शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

गुस्सा

                                                                 गुस्सा 

आज रवि का परीक्षा फल निकलना है . उसकी मम्मी ने उसे छः बजे ही उठा दिया था . स्कूल बस तो आठ बजे आएगी . अतः इतनी जल्दी उसका उठने का मन नहीं हो रहा था . पर मम्मी - पापा के बार- बार उठाने पर उसे उठना ही पड़ा रवि के मम्मी -पापा को पूरा भरोसा था कि इस बार उनका बेटा कक्षा  में अव्वल आयगा . वह पिछली मई से बहुत अच्छे ट्यूटरों  के पास कोचिंग  पढ़ने जा रहा था . था तो वह नवीं क्लास में पर पढने तीन अलग- अलग  जगह जाता था . रोहित सर से वह मैथ्स  पढता था , अल्फ्रेड सर  के यहाँ वह साइंस पढ़ने जाता था और इंग्लिश पढने उसे नितिन सर के पास जाना पड़ता था . ये तीनो ही टीचर  वास्तव में बहुत अच्छे  पढ़ाते  थे . सभी छात्रों में उनका     बहुत  नाम  था .वे छात्रों को एक -एक सवाल करवा देते .सभी प्रश्नों के उत्तर लिखवा देते .  नितिन सर ग्रामर के लिए बहुत प्रसिद्द थे . सप्ताह में ३-३ दिन ही  वह पढ़ने जाता था . तीनों जगह उसे हजार - हजार रूपये फीस के देने पड़ते थे . मम्मी तो  उसका बहुत ख्याल रखती थीं . वह जो चीज कहता , झट बना लातीं . हफ्ते में एक बार वह मम्मी ,पापा और बहन  के साथ माल      घूमने भी जाते तथा कभी, पिज्जा, कभी बर्गर . कभी छोले टिक्की आदि,   जो भी उसे पसंद होता  , खाते . पापा को लगता था कि पढ़ाई के साथ बच्चों को खुश भी रहना चाहिए ताकि उन्हें तनाव न हो . अतः वह उनकी हर फरमाइश पूरी करने का प्रयत्न करते . उनके पापा को यह दुःख हमेशा रहता था कि पैसों की कमी के कारण वे ट्यूशन नहीं जा पाते थे और इसलिए उतने नंबर नहीं ला पाते थे , जितना वे सोचते थे . अनेक छात्र -छात्राएं उनसे आगे निकाल जाते . टॉप तो रवि भी नहीं करता  था पर पहले १० बच्चों में उसकी गिनती होती थी .वे इतने से भी संतुष्ट थे .
          ' बेटा !जल्दी तैयार हो जाओ . आज रिजल्ट निकलना है . नहा कर मंदिर भी चले जाना . वहां पर मत्था टेक कर भगवान का आशीर्वाद ले लेना . भगवान की कृपा से सब अच्छा होता है . ' मम्मी रोज मंदिर जातीं , भगवान से दुआ मांगतीं कि बेटा अव्वल आये . रवि भी कभी- कभी मंदिर जाता रहता था . उसका स्वभाव भी अच्छा था . मम्मी- पापा की बात पर न नहीं करता था . रवि मन्दिर गया तो उस दिन उसे बहुत आनंद  आया . उस दिन मंदिर में पंडित जी भजन गा रहे थे ,
प्रभु जी मेरे ,मैं तो बालक तेरा ,
 तू ही है इक अन्तर्यामी . तू ही जीवन मेरा . प्रभु जी मेरे ...
सांस- सांस है तेरी दया से , कुछ भी नहीं है मेरा ,प्रभु जी मेरे ...
इस सेवक की  विनती सुन लो , प्यार से मेरी झोली भर दो ,
महके नित नया सवेरा ,प्रभु जी मेरे ....
रवि का मन भी गा उठा , 
आज परीक्षाफल है आना , प्रभुजी मेरे , मेरा मान बढ़ाना ,
परीक्षा में मैं  अव्वल आऊँ , घर में , रहे ख़ुशी का डेरा ,प्रभु जी मेरे ...
 मंदिर से लौटकर रवि का मन बहु प्रसन्न था . उसने नाश्ता किया और ख़ुशी- ख़ुशी बस में सवार होकर स्कूल गया . रिजल्ट घोषित हुआ . उसे ८५% अंक मिले थे , १४ बच्चों के अंक उससे ज्यादा थे . रवि को थोड़ा अटपटा तो लगा परन्तु उसके मित्र खुश हो रहे थे , भले ही उनके अंक और भी कम थे , रवि भी उनके साथ हँसता रहा , बातें करता रहा . मीनू को उससे कुछ अधिक ही लगाव था . मीनू के अंक उससे अधिक थे , वह चाहती थी कि रवि के अंक भी और छात्रों से अधिक होते , परन्तु अब तो जो था वह सबके सामने था . 
