सोमवार, 25 मार्च 2013

शरारती गोलू


   शरारती गोलू 


अच्छी है भारत सरकार ,
बच्चों का क़ानून बनाया.
बच्चे बहुत हैं प्यारे होते,
‘उनकोनमारें’ नियम बनाया
बड़ा ही नटखट गोलू था ,
पिज्जा बर्गर वह खाता था,
रोटी-सब्जी अच्छीन लगती  
नूडल-मैगी उसे भाता था.
कार्टून टी वी पर वह देखे,
कंप्यूटर पर रहता बैठा ,
गोल-मोल वह होता जाता ,
सदा ही रहता ऐंठा ऐंठा .
दूध-दही अच्छे नहीं लगते  
मीठे का था वह शौक़ीन
चिप्स का पैकेट उसे चाहिए
स्वादयुक्त हों सब नमकीन
मोटा वह होता जाता था
अन्दर से था पोलमपोल
पढने-लिखने से चिढ़ता था
बुद्धि हो गई उसकी गोल
स्कूल जाना अच्छान लगता
 माता थी स्कूल भिजवाती
स्कूलमें जाकर ऊधम करता
 टीचर भी उसको समझाती
 मम्मी गन्दी,टीचर गन्दी
पढने को क्यों कहते हैं
उसको बहुत क्रोध आता था
उसे क्यों नहीं समझते हैं .
गोलू जब कच्छा में आता
बच्चों को बहुत सताता था टीचरकी वह बात न सुनता  
बच्चों को बहुत रुलाता था.
उससे तंग आकर माता ने
एकदिन कर दी खूब पिटाई  
टीचर ने भी उसको कूटा
उसने थाने में रपट लिखाई.
पुलिस ने मां–टीचरको डाटा
रक्षाकरने इक पुलिस लगाईं  
घर-बाहर हुआ मस्त गोलू
उसने सबकी नींद उड़ाई .
लोगजब उसकीरपट लिखाते     
थानेदार चुप बैठा रहता
सरकारी क़ानून बनाया ऐसा
वह गोलूको कुछनहीं कहता
बच्चे से गोलू बड़ा हुआ
परेशां सभी को करता था
छीना-झपटी , गाली देता
किसीसे वह नहीं डरता था.
गोलू अब बच्चा नहीं रहा
जैसेही पुलिसको याद आया  
गोलूको पकड़ के बंद किया
सींखचों के पीछे पहुंचाया .
गोलू जब जेल में बंद हुआ
कई गोलू उसको वहां मिले
सिरदर्द बने थे वे सबके
नेता-गुंडों के भाग्य खिले .
अभिभावक सबके रोते थे
घर के चिराग बर्बाद हुए
उलटे क़ानूनकी उपज थे ये
क्या इसीलिए आजाद हुए?
बच्चोंका शुरू से ध्यान करें
पौष्टिकआहार उन्हें नित दें
अच्छी बातें सिखलाएँ उन्हें
अभिभावक उनकोभी समझें
बच्चे इस देश के वारिस हैं
प्यार से अच्छी शिक्षा दो
गलती पर डांटना बुरा नहीं
उनकी रूचिकाभी ध्यानकरो. 

