पति कि नहीं होगी तो क्या झोपड़ी में मिलेगी ?" बेचारा मंत्री क्या करता ! उस समय राज्य स्तर के अधिकारी ने अपनी बात बेबाकी से कह दी थी , आज कौन कलेक्टर पंगा लेकर अपनी कलेक्ट्री गंवाने का जोखिम उठाना चाहेगा ?
प्रदेश में शायद ही कोई ऐसा दिन हो जिस दिन किसी न किसी वर्ग के छात्र को परेशान न किया जाता हो । कभी सेमेस्टर वाले परेशान हो रहें हैं , कभी मेडिकल वालों को सताया जा रहा है , कभी आयुर्वेद - होमिओपैथी वाले हड़ताल कर रहे हैं , और बी एड जैसी परीक्षाओं का तो हाल ही मत पूछिए । जम कर लूट हो रही , सरे आम हो रही है ,वर्षों से हो रही है । इनका कोई माँ - बाप नहीं है । करबद्ध निवेदन है कि जवानी को यूं न सताइए । आए दिन कुलपतिओं का कि जांच- पड़ताल हो रही है । यह जांच- पड़ताल नियुक्ति के पहले क्यों नहीं की जाती है । वास्तविकता यह है कि तिकड़म से कुलपति नियुक्त किये जाते हैं । उनपर दबाव डालकर गलत काम करवाए जाते हैं ,जब वे फँस जाते हैं तो पालतू गाय की तरह सब उनका दोहन करने लगते हैं । दूध देना बंद तो खाना - पीना बंद और कुल से बाहर का रास्ता दिखा दिया । यह प्रयोग सबसे पहले क्लाइव ने बंगाल में मीरजाफर को नवाब बना कर शुरू किया था । नवाब बनाने के बदले उसने ,उसके अफसरों ने जम कर उपहार लिए और रोज कोई न कोई अफसर भेंट लेने आ जाता । जब वह नहीं दे पाया तो उसे निकाल बाहर किया , उसके दामाद कासिम को नवाब बना कर लूट -खसोट की । जब उसने आना -कानी की तो उसे हटाकर पुनः बूढ़े मीरजाफर को नवाब बना कर जबरन वसूली की और अंत में बंगाल की सत्ता हथिया ली । देश में कितने क्लाइव पैदा हो गए हैं , मौका मिले तो मुख्य सचिव जी उन्हें भी एक घुट्टी पिला दिया करें .
म.प्र शासन ने अनेक डाक्टरों को इसलिए बर्खास्त कर दिया कि उनकी डिग्री एम् आई सी से मान्यता प्राप्त नहीं है। आप उन कुल सचिवों , कुलपतिओं ,स्वस्थ्य विभाग के निदेशकों , आयुक्तों , प्रमुख सचिवों के विरुद्ध क्या कार्यवाही करने का साहस रखते हैं जिनके मार्ग दर्शन और प्रशासन में फर्जी डिग्रियां बांटी गईं । मान्यता की शर्तों को पूरा न करने के जिम्मेदार तो मुख्य सचिव और मुक्य मंत्री भी हैं । थोडा और साहस करिए न । यह सरकार तो राजधानी भोपाल के हमीदिया अस्पताल में हैण्ड ग्लब्स भी नहीं दे पा रही जिससे तत्परता पूर्वक युवा डाक्टरों द्वारा किये गए आपरेशन के समय उन्हें एड्स के संक्रमण का खतरा पैदा हो गया है । इन समस्याओं पर ध्यान देने वाला शायद कोई नहीं है . कलेक्टरों को आदेश भर देना ही प्रशासन नहीं होता है। बजट ,कर्मचारी तथा अन्य सुविधाएँ भी देनी होती हैं ।
डा ए डी खत्री

शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

आज़ादी की आहट

Aazadi Ki Aahat Feb10

एडवोकेट परीक्षा अव्यवहारिक

एडवोकेट परीक्षा अव्यवहारिक
इस वर्ष प्रथम बार वकालत करने के लिए एल -एल .बी.उत्तीर्ण करने के बाद एक योग्यता परीक्षा भी उत्तीर्ण करनी होगी जिसका आयोजन बार काउन्सिल आफ इंडिया कर रही है .यद्यपि राज्यों के बार काउन्सिल ने इसका विरोध किया है ,परन्तु परीक्षा होगी और इसे उत्तीर्ण करना अनिवार्य होगा यदि न्यायालय जा कर वकालत करनी है । परीक्षा का औचित्य समझ से परे है । यदि इसके लिए छात्रों के विधि ज्ञान को न्यून स्तर का माना जा रहा है तो यह दोष बार काउन्सिल का ही है क्योंकि इसने बिना शिक्षक , बिना किसी सुविधा वाले अनेक शासकीय एवं अशासकीय महाविद्यालयों को विधि शिक्षा के लिए अनुमति दे रखी है . अनेक महाविद्यालयों में एक भी नियमित शिक्षक नहीं होते हैं ,बार काउन्सिल ने उनकी न तो मान्यता समाप्त की न ही उन पर शिक्षकों की नियुक्ति के लिए दबाव बनाया। अनेक छात्र कॉलेज जाते ही नहीं हैं .उनकी उपस्थिति के लिए कभी प्रयास नहीं किये गए . महाविद्यालयों में पुस्तकालयों में कानून की पुस्तकें हैं या नहीं ,कभी नहीं देखा गया । बार काउन्सिल को कानून शिक्षा व्यवस्था पर पूरा नियंत्रण रखना चाहिए।
राष्ट्रीय विधि महाविद्यालयों में कठिन प्रवेश परीक्षा के पश्चात ५ वर्षीय विधि स्नातक पाठ्यक्रम में प्रवेश दिए जाते हैं । अनेक अन्य विधि संस्थानों में भी स्तरीय पढाई होती है ,वहां से उत्तीर्ण छात्रों को भी यह परीक्षा देनी होगी । यह उन संस्थानों तथा छात्रों की प्रतिष्ठा के विपरीत होगा । आई.आई.टी तथा आई आई एम् से उत्तीर्ण छात्रों के भी इंटर व्यू लिए जाते हैं पर उसके पश्चात् कंपनिया उन्हें अच्छे वेतन पर नियुक्ति देती हैं । क्या बार काउन्सिल परीक्षा उत्तीर्ण करने वालों को कोई निश्चित आय का भी प्रावधान करने वाली है ? ऐसे अनेक संस्थान भी हैं जो परीक्षाएं लेते हैं ,प्रवेश के समय भी और पाठ्यक्रम पूर्ण करने पर भी . चार्टर्ड अकाउनटेंट ,कंपनी सेक्रेटरी ,ए एम् आई इ ,इलेक्ट्रानिक विभाग द्वारा 'ओ' ,'ए', 'बी','सी', स्तर की कंप्यूटर परीक्षा आदि । परन्तु इन संस्थानों के छात्रों को किसी संस्था में नियमित रूप से पढने का प्रावधान नहीं रखा गया है । कहीं भी पढो,कैसे भी पढो ,किसी भी पुस्तक से पढो ,इन संस्थाओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है .क्या भारत की बार काउन्सिल भी ऐसा प्रावधान करने जा रही है ? क्या अब विधि की शिक्षा किसी संस्थान में बिना शिक्षा ग्रहण किये ,निजी स्तर पर पढ़ कर भी उत्तीर्ण की जा सकेगी ?बार काउन्सिल यदि अपनी परीक्षा के स्तर का विश्वास करती है तो उसे इतना साहस भी दिखाना चाहिए कि अब तक जो छात्र बिना पढ़े विधि परीक्षा उत्तीर्ण करते चले आ रहे थे , उस व्यवस्था को घोषित रूप से स्वीकार कर ले ।
बार काउन्सिल आफ इंडिया को अनेक अन्य कार्य भी करने चाहिए जिससे वकीलों की प्रतिष्ठा में वृद्धि हो। वकीलों के पहचान पत्रों को सरकार मान्यता नहीं देती है । चुनाव के समय मतदान करते समय , फोन ,मोबाईल ,गैस आदि का कनेक्शन लेने में ,बैंक में एकाउंट खुलवाने में या इसी प्रकार के अन्य कार्यों में वकील को बार काउन्सिल द्वारा दिए गए पहचान पत्र को स्वीकार नहीं किया जाता है ,न ही उसे सरकार द्वारा पहचान पत्रों कि सूची में रखा गया है .उसमें राशन कार्ड , ड्राइविंग लाइंसेंस , पासपोर्ट जैसे पहचान पत्र तो हैं जिन्हें एजेंटों के माध्यम से कैसे भी बनवाया जा सकता है और यह तथ्य सभी जानते भी हैं ,परन्तु राज्यों की बार कौंसिलों द्वारा दसवीं से लेकर अंतिम उत्तीर्ण परीक्षा तक तक सभी अंक सूचिओं तथा प्रमाणपत्रों को मूल रूप से मिलान कर दिए गए पहचान पत्र सरकारी नजर में कुछ नहीं हैं। बार काउन्सिल को मुकदमें जल्दी निपटाने तथा न्यायालयों पर बोझ कम करने के प्रयास भी करने चाहिए .अनेक गरीब लोग थोड़े से अर्थदंड न चुका पाने के कारण जेलों में पड़े रहते हैं । जाँच पड़ताल के बाद सरकार से उसे माफ़ करवाने के प्रयास करने चाहिए । भूमि प्रकरणों में भारी न्याय शुल्क को कम करवाना चाहिए .इनसे वकीलों की प्रतिष्ठा बढ़ेगी ।