     रवि घर लौटा . परीक्षा फल सुनकर मम्मी ने धीरे से कहा अच्छा है . उन्हें डर लग रहा था कि पापा क्या सोच रहे थे और क्या हो गया .पापा का फोन आया . नंबर सुन कर वे बडबडाने लगे . रवि मम्मी का चेहरा देख रहा था . फिर मम्मी ने फोन रख दिया . शाम को पापा आफिस से लौटे . घर में घुसते ही तूफ़ान खड़ा हो गया . वे किसी की  बात सुनने को ही तैयार नहीं थे . उन्होंने रवि पर हाथ तो नहीं उठाया ,पर मानसिक कष्ट देने में कोई कमी भी नहीं की . उनके गुस्से का सबसे बड़ा कारण कारण आफिस में राम चंदर के द्वारा बांटी गई मिठाई थी . वे कहे जा रहे थे , ' राम चंदर  हमारे आफिस में एक छोटा सा क्लर्क है . उसकी हैसियत क्या है ? सबको मिठाई बाँट रहा था कि उसकी बेटी मीनू कक्षा में ९०% अंक लाई है . सबके सामने मुझे भी उसकी मिठाई खानी पड़ी और खुश होकर बधाई देनी पड़ी . इतना ही नहीं ऊपर से लोग मुझसे पूछने लगे कि साहब आपके रवि का रिजल्ट  क्या रहा . मैं अपने मित्रों से जब भी बात करता रवि की तारीफ़ करता कि पढ़ने में बहुत अच्छा है . यह सबको मालूम था . मैंने उल्टा सीधा बहाना तो बना दिया . पर मेरे चेहरे को देखकर उनमें खुसर- पुसर हो रही थी . अब कल मैं  क्या मुंह दिखाऊंगा ?.हमें रवि से कितनी उम्मीदें थी , सब पर पानी फिर गया .'
   रवि को रात को नींद नहीं आई . वह करवटें बदलता रहा . भोर होने वाली थी . वह चुपचाप उठा और धीरे से दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया . उसे लगा कि अब पापा उसका विश्वास नहीं करेंगे , उसे जिन्दगी भर ऐसे ही डांट खानी पड़ेगी . इस जिंदगी से तो मर जाना ही अच्छा है . वह चल पड़ा , कहाँ जाना है , उसे मालूम नहीं था . उसके घर से लगभग पांच किलोमीटर दूर एक नदी बहती थी . . वह नदी की ओर चल पड़ा . वहां जाकर देखता है कि उसमें तो पानी ही सूख गया है ,डूबे कैसे ? उसे यह भी भय लग रहा था कि कहीं उठते ही  उसे न देख कर पापा ढूढ़ते हुए उसे पकड़ न ले जाँय ., कहीं और कोई न देख ले . यदि घर जाना ही पड़ा तो वह किस कमरे में , कैसे फांसी लगाएगा , यही बातें उसे उद्वेलित कर रही थीं . सुबह हो गई थी . वह धीरे-धीरे  बढ़ रहा था कि उसके कानो में मंदिर के घंटे कि आवाज सुनाई दी . वह थक तो रहा ही था , उसने सोचा थोड़ी देर इस मंदिर में बैठकर आराम कर लूं और सारी योजना बना लूं जो फेल न हो . 
 मंदिर में घंटे, आरती, भजन  का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था क्योंकि  वह किसी और धुन में था . परन्तु थोड़ी देर सुस्ताने के बाद उसके दिमाग में कई क़िस्से दौड़ने लगे . उसके पिता उसके लिए महापुरुषो की  कहानियों की किताबें भी लाते थे और खुद भी सुनाते रहते थे . कभी उसे भगत सिंह की फांसी का ध्यान आता , कभी चंद्रशेखर आजाद का साहस और वीरता का ध्यान आता . कभी रानी लक्ष्मी बाई की वीरता आँखों के सामने से घूम  जाती . अचानक गान्धी जी का ध्यान आते ही वह सोचने लगा कि वह तो पढ़ने में बहुत होशियार भी नहीं थे परन्तु धैर्य पूर्वक साहस के साथ काम करते हुए उन्होंने कैसे अंग्रेजों से देश को आजाद करा दिया . इसी प्रकार अनेक विचारों में रवि गोते लगाता जा रहा था . रवि ! तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? उसके पिता की आवाज उसके कानों में गूँज गई . उसने पलट कर देखा तो पापा उसके पास खड़े थे और उनका प्यार भरा हाथ उसके सिर पर था . रवि  पिता जी से लिपटकर रोने लगा . पिता के आंसू भी झर- झर बह रहे थे .
            घर   में सब सामान्य लग रहा था . सबके  दुःख पश्चाताप के आंसुओं में बह चुके थे . रवि अखबार पढ़ रहा था . एक खबर थी,'' छात्र परीक्षा में फेल होने के कारण फांसी पर झूला''. अगले पृष्ठ पर एक महात्मा जी का गीता पर प्रवचन छपा था ,''कर्म पर तुम्हारा अधिकार है , उसके फल पर नहीं . किसी भी काम को करने के लिए मनुष्य को अपनी पूरी कोशिश करनी  चाहिए , असफल होने पर निराश नहीं होना चाहिए , और अधिक श्रम से पुनः प्रयास करते रहना चाहिए जब तक सफलता न मिल जाये .जैसे गांधी जी ने अंग्रेजों के विरुद्ध अनेक बार आन्दोलन किये . वे असफलताओं से निराश नहीं हुए . क्रोध को नियंत्रण में रखते हुए  वे धैर्य पूर्वक पुनः पुनः प्रयास करते गए और अंत में देश स्वतन्त्र हो गया .''