मंगलवार, 19 मार्च 2013

म.प्र. उच्च शिक्षा विभाग के तुगलकी आदेश


                 म.प्र. उच्च शिक्षा विभाग के तुगलकी आदेश
   म.प्र.का उच्चशिक्षा विभाग तुगलकी आदेश निकालने में सिद्ध हस्त है .अभी एक आदेश निकाल दिया कि सीधी भरती से नियुक्त प्राध्यापकों का वेतन आधा करेंगे .भला क्यों ? क्योंकि यह हमारी मर्जी .इनसे कोई पूछे कि जब आप नियुक्तियां दे रहे थे , उस समय जो वेतन देना शुरू किया , तब आपको यह नहीं पता था कि वेतन कितना दिया जाना चाहिए ? इस से एक बात तो साफ़ हो जाती है कि उच्च शिक्षा विभाग के अधिकारी , आयुक्त, प्रमुख सचिव तथा स्वयं मंत्री महोदय भी बड़ी-बड़ी बातें करके उच्च शिक्षा की  गुणवत्ता बनाने के चाहे कितने ढोल पीट लें , उन्हें अपने विभाग में कार्यरत कर्मचारियों , अधिकारियों , शिक्षकों के पद ,उनके काम और उनके वेतन के बारे में कुछ भी ज्ञान नहीं होता  है . जब इन्हे वर्तमान का ही अता  पता नहीं है तो इसका इतिहास- भूगोल क्या पता होगा .एक बार एक महाविद्यालय  के कार्य क्रम में उच्च शिक्षा कि अतिरिक्त मुख्य सचिव अपना विद्वता पूर्ण उद्बोधन दे रहीं थीं . उन्होंने शिक्षकों को व्याख्याता कहा . उन्हें यह ज्ञान ही नहीं था कि व्याख्याता महाविद्यालयों में नहीं विद्यालयों में होते हैं . यह वैसे ही था जैसे शासन के सचिव या वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी  को कोई डिप्टी कलेक्टर कह दे .उनको ज्ञान देने का साहस कौन करता  ?
     भारत में पहले महाविद्यालयों में व्याख्याता और रीडर होते थे तथा विश्वविद्यालयों में उससे बड़े,  प्राध्यापक होते थे . रीडर का अर्थ था कि वे स्नातकोत्तर विभागों के मान्य (कार्यवाहक नहीं) विभागाध्यक्ष होंगे .परन्तु म.प्र. में १९७० के पहले से ही स्नातकोत्तर विभाग के अध्यक्ष को प्राध्यापक पदनाम दे दिया गया था . १९७६ में यू जी सी लागू करने के लिए हड़ताल करनी पड़ी थी . सरकार वेतन मान तोड़-मरोड़ कर  दे रही थी . उसमें महाविद्यालयों में सिर्फ व्याख्याता का पदनाम ही दिया गया था परन्तु सरकार ने उनमें फूट डालने के लिए प्राध्यापक का पदनाम जारी रखकर उनको व्याख्याताओं से फोड़ लिया . १९८६ में यू जी सी
वेतनमान में शिक्षकों के पदनाम सहायक प्राध्यापक , सहायक प्राध्यापक (वरिष्ठ श्रेणी ) , सहायक प्राध्यापक(प्रवर श्रेणी )रखे गए परन्तु म.प्र.में उसके आगे प्राध्यापक का पुराना रुतबा भी बरकरार रखा गया .उस समय स्नातकोत्तर के अलावा स्नातक स्तर पर भी  प्राध्यापक बनाए जाने लगे . वेतन सहायक प्राध्यापक(प्रवर श्रेणी ) तथा  प्राध्यापक के सामान थे . परन्तु यह परिभाषा दी गई कि ये असली प्राध्यापक नहीं हैं सिर्फ सहायक प्राध्यापक(प्रवर श्रेणी ) से थोड़े वरिष्ठ हैं . पुराने प्राध्यापकों के पद पूर्ववत बने रहे .इनके अलावा पहले से ही म.प्र.में सीधे भरती से भी प्राध्यापक नियुक्त होते थे जिनका रुतबा अधिक रहता था . प्राचार्य पद पर पदोन्नति के लिए सीधे भरती से आने वालों के लिए २५% पद आरक्षित रहते थे . अतः वे बड़ी जल्दी पदोन्नत हो जाते थे . सरकार इन मेल-मेल के प्राध्यापकों में मौका मिलते ही वरिष्ठता के झगड़े  करवाने और उन्हें मुक़दमे बाजी में उलझाने में माहिर रही है .ऐसा अनेक बार होता आया है कि जो लोग पहले व्याख्याता या सहायक प्राध्यापक तक नहीं बन पाते थे ,वे प्राध्यापक की सीधी भरती में सफल हो जाते थे.
    जब म.प्र. सरकार ने प्रारम्भ से ही यू जी सी के पदनाम से हटकर रीडर के ऊपर अपना एक प्राध्यापक का पद चला रखा है तो अब अचानक यू टर्न लेने का क्या अर्थ है ? किसी का वेतन मान एक झटके में आधा कर देना क्या यह नहीं दर्शाता कि उच्च शिक्षा विभाग में कोई नियम –क़ानून नहीं है ? सरकार के इस आदेश से यह तो पूर्णतयः स्पष्ट हो गया है कि उच्च शिक्षा विभाग प्रारम्भ से अब तक अज्ञानी लोग चला रहे थे या अब अज्ञानी लोग घुस आये हैं .
भ्रष्टाचार के इस युग में इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि पहले यदि तथा कथित अधिक वेतन दिया गया हो तो उसका कारण वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा नव-नियुक्त प्राध्यापकों से कमीशन लेते रहना हो और जब उन्होंने एका  करके कमीशन देना बंद कर दिया हो तो यह शिगूफा छोड़ दिया हो क्योंकि कोई किसी को अधिक सरकारी धन क्यों देने लगा   स्थानान्तरण के समय  तो ऐसे किस्से  सुनाई देते रहते हैं .