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

राज्यों का विघटन

राज्यों के विघटन की प्रक्रिया

स्थिर सामाजिक -राजनीतिक व्यवस्था के मुख्या कारक हैं --संस्कृतिक एकता ,वैचारिक सामंजस्य ,परस्पर विश्वास ,दूसरों का सम्मान ,उपेक्षा एवं शोषण का अभाव , स्थिर राजनीतिक व्यवस्था तथा राजनीतिक दूरदृष्टि । सामान्य विश्लेषण के पूर्व इसे मध्यप्रदेश के सन्दर्भ में समझना उपयुक्त होगा । १ नवम्बर १९५६ को महाकोशल तथा छत्तीसगढ़ मिलकर मध्य प्रदेश बना । बाद में मध्य भारत ,विन्ध्य प्रदेश एवं भोपाल राज्य का भी इसमें विलय हो गया। ४५ वर्ष पश्चात छत्तीसगढ़ इससे पृथक हो गया । मध्य प्रदेश में आज भी स्थापना दिवस पूर्व की भांति १ नवम्बर को बड़ी शानशौकत से मनाया जा रहा है । आपत्ति उत्सव मनाने पर नहीं है । दुःख इस बात का है की १ नवम्बर ही इसका विघटन दिवस भी है । मध्य प्रदेश का विघटन क्यों हुआ इस पर भी चर्चा - विचार विमर्श होना चाहिए था , जो नहीं हो रहा है । कल को अन्य क्षेत्र भी पृथक हो सकते हैं । छत्तीसगढ़ के पृथक होने का कारण उस क्षेत्र के लोगों का भारी शोषण था जिससे असंतोष उत्पन्न होता गया । छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक सम्पदा का शोषण जम कर किया गया परन्तु उनके विकास पर ध्यान नहीं दिया गया । १९८८ में मैं जगदलपुर में पदस्थ था .जगदलपुर से विशाखा पट्टनम के लिए लौह अयस्क ढोने के लिए तो ट्रेन थी परन्तु मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल तथा उच्च न्यायालय जबलपुर आने के लिए कोई ट्रेन नहीं थी । धक्के खाते हुए पहले बस से रायपुर आइए फिर देखिए कि आगे क्या मिलेगा । कुल मिलाकर ऐसी व्यवस्था बना कर रखी गयी थी कि आदिवासी हमेशा के लिए आदिवासी बने रहें और महा पुरुष इच्छानुसार उनका शोषण करते रहें .इसी कारण से बिहार से झारखण्ड तथा उत्तर प्रदेश से उत्तरांचल पृथक हुए । हमने कोई सबक नहीं सीखा .पूर्वांचल धधक रहा है .तेलंगाना आंध्र से पृथक होने को बेताब है ।
आज कश्मीर के विघटन की कगार पर पहुँचने पर कुछ लोगों के दुखी होने से समस्या हल होने वाली नहीं है .हम आजादी का जश्न मनाते आ रहे हैं । क्या हमने कभी सोचा है की भारत का विघटन क्यों हुआ ? आजादी के पूर्व भारतीय नेताओं में दूरदृष्टि नहीं थी । स्वार्थी मुस्लिम लीगी नेताओं ने सोचा की जैसे मुस्लिमों ने सदिओं से हिन्दुओं पर अत्याचार किये है हिन्दुओं का राज होगा तो वे बदला ले सकते हैं .यह भावना सांस्कृतिक एकता के अभाव और परस्पर अविश्वास के कारण उत्पन्न हुई । गाँधी - नेहरु जिन्ना का पूरा विश्वास करते थे परन्तु जिन्ना उनकी उपेक्षा के साथ सदिओं पुरानी आक्रान्ताओं की आक्रमण नीति का अनुसरण करता था । भारत से दो पाकिस्तान अलग हुए धर्म के नाम पर । परन्तु बाद में वहां पंजाबिओं - सिन्धिओं ने बंगालिओं की उपेक्षा तथा शोषण प्रारंभ कर दिया जिससे बंगलादेश बन गया .आज पाकिस्तान भावी विघटन की ओर बढ़ रहा है । इन्हीं कारणों से शक्तिशाली कहे जाने वाले युगोस्लाविया के तीन और रूस के २४ टुकड़े हो गए । नेताओं की तो छोडिए ,क्या किसी समाजशास्त्र -राजनीतिशास्त्र के प्रोफ़ेसर ने इन पर विचार करने का प्रयत्न किया ? भारतीय राजनीति पर पाकिस्तान समर्थकों का शिकंजा कस चुका है । इसलिए कश्मीर वार्ता के लिए बनाई गई समिति ने बिना कोई प्रयास किये घोषणा कर दी कि कश्मीर का हल पाकिस्तान ही निकाल सकता है और इस संगीत में भारतीयता की चादर ओढ़े अनेक सियार हुआ -हुआ करने लगे हैं । यदि हम अब भी मनमानी करते रहेंगे , बिना चिंतन किये जश्न में डूबे रहेंगे , सियारों से डरते रहेंगे तो कश्मीर के आगे भी विघटन की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है ।

लिव इन रिलेशन शिप

कानून की भी सीमा होती है

जब स्त्री-पुरुष बिना विवाह के साथ -साथ रहते हैं ,तो उन्हें यह मानने का कोई अधिकार नहीं है की उन्हें भी उन कानूनों का लाभ मिलेगा जो समाज के शरीफ लोगों के लिए बनाए गए हैं .फिजा -चाँद मुहम्मद का प्रकरण सबके सामने है । चन्द्रमोहन के परिवार में हस्तक्षेप करने के लिए वे हिन्दू से मुसलमान बन गए । जब मुस्लिम क़ानून के अनुसार चाँद मुहम्मद ने तलाक दिया तो फिजा को हिन्दू धर्म जैसी वफ़ादारी याद आने लगी । उसे लगा की उसके साथ बड़ा अन्याय हो रहा है जबकि चन्द्रमोहन की धर्म पत्नी के साथ उसके द्वारा किये गए अन्याय को वह भूल गई.हिन्दू और मुस्लिम दोनों कानूनों का एक साथ लाभ उसे कैसे मिल सकता था ?पैसे या शरीर -सुख के लिए अथवा किसी गैर कानूनी कार्य के लिए यदि कोई महिला स्वेच्छा से किसी पुरुष के साथ रह रही है तो उसे विवाह के लाभों के लिए सोचने का भी अधिकार नहीं है । विवाह न करने का अर्थ है की वह भी किसी अच्छे अवसर पर दूसरे के साथ रह सकती है । विवाह सर्वाधिक प्राचीन सामाजिक संस्था है , बिना किसी कारण के उसका मजाक उड़ाने का किसी को अधिकार नहीं है .बिना विवाह किसी पुरुष के साथ रहने वाली महिला को शुरू से ही रखैल कहा जाता है ,रखैल माना जाता रहा है जो पुरुष की यौन संतुष्टि के लिए है। फिर न्यायाधीश उसके लिए किस शब्द का प्रयोग करते जिससे स्त्री के सम्मान में वृद्धि हो जाती ? क्या कालगर्ल अथवा सेक्स वर्कर कहने से वेश्या के सम्मान में वृद्धि हो जाती है ? ऐसे लोगों को विवाह के लाभ और सम्मान क्यों मिलने चाहिए ? विवाह से दो व्यक्तियों ही नहीं परिवारों के मध्य कर्तव्यों तथा दायित्वों का सृजन होता है .विवाह के पश्चात् संपत्ति का अधिकार सर्वाधिक महत्त्व पूर्ण है जिस पर प्रथम अधिकार स्वतः पत्नी या पति का हो जाता है .उसके पश्चात् बच्चों का अधिकार होता है और इसे समाज स्वीकार करता है .यदि स्त्री या पुरुष का विवाह नहीं हुआ है तो सम्पति पर उनके माता- पिता, भाई- बहनों का अधिकार होता है । विवाह के बिना संपत्ति के उत्तराधिकार के असंख्य प्रकारों के लिए व्यावहारिक क़ानून बनाना दुष्कर है । इसके साथ ही इससे समाज में अन्य विद्रूपताएँ भी उत्पन्न होंगी । अतः इसे यथा संभव हतोत्साहित करना चाहिए ।

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

बैंक लोगों का शोषण न करें

Bank Shoshan Feb10

नई जिंदगी

नई जिंदगी

मुझे पेट की शिकायत युवावस्था से थी । ५० वर्ष की आयु के बाद कष्ट अधिक बढ़ गए । ५५ वर्ष की अवस्था में रक्त युक्त दस्तों की संख्या १५ - २० प्रतिदिन तक हो गई । बहुत कठिनाई से ज्ञात हुआ कि बड़ी आंत में कैंसर है और दूसरी अवस्था में पहुँच गया है । चिकित्सा के लिए मैं कैंसर अस्पताल गया । वहां मुझे जो कुछ समझाया गया और जो कुछ मेरी समझ में आया कि मै इलाज करवाऊं तो २ साल और जी सकता हूँ । मुझे यह भी बतलाया गया कि मल के लिए एक थैली पेट के साइड से निकाली जायेगी जो हमेशा के लिए भी रह सकती है . मैं इस अवस्था में जीने के लिए तैयार नहीं था । घर वालों के दबाव के कारण इलाज करवाना पड़ रहा था । इलाज के बाद शासन से प्रतिपूर्ति प्राप्त हो जाए ,इसलिए भोपाल के हमीदिया अस्पताल से आवेदन अग्रेषित करवाने गया । वहां सर्जरी विभाग में मुझे डा . अरविन्द राय मिले । उन्होंने जाँच रिपोर्ट देखी और मुस्कुराते हुए बोले - "इसमें अग्रेषित करवाने कि क्या बात है । आप आज अस्पताल में भर्ती हो जाइये । आपरेशन करके दो दिनों में आपको रोग मुक्त कर देंगें ।" मैंने उनसे थैली कि समस्या बताई । उन्होंने कहा कि आपको थैली नहीं लगेगी । मैं उनकी बातों से आश्वस्त हो गया । हमीदिया अस्पताल के कैंसर विभाग के अध्यक्ष डा . ओ. पी . सिंह के निर्देश पर पहले ३ सप्ताह रेडियो थेरेपी कि गई जब कि कैंसर अस्पताल में ६ सप्ताह की थेरेपी बताई गई थी । आपरेशन से पूर्व मैंने डा . राय से कहा कि मेरे तो छोटे आपरेशन के घाव भी कई दिनों में भर पाए थे । डा .राय ने कहा ,''हम किस लिए हैं .आप कोई चिंता न करें । '' ४-५ घंटे आपरेशन चला । ९ इंच बड़ी आंत काटकर अलग कि गई । ११ दिनों में मुझे घर भेज दिया गया । लौटते समय रास्ते में मैंने स्वयं फल ख़रीदे . अस्पताल में जूनियर डाक्टरों ने इतनी तत्परता से काम किया कि मुझे पता ही नहीं चला कि मै बीमार हूँ । मैं सभी काम सामान्य रूप से करने लगा । टीम के दूसरे डा . माहिम कोशरिया से जब मैंने कहा कि पेट पर दाग है तो वे बोले , ''दाग क्यों रहेगा ?''उन्होंने एक ट्यूब लिख दी जिसे लगाने के बाद छुरी का निशान भी गायब हो गया । २१ दिनों के बाद मैं स्वयं कार चलाकर केमो थेरेपी के लिए जाने लगा । बिना किसी फीस के इतने बड़े रोग की इतनी आसानी से चिकित्सा सरकारी डाक्टर कर सकते हैं ,शायद विश्वसनीय न लगे परन्तु पिछले ४ वर्षों से ६१ वर्ष की आयु में मेरी नई जिन्दगी दौड़ रही है ।