 

     
   

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

सोने की लूट

                                                                     सोने की लूट 

जॉन  सूटर का जन्म १८०३ में जर्मनी में हुआ था .उसका बचपन स्विटज़र लैंड  में बीता .वह बड़ा हुआ तो उसका स्वभाव विनम्र था . उसे व्यवसाय में बहुत रूचि थी .परन्तु लेन - देन में वह कुशल नहीं था इसलिए स्विटज़र लैंड में उसका व्यवसाय असफल हो गया और वह भारी कर्जे में डूब गया .उसे जिससे धन लेना होता , वे उसे लौटाते नहीं थे परन्तु जिनको उससे धन लेना था , उन्होंने उस  पर  धन  वसूली  के  लिए  मुकदमें   कर  दिये  . सूटर के पास धन तो था नहीं , उसे लम्बी जेल होने की सम्भावना पैदा हो गई थी . अवसर पाकर वह अमरीका भाग गया और वहां कैप्टन सूटर के नाम से रहने लगा .वह कैलीफोर्निया में बसना चाहता था जो उन दिनों मक्सिको के अधीन  था . इलिनॉय , न्यू मक्सिको , ओरेगन , हवाई और अलास्का होता हुआ वह अंत में कैलीफोर्निया के यर्बा  बुएना नामक स्थान में रहने लगा जो आज सनफ्रांसिस्को के नाम से प्रसिद्द है . 
           उन दिनों यूरोप से आने वाले लोग अमरीका के तटीय क्षेत्रों में बसते जा रहे थे क्योंकि वहां बंदरगाह होने के कारण व्यवसाय और नौकरी के अधिक अवसर होते थे .. सूटर को सामान्य व्यक्ति के समान जीना पसंद नहीं था . उसने सोचा कि यदि अंदरूनी क्षेत्र में जा कर रहा जाय तो वह बहुत बड़ी जागीर का स्वामी बन जायगा और एक राजा के समान सुखी जिंदगी जी सकेगा .बातचीत में तो वह निपुण था ही , उसने कैलीफोर्निया के गवर्नर से अच्छे सम्बन्ध बना लिए . उसने गवर्नर को समझाया कि वह वहां रहने वाले इंडियंस को वह सभ्य  बनाएगा , उन्हें प्रशिक्षण देगा जिससे इस क्षेत्र का विकास होगा .गवर्नर को उसकी योजना बहुत अच्च्छी लगी और उन्होंने उसे अमेरिकन नदी के उत्तर में  जितनी चाहे भूमि लेने के लिए अनुमति दे दी .प्रारंभ में उसके स्थानीय लोगों से छिटपुट संघर्ष  भी हुए  , परन्तु अपने अच्छे व्यवहार से उसने उन लोगों का विश्वास जीत लिया और वे मित्रवत व्यवहार करने लगे .उनकी सहायता से उसने सूटर फोर्ट बना लिया .सब कुछ सूटर कि योजना के अनुसार ठीक चल रहा था .उसका इंजीनियर जब वाटर मिल बनवा रहा था .उसने नदी के पानी में चमकदार धातु के कण देखे .यह २४ जनवरी १८४८ कि घटना है  और इसी दिन से  कैलीफोर्निया  में सोने की लूट प्रारंभ हो गई . उसने जॉन सूटर को सोने की जानकारी दी परन्तु वह चाहता था कि यह बात और लोगों को पता नहीं चलनी चाहिए .अन्यथा लोग सोना लूटने के लिए वहां पर टूट पड़ेंगे और सूटर की  विशाल कृषि भूमि नष्ट हो जायगी .
     हवाओं के भी कान होता हैं .शीघ्र ही यह समाचार जंगल में आग कि तरह पूरे सन फ्रांसिस्को में फ़ैल गया . लोगों में तरह -तरह की बातें होने लगीं .अधिकतर लोगों ने इसे गप्प समझा . सैमुएल  बन्नान ने वहां जाकर देखा तो वहां वास्तव में सोने के कण थे . परन्तु अपने लिए सोना खोदने के स्था पर वह शहर गया और वहां पर सभी दुकानों पर उपलब्ध सारे गैती , फावड़े , बेलचे १५ सेंट के भाव से खरीद लाया . उसने वहां थोड़ा सोना प्राप्त किया और उसे एक कांच की बोतल में में रख कर उसे दिखाते हुए 'सोना -- सोना  , अमेरिकन नदी में सोना ' चिल्लाते हुए शहर कि सड़क पर दौड़ने  लगा . उसे देखकर लोग पागल से हो गए और सब अमेरिकन नदी की ओर दौड़ने लगे . जो भी वहां पहुचता सोना देखता परन्तु सोना खोदने के लिए न तो किसी के पास कोई समान था न ही बाजार में कोई समान उपलब्ध था .. सैमुएल  ने अवसर का लाभ उठाकर सौ गुने अधिक मूल्य पर पंद्रह डालर में गैती , बेलचे , फावड़े बेचे और शीघ्र ही लाभ कमा लिया .धीरे - धीरे यह समाचार दुनिया में फ़ैल गया . १८४९ में तो दुनिया के कोने -कोने से लोग कैलीफोर्निया की ओर दौड़ने लगे वहां सोना खोदने या अन्य व्यवसाय करने तीन लाख से अधिक लोग  पहुँच चुके  थे .१८४६ में सनफ्रांसिस्को में केवल २०० लोग रहते थे , १८५२ में  वह ३६००० लोगों का बड़ा शहर बन गया था . सोने की लूट प्रारंभ होने से पूर्व ही अमरीका ने मैक्सिको  से  कैलीफोर्निया समेत अन्य राज्य भी छीन लिए थे .परन्तु उस समय  कैलीफोर्निया  पहुंचना भी आसान नहीं था . आधे लोग तो जलयान से दक्षिणी अमरीका का पूरा चक्कर काटकर आते  थे . जिसमें से अनेक लोग सोना रटते  -रटते  रास्ते में ही मर जाते थे .उस समय तक पनामा नहर बाणी नहीं थी . अनेक लोग पहले पनामा आते फिर जंगल - पहाड़ों को पार करके जलयान पकड़ने के लिए महा द्वीप के दूसरी ओर जाते . अनेक लोगों क ओ रास्ते में बीमारियाँ हो जातीं और वे मर जाते . अनेक लोग अमरीका के पूर्वी तट तक तो पहुँच जाते फिर पश्चिम तट के लिए जंगल , पहाड़ों , मरुस्थलों से होकर जाना पड़ता जिसमे छः महीने का समय लगता था . लोग ओहिओ पहुँचते तो जैसे ही नदी का पानी पिघलने लगता वे तेजी से चल पढते क्योंकि उन्हें अक्टूबर तक उस पार पहुंचना होता था अन्यथा रास्ते सियरा - नेवाडा में बर्फ गिरने के पहले ही वे वहां पहुँच जाएँ . गर्मियों में जब वे मरूस्थ से गुजरते वहां का ताप पचास डिग्री सेल्शियस से भी अधिक हो जाता था .सिर्फ वहां पहुँचने की समस्या ही नहीं थी . जलयान लेकर जाने वाले कैप्टन अलग से परेशान थे .जो व्यक्ति सन फ्रांसिस्को  में जहाज से उतर कर सोना ढूढने  चला जाता , वह वापिस ही नहीं आता था . खाली जहाज वापिस कैसे ले जाएँ ? इससे सन फ्रांसिस्को कि खाड़ी में जहाज़ों की भीड़ लग गई .