सोमवार, 18 मार्च 2013

रामराज्य , जागो , देश के प्यारों जागो


रामराज्य

सत्यवचन, जनभावना, तदनुसार हों काम ,
भय,आतंक निवारिये, यही राम के नाम.
दैहिक,दैविक ,भौतिक तापों से , मुक्त हों सब इंसान ,
निज स्वार्थ को त्यागिये , सबका कीजिये सम्मान .
सुन्दर बनें विचार ,कभी न लोग दुखी  हों ,
राम राज्य का अर्थ ,कि सब संपन्न- सुखी हों .
स्वार्थ , लोभ,भय, ईर्ष्या ,भूख,प्यास,अज्ञान ,
स्नेह,सुरक्षा , क्रूरता ,सब जीवों में एक सामान .
 सब जीवों में एक सामान, प्रेम,वासना और निद्रा,
पशु न जाने बोल ,भविष्य,योजना और मुद्रा .
बस भरता जाए पेट ,विपदा में रहे बेचारा ,
कर सके न कोई प्रयास ,भाग्य बस एक सहारा
.जिनमें है विद्या नहीं ,न ताप ,न दान विचार ,
बोझ बने हैं धरती पर ,उन लोगों को धिक्कार .
उन लोगों को धिक्कार,जो लगते मानव जैसे ,
न कर्म, न कोई विचार ,मनुष्य बनें वे कैसे .
बुद्धि,ज्ञान करुना क्षमा , साहस, सहयोग-विचार ,
सच्चा मानव उन्हें मानिए ,वसुधा जिनका परिवार .
उन्माद,शत्रुता,आक्रमण, विस्फोट,विध्वंस ,संहार,
राक्षसों के ये कर्म हैं ,संस्कृति पर करें प्रहार .
संस्कृति पर करें प्रहार, वे मानवता के दुश्मन ,
हत्याएं लूट-विचार ,प्रफुल्लित हो उनका मन .
छोटेराक्षस रहें छिपकर,प्रतीक्षा वे अवसरकी करते,
महा राक्षस होते मायावी,वे सत्ता में बैठ विचरते.
विश्व का इतिहास है ,इस तथ्य का प्रमाण ,
विध्वंस-कर्म न रोक सके ,जनता का कल्याण.
जनता का कल्याण है देव शक्ति की जीत ,
विद्या,ज्ञान,सेवा,उत्साह,जनहित-कर्म,संगठनऔर प्रीत.
स्वार्थभाव से रहित निरंतर काम जो करते ,
ईश्वर देता है शक्ति ,प्रगति की सीढ़ी चढ़ते .