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

राज्यपथ

Rajpath_1_feb10

म.प्र.में जन भागीदारी समितियों का मायाजाल .

म . प्र . में जन- भागीदारी समितियों का मायाजाल

१९९५ में देश की आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब थी । अपनी आय के साधन नहीं थे । विदेशों से सुविधानुसार कर्जे भी नहीं मिल रहे थे। मंत्री-अफसर रुपया नहीं खायेगा तो भूखा मरेगा। ऊपर से छुटभैये नेता बड़े नेताओं कि जान खाए पड़े थे कि तुम लोग तो मलाई खाए जा रहे हो और हम दरी बिछाने ,तम्बू तानने ,भीड़ जुटाने में धूल फांकते - फांकते मरे जा रहे हैं । अफसरों- नेताओं की अक्ल काम कर गई । एक पत्थर से दो चिड़ियाँ मार गिराईं. शिक्षा , स्वास्थ्य जैसे फालतू विभागों में शासकीय व्यय रोकने और छोटे नेताओं का पेट भरने का काम एक साथ कर लिया गया । उन्होंने जनभागीदारी नाम की अवैध संस्थाएं पैदा कर दीं और जबरन उनका पंजीयन रजिस्ट्रार , फर्म्स एवं संस्थाएं भोपाल के कार्यालय में करवा दिया गया । अवैध इसलिए कि संस्थाओं के पंजीयन के मूल नियमों को दरकिनार करके पदाधिकारिओं की नियुक्ति कर दी गई . प्रारम्भ में संस्था का अध्यक्ष सांसद, विधायक या समकक्ष लोक प्रतिनिधि को बनाया जाता था । उपाध्यक्ष जिले का कलेक्टर या उसका प्रतिनिधि , सचिव कालेज का प्राचार्य , विश्वविद्यालय का नामांकित प्रतिनिधि , बैंक अधिकारी , अन्य गणमान्य लोग , कुछ प्राध्यापक आदि सदस्य बनाए जाते थे । पूरे प्रदेश के महाविद्यालयों की जनभागीदारी सूची मध्य प्रदेश के शासन के उच्च शिक्षा विभाग भोपाल में मंत्रीजी के आशीर्वाद से तैयार करके कालेजों को भेज दी जाती है अर्थात समिति के सदस्यों द्वारा पदाधिकारिओं का चुनाव न करवा कर ऊपर से थोप दिए जाते हैं । इन समितियों में अधिकांश सदस्य आते ही नहीं थे । वर्तमान में गणमान्य व्यक्ति के नाम पर प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी के किसी भी व्यक्ति को महाविद्यालय का अध्यक्ष बना दिया जाता है जिसे उस क्षेत्र के विधायक या ऐसे ही किसी शक्तिशाली नेता का आशीर्वाद प्राप्त हो । सचिव अभी भी प्राचार्य को रहना पड़ता है क्योंकि वह बेचारा कहाँ जाये ! मनोनीत अध्यक्ष अपने मोहल्ले के किन्ही भी १०-१२ साथिओं को सदस्य बना लेता है .उपाध्यक्ष तो कलेक्टर या उसका प्रतिनिधि ही होता है परन्तु व्यस्तता के कारण वे शायद ही कभी बैठक में गए हों । समिति में अपने सदस्य होने के नाते अध्यक्ष जैसा चाहे आदेश पारित करवा लेता है । भाग्यशाली प्राचार्यों को सहयोग देने वाले अध्यक्ष भी मिल जाते हैं । अध्यक्ष अपनी मनमानी कर सकें , इसके लिए उच्च शिक्षा विभाग से आदेश आते रहते हैं । इनके आलावा विधायकों तथा नेताओं का समर्थन -सहयोग उन्हें मिलता ही रहता है । फर्म एवं संस्थाओं के पंजीयन के क़ानून के अनुसार किसी संस्था के चुने हुए अध्यक्ष , सचिव तथा कोषाध्यक्ष को धारा २७ के अंतर्गत प्रत्येक वर्ष संस्था के कार्यों की पंजीयक को जानकारी भेजनी पड़ती है, इस घोषणा के साथ की यदि जानकारी गलत होगी तो वे दंड के पात्र होंगे । ये मनोनीत सरकारी अध्यक्ष इस से मुक्त हैं अर्थात किसी भी गड़बड़ी के लिए वे उत्तरदाई नहीं होते हैं । दंड के लिए सरकार प्राचार्य को आदर्श जीव मानती है । तीसरी विचित्रता यह है की किसी भी समिति का सदस्य बनने के लिए सदस्यों को सदस्यता शुल्क देना होता है । यहाँ पर सभी सदस्य सरकारी होते हैं ,अतः उन्हें कोई शुल्क नहीं देना होता है .कुल मिलाकर बिना परिश्रम, बिना खर्च ,बिना किसी दायित्व के ढेर सारे अधिकार उन्हें दे दिए गए हैं । इन समितियों के गठन में कानून के साथ क्रूरतम मजाक यह किया गया है की जिन बेचारे छात्रों के शुल्क से इन समितियों को जीवन मिलता है , उन छात्रों को इसकी गतिविधियों की भनक भी नहीं नहीं लगने दी जाती है .
इन जनभागीदारी समितियों के माध्यम से उच्च शिक्षा का वैधानिक रूप से राजनीतिकरण कर दिया गया है । इसका काला पक्ष यह है जनभागीदारी समितियां जन सहयोग के माध्यम से महाविद्यालयों के खर्चे पूरे करेंगी , इस प्रत्याशा में सरकार ने महाविद्यालयों के अनुदान बंद कर दिए । चाक - डस्टर से लेकर पुस्तकालय ,कम्पूटर , प्रयोगशाला , फर्नीचर आदि के सभी व्यय सरकार ने बचा लिए । जो सदस्य अपनी जेब से एक पैसा नहीं दे सकते वे अन्य लोगों से क्या कहकर धन जमा करेंगे ? जनभागीदारी की आय का एक मात्र श्रोत छात्रों से लिया गया शुल्क है । उनसे होने वाले क्रय एवं निर्माण कार्यों में अध्यक्ष और सदस्य , अपनी- अपनी क्षमता के अनुसार सेवा करते हैं और प्रसन्न बने रहते हैं बशर्ते प्राचार्य कोई कानून न दिखाएं । इनके सहयोग से सरकार ने धीरे- धीरे शुल्क बढ़ाते हुए उच्च , तकनीकी , चकित्सा शिक्षा आदि मंहगी कर दीं तथा शिक्षा का व्यवसायीकरण कर दिया । सरकार भयभीत है कि यदि छात्र-संघ के चुनाव होंगे तो ये बेचारे छुटभैये नेता कहाँ जायेंगे ।
जनभागीदारी समितियों का रवैया
चूंकि जनभागीदारी समितियों में बिना किसी योग्यता के अध्यक्ष की नियुक्ति होती है और वह व्यक्ति सत्तारूढ़ दल का चहेता होता है ,इसलिए वह इस समिति में इस प्रकार व्यवहार करता है जैसे मुख्यमंत्री अपने राज्य में करता है .बस एक अंतर होता है मुख्या मंत्री को विपक्ष का ,मीडिया का , जन प्रतिनिधियों का और अपने दल के लोगों का भी थोडा -बहुत भय होता है जबकि ज भा अध्यक्ष को भय तो किसी का होता नहीं है , ऊपर से उसे सहायता करने के लिए प्राचार्य होता है जिसे सरकार की ओर से भारी दबाव में रखा जाता है कि अध्यक्ष की आज्ञा मानो . इस अध्यक्ष और उसके चेलों के मुख्य कार्य होते हैं ,
१ मीटिंग में छात्रों से वसूले गए पैसों से चाय-वाय खाना पीना .२ सत्र के प्रारंभ में प्रवेश के समय अपने चहेतों के लिए नियम विरुद्ध प्रवेश के लिए प्राचार्य पर दबाव बनाना । ३.अपने चहेते छात्रों को शुल्क में छूट तथा फंड से धन दिलवाना । ४.अपने लोगों को कालेज में नौकरी पर लगवाना , वह काम करे या न करे । ५.यह देखना कि कालेज में कोई खरीदारी हो रही हो तो अपनी या परिचित कि दूकान से सामान खरीद वाना । ६.अपनी पार्टी के किसी नेता का जन्म दिन या अन्य कोई अवसर हो तो समाचारपत्रों में उसकी फोटो के साथ अपनी फोटो लगाकर बधाई सन्देश छपवाना और छात्रों के इन पैसों से भुगतान करवाना । ७.इस निधि से होने वाले निर्माण कार्यों के ठेके हथिआना .
८.अपने लिए कमरा -टेलेफोन मांगना । ९ अवसर मिलते ही अपने नाम का बोर्ड या पत्थर लगवाना .१०.कभी कभी स्टाफ से चंदा भी ले सकते हैं .कुल मिलाकर प्राचार्य तथा स्टाफ पर दबाव बनाए रखना ।
सभी प्राचार्य उनकी सभी बातें माने यह आवश्यक नहीं है .सभी समितियां उक्त सभी उत्पात करे , यह भी जरूरी नहीं है । परन्तु इन छुटभैये नेताओं को छात्र हित से कोई लेना देना नहीं है क्योंकि इनमे से अधिकांश को इतनी अक्ल ही नहीं होती है । कुल मिलाकर ये बहुत बड़ा न्यूसेंस हैं । इनकी एक घटना है , भोपाल के एक बड़े कालेज में परीक्षाएं हो रही थीं । परीक्षा हाल में होनी थी परन्तु ज भ अध्यक्ष ने वह अपने उत्सव के लिए ले लिया और लगे पार्टी करने । उनके शोर से बगल के कक्ष में परीक्षा दे रहे छात्रों को क्या हानि हो रही है इससे उन्हें कोई लेना-देना नहीं था.प्राचार्य बेचारा अपने अध्यक्ष को क्या कह सकता है ? अनेक किस्से , मेल-मेल के किस्से कहाँ तक बखान करें ! क्या छात्रों से लिए गए इन पैसों का सदुपयोग प्राचार्य , प्राध्यापक और छात्र मिलकर नहीं कर सकते हैं ? पूरे प्रदेश में प्राचार्य इनसे त्रस्त हैं । सरकार में बैठे अफसर -नेता जब यह सुनते हैं तो बहुत खुश होते है की चलो अच्छा है ,प्राचार्य उलझे रहेंगे तो शासन से कुछ नहीं कहेंगे , छात्रों के लिए , कालेज के विकास के लिए कोई मांग नहीं करेंगे ।
शासन ने दागी मिसाइल
म प्र में कालेजों को शासन ने वर्षों से पुस्तकालय, वाचनालय, प्रयोगशालाओं , उपकरणों , फर्नीचर ,भवन -निर्माण आदि के लिए , जिनसे छात्रों का कहीं से भला होने वाला हो ,कोई भी राशि देने के प्रावधान पूरी तरह समाप्त कर दिए हैं ।अच्छे शिक्षक तो क्या कोई भी नए शिक्षक ,प्राचार्य नियुक्त नहीं किये जा रहे हैं .अतिथि विद्वान् कहकर युवकों का वर्षों से शोषण किया जा रहा है । स्टाफ है नहीं और साल भर चलने वाली परीक्षाओं का ऐसा जाल बनाया गया है कि कोई शिक्षक चाह कर भी न पढ़ा सके । जनभागीदारी समितियों के फंड पर भी कब्ज़ा शासन का ही है । बिना तिकड़म के कोई बड़ा काम करवाने का शासन से आदेश नहीं मिल सकता है । इतने झंझावात झेलते हुए भी कई साहसी प्राचार्य कालेजों में कुछ-कुछ काम करवा ही ले जाते हैं । शासन इससे आग बबूला हो गया है और उसने मिसाइल दाग कर छात्रों के जनभागीदारी फंड को फूं- फां कर दिया । अब चालाक से चालाक प्राचार्य भी कुछ नहीं कर पाएगा । शासन ने आदेश देकर छात्रों को दी जाने वाली अनेक छात्रवृतियों के रूप में यह धन खर्च कर दिया । इसका एक पक्ष तो यह है कि छात्रों को उनके धन से जो सुविधाए दी जानी चाहिए थीं ,नहीं दी गईं , इसलिए पैसे बचते गए । दूसरा पक्ष यह है की यदि यह धन तथा कथित सरकारी जनभागीदारी समितियों का मान भी लिया जाये तो क्या उनके साथ ऋण लेने का , वापिस करने का कोई अनुबंध किया गया कि कितने दिनों में ,कितने ब्याज के साथ वापिस करेंगे । नहीं , ऐसा कुछ नहीं किया गया क्योंकि जनभागीदारी समितियों को प्रशासनिक अधिकारी फर्जी और गैरकानूनी मानते हैं । इसलिए सीधे प्राचार्य को आदेश दिया और रुपये पार कर दिए . यदि खजाने में कुछ नहीं है तो छात्रवृतियों का ढोंग किस बात का कर रहे हो ? जब कालेजों में सुविधाएँ ही नहीं होने दे रहे हो तो छात्रवृति लेने वाले भी पैसे लेने के बाद कालेज में क्या करने आयें? क्या म.प्र . की सरकार बड़े-बड़े विज्ञापनों में उन छात्रों के फोटो छापवाएगी जिनके पैसों से ये जन कल्याण के कार्य जबरन किये जा रहे हैं । प्रदेश में प्राइवेट विश्विद्यालय खुल रहें हैं , प्राइवेट कालेज खुल रहें हैं । अगर सरकारी कालेज अच्छे होंगे ,वहां कौन पढने जाएगा ? उन बेचारों ने भी अपनी दौलत लुटाकर दो पैसे कमाने के लिए निजी संस्थाएं खोली हैं .अगर अफसर -नेता उनके हित में सरकारी कालेजों को बर्बाद नहीं करेंगे तो उनका क्या होगा ?संत तुलसीदास सही कह गए हैं ,''परहित सरिस धर्म नहीं भाई "। अपने बच्चों ,युवाओं का हित कभी नहीं करना चाहिए.उन्हें पढ़ाकर इतना योग्य नहीं बनने देना चाहिए की वे अपना भला सोच सकें .परायों का हित करना ही असली धर्म है .क्योंकि परायों का हित करने से पुण्य-लाभ होता है ,भगवान खुश होते हैं ,धन-दौलत मिलती है ,सुख समृद्धि आती है . अगर पराया विदेशी हो और उसको लाभ पहुचाया जाय तो सोने में सुहागे जैसी चमक भी आ जाती है।


