        वहां बहुत से लोग तो पहुँचते जा रहे थे , परन्तु उनके लिए रहने और खाने कि सुविधाएं नहीं थीं . व्यवसायी होटल और भवन तो बनाना चाहते थे परन्तु उसके लिए वहां सामग्री नहीं मिल  रही थी . जहाज वापिस जाएँ तो भवन निर्माण की सामग्री लेकर आयें . परन्तु मकानों की आवश्यकता तो दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जारही थी .लोगों को सोने और रहने के लिए जगह तो चाहिए ही थी . अतः उन्होंने लकड़ी और लोहे के मकान बनाने शुरू कर दिए . लोगों का खड़े हुए जहाज़ों पर भी गुस्सा फूट पड़ा और जरूरत होते ही वे जहाज को तोड़ कर लकड़ी लोहा निकलने लगे तथा उनसे मकान बनाने लगे . सारे लोग तो सोना लूटने चले जाते थे . पीछे खड़े लावारिस जहाजों को कौन देखता ? जहाज़ों का फालतू भाग वहीँ पानी में फेंकते जाते , जब वह भर जाता लोग जमीं पर कब्ज़ा कर लेते .
लोगों ने अनेक नदियाँ और पहाड़ खोद डाले और टनों सोना निकाल लिया .शुर में तो गैती बेलचे से सोना निकाल अत था परन्तु १८५० तक अधिकांश सोना लूट लिया गया था .उसके बाद जिन व्यवसायिओं के पास बड़ी  मशीने थीं वे ही सोना खोद पाते  थे . परन्तु दुनिया भर में इसकी धूम मची हुई थी अतः लोग अपनी किस्मत आजमाने बाद में भी धक्के खा- खा कर आते रहे . वे यात्रा में और वहन पहुच कर रहने खाने में सारा धन खर्च देते . खाली हो जाते तो वापिस जाने के लिए भी धन नहीं होता था . अतः वहीँ बसने के अतिरिक्त उनके पास दूसरा रास्ता न होता . स्वाभाविक था कि पूरे कैलीफोर्निया राज्य कि आबादी तेजी से बढ़ती गई . इतने कम समय में पुलिस , क़ानून , न्यायालय आदि कि व्यवस्था करना भी संभव नहीं था . इसलिए लोग सोने के लिए एक -दूसरे को मारने लगे .पूरे राज्य में अराजकता बढ़ गई .. यूरोप से जो गोरे लोग वहन आए थे सोना खोदने के लिए उन्होंने मूल रेड इंडियंस  की जमीनों पर कब्ज़ा कर लिया था , उनके खाद्य स्रोतों को नष्ट कर दिया था . इसमें उनसे संघर्ष होना स्वाभाविक था जिसमें अनेक इंडियंस बेरहमी से मार डाले गए .. आने वाले अनेक लोग अपने साथ चेचक , जैसी महामारियां भी लाये जिससे अनेक लोग मर गए . 
 अनेक व्यवसायी स्वयम तो सोना नहीं खोदते थे परन्तु सोना खोदने वालों के लिए होटल, रेस्तरां खोलने , खुदाई के उपकरण बेचने का काम करते थे . ये व्यवसाय बहुत लाभदायक सिद्ध हुए .इनसे आकर्षित होकर जर्मनी का एक दरजी भी वहां पहुंचा .वह अपने साथ ढेर सारा कैनवास ले गया और टेंट बनाकर बेचने लगा . परन्तु उसके टेंट नहीं बीके . अब कैनवास का क्या करे ?वह  बचे हुए कैनवास कि पेंटें सिलकर बेचने लगा दूसरी पेंटों से मजबूत होने के कारण उसकी पेंटें खूब चलीं .पेंट बनाने में उसने धागे के स्थान पर रिबत लगेये जिससे वे और मजबूत हो गईं वही जीन कि पेंटें  लिवाइस स्ट्रास ब्रांड नाम से आज भी  विश्वप्रसिद्ध हैं .
      लोगों ने सोना लूटा और वहीँ बस गए .कैलीफोर्निया अमीरों का राज्य बन गया था ,इतने अमीर कि उस समय करेंसी नोट के स्थान पर सोने के सिक्के चलने लगे  थे .
    बेचारा सूटर इस बात के लिए दावा  करता रहा कि सारी जमीन  उसकी है . इसलिए खोदा गया सारा सोना उसे दो . परन्तु उसकी सुनने वाला कोई न था . वह तो राजा के समान रहता था . दूसरों से काम करवाता था . उसने सोना खोदने के लिए अपने श्रमिक भी भेजे . सोना खोदकर वे अपने पास रख लेते . सूटर का सोना दूसरे लोग ले गए . उसने भी धन कमाने के लिए कर्जा लेकर होटल और रेस्तरां खोले , कारोबार भी अच्छा हुआ , परन्तु लोग खा पीकर सोना खोदते और चले जाते , उसे कोई पैसे ही नहीं देता .लेन-देन करना उसे आता नहीं था , सोने की खदान में खड़ा होकर भी वह पुनः कर्जे में डूब गया .इससे वह पूरी तरह टूट गया . बाद  में   सारी  व्यवस्था  उसके  लड़के  ने  अपने  हाथ  में  ले  ली . वह युवा होने के साथ कुशल प्रबंधक भी था .उसने अपने व्यवसाय और जागीर से तो लाभ कमाया ही , उस पर एक व्यवस्थित शहर का निर्माण भी किया जो आज  कैलीफोर्निया की  राजधानी सेकरीमेन्टो के नाम से विख्यात है .          हिमांशु खत्री , वरिष्ठ इन्गीनियर , क्वाल्काम , सैन डिएगो , यू.एस.       