जागो ,देश के प्यारों जागो
यह देश तुम्हें पुकार रहा है   
गद्दार तुम्हें ललकार रहा है .
गद्दारों ने हैं जाल बिछाए
अच्छे –अच्छे उसमें फंस जाएँ.
स्वयं को जो सरकार हैं कहते जमकर भ्रष्टाचार हैं करते .
ये सब गद्दारों के रक्षक
रक्षक इसी लिए बने हैं भक्षक .
कोई संतुष्ट नहीं दिखता है
सब वर्गों में कष्ट मिलता है.
यह कैसी शासन पद्धति है
जिसमें जन की नहीं सम्मति है.
यह कैसा गणतंत्र बनाया
यह कैसा क़ानून बनाया  .
लूट खसोट स्वयं स्वीकृत है
उसके विरोधकी  नहीं अनुमति है
किसका यह देश कोई न जाने
अपने ही लोग बने अनजाने .
तुम अपनी ताकत पहचानो
अहित कार्य को कभी न मानो .
जिनसे देश के टुकड़े होते
ऐसे क़ानून बनाए किसने .
तुम अपनी आत्मा  से पूछो
पग-पग पर शूल उगाये किसने.
जागो देश के प्यारों जागो
डटे  रहो पीछे न भागो  
तुम ही मालिक हो बस्ती के
तुम ही राजा इस धरती के .
तुमको लोकतंत्र है लाना
रामराज्य को पुनः बनाना.





  

शैतान दिमाग


शैतान दिमाग
बड़ी ख़ुशी से ले ली हमने ,
सुन्दर सी इक कार .
पंजीयन उसका करती है ,
मध्य प्रदेश सरकार  .
हजारों रुपये शुल्क के लेते,
 पंजीयन  में नखरे करते  .
एक माह नंबर नहीं देते ,
नंबर देते रसीद रख लेते .
रसीद मिलीतोपंक्ति लगाओ
प्लेट लगाने परेशां करते ,
आफिस केबाहरजामलगाते
ट्रैफिकपुलिसको नहीं बुलाते.
ट्रक, ऑटो,कारें ले आओ
जैसे चाहो ,पार्क कराओ ,
आगे – पीछे नंबर बंटवाओ
  
खिड़कीपर सबको उलझाओ.
गरीबों को तो अनेक सताते
कारोंवालों को क्लर्क नचाते,
जनकष्टों के किस्से सुनकर
मंत्री-अफसर बहुतसुख पाते.  
यह है दलालों का शासन या शासन कि दलाली है ,
प्लेट लगाने की यह रीति
पूरी दुनियां में निराली है.
मित्र कंपनी को ठेका देकर
सबको लाइन में झोंक रहे ,
जल्दी काम कराना हो तो सरकारी दलाल हैं घूम रहे.
 निजी प्लेट पहले लगवाओ
फिर आरटीओकेचक्र लगाओ
 प्लेट बिना भारी जुर्माना
शिकंजे से मुश्किल बचपाना
पंजीयनकार्ड फिरभी नहींदेते
 उसके लिए सताते रहते .
आरटीओजाओ डाकघरजाओ
लौट-लौट के घर को आओ.
बिना कार्ड लेते जुर्माना
बचना हो तो घूंस खिलाना,
टैक्स लेकर भीपेट न भरता
शैतानदिमाग सदादुःख देता    
मंत्री जी पर जाऊं वारा 
दुखी करनेका ढंग है न्यारा
सत्ता पर जबतक है कब्जा
‘कष्ट बढाओ’,यही है नारा.
भागना चाहे ,भाग सके न
आफत में है अटकी जान   
गाड़ी का सुख लेना है तो
सर्वस्व उन्हें तू मान .