रविवार, 3 अक्टूबर 2010

सेक्स कानूनों का भविष्य

Kanoon_feb10

विलंबित परीक्षा परिणामों के लिए छात्रों को क्षतिपूर्ति दें

विलंबित परीक्षा परिणामों के लिए छात्रों को छतिपूर्ति दें

आज -कल मध्य प्रदेश में विलम्ब से परीक्षाएं करवाना तथा उससे भी अधिक विलम्ब से परीक्षा परिणाम निकालना
विश्विद्यालयों का फैशन हो गया है .इससे छात्रों की बहुत क्षति हो रही है । स्नातकोत्तर परीक्षाओं के परिणाम अभी तक नहीं निकले हैं .इन छात्रों को एम् फिल या पी. एच-डी. करनी हो तो उनका यह वर्ष तो बेकार चला गया .अगले वर्ष स्नातक और स्नातकोत्तर के छात्रों के साल बेकार जाएँगे ।क्या हमारे प्रदेश के विश्वविद्यालय और सरकार अन्य विश्वविद्यालयों में उनके लिए सीटें खाली रखवाएंगी ?यदि नहीं, तो क्षतिपूर्ति करना उनका कर्त्तव्य नहीं दायित्व है. यदि छात्र विलम्ब से परीक्षा फार्म भरते हैं ,उन्हें दंड -शुल्क देना होता है। विश्वविद्यालय प्रथम एक सप्ताह विलम्ब के लिए रु.३००/- फिर रु १०००/- और रु १५००/-तक भी विलम्ब -शुल्क वसूलता है । किसी पर कोई रहम नहीं किया जाता । किसी भी तरह का फार्म भरने में विलम्ब हो जाए तो मनमाने तरीके से विलम्ब शुल्क वसूले जाते हैं। छात्र इसलिए शुल्क नहीं देते की उनका भविष्य खराब किया जाय .विश्वविद्यालयों का दायित्व है कि समय पर परीक्षाएं करवाएं और समय पर अर्थात १ जुलाई तक सत्र के सभी परीक्षा परिणाम दे दें .और यदि नहीं देते तो क्षतिपूर्ति दें जो उनका दायित्व है.क्षतिपूर्ति के लिए चतुर्थ श्रेणी के नियमित कर्मचारी को आधार माना जा सकता है कि मान लीजिए कि पढने के बाद छात्र चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी ही बनता तो उसे न्यूनतम रु ३००/- दैनिक वेतन तो मिलता। १ जुलाई के जितने दिनों बाद कक्षा का परिणाम निकलता है ,उतने दिनों तक उसे रु ३००/- प्रतिदिन के हिसाब से क्षतिपूर्ति दी जाय. यदि सरकार और विश्वविद्यालय सोचते हैं कि उनके स्नातक और स्नातकोत्तर छात्र चपरासी बनने कि योग्यता भी नहीं रखते तो ऐसे विश्विद्यालयों को बंद कर दें क्योंकि ये तो मैकाले के उन स्कूलों से भी बदतर हैं जो कम से कम क्लर्क तो बना देते थे। कुलपतिओं और रजिस्ट्रारों को रु ८००००/- या एक लाख वेतन लुटाने से क्या लाभ ?
आजकल मीडिया के माध्यम से विश्वविद्यालय विलम्ब से परीक्षा परिणाम निकलने का ठीकरा प्राध्यापकों के सिर पर फोड़ रहें है कि वे समय पर काम नहीं करते हैं , सरकार भी उनकी हाँ में हाँ मिलाती है क्योंकि दोनों का उद्देश्य युवा पीढ़ी को बर्बाद करना है .अप्रेल २००८ में सेमेस्टर प्रणाली लागू करने के लिए बरकतुल्ला विश्वविद्यालय भोपाल में प्राचार्यों कि बैठक की गई थी . उसमें मैं भी उपस्थित था । मैंने कहा की पी जी डी सी ए की परीक्षा में कुछ सौ छात्र होते है ,उसके दो सेमेस्टर का परीक्षा फल ये एक वर्ष के स्था न पर दो वर्ष में निकाल पाते हैं ,ये हजारों छात्रों का परीक्षाफल समय से कैसे निकाल पाएंगे ? मैंने पूछा की एक परीक्षा में तीन से साढ़े तीन महीने लग जाते हैं .दो परीक्षाओं में सात महीने लगेंगे । छुटिया और त्यौहार भी आएँगे , पढाई कब होगी ? रजिस्ट्रार से इसका हल पूछा गया , उन्होंने प्रमुख सचिव- आयुक्त के आतंक के कारण या अंदरूनी मिलीभगत के कारण कह दिया कि वह एक माह में परीक्षा करवाकर समय पर रिजल्ट दे देंगे । उसके बाद इन्होने दो सेमेस्टर के अलावा पुरानी वार्षिक परीक्षाएं भी जारी रक्खीं .शिक्षकों को साल भर परीक्षाओं में , आतंरिक मूल्याङ्कन में , हाजरी का रिकार्ड बनाने में झोंक दिया ताकि वे छात्रों को पढ़ा न सके ,युवा अयोग्य बनते जाएँ और उसका राजनीतिक हल निकाला जा रहा है कि स्थानीय युवाओं को नौकरी में प्राथमिकता दी जाय । प्राथमिकता देने का तो मैं भी समर्थक हूँ ,परन्तु युवाओं में इतनी योग्यता देने में डर क्यों लगता है कि वे प्रदेश ही नहीं ,कहीं भी नौकरी करने कि क्षमता रखते हों । संभवतः इसलिए कि तब वे सरकार और विश्विद्यालयों को मनमानी नहीं करने देंगे .सेमेस्टर परीक्षाओं में एक विषय का एक पेपर होता है .पैसे लूटने के चक्कर में इन्होने दो- दो पेपर रखे .मेरे सुझाव को ठुकरा दिया गया कि एक विषय का एक पेपर रखो ।वार्षिक परीक्षाओं का शुल्क रु ७००/- था .सेमेस्टर में रु.११००/ + ११००/-=रु २२००/- अर्थात प्रति छात्र रु १५००/- अधिक वसूला गया.प्रदेश में यदि ५ लाख छात्र हों तो सीधे-सीधे रु ७५ करोड़ का अतिरिक्त धन प्राप्त कर लिया जायगा बेचारे छात्रों से .इतने ज्यादा पैसे लेकर भी समय पर परीक्षाफल न देने कि क्षति पूर्ती क्यों नहीं दी जानी चाहिए ?इन्ही घपलों और लूट खसोट के कारण सरकार छात्र-संघ के चुनाव करने के नाम पर डरने लगती है .प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के अनुसार विश्विद्यालय शुल्क वसूलता है । समय पर परिणाम देना अन्यथा उसकी क्षतिपूर्ति करना उसी का दायित्व है .