स्कूल शिक्षा की बर्बादी

                                                                     स्कूल शिक्षा की बर्बादी 

रजत पथ में पूर्व में अनेक बार लिखा जा चुका है कि म. प्र. सरकार योजना बद्ध तरीके से शिक्षा व्यवस्था  को बर्बाद कर रही है , इस धारणा  की पुष्टि राज्य सरकार स्वयं कर रही है . स्कूलों में बच्चों को दो ड्रेस के लिए ४०० रुपये दिए जाते हैं जितने में दो ड्रेस नहीं आती हैं . यह पैसा बच्चो को चेक से दिया जाता है . यह इस बात का प्रमाण है कि सरकार जानती है कि यदि नगद राशि दी जायगी तो भृत्य से मंत्री तक सब भ्रष्ट होने के कारण बच्चों तक पैसा नहीं पहुँच पायेगा . ४०० रुपये लेने के लिए उन्हें ५०० रुपये का खाता खुलवाना पड़ता है . छात्र- छात्राएं  स्वयं या उनके माता -पिता को बैंक जाकर चेक जमा करवाना पड़ता है , चेक का पैसा खाते में आने के बाद उसे लेने जाना पड़ता है , दो- तीन बार बैंक तक आने- जाने में समय तथा धन दोनों बर्बाद होते हैं यदि थोड़ी घूंस कि बात होती तो सरकार और लोग दोनों उसे बर्दाश्त कर लेते . लेकिन मुख्यमंत्री जानते हैं कि उनके अधीनस्थ कितने भ्रष्ट हैं , इसलिए भुगतान चेक से करना पड़ता है . स्कूल शिक्षा के लोगों के भ्रष्ट होने के कारण बेचारे  बैंक कर्मी लाखों लोगों का अनावश्यक बोझ सह रहें हैं . सरकार का वे कुछ कर नहीं सकते , अन्य लोगों की बैंक सेवाएं कम हो रही हैं . परिणाम स्वरूप जिनके  पास अधिक धन होता है वे निजी बैंकों में चले जाते हैं और सरकारी बैंक अच्छी सेवाएं न दे पाने के कारण बदनाम होते हैं .
     यदि सरकारी लोग ईमानदार होते तो ड्रेस बनाने  का ही नहीं, ड्रेस के कपडे बनाने की  मिल भी सरकार चला सकती थी जिससे अनेक लोगों को रोजगार मिलता  . सरकार ने अपने स्कूल इतने बदनाम कर लिए हैं कि घरों में काम करने वाली महिलाएं भी  अच्छे भविष्य के लिए बच्चों को सरकारी स्कूल नहीं भेजना चाहती हैं .बदनामी छुपाने के लिए स्कूलों की  ड्रेस  बदलने का सिद्धांत रखा जा रहा है और इस छूट के साथ कि स्कूल स्वयं तय कर लें कि उनके स्कूल में कौन सी ड्रेस होगी . इस कानून के लागू होते ही सभी स्कूल अपने निकट तम अच्छे निजी स्कूल कि ड्रेस अपने स्कूलों में लगा देंगे ताकि बच्चों को स्कूल आने - जाने में शर्म न लगे और यदि किसी के पूछने पर बच्चा किताब भी न पढ़ पाए या जोड़ - घटाओ भी न कर पाए  तो लोग समझ ले कि निजी स्कूल का स्तर भी सरकारी जैसा हो गया है . यदि सरकारी स्कूलों का स्तर अच्छा होता तो यही ड्रेस उनकी शान होती .
        अभी तक सरकारी अफसर राज्य के निजी  स्कूलों का ही शोषण करते थे . भला हो अनिवार्य शिक्षा कानून का . अब इन भ्रष्ट अफसरों को सी बी एस ई के स्कूलों को भी फंसाने का अवसर मिल गया है . कानून में कहा गया है कि निजी स्कूलों में निःशुल्क भरती करवाए गए बच्चों का व्यय शासन वहन करेगा . अफसरों ने निजी स्कूलों में अपने बच्चों के प्रवेश तो करवा दिए परन्तु उनके लिए अभी तक फूटी कौड़ी भी नहीं दी है . व्यय देने के माप - दण्ड स्कूल के अनुसार न रख कर मनमाने ढंग से तय कर दिए हैं , अधिकतम रुपये २६०७प्रति छात्र , प्रति वर्ष . स्कूल की  फीस यदि अधिक होगी तो वे इतने ही देंगें , यदि किसी स्कूल कि फीस इससे कम होगी तो वे कम पैसे देंगे . सरकार का अर्थ ही है अपने मनमाने ढंग से काम करना .
     मुख्यमंत्री शिवराज चौहान प्रदेश भर में बड़े- बड़े अपने फोटो लगे पोस्टरों से समय सीमा में काम होने का बिगुल बजा रहे हैं , फिर पूरा साल बीतने के बाद भी अभी तक उन गरीब बच्चों की  फीस क्यों नहीं दी गई ?ईमानदार मुख्यमंत्री एक भी ऐसा सरकारी या निजी संस्था का उदाहरण बताएं जहां मुफ्त में आरक्षण किया जाता हो और साल भर सीना जोरी से सेवाएं लेने के बाद  उसके लिए एक पैसा भी न दिया गया हो . रजत पथ में यह पूर्व  में ही लिखा गया था कि सरकार पैसे आसानी से नहीं देगी . यदि यह भ्रष्टाचार नहीं है तो एक साल तक फीस रोकने का क्या अर्थ था ?
अब स्कूलों से कहा जा रहा है कि पहले बच्चों की ८०% उपस्थिति का प्रमाण पत्र दो . यदि छात्र प्रवेश लेने  के बाद स्कूल नहीं आये तो क्या उसका नाम काटने का कोई नियम है ?क्या उसे डांटने का अधिकार किसी शिक्षक को है ? यदि छात्र परीक्षा में सादी कापी छोड़  आये तो उसे फेल करने का कोई नियम है ? यदि छात्र परीक्षा देने ही न जाय तो क्या उसका नाम काटने का कोई नियम है , या उसे फेल करने का कोई नियम है ? निजी स्कूलों  पर ८०% उपस्थिति पूरी करने दायित्व किस नियम से डाला जा रहा है ?जिन अफसरों ने उनके प्रवेश कराये हैं , उन्हें स्कूल तक लाने -ले जाने और यदि पढ़ने में कमजोर हों तो अतिरिक्त ट्यूशन की  व्यवस्था का दायित्व भी उन अफसरों को क्यों नहीं दिया जा रहा है ?सरकार को यह सोचने का क्या अधिकार है कि सरकारी कुर्सियों पर नीचे से ऊपर तक तो भ्रष्ट जम गए हैं , जो नीचे खड़े हैं या नीचे घूम रहे हैं , वे विशुद्ध रूप से सेवा भाव से काम करें और उनके उलटे -सीधे इशारों पर नाचते जाएँ ! सरकारी स्कूलों में तो झूठे आंकड़े बनाकर उपस्तिथि और नम्बर भर दिए जाते हैं .क्या विदेशी कंपनियों को अपना व्यापार चलाने के लिए अब निजी स्कूल उसी प्रकार बर्बाद करने कि योजना बनाई गई है जैसे पूर्व में निजी स्कूलों के लिए सरकारी स्कूल बर्बाद किये गए थे ?