मंहगाई का अर्थ शास्त्र


                                     मंहगाई का अर्थ शास्त्र

     वर्तमान में भारत में जो अर्थ शास्त्र चल रहा है , वह मंहगाई का अर्थ शास्त्र है . यह मंहगाई  का अर्थशास्त्र इसिये कहा जाता है कि इसका उद्देश्य ही महगाई बढ़ाना है . जो लोग समझते हैं की भविष्य मे कभी मंहगाई कम हो जायगी तो यह उनकी भूल है . इसी का दूसरा नाम है पूंजीवादी अर्थशास्त्र अर्थात निरंतर पूँजी बढ़ाते जाओ . मंहगाई बढ़ने का अर्थ है पूंजीवादी कि पूँजी बढ़ना . सुधारवाद का भी यही अर्थ है कि अमीरों कि पूँजी निरंतर बढती जाये . दुनिया के अनेक उन्नत कहे जाने वाले देशों ने इसे अपनाया है और अब भारत भी वही सब कर रहा है जिससे भारत में भी पूंजीवादियों और पूंजीपतियों कि संख्या तेजी से बढती जा रही है .
     भारत में डा. मनमोहन सिंह इसके प्रणेता हैं . भारत में कम्युनिस्टों के साथ मिलकर इंदिरा गाँधी ने समाजवादी व्यवस्थ लागू की थी . जब उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो यही दलील दी थी  कि पूँजीवादी लोग बड़े दुष्ट होते हैं . वे गरीबों का शोषण करते हैं . निजी बैंक पूंजीपतियों और जमाखोरों को उधार में धन देते है जिससे वे सामानों को खरीद कर भंडारों में जमा कर लेते हैं और काला बाजारी कर के भारी मुनाफा कमाते हैं . उनके समय में उद्योगपति और व्यवसायी देश और समाज के दुश्मन समझे जाते थे . इसलिए उस समय कांग्रेस के सहयोगी कम्युनिस्टों ने श्रमिक संघों के द्वारा सरकर  पर दबाव डाल कर ऐसे श्रमिक क़ानून बनवाये कि देश में सदियों से चले आ रहे उद्योगपतियों के आलावा कोई सर उठा ही न सके . वे इसलिए चल पा रहे थे कि नेताओं को आये दिन धन देते रहते थे . धन खाने के दूसरे साधन थे सरकारी विभाग और सहकारी संस्थाएं . उस समय जनता अपनी गाढ़ी कमाई से जो धन कर के रूप में सरकारी कोष में जमा करती , सरकारी चोर उन्हें खा जाते जिससे देश का धन धीरे-धीरे समाप्त होता गया .भ्रष्ट  नेता – अफसर – कर्मचारी बिना कोई उत्पादन किये , बिना कोई व्यवसाय किये  ही पूंजीपति बनते गए . ये लोग १९९० तक देश का सारा धन चट कर गए और सरकार  चलाने के लिए देश का सोना विदेश में गिरवी रखना पड़ा . वह थोडा सा धन भी कब तक चलता ? काम चलाने के लिए सरकार नोट भी छापती गयी जब कि उतना धन कोष में नहीं था . परिणाम स्वरूप रुपये का मूल्य घटता गया . सामान खरीदने के लिए अधिक रुपये लगने लगे अर्थात मंहगाई बढ़ने लगी . अपने देश में अनेक आधुनिक मशीनों , उपकरणों जहाज़ों , युद्ध सामाग्रियों आदि का उत्पादन होता नहीं था . उन्हें खरीदने के लिए धन कहाँ से आता ? विदेशी लोग हमारे  कागज़ के रूपये पर सामान क्यों देने लगे . देश का