सोमवार, 27 सितंबर 2010

अर्थशास्त्र की भ्रांत अवधारणाएं

Arth_feb10

कामन वेल्थ क्रीडाएं

कामन वेल्थ क्रीडाएं
धन्य -धन्य अंग्रेज हैं ,राजा दियो बनाय ,
जनता का धन लूटने , राह दियो दिखाय ।
राह दियो दिखाय , चलें हम उस मारग पर ,
हो रुपयों का गाँव ,वेल्थ हो कामन जोकर ।
जग में होय हंसाय , देख करतब सर्कस के ,
मनाएं हम आनंद , नहीं हम किसी के बस के ।। १ ।।

धन्य - धन्य कलमाड़ी जी ,धन्य शीला सरकार ,
करम करो कुछ ऐसे , कि मच जाए हा हा कार ।
मच जाए हा हा कार , रुपैये खूब कमाओ ,
चीखें चिल्लाएं लोग , किसी पर तरस न खाओ ,
जमकर हों उत्पात , बनें आयोग अनेकों ।
हम भी बनें सदस्य , मिले कुछ सुविधा हमको ।। २ ।।




रविवार, 12 सितंबर 2010

छात्र-संघ के चुनाव

छात्र-संघ के चुनाव
प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी महाविद्यालयों में चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होंगे । लिंगदोह आयोग ने प्रत्यक्ष चुनाव की बात इस परंतुक के साथ की है की जहाँ क़ानून व्यवस्था की समस्या हो वहां चुनाव पूर्ववत भी कराए जा सकते हैं परन्तु ५ वर्षों में प्रत्यक्ष चुनाव की व्यवस्था हो जानी चाहिए . सरकारी नेताओं के लिए इतना इशारा काफी है. सरकारी नेता छात्रों के चुनाव से इतने भयभीत क्यों हैं , इस पर भी विचार किया जाना चाहिए . सर्व प्रथम चुनाव के दो पक्ष हमारे सामने हैं --१, महान भ्रष्ट और खूंख्वार अपराधी चुनाव लड़कर मंत्री बन सकते हैं .माओवादी ,नक्सली और देशद्रोही आतंकवादिओं से सभी पार्टिओं के नेता चुनाव लड़ने की मनुहार कर रहे हैं .उनसे सुरक्षा व्यवस्था को कोई खतरा नहीं है। तथा २.बेचारे सीधे -साधे छात्र ,जिनसे सरकारों को गिरने का खतरा है .क्या हमारे छात्र , हमारे युवक वास्तव में इतने खतरनाक हैं ? मान लीजिए हैं तो अगले प्रश्न उठते हैं की इन्हें बचपन से खतरनाक किसने बनाया और जिस देश का युवक इतना डरावना है ,उसका बुढ़ापा कैसा होगा ? उक्त प्रश्नों के उत्तर तो समाज को , तथाकथित बुद्धिजीविओं को ढूढने ही होंगे .नहीं ढूढेंगे तो मालूम है क्या होगा ?भविष्य में कुछ उत्साही लोग अन्याय से लड़ने के लिए विद्रोहिओं से जा मिलेंगे और नामांकन से कुर्सी पर बैठने वाले अरुचि या अनिच्छा के कारण चुनाव लड़ेंगे ही नहीं .स्वाभाविक है उन परिस्तिथियों या तो गुंडे- बदमाशों का खुला राज होगा या फिर आतंकवादिओं , माओवादिओं, नक्सलीओं का देश पर कब्ज़ा होगा .इसलिए भारत के गृह सचिव श्री पिल्लई ने कहा है कि नक्सली २०५० से पहले ही कब्ज़ा कर लेंगे. उन्होंने ऐसा क्यों कहा इस पर विचार करने का समय आज किसी के पास नहीं है . लेकिन इतिहास को इससे क्या लेना देना है .समय इतिहास लिखता है आदमी नहीं .इतिहास इन करतूतों को कभी माफ़ नहीं करेगा.
मैं प्रोफ़ेसर रहा हूँ .तीस वर्ष पहले भी छात्र संघ के चुनाव होते थे । सांस्कृतिक कार्यों के समारोह रात्रि भर भी हुए । सारे प्रद्यापक -छात्र -छात्राएं ,उनके परिवार कार्यक्रम का आनंद उठाते थे । तब भी छात्र लड़ते थे परन्तु प्राध्यापकों की बात भी सुनते थे । प्राध्यापक भी छात्रों से स्नेह रखते थे । कहीं अविश्वास नहीं था। धीरे -धीरे शिक्षकों की योग्यता दर किनार करके नियुक्तिया होने लगीं और अब तो शिक्षकों -प्राचार्यों के अनेक पद भरे ही नहीं जा रहे हैं.नेताओं की करतूतों को छात्र समझ न सके, इसलिए नेताओं ने उनमें झगडे करवा कर कोर्ट केस लगवा दिए और चुनाव स्थगित करवा दिए. लेकिन नौटंकी करना नहीं भूले कि
छात्र -संघ का गठन करना है . अतः संघ के पदाधिकारिओं के मेरिट के अनुसार चयन या चुनाव होने लगे.अच्छे नम्बर पाने वाले योग्य नेता होते तो देश में कहीं तो अच्छे नम्बर वाले नेता दिखते .परन्तु यह हिंदुस्तान है जहाँ डा.मनमोहन सिंह चुनाव हार जाते है और फूलन देवी सांसद चुन ली जाती हैं.शिक्षक छात्रों का मनोनयन करके उन्हें पकड़ कर सजे हुए मंच पर बैठते हैं जैसे वे किसी रामलीला या नाटक के पात्र हों .जिन छात्रों में नेतृत्व के गुण हैं उन्हें आगे नहीं आने देंगे , उन्हें कालेज कि समस्याएँ नहीं समझने देंगे तो बड़े होकर वे देश कि समस्याओं को क्या समझेंगे ? अच्छे नंबरों से पास होने वाले तो चुपचाप देश - विदेश कि नौकरियों में लग जाएंगे .
छात्रों से दूर रहने या उन्हें दूर रखने कि बात नहीं सोचनी चाहिए .यदि कानून व्यवस्था कि समस्या है तो उसे सुधारें। कालेजों में पढने का माहौल बनाएं ,व्यवस्था का सामाजिक -मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें , भय और वैर का वातावरण न बनाएं. शासन को शायद अपनी न्याय व्यवस्था पर भरोसा नहीं है या उसे अपने जन विरोधी कर्मो का भय है जिसके कारण वह भयाक्रांत है वर्ना कोई अपने बच्चों से भी डरता है.युवाओं को अनावश्यक रूप से आन्दोलन में मत झोंकिए .यह देश हित में नहीं होगा .ख़ुशी-ख़ुशी चुनाव करवाकर उन्हें रचनात्मक कार्यों में लगाइए.