      सरकारी स्कूलों में क्या होता है ? स्कूल खुलने के दिन बच्चों की  आरती उतार ली . विवेकानंद जयंती पर सामूहिक सूर्य नमस्कार कर लिए . सारे साल शक्षकों को पढाने के अलावा अनेकों प्रकार के कामों में  उलझाए रखना ताकि वे पढ़ा न पायें . स्कूलों में ताला बंदी , न बैठने कि जगह , न फर्नीचर , न पीने का पानी , न टायलेट . २० बच्चों को दोपहर का भोजन कराया झूठी उपस्थिति अनेकों कि लगा दी , बीच का पैसा खा गए . स्कूल के सरकारी अफसरों को इन स्कूलों से क्या मिलेगा ? सब मिलकर निजी स्कूलों पर आक्रमण कर रहे हैं ताकि उनका दोहन किया जा सके . जब स्कूल प्रबंधन और प्राचार्य इन भ्रष्ट अफसरों के आगे नत मस्तक हो जायेंगे तो उनका पेट भरने के लिए बेचारे सीधे - सादे बच्चों की  पढाई चौपट होगी और इस भ्रष्टाचार का  हर्जाना भी इनके अभिभावकों को देना होगा . यह पहला वर्ष था . प्रारंभिक कक्षा में १५ से ३० बच्चे तक ही भरती हुए थे जिनकी फीस देने का वायदा सरकार ने किया था . अतः स्कूलों ने उस अनुपात में अन्य बच्चों की  फीस अभी नहीं बढ़ाई है परन्तु ये स्कूल, जो शिक्षा  के साथ धन कमाने के लिए बने हैं स्वयं घाटा क्यों सहेंगे ? 
   सरकारी स्कूलों में अपवाद भी हैं . अनेक माडल स्कूल और उत्कृष्टता विद्यालय बहुत अच्छे हैं . पता नहीं सरकार को किससे शर्म आती है या किससे  डरती है कि ऐसे अन्य विद्यालय नहीं खोल रही है . निजी स्कूलों को फीस देने , उसमें भ्रष्टाचार के  रास्ते ढूँढने में सरकार अपनी ऊर्जा क्यों लगा रही है . अच्छे सरकारी विद्यालय चलाओ , बच्चे स्वतः उधर आकृष्ट होंगे. 
    निजी  स्कूलों  में  प्रवेश  के  लिए आस-पास के वार्ड का फार्मूला लागू किया गया है . अमरीका में ऐसा इसलिए होता है कि सबको १२ वीं तक अनिवार्य एवं निःशुल्क  का अधिकार है . वहाँ स्कूल के सारे व्यय उसके निकट के वार्डों के मकानों से प्राप्त गृह-कर से चलते हैं जबकि हमारे यहाँ तो नगर निगम द्वारा वसूले गए गृह -कर का उपयोग उन कॉलोनियों पर भी नहीं किया जाता है जहां से वे वसूले जाते हैं . फिर  पास और दूर के वार्ड  का क्या अर्थ है . इस तरह तो भोपाल में जे के रोड पर रहने वाले बच्चों का प्रवेश डी पी एस और आई पी एस जैसे स्कूलों में कभी भी नहीं हो सकेगा .अगर अमरीका कि नक़ल करनी ही है तो पूरी तरह करो . सिद्धांत अमरीका का और कानून भारत के ताकि बच्चों को मिलने वाले लाभ को न्यूनतम किया जा सके .
      निजी स्कूलों और सरकार के मध्य सहयोग के  सम्बन्ध में पूछने पर सहोदय के सचिव एवं आई पी एस स्कूल के प्राचार्य  श्री कालरा  ने बताया कि उन्हें पिछले वर्ष भरती कराये गए बच्चों कि फीस  अभी तक नहीं मिली है इस वर्ष पुनः बच्चे भरती करवा दिए हैं . उन्होंने बताया कि गरीबी का कार्ड बनवाकर ऐसे बच्चों के प्रवेश भी करवाए गए हैं जो इनोवा कार से आते हैं . उनके घर के लोग कपड़ों और गहनों से भी विभूषित होते हैं . इसका अर्थ है जिन गरीब बच्चों के लिए यह क़ानून बनाया गया है ,सरकार की मदद से  उनके स्थान  पर लाभ अन्य लोग ले रहे हैं . सरकार से पूरा सहयोग करने के बाद भी निजी स्कूलों को परेशान किया जा रहा है .अभी तो शिक्षा का स्तर बनाए रखने के लिए उनका संगठन एक जुट है . परन्तु सरकारी अफसर , जो अपने स्कूल चौपट कर चुके हैं , निजी स्कूलों पर अनावश्यक दबाव बना रहे हैं .कुछ प्राचार्य तो बातचीत में सहमें - सहमें से लगे . सरकार ने पिछले साल भरती किये गए बच्चों की फीस अभी तक नहीं दी है बाकी सब अच्छा है , बहुत धीरे से वे इतना ही कह पाए .
       यदि कालरा साहब की  बात में सच्चाई है तो यह स्थित आपत्ति जनक है . प्राचार्य पुलिसकर्मी या सी बी आई का अफसर तो है नहीं की उनके घर जाकर छापा मारे और मुकदमें चलाये और  सरकारी गरीबी कार्ड को झूठा सिद्ध करने के लिए स्कूल  छोड़ कर कोर्ट कचहरी करता फिरे . जिस सरकारने उसको गरीब घोषित किया और जिसने अपने सामने उसके बच्चे का  प्रवेश करवाया , इसमें किस-किस कि मिली भगत हो सकती है ? उसके पास प्रत्यक्ष तो धन नहीं है पर वह मालामाल है .उसके पास सारा धन काला धन है जिसकी   ये सरकारी लोग सेवा भाव से  मदद कर रहे हैं . उनमें कुछ तो सम्बन्ध होगा ! बच्चे अपनी कापी किताबें , ड्रेस स्वयं लें , आना जाना स्वयं करें . सरकार की  यह घोषणा इस तथ्य कि पुष्टि करती है कि उसने अमीरों का प्रवेश करवाया है और इसलिए वे व्यवस्था स्वयं करें और वे बिना आपत्ति , सारे व्यय ख़ुशी -ख़ुशी करते भी जा रहे हैं .कुछ गरीब बच्चों को भी लाभ मिला है परन्तु जो बड़े स्कूलों की फीस के अलावा सारे व्यय वहन कर सकता है , कम से कम वह उतना गरीब तो नहीं है जिसकी परिभाषा योजना आयोग और केन्द्रीय सरकार ने दी है . यदि वे वास्तव में गरीब होते तो फीस के अलावा अन्य सुविधाएं भी मांगते .यदि यह भी मान लिया जाय कि अनेक शहरी बच्चों को निजी स्कूलों में भरती करने से उन्हें बहुत लाभ हो रहा है तो सरकार ग्रामीण बच्चों के लिए गाँव - गाँव में अच्छे निजी स्कूल कहाँ से लाने वाली है ? क्या उन्हें समान अवसरों से वंचित रखने का काम सरकार स्वयं नहीं कर रही है ?अवसरों की असमानता क्या संविधान का उल्लंघन नहीं है ?  गरीबों की  अनिवार्य शिक्षा का इतना ही फसाना है .
     