सोना भी गिरवी में रखा हुआ था तो कर्जा किस आधार पर मिलता ? ऐसी हालत में एक व्यक्ति गुजारा कैसे चलाता है ? उसे घर का सामान बेचना पड़ता है . जब इंदिरा – राजीव दोनों नहीं रहे  और नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री तथा डा. मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने तो जिंदगी भर इंदिरा – राजीव के समाजवाद की  हाँ में हाँ मिलाने वाले अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह पलट गए और उन्होंने खुली अर्थ व्यवस्था अर्थात जिसे जैसा अच्छा लगे करे और धन कमाए तथा देश की  जमा पूँजी जो सरकारी कंपनियों , प्राकृतिक संसाधनों के रूप में शेष थी , को बेच कर धन प्राप्त करने का विदेशियों का सुझाव मान लिया . धन आने लगा और सरकार चल पड़ी . वर्षों से सरकार लोगों को पूँजी पतियों के भूत से डराती आ रही थी , अब अचानक पूंजीवाद का गुणगान कैसे करती? अतः उन्होंने संविधान से ‘समाजवादी ‘ शब्द तो नहीं हटाया पर पूँजी वाद लागू कर दिया और उस पर जनकल्याण का लेबल लगा दिया कि नेता भी खाएं , अफसर – कर्मचारी भी खाएं और जनता भी खाए . जिसका जितना जोर हो वह उतना खाए . जैसे जो जमीन पर कब्ज़ा कर ले , जमीन उसकी , जो नौकरी पर कब्ज़ा कर ले नौकरी उसकी , जो गरीबी का कार्ड बनवा ले सारी  सुविधाएं उसकी . कुल मिलाकर जो जैसा हथकंडा अपना ले, लूट उसकी .  इस अर्थ शास्त्र का परिणाम यह निकला कि देश में संत्री से मंत्री तक सभी मालामाल होते गए और देश बेहाल होता चला गया . अब  डा. सिंह को देश को यह समझाना पड़  रहा है कि  विदेशी  धनवान  आकर ही देश को चला पायेंगे . इंदिरा गाँधी पूँजी पति नाम के जिस भूत का नाम लेकर लोगों को डराया करती थी और लोग उसके डर के कारण उसे वोट देते जाते थे  अब वर्तमान कांग्रेसी सरकार लोगों को किसी दलाल नाम के खतरनाक जंतु का नाम लेकर भयभीत कर रही है और उससे निपटने के लिए महान विदेशी पूंजीपतियों को , जो अपना देश तबाह कर चुके हैं , भारत बुलवा रही है . पहले  कांग्रेसी विपक्षियों को पूंजीपतियों का दलाल कहते थे और अब दलालों का दलाल कह रहे हैं क्योंकि पूंजीपति अब  कांग्रेस के हितैषी हो गए हैं , अत्यंत प्रिय हो गए हैं . इसलिये सरकार उनकी पूंजी बढाने का  हर सम्भव प्रयत्न कर रही  है. उनकी पूँजी तभी बढ़ेगी जब वस्तुएं मंहगी होंगी अर्थात मंहगाई बढ़ेगी . इसलिए जब सरकार का कोई मंत्री या तथाकथित अर्थशास्त्री मंहगाई कम करने कि बात करता है तो यह मान कर करता है कि जनता मूर्ख है और उसे निरंतर बहलाना,फुसलाना और हसीं सपने दिखाना संभव है .लेकिन जब जनता जागती है तो फ़्रांस जैसी क्रांति करती है अथवा पश्चिम एशियाई देशों के समान उथल- पुथल .   
     