शनिवार, 22 मई 2010

जवानों एवं पुलिस का मनोबल न गिराएँ

पुलिस पर प्राम्भ से ही अनेक आरोप लगते रहे हैं । पुलिस गड़बड़ी भी करती है। पुलिस के संरक्षण में अपराध फलते - फूलते रहते हैं । फिर भी यह सबकी मजबूरी है कि कोई समस्या आने पर आदमी पुलिस के पास ही जाता है क्योंकि न्याय का मार्ग वही है । बहुत ख़राब कह लें परन्तु अभी भी उनमे बहुत लोग ईमानदार हैं। उन्हीं के कारण सामाजिक व्यवस्था टिकी हुई है। आजकल पुलिस और सुरक्षा बलों पर जिस प्रकार आक्रमण हो रहे हैं वह खेद का नहीं , दुःख और शर्म का विषय है। दुःख का विषय इसलिए कि विभिन्न हमलों में जहाँ अनेक जवान मारे गए हैं , उनसे सहानुभूति तो दूर रही , अनेक लोग , नेता , बुद्धिजीवी , मंत्री आदि उन्हें मारने वालों का ही पक्ष ले रहे हैं और शर्म कि बात इसलिए कि यह हरकत सत्तापक्ष के लोग ही कर रहे हैं । लालू यादव का जो बयान पढने के लिए मिला है कि नक्सली हमले में आम आदमी नहीं मरे हैं और जो पुलिस की मुखबिरी करेगा , उसे वे मारेंगे ही। इसका सीधा अर्थ है कि पुलिस कि मुखबिरी करना एक गंभीर अपराध और उसके लिए हत्या भी उचित है .यदि कोई पुलिस को जानकारी नहीं देगा , अपराधियों के विरुद्ध गवाही नहीं देगा , तो पुलिस न्यायालय में अपराध कैसे सिद्ध करेगी ? अपराध सिद्ध नहीं कर पायेगी तो अपराधी छूट जायेंगे। इससे अपराधियों कि संख्या में वृद्धि होती जाएगी और आज यही हो रहा है . या तो मुकदमों का फैसला ही नहीं हो पा रहा है और होता भी है तो अपराधी छूट जाते है। जिन्हें सुप्रीम कोर्ट फांसी देती है उसे भी ये वर्षों तक सजा नहीं देते हैं। दिल्ली में बटला मुठभेड़ में जिस आतंकी को पुलिस ने मार दिया था उसके घर सहानुभूति व्यक्त करने के लिए केंद्र की सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ने अपने महासचिव दिग्विजय सिंह को भेजा था। दिल्ली में उन्हीं की सरकार है जो कह रही है की मुठभेड़ सही है और आतंकी को मारा गया है। यदि केंद्र की कांग्रेस सरकार जानती है की दिल्ली की कांग्रेस सरकार ने निर्दोष को मारा है और झूठ भी बोल रही है तो उसे बर्खास्त क्यों नहीं किया ? इन सब कारनामों का उद्देश्य है पुलिस का मनोबल गिराना की वह आतंकियों के विरुद्ध भविष्य में कोई कार्यवाही न करें अन्यथा वे हत्या के मामले में फँस सकते हैं ।
शुरू में लग रहा था की गृहमंत्री पी चिदम्बरम नक्सलीओं के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही करने वाले हैं परन्तु अनेक जवानों के शहीद होने के बाद उनके साथिओं ने हल्ला मचाया और वह जिस प्रकार पीछे हट गए ,उससे लगता है की इस अभियान का उद्देश्य जवानों का मनोबल तोडना था की भविष्य में कोई नक्सलीओं के विरुद्ध भूल कर भी कोई कार्यवाही न करे । भारत सरकार पाकिस्तान के आतंकी संगठनों के लिए दिखावटी शोर मचाती रहती है । उसके स्वयं के सीमासुरक्षा बल को कनाडा ने बलात्कार और हत्या करने वाले संगठन के रूप में दर्ज कर रखा है और भारत सरकार ने इसका कोई विरोध भी नहीं किया । इसका भी स्पष्ट अर्थ है की भारत या तो इससे सहमत है या उसे जवानों की प्रतिष्ठा से कुछ लेना - देना नहीं है। यही कारण है कि इन जवानों द्वारा जब भी कश्मीर में कोई उग्रवादी मारा जाता है , सरकार के सहयोगी संगठन , नेता और मीडिया के लोग जवानों के विरुद्ध लामबंद होने लगते हैं । मध्य प्रदेश में अपराधों कि बढती हुई संख्या को देखते हुए गृह मंत्रालय ने अधिक थाने खोलने एवं पुलिस भरती करने तथा उन्हें आधुनिक बनाने के लिए बजट माँगा तो वित्त सचिव ने कहा कि पुलिस और थाने पहले से ही ज्यादा हैं । नए थानों कि क्या आवश्यकता है। संभव है उन्होंने यह धन की कमी के कारण कहा हो और सीधे - सीधे धनाभाव की बात कहने का साहस न कर पा रहे हों क्योंकि इससे सरकार की बदनामी होगी और उसका गुस्सा निकाल रहें हों पर इससे भी पुलिस का मनोबल तो कम होता है कि सरकार उनकी समस्याओं पर ध्यान नहीं देना चाहती है ।
मैं कानपुर में बी एस -सी में १९६७ में पढता था। मेरे मित्र के पिता एक अच्छे स्कूल में शिक्षक थे । वे बहुत अच्छे थे परन्तु थे मार्क्सवादी विचारधारा के । उनके विचार से सरकार जो पैसा गुंडे पालने में बर्बाद कर रही है, यदि उसका उपयोग विकास कार्यों पर किया जाये तो देश को बहुत लाभ होगा।उनके कम्युनिस्ट विचार से सेना , पुलिस आदि के जवान जनता के पैसों पर पलने वाले गुंडे हैं । वह कम से कम साफ़- साफ़ कहते तो थे । आज के नेता अपनी सुरक्षा तो उन्हीं जवानों से कराते हैं और जब उनके हितों कि बात आती है तो उनके विरुद्ध कार्य करते हैं। यदि नेता , मंत्री, तथाकथित बुद्धिजीवी , मीडिया, न्यायलय , मानवाधिकारियों आदि सबकी निगाह में ये दुष्ट और अनावश्यक हैं तो जवानों के सभी संगठन भंग कर देने चाहिए चाहे पुलिस हो या सेना अन्यथा सरकारें उन्हें पूर्ण सहयोग दें और जो व्यक्ति इनका मनोबल गिराने का थोडा भी प्रयास करे उनके विरुद्ध राष्ट्र द्रोह का मुकदमा चलाया जय ,वर्तमान समय कि यही मांग है।