        























मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

पाप का फल

                               पाप का फल 

नीतिवान लोग कहते हैं 
' जैसी करनी , वैसी भरनी '
'पाप की  कमाई , कभी काम न  आई '.
परन्तु सब देख रहे  हैं 
बेईमान और भ्रष्टाचारी 
अपराधी और अत्याचारी 
फल - फूल रहे हैं
 और उनके बच्चे
 ऊंचे से ऊंचे उड़ रहे हैं .
देश की सारी व्यवस्थाएं  उनके हाथ हैं 
सरकार और न्यायालय भी उनके साथ हैं .
क्या नीतिवान पुरुष झूठ कहते हैं ?
क्या वे इस धरती पर नहीं रहते हैं ?

मेरे मित्र 
क्या तुमने इतिहास पढ़ा है ?
पाप का मार्ग किस ओर बढ़ा है ?
अफ्रीका के लोग 
खाते , पीते और जीते रहे 
शिक्षा , विद्या ,विज्ञान 
और विवेक से रीते रहे 
परिणाम स्वरूप उनके बच्चे 
गुलाम बन कर जीते रहे 
और सोने का भारत राष्ट्र 
जब जाति- धर्म के भंवर में खो गया 
कोई बड़ा और कोई छोटा हो गया 
समाज कूप - मंडूक   हो गया 
राष्ट्र  अज्ञानता और अंधकार  में सिमट गया 
 जाति - धर्म के नाम पर टुकड़ों में बँट गया 
हमारा राष्ट्र पिट गया और लुट गया .
जो समाज अन्याय और पाप करेगा 
जो समाज अन्याय और पाप सहेगा 
उसका दुष्फल 
आने वाली पीढ़ियों को 
रो - रो कर भुगतना पड़ेगा .  
योग्यता को नकारना पाप है 
काम चोरी और मक्कारी 
 महा पाप है .
सही शिक्षा और त्वरित  न्याय  न देना 
घोरतम  महापाप है .
जो समाज इनसे आँखे मूँद लेगा 
दुष्टों को दुष्टता  करने की  छूट देता रहेगा 
वह भविष्य में 
अपना सर्वस्व खोकर 
पातकी नरक में रोता रहेगा .
व्यक्ति को अपराध की  सजा 
 हो सकती है , नहीं भी हो सकती है 
 परन्तु पाप की  सजा 
दुष्ट और पापी व्यक्ति को नहीं 
उस समाज की भावी  पीढ़ियों को 
अवश्य भुगतनी पड़ती है . 

