रविवार, 8 दिसंबर 2013

लोकतंत्र का सुअवसर

                                                लोकतंत्र का सुअवसर 

 लोकतंत्र में पक्ष-विपक्ष के आरोप- प्रत्यारोप चलते रहते हैं।  उसके साथ ही शासन भी चलता रहता है।  भारत में अभी तक दो स्थितियां उत्पन्न हुई हैं -पहली , एक दल को बहुमत प्राप्त होने पर मंत्री मंडल बनाना और दूसरा,  किसी दल को बहुमत न मिलने पर सांझा मंत्रिमंडल   बनाना।  वर्त्तमान में भारत में लोकतंत्र जैसी कोई चीज़ नहीं है।  यह नव-सामंतवाद या प्रजातान्त्रिक सामंतवाद है जिसमें प्रजा अपने सामंतों को चुनकर शासन का अधिकार देती है और अगले चुनाव तक ये सामंत मिल-बांटकर अपनी-अपनी इच्छानुसार भ्रष्टाचार करते रहते हैं। जनता दूर से टुकुर-टुकुर देखती रहती है।  हाँ, भ्रष्टाचार में वे प्रजा को भी सम्मिलित कर लेते हैं और उन्हें मुफ्त के घर,प्लॉट, बिजली,खाना तथा घरेलू  सामग्रियां जनता से प्राप्त कर से बांटते रहते हैं।  देश भविष्य में कहाँ जाएगा , इन्हें इसकी चिंता नहीं होती है। परन्तु इस चुनाव में दिल्ली में जो त्रिशंकु स्थिति उत्पन्न हुई है , वह  इस बात का सुअवसर दे रही है कि लोकतंत्र में प्रवेश किया जाय।  
      दिल्ली में किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं है और गठबंधन या समर्थन भी सम्भव नहीं है।  ऐसी स्थिति में एक ही विकल्प बचता है कि बड़ी पार्टी भाजपा सत्ता में बैठे और आप पार्टी विपक्ष में।  प्रथम बहुमत सिद्ध करने के लिए आप अपना लोकायुक्त का मुद्दा उन्हें प्रस्तुत करने के लिए कहे और उसका समर्थन करे।  यदि दोनों का उद्देश्य जनता का भला करना है तो टकराव कहाँ है ? यदि भाजपा आप के प्रस्तावों को स्वीकार नहीं करती तो सदन में बिल ही पास न होने दे।  इस प्रकार मिलकर पक्ष-विपक्ष के सहयोग से काम करना लोकतंत्र की विशेषता होती है और उसमें व्यक्तिगत मनमुटाव का कोई अर्थ नहीं होता है। 
     आप की उत्पत्ति देश के दिग्गज सामंतों की चुनौती के परिणाम स्वरूप हुई है।  जिस बिल को ये सामंत चाहते है , उसमें भले ही करोड़ों रुपयों का व्यय हो , ये अध्यादेश लाकर लागू करवा देते हैं और जो काम न करना  हो , उसके लिए कह देते हैं कि यह तो संसद से ही पारित हो पायेगा और उसमें ऐसी खुराफात कर देंगे कि वह  बिल संसद के पटल तक ही न पहुँच सके। पेट्रोल-डीज़ल के दाम बाज़ार के हवाले करने हों या गैस सिलिंडर कम करने हों , संसद की सहमति किसके लिए ली गई है ? अन्नाहजारे और अरविन्द केजरीवाल के जनलोकपाल की मांग पर कांग्रेसी नेताओं ने कहा कि क़ानून सड़क पर नहीं , संसद में बनता है।  वे संसद में जाएँ और बिल बनवाएं।  इन्ही सामंतों ने निर्लज्ज्ता से या भी कहा कि पार्षद का चुनाव जीत कर देखें , उन्हें सब समझ आ जायगा।  अरविन्द केजरीवाल ने उस चुनौती को स्वीकार किया और न चाहते हुए भी राजनीतिक दल बनाया।  परिणाम सबके सामने है।  जनता ने आप को व्यापक समर्थन दिया है , आप को भी उस विशवास को बनाए रखना चाहिए। 
     प्रजातंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी उसकी अफसरशाही होती है।  कांग्रेस के भ्रष्ट शासन में १५ वर्षों से आनंद मनाने वाले घाघ अफसर और कर्मचारी केजरीवाल के आते ही ईमानदार हो जायेंगे , आप को ऐसा भ्रम नहीं पालना चाहिए।  भ्रष्ट आदमी अवसर  को अपने अनुकूल बनाने के लिए कितनी चापलूसी करते हैं , ये आप के अन्य नेता अभी नहीं समझ सकेंगे।  अचानक सत्ता संभालने के बाद उन्हें काम तो उसी भ्रष्ट अफसरशाही से लेना होगा।  कितने लोगों को इधर से उधर करेंगे ?  जब वे स्वीकार करते हैं कि वे सक्रिय विपक्ष की भूमिका निभाएंगे तो यह तभी सम्भव होगा जब सत्ता पक्ष होगा।  यदि दिल्ली में कोई शासन व्यवस्था नहीं बनती है तो  वे विपक्ष की भूमिका कहाँ और कैसे निभाएंगे ?इस बात की गारंटी कौन देगा कि अगली बार किसी को स्पष्ट बहुमत मिल जायेगा ? इसलिए यदि  उनका उद्देश्य काम करना है तो विश्वास  का वातावरण बनाते हुए वे अपने कार्यक्रम को क्रियान्वित करने की ओर  आगे बढ़ें  और राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दें।