मंगलवार, 4 मई 2010

नक्सली समस्या और समाधान

नक्सली समस्या पर देश में जिस प्रकार बहस हो रही है, उससे लगता है कि इस समस्या पर लोग गंभीर नहीं हैं या उन्हें इस के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं है । मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह फरमाते हैं कि यह राज्यों का मामला है। इसमें केंद्रीय गृह मंत्री चिदम्बरम को परेशान नहीं होना चाहिए । इसके लिए वे चिदम्बरम को जिद्दी भी कहते हैं।अंततः चिदंबरम ने उनकी सलाह मान ली है ।वे इतनी जल्दी मैदान छोड़ देंगे , इसकी आशा नहीं थी। दिग्विजय सिंह इस समस्या को वर्तमान व्यवस्था का परिणाम मानते हैं जबकि वास्तविकता यह नहीं है । मध्य प्रदेश कि यह पुरानी नीति रही है कि जो कमाऊ पूत हों ,सिफारिशी हों , भले ही निकम्में हों उन्हें अच्छे और बड़े शहरों में रखो ,जहाँ वे चाहें और जो सरकारी दृष्टि में बुरे हों ,उन्हें बस्तर में पटक दो अपने आप अक्ल ठीक हो जायगी । बस्तर में जब पोस्टिंग ही निकम्मे या सताए हुए कर्मचारियों की होती रही हो तो विकास कि बात करना बेइमानी है । सरकार को इससे भी तसल्ली नहीं हुई। १९८४ में जाल बिछाया गया । सरकार ने घोषणा की कि जो कर्मचारी बस्तर जायेगा उसे ५०% अधिक डी ए दिया जायेगा । कुछ महीनों बाद वेतन पुनरीक्षण हुए । बस्तर के कर्मचारियों का डी ए नहीं बढ़ाया गया ,पुराना डी ए स्थिर कर दिया गया जो अनेक वर्षों तक उतना ही रहा जबकि प्रदेश के अन्य कर्मचारियों का डी ए बढ़ता गया .सताए हुए लोगों से बस्तर के कितने विकास की उम्मीद करेंगे ? छत्तीस गढ़ अलग हुआ तो राजनीती चली और परायों को वहां भेज दिया गया .वे सरकार का तो कुछ कर नहीं सकते थे जिसकी जैसी इच्छा हुई उसने वैसा काम किया । वहां पहली कांग्रेस सरकार ने भ्रष्टाचार के जो बीज बोए वे अब फल फूल रहे हैं । शिक्षा व्यवस्था चौपट कर दी गई ।खूबसूरत भाषण देकर युवकों को सब्ज बाग दिखाए गए और विकास के नाम पर जंगलों में छोड़ दिया गया । खदानों और जंगलों के ठेके अपने लोगों को दे दिए गए की जितना चाहो लूटो । बैलाडिला खदान का लौह अयस्क जापान को भेजा जाता था । उसकी धुलाई वहीँ की जाती थी । लौह युक्त पानी वहीँ बहा दिया जाता था जिससे वहां के लोगों को खूनी पेचिस और अन्य बीमारियाँ हो जाती थीं .लोग मरें या जियें किसी पर कोई असर नहीं पड़ता था. अब यदि सरकार के पास युवकों के लिए कोई काम नहीं है तो वे कुछ तो करेंगे ही । १९५५ में एक पिक्चर आई थी मदर इंडिया । उसमें दिखाया गया था कि एक साहूकार किसान का जम कर शोषण करता है .किसान का बेटा बड़ा होता है तो उसे एक लड़की समझाती है कि किस प्रकार उनकी सारी जमीन साहूकार ने हड़प ली और उनके मां- बाप को कितना सताया । लड़का डाकू बन जाता है और साहूकार की लड़की को उठा ले जाता है । लड़की को बचाने के लिए मां अपने बेटे को गोली मार देती है। नेताओं ने खुद भी साहूकारों के विरुद्ध खूब भाषण दे दे कर गरीबों के वोट बटोरे , सरकारें बनाईं ,जम कर लूटा। आज आप युवकों को काम नहीं दे सकते , कोई दिशा नहीं दिखा सकते तो उन्हें जो रास्ता दिखेगा ,उसी पर चलेंगे. राष्ट्रीय समस्याओं पर राजनीति नहीं करनी चाहिए । जनता पार्टी की सरकार को परेशान करने के लिए इंदिरा जी ने भिंडरावाले को आगे बढ़ाया था। उसका कितना दुखद अंत हुआ ? हमें इतिहास से कुछ तो सबक सीखना चाहिए ।
नक्सली समस्या उतनी आसान नहीं है जैसा लोग सोचते हैं और कुतर्क करते हैं। सब जानते है कि नक्सली एक राजनैतिक विचारधारा है जो माओ के सिद्धांत , 'आजादी बन्दूक की नली से मिलती है' , से निकली है , इसे वामपंथियों ने पाला - पोसा तथा पूर्व सरकारों की नीतियों ने सींचा है। वर्तमान सरकारें इसका संवर्धन कर रही हैं । आतंकवाद मिटाने के नाम पर व्यय होने वाले धन का कोई हिसाब - किताब नहीं होता है ।ऐसे कोष को कोई नेता - अफसर क्यों बंद करना चाहेगा ?इसी लिए गाँधी जी के देश में हिंसा बढती जा रही है । भय दिखाकर नक्सली ठेकेदारों से , माफिया से और जो पैसे दे सके , उससे धन लेते हैं, गरीबों से आदमी लेते हैं , नेताओं -अफसरों से समर्थन लेते है और अपना प्रभाव बढ़ाते जाते हैं । इस प्रकार इन्हें जीवन , शक्ति और प्रेरणा चीन से मिलती है तथा समर्थन और कार्य क्षेत्र भारत में मिलता है । उनके समर्थक सरकारों में जमे बैठे हैं ।लालू कहते हैं कि नक्सली आम आदमी को नहीं मारता है ,जो पुलिस कि मुखबिरी करेगा उसे क्यों नहीं मारेंगे !दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय में नक्सली विजय पर उत्सव मनाया जाता है सरकार कोई कार्यवाही नहीं करती है , इसी विश्वविद्यालय से निकले अनेक लोग आई ए एस हैं और उच्च पदों पर विरजमान हैं . उनके आतंरिक समर्थन से भी इंकार नहीं किया जा सकता है .दो वर्ष पूर्व एक वामपंथी सांसद बड़े गर्व से टी वी पर कह रहे थे कि बंगाल में भूमि वितरण बहुत अच्छा किया गया है ,इसलिए बंगाल में कोई नक्सली समस्या नहीं है नक्सलीओं की आज वामपंथियो से भले ही लड़ाई दिख रही हो ,परन्तु वामपंथी उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही करने के पक्ष में नहीं हैं . उनके विस्तार के यही कारण है ।कमजोर होने पर समझौता करना और शक्तिशाली होने पर युद्ध करना, नक्सलीओं की युद्ध- नीति का प्रमुख सिद्धांत है जब तक वे अंतिम विजय न प्राप्त कर लें । भारत की वर्तमान सरकारें धन संपत्ति बटोरने वाली योजनाएं बनाने में व्यस्त हैं । नक्सली समस्या पर विचार करने का समय किसके पास है ?यदि केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर विदेशी मदद बंद करवा सकें ,शक्ति का समुचित प्रयोग कर सकें , लोगों में राष्ट्रीय भावना जाग्रत कर सकें , सामाजिक अध्ययन करके वनवासिओं की समस्याओं का उचित समाधान निकाल सकें तथा नेता गण नाकारा पलायन वाद छोड़ कर समस्या के समाधान की चुनौती साहस के साथ स्वीकार करें , तभी इस समस्या का अंत हो सकेगा।

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

बच्चों पर धारा 144


भोपाल में विद्यालयों में धारा १४४ इसलिए लगा दी गई कि कोई बालक - बालिका स्कूल न जा सके क्योंकि कलेक्टर का आदेश है कि गर्मी के कारण विद्यालय १६ अप्रेल से २० जून तक बंद रहें.अभी तक धारा १४४ का उपयोग लोगों द्वारा झगडे फसाद के लिए इकट्ठे होने अथवा बल्बा आदि को रोकने के लिए किया जाता था , अब इसका कार्य बच्चों को स्कूल जाने से रोकने के लिए भी होने लगा है । पता नहीं बच्चे पढ़ - लिख कर सरकार के लिए कौन सी मुसीबत खड़ी कर
दें ! अनिवार्य बाल शिक्षा कानून लागू हुआ नहीं कि उसे रोकने के लिए धारा १४४ कि आवश्यकता आ पड़ी । काम बच्चों को पढाई से रोकना है ,बहाना गर्मी का बना लिया! सरकारी स्कूलों का काम तो बच्चो को पढाई से दूर रखना है , शिक्षकों को स्कूलों से दूर रखना है ,उसके लिए चाहे कोई भी नौटंकी करनी पड़े । प्राइवेट स्कूलों में भी पढ़ाई बंद करवा देंगे तो पढने वाले बच्चे कहाँ जायेंगे ? प्रत्येक कक्षा का वर्तमान पाठ्यक्रम बहुत अधिक है । अभिभावक भारी फीस देंगे और बच्चे पढ़ेंगे भी नहीं ।जो बच्चे गरीब हैं , ट्यूशन नहीं जा सकते, उनका कोर्स कौन पूरा करवाएगा? परीक्षा के समय वे तनाव में आ जायेंगे .कम्पटीशन में वे पिछड़ जायेंगे.क्या यह सरकार उन्हें अच्छी संस्थाओं में मनचाहे पाठ्यक्रमों में प्रवेश दिलाने का वायदा भी करती है ?वायदा कर भी नहीं सकती क्योंकि उसका उद्देश्य है ऐसी पीढ़ी का निर्माण करना है जो २-३ रुपये किलो अनाज पाने के लिए नेताओं का मुंह देखती रहे और इतना कमाए खाए कि उन्हें वोट देने के लिए जिन्दा रहे। सत्ता में बैठे लोगों में थोड़ी भी नैतिकता होती तो स्कूल बंद करने के स्थान पर वहां पानी की व्यवस्था करते, पंखे -बिजली कि व्यवस्था करते,उनके लिए अच्छी बस की व्यवस्था करते.अमेरिका -यूरोप के अनेक हिस्सों में जीरो से २० डिग्री से भी नीचे तापक्रम रहता है , वहां ऐसी सोच वाले लोग पैदा हो जाएँ तो उनका सारा देश ही जम जाये।
इंग्लैण्ड में शिक्षा के बारे में नेहरूजी ने कहा था कि वहां अभिभावक बच्चों की शिक्षा में बहुत कड़ाई रखते है.इतनी गर्मी से डरने वाले लोग होंगें तो सेना में कौन जायेगा, जंगलों में आतंकिओं से लड़ने के लिए पुलिस में कौन भरती होगा ? इसका दूसरा पक्ष है की भविष्य में सेना -पुलिस में वही जायेगा जो स्कूल न जाता रहा हो और उसे इस बात का पता ही न हो कि धारा १४४ क्या होती है ! यदि सभी पढ़-लिख कर कमजोर बन जायेंगे तो राष्ट्र विरोधी ताकतों से ये नेता लड़ने जायेंगे या अफसर जिन्होंने अकूत संपत्ति जमा कर ली है ?
स्कूल शिक्षा विभाग का आदेश है कि बच्चों को स्कूल बुलाकर समारोह पूर्वक पुसतकें बांटी जाएँ । खाऊ - पिऊ विभाग का फरमान है कि गर्मिओं में भी बच्चों को खाना बाँटना होगा .ऐसी स्थिति में धारा १४४ में किसे बंद करेंगे -बच्चों को , उनके मां -बाप को, उन्हें न्योता देने वाले बेचारे गुरुओं को अथवा उन्हें बुलवाने वाले मंत्री -अफसरों को जो धारा १४४ के विरुद्ध कार्य कर रहे हैं। अन्य परिस्थितियों में तो ऐसे तत्वों को तत्काल हिरासत में ले लिया जाता है.
सरकार और उसके अफसरों के पास बहुत से दूसरे जनहित के कार्य भी हैं, उन्हें इस प्रकार के छोटे - छोटे कामों में हस्तक्षेप करना शोभा नहीं देता । माता - पिता ओर शिक्षकों को भी अपने बच्चों कि चिंता होगी। वे पढ़ाई के साथ - साथ उनके स्वस्थ्य कि चिंता भी करेंगे। असुविधा होगी तो वे स्वयं बच्चों को स्कूल नहीं भेजेंगे.अतः इसे स्कूलों पर ही छोड़ देना उचित होगा.