कल्याणकारी सरकारों का सच :बजट की भूलभुलैया कब तक


        कल्याणकारी सरकारों का सच :बजट की भूलभुलैया कब तक
  किसी व्यक्ति , कंपनी या सरकार के बजट का एक ही अर्थ है कि आय कितना है और व्यय कितना है . यदि आय आय अधिक और व्यय कम है तो जिंदगी आराम से चलती रहती है . यदि आय कम है तो अधिक खर्च के दो रास्ते हैं – आय बढाएं या उधार लें  और यदि साख नहीं है तो गिरवी रख कर कर्ज लें अथवा घर का सामान बेचें .राष्ट्र के सम्बन्ध में सामान बेचने का अर्थ है सरकारी कम्पनियाँ बेचना और प्राकृतिक संसाधन बेचना जैसे खदानें , नदियाँ ,बंदरगाह, वन  ,भूमि आदि .इससे सरकार कि आय और कम होती जाती है .व्यक्ति ,कम्पनी और सरकार ,सभी स्तर पर यदि कर्ज लेने का उद्देश्य आय में वृद्धि करना है ,तब तो भविष्य में कर्ज चुका दिए जाते हैं , स्थिति अच्छी होती जाती है परन्तु यदि कर्ज का उद्देश्य अनावश्यक व्यय बढ़ाना है जैसे विवाह या दिखावे के लिए मंहगे और फालतू सामान खरीदना जिनकी भरपाई उस आय में संभव नहीं होती है तो व्यक्ति क्रमशः तनाव में फंसता जाता है और आत्महत्या तक करने को बाध्य  हो जाता है .राष्ट्र के सम्बन्ध में स्थिति में थोड़ा  अंतर होता है . इसमें शासक लूट-खसोट से से अपना काम जब तक चलता है , चलाता है . परन्तु कुव्यवास्थाएं बढ़ते जाने से किसी भी समय उसका शासन समाप्त हो जाता है . उसकी हत्या और कंगाली तक  भी संभव है. लोकतान्त्रिक  व्यवस्थों में कोई स्थायी राजा नहीं होता है . सरकारें ,मंत्री , अधिकारी आते -जाते रहते हैं और अपनी ताकत के अनुसार लूट – भ्रष्टाचार द्वारा अपना खजाना भरते रहते हैं.लोगों को मूर्ख बनाने के लिए जब तक संभव होता है . वे अतिरिक्त नोट छापकर तथा वस्तुओं के भाव बढ़ाकर काम चलाते जाते है जिससे मुद्रा का मूल्य कम होता जाता है और मंहगाई बढ़ती  जाती है , विदेश व्यापार बुरी तरह नष्ट होने लगता है , भुगतान असुंतलन पैदा हो जाता है जिससे सरकार की आय तीव्रता से घटने लगती है . इसका घातक प्रभाव भावी पीढ़ी को उठाना पड़ता है .
    जब सरकार किसी भी प्रकार से धन जुटाने में सक्षम नहीं हो पाती है तो व्यय कम करने के लिए मुख्य रूप से तीन प्रभाव पड़ते हैं . प्रथम प्रभाव कर्मचारियों की संख्या पर पड़ता है . खाली पद भरे नहीं जाते हैं , अनेक पद समाप्त कर दिए जाते हैं तथा अनेक नियुक्तिययां  काम चलाऊ ढंग से अस्थायी रूप से की जाती हैं . इससे नौकरी में शेष बचे लोगों पर काम का बोझ बढ़ जाता है , वे तनाव ग्रस्त और बीमार होने लगते हैं , जनता  को उन सेवाओं का लाभ उचित रूप से नहीं मिल पता है . बेरोजगारी बढ़ती जाती है . लोगों की आय कम होने से उनकी क्रय शक्ति कम होती जाती है अर्थात मंदी  आती जाती है , उद्योग-धंधे चौपट होने लगते हैं . कुल मिलाकर कम आय – बेरोजगारी – मंदी – मुद्रास्फीति – मंहगाई का दुष्चक्र चल पड़ता है और बढ़ता जाता है .
   धन की कमी का दूसरा प्रभाव लोक सेवाओं पर पड़ता है . सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य ,रक्षा , पुलिस , न्याय-व्यवस्था आदि के व्यय कम करती जाती है . इससे लोग मंहगे विद्यालय , अस्पताल आदि के चक्कर में फंसते जाते हैं , क़ानून-व्यवस्था नष्ट होती जाती है .जनता –कर के दम पर  नेता अपनी सुरक्षा तो कमांडो लगाकर कर लेते हैं परन्तु जनता को भय और आतंक के वातावरण में जीने के लिए बाध्य करते जाते हैं .
   प्रारम्भ में तो लोकतांत्रिक सरकार अमीरों से नोट और गरीबों से वोट लेने के लिए अमीरों को ठेके तथा गरीबों को अनेक सब्सिडी देती रहती है , परन्तु जब अंतिम अवस्था आने लगती है तो गरीबों को मिलने वाली सब्सिडी धीरे – धीरे कम होती जाती है . सोनिया – मनमोहन की  सरकार ने पहले पेट्रोल पर और अब डीज़ल पर सब्सिडी समाप्त कर दी है , गैस पर कम कर दी है . आने वाले समय में किसानों और गरीबों को दी जाने वाली बिजली ,खादों – खाद्यानों पर भी सब्सिडी  हटानी पड़ेगी तथा समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने की योजना भी समाप्त करनी होगी . यदि वर्तमान दिशा में देश की अर्थ व्यवस्था चलती रही तो अगले ५ वर्षों में ये हालात पैदा हो सकते हैं .
     ग्रीस , यूरोपीय संघ का सदस्य है , उसे मित्र देश सहायता करते जा रहें हैं पर कब तक करेंगे , परन्तु भारत का तो विश्व में एक भी मित्र नहीं है , भारत का क्या होगा अभी जनता को सोचने कि फुर्सत नहीं है . यह ध्यान रहे कि वर्तमान स्थिति का मुख्य कारण अधिकाँश पदों पर अयोग्य और भ्रष्ट  व्यक्तियों की नियुक्ति है जो  अपने हितों के लिए देश को निर्ममता से संघर्ष और असुरक्षा  की ओर  धकेलते जा रहे हैं.