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

हिंसक देश -बंध अपराध हैं

हिंसक देश- बंध अपराध हैं । हिंसा करने के लिए बंध का सहारा लेना लोगों की आदत बनती जा रही है.भारत में मंहगाई के नाम पर दिनांक २७ अप्रेल को देश की अनेक पार्टिओं ने बंध का आयोजन किया.बिहार एवं बंगाल में ट्रेनों को रोका गया ,आग भी लगाई गई लालू, मुलायम, माया ने मंहगाई के विरोध में भारत -बंध का आवाहन किया । संसद में सरकार के विरुद्ध बोले भी परन्तु सरकार के विरुद्ध वोटिंग करके सरकार का साथ दिया कि यह अच्छी सरकार है,बनी रहे. इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि नेताओं को मंहगाई या लोगों की समस्याओं से कुछ लेना देना नहीं है। उन्हें अपनी ताकत दिखाने और हिंसा करने के लिए यह नाटक करना था। यदि वे बिना बंध के तोड़- फोड़ करते तो सजा मिल सकती थी। लोग उन्हें अपराधी मानते उनकी नेता की छवि ख़राब होती अब मीडिया ने उनके समाचार दिए, उनकी फोटो दिखाई लोग बंध नहीं चाहते हैं ।उच्चतम न्यायलय भी बंध करने, लोगों को परेशान करने और हिंसा करने पर आपत्ति कर चुका है ,परन्तु नेता अपनी नेतागिरी के लिए यह सब करते हैं.समाचारपत्र भी लिख रहे हैं कि विरोध का कोई और तरीका होना चाहिए।
स्वतंत्रता आन्दोलन में जब गांधीजी असहयोग आन्दोलन कर रहे थे तो गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने उनसे प्रश्न किया था कि आप जो आन्दोलन कर रहें हैं यदि आजादी के बाद भी लोग सरकार के विरुद्ध इसी प्रकार आन्दोलन करने लंगेंगे तो सरकारें कैसे चलेंगी ? गांधीजी ने कहा कि अभी हम sarkar के विरुद्ध इसलिए असहयोग आन्दोलन करते हैं कि यह विदेशी सरकार है और हमारा शोषण कर रही है आजादी के बाद अपनी सरकार होगी , अपनी सरकार के विरुद्ध कोई क्यों आन्दोलन करेगा ! आज तक अपनी सरकार नहीं बन सकी है. आन्दोलन हो रहे हैं और लोगों के लिए नहीं ,अपनी दादागिरी दिखाने के लिए हो रहें हैं दादागिरी दिखाने के लिए जितनी ज्यादा हिंसा, तोड़-फोड़ होगी, लोगों को जितनी अधिक परेशानी होगी,नेताजी का कद उतना ही बड़ा हो जायगा.यदि सरकार की ताकत हो तो उसे रोक ले। सरकार में बैठे नेता सोचते हैं की हमें क्या लेना देना है लोग परेशान होंगे तो नेताओं और उनके दलों की छवि ख़राब होगी, लोग उनसे नाराज होंगे तो उन्ही का नुकसान होगा.लेकिन यह भी सत्य है की जो अधिक उग्र रूप धारण कर लेता है, आन्दोलन को जितना हिंसक बनाता है ,मंत्री लोग उनसे डरने लगते हैं और उनकी मांगें मान लेते हैं ,इससे यह सन्देश जाता है जितनी हो सके हिंसा करो। पूर्व के अनेक आन्दोलन इसके प्रमाण हैं। इससे भी हिंसा को महत्व प्राप्त होने लगता है दूसरी ओर शांति पूर्ण ढंग से अपनी मांग रखने वालों या जिनकी ताकत कम होती है, उनकी बातें कोई सुनना भी नहीं चाहता है जिससे लोगों में क्रोध भरता जाता है। मन में बैठा यह क्रोध कब और कहाँ प्रगट होगा और किस रूप में होगा , कोई नहीं कह सकता है। वर्तमान व्यवस्था में ऐसे आन्दोलन बढेंगे, कोई खुश हो या दुखी हो।
इस व्यवस्था से मुक्ति का एक ही रास्ता है लोकतंत्र की स्थापना, जिसमे शासन का अर्थ होगा, लोगों की इच्छा से सभी कार्य होना इस व्यवस्था का विस्तृत वर्णन रजतपथ के दिसम्बर - जनवरी '२०१० अंक में दिया गया है।
डा डी खत्री

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

महिला आरक्षण विधेयक व्यावहारिक हो

भारत में महिला आरक्षण विधेयक राज्य सभा में पारित हो चुका है। विधेयक को बनाने वालों, प्रारूप को स्वीकार करने वालों, सदन में प्रस्तुत करने वालों, उसे पारित करने वालों में से किसी ने भी इस बात का विचार नहीं किया कि इसे लागू करने में क्या समस्याएं आएँगी । यदि यह विधेयक इसी रूप में पारित हो जाता है तो इससे अनेक समस्याएं उत्पन्न होंगी जिनमे से एक तानाशाही भी है। विधेयक के अनुसार यह आरक्षण १५ वर्षों के लिए लागू होगा जिनमे से ५-५ वर्षों के लिए ३ ब्लाकों में क्रमशः एक तिहाई सीटें आरक्षित की जायंगी। प्रथम ब्लाक में एक तिहाही सीटें आरक्षित करके सांसद चुने जाते हैं और दो वर्षों के बाद किन्हीं कारणों से संसद भंग करनी पड़ती है तो क्या किया जायगा;
(अ)आरक्षित सीट पर चुनाव जीतने वाली महिला सांसद ५ वर्षों तक सांसद बनी रहेगी ? , या
(आ) सब के साथ उसकी सदस्यता भी समाप्त हो जाएगी ? इस स्थिति में ,
(१)क्या वह सीट अगले चुनाव में ३ वर्षों के लिए पुनः आरक्षित की जायगी अथवा,
(२)अगले चुनाव में अनारक्षित हो जाएगी ?
यदि वह सीट अनारक्षित की जाएगी तो वह महिला सांसद न्यायालय जा सकती है कि उसका चुनाव ५ वर्षों के लिए किया गया है । उसकी सदस्यता २ वर्षों में समाप्त नहीं की जा सकती है.यदि सीट पुनः ३ वर्षों के लिए आरक्षित की जाती है तो उसे ५ वर्षों से पहले नहीं हटा सकते क्योंकि सांसद का कार्यकाल ५ वर्षो के लिए होता है। यदि हटा भी दें तो क्या ३ वर्षों के बाद वहां पुनः चुनाव करवाएंगे तथा अगले ब्लाक में आरक्षण करेंगे । जो सदस्य वहां से चुनकर सांसद बना है , क्या उसे ३ साल बाद हटा पाएंगे? क्या वह कोर्ट नहीं जायेगा?
इस प्रकार ऐसी अनेक स्थितियां उत्पन्न होंगी कि मुक़दमे दायर होंगे जिनके निर्णय नहीं हो सकेंगे क्योंकि विधेयक में ऐसे प्रावधान नहीं किये गए हैं। निर्णय नहीं होंगे तो यथा स्थिति बनी रहेगी और निर्णय न आने तक चुनाव नहीं हो सकेंगे। ऐसी स्थिति में जो लोग केंद्रीय मंत्रिमंडल में होंगे वे अपनी हुकूमत चलाते रहेंगे । परिणाम स्वरुप उनकी तानाशाही चलने लगेगी तथा आज जो चुनाव हो रहे हैं , वह भी नहीं हो पाएंगे। इसलिए विधेयक में उक्त प्रावधान स्पष्ट होने चाहिए।

डा ए डी खत्री ,भोपाल, मध्य प्रदेश , भारत .Bold

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

रविवार, 25 अप्रैल 2010

सांसदों के वेतन भत्ते

सांसद राजीव शुक्ला का लेख 'सांसदों के वेतन भत्ते ' पढ़ा । वेतन बढ़ाने के लिए इतनी सफाई देने की क्या जरुरत है ? यही एक ऐसा काम है जिसमें सब सांसद एक मत हैं .सचिव से एक रुपया ज्यादा मिले । यह जलने वाली कौन सी थ्योरी है । सचिव तो सिर्फ काम करता है, सांसदों को तो संसद में लड़ना- झगड़ना भी पड़ता है । उन्हें तो बहुत अधिक वेतन मिलना चाहिए। शुक्ला जी ने अनेक खर्चे गिनवाए, यह तो गिना ही नहीं की चुनाव लड़ने में ३ से ५-१० करोड़ रूपए भी खर्च होते हैं । अगर सांसद बेचारे इतने तंग हाल हैं तो देश सेवा के और रास्ते भी हैं। सांसद बनना ही जरुरी क्यों है ? शुक्ला जी ने विकसित देशों के सांसदों से भत्तों की तुलना की है। उन्होंने यह नहीं बताया कि क्या वहां भी ४० करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं ? क्या वहां भी लोगों को बूढ़ा होने तक दैनिक वेतन भोगी के रूप में रखा जाता है ? क्या वहां अपढ़ लोग भी, माफिया भी सांसद चुने जा सकतेहैं ? क्या वहां सांसद चर्चा के समय अपने - अपने व्यवसाय करने चले जाते हैं और संसद खाली रहती है ? शुक्ला जी , आप तो विद्वान हैं । तुलना करें तो पूरी तरह से करें ।

रजतपथ जन आन्दोलन है

भारत एक साधन संपन्न देश है. यहाँ पर योजनायें अच्छी बनती हैं परन्तु उनका क्रियान्वित अच्छी प्रकार नहीं हो पाता है. परिणाम स्वरुप समस्याएं उत्पन्न होने लगती हैं. वह सुरक्षा व्यवस्था हो, उद्योग हो, शिक्षा हो, स्वस्थ्य हो, कृषि हो या अन्य कोई क्षेत्र. अनेक समस्याओं में सबसे बड़ी समस्या है की व्यक्ति अपनी समस्या को ही समस्या मानता है. उसे दूसरों की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं है. अतः एक समस्या का समाधान होता है, अनेक नई समस्याएं उत्पन्न हो जाती है. उदाहराण स्वरुप सरकार के पास धन की कमी हो रही है. विनिवेश की चर्चाएँ हैं. विनिवेश का अर्थ है देश की सरकारी कम्पनियां, बैंक, सड़कें, नाहर, रेलवे, जहाज आदि सब कुछ बेचना. सामान्य व्यक्ति समझता है की कोई अपने घर का सामान तभी बेचता है जब खर्चे चलने के लिए उसकी आय कम होती है और उसे उधार लेना पड़ता है ....

पूर्ण पत्रिका पढ़ें -

Rajatpath_July2009