रविवार, 15 अप्रैल 2012

अंधेर नगरी चौपट राजा


     अंधेर नगरी चौपट राजा 

एक   गुरु था ,एक था चेला . चेला  उनसे  करबद्ध  बोला .
मैं हूँ बालक, मैं अज्ञानी , धन अर्जित करने न जाऊं अकेला .
मुझे आप का साथ चाहिए , सदा ही आशीर्वाद चाहिए .
चलते गए वे दोनों ज्ञानी , पसंद  न आता कहीं का पानी .
अंत में पहुचे ऐसे देश , नहीं था जिसका कोई भेष .
बकरी - घोड़े थे एक ही मोल , टके सेर भाजी और मेवे तोल.
चेले को भाया   वह स्थान ,अब आगे नहीं करें प्रस्थान. 
अंधेर नगरी चौपट राजा , टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा .
गुरु ने चेले को खूब समझाया, पर कुछ भी उसकी समझ न आया .
इस राजा का विश्वास न करना , बिन कारण ही पड़ेगा मरना .
गुरु जी बात कुछ अच्छी बोलो , अशुभ अशुभ शब्द मत घोलो .
कितना अच्छा देश है देखो ,टके सेर काजू तुम ले लो .
कितना अच्छा यहाँ का राजा ,टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा .
मैं तो रहूँगा इस धरती पर ,मेवा फल खाऊंगा जी भर .
रोज बजाऊँगा मैं बाजा ,टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा 
गुरु की बात न चेला माने , रहने लगे नगर अनजाने 
एक दिवस इक चोर पकड़ाया, सीपाहि उसे दरबार में लाया.
राजा ने मृत्यु दण्ड सुनाया  , उसके लिए फंदा बनवाया .
फंदा बड़ा बना कुछ ऐसा ,गर्दन हो भैंसे के जैसा .
चोर की गर्दन सुकडी - पतली , निकल गयी झट बिना ही अकड़ी .
न्याय प्रिय था वहां का राजा ,टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा 
राजा ने देखा जब फंदा , बोले लाओ मोटा बंदा .
मोटी ताज़ी गर्दन हो जिसकी ,फंदे में फंस जाये उसकी .
उसको ही फांसी लटकाओ ,शीघ्र मेरा आदेश बजाओ .
कितना अच्छा था वहां का राजा , टके सेर भाजी टके सेर खाजा .
सिपाही चारों ओर दौड़ते , मोटी गर्दन का व्यक्ति ढूढ़ते .
मोटा ताजा चेला जब पाया ,पकड़ उसे दरबार में लाया .
गुरु जी बोले काजू खा जा,कितना अच्छा है यह  राजा.
टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा .
चेला बोला ,'मैं चोर नहीं हूँ ,विनती सुन लो मेरे राजा ,
मैंने सिर्फ किया यह काम  , खाया खूब टके सेर खाजा .
चेला सोचे कितना मूरख  ,कैसा अन्यायी  यहाँ का राजा 
टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा .
जो मेवा टके सेर न होता , क्यों मैं इतना खाता जाता ,
गुरु की बात न समझी उस दिन , समझ न पाया कैसा राजा .
चोर को छोड़  पकड़ा है   मुझ को ,  कैसा मूर्ख यहाँ का राजा .
टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा .
गुरु जी मेरी जान बचाओ . चरण पडूं मैं हूँ अज्ञानी ,
अब लालच मैं कभी करूँ न , कान पकड़ कर गलती मानी .
थोड़ी दया गुरु  को  आई , कान में जा इक  बात बताई .
चेला बोला राजा से हंस कर  , शीघ्र मुझे लटकाओ ऊपर ,
राजा  चौंका यह देख नजारा , चेले को उसने शीघ्र पुकारा .
गुरु ने क्या उपदेश दिया है , जिसने तुम्हें प्रसन्न किया है .?
चेला बोला जल्दी लटकाओ , इसमें न कोई देर लगाओ . 
पर राजा ने जिद थी ठानी , बोला,पहले बोलो गुरु बाणी .
चेले ने रहस्य यह खोला , राजा के कान में  धीरे  से बोला ,
यह क्षण जीवन का अमर काल है , मुझको मरना तत्काल है ,
जो इस  क्षण में मृत्यु पायेगा , वह स-शरीर स्वर्ग जायेगा
राजा ने समझा समय का मूल्य , स्वयं गया  फंदे पर  झूल ,
तुरंत अकड़ गई गर्दन उसकी , सब बोले जयकार   गुरु की 
 कितना मूर्ख था यहाँ का  राजा ,टके सेर भाजी ,टके सेर खाजा .
धन्य गुरु यह देश बचाया , सबने समझी ईश्वर की  माया .
मूर्ख लोग राजा को प्यारे ,योग्य मंत्री समझा के   हारे
 गुरु ने अच्छा देश बसाया , भले -बुरे का भेद बताया .
लोगों में विश्वास जगाया , सुन्दर सा एक देश बनाया .
( भारतेंदु  हरीशचंद्र जी के प्रति पूर्ण सम्मान सहित )


बाल-साहित्य


                                                             बाल-साहित्य 

     समाज में बच्चों का जितना महत्त्व है, ज्ञान की दुनिया में बाल साहित्य का भी उतना ही महत्व है . बाल साहित्य में क्या- क्या सम्मिलित किया जाना चाहिए ? तीन वर्ष से लेकर १६ वर्ष की आयु  के बच्चों तक, सभी को प्रायः मनोरंजन युक्त कहानियां अच्छी लगती हैं . कहानी केवल कहानी है या उसमें ज्ञान और नीति की बात भी है , यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह कि कहानी या कविता उन्हें कितनी अच्छी लगती है . यदि उस से बच्चे का मन प्रसन्न हो जाता है , मस्तिस्क तरो- ताजा हो जाता है ,तो कहानी का उद्देश्य पूरा हो जाता है क्योंकि प्रसन्नचित्त होने पर बच्चे तनाव मुक्त होंगे और उस स्थिति में उन्हें जिन बातों को समझाया   जायगा वे अच्छी प्रकार  ग्रहण करेंगे. लोक कथाएँ इसी श्रेणी में आती हैं .. उन्हें पढ़कर मन को अच्छा लगता है व्यक्ति चाहे छोटा हो या बड़ा .   पांच वर्ष से अधिक आयु के बच्चों को वीरों, खिलाडियों  या वैज्ञानिकों की कहानियां  अथवा पौराणिक कथाएँ , जिनमें भगवान या संतो  -महात्माओं के जीवन चरित्र भी हों , अच्छे  तो लगते ही हैं , उसे प्रेरणा भी देते हैं कि उसे भी अच्छे काम करने चाहिए . माध्यमिक विद्यालय तक वे कहानियों कविताओं के विश्लेष्णात्मक पक्ष को भी समझने लगते हैं बशर्ते कोई उन्हें ऐसा समझाने वाला हो . हाई स्कूल और उसके ऊपर के युवक कथा कहानियों से स्वयं भी अर्थ और महत्त्व निकाल लेते हैं . 
        अच्छा साहित्य मनुष्यता का विकास  करता है . मनुष्यता से रहित व्यक्ति धनवान हो सकता है , राजा -महाराजा हो सकता है परन्तु उसका जीवन पशुवत होता है . वह पशु के समान लालची , स्वार्थी , कायर , क्रूर सबकुछ हो सकता है .जैसे पशु अपना उदर भरने के लिए दूसरे की क्रूरता से हत्या करके उसे खा जाता है वैसे ही मनुष्य भी संस्कार के बिना अपने लाभ के लिए लूट सकता है ,किसी की जान ले सकता है , पूरे समाज और देश को हानि पहुंचा सकता है . पशु और व्यक्ति की क्रूरता में इतना  ही  अंतर होता है कि  पशु सभी कार्य अपनी प्रकृति के अनुसार करता है . सिंह जानवर मारकर नहीं खायेगा तो स्वयं भूखा मर जायगा . वह जानवर तभी मारता  है जब उसे भूख लगी हो या किसी पर आक्रमण तभी करता है जब उसे जान का खतरा हो .परन्तु मनुष्य के पास बुद्धि भी है . वह द्वेष , ईर्ष्या , लालच , आदि के अलावा कभी - कभी अपने आनंद और मन की मौज के लिए भी क्रूरता करता है , इन्सान की हत्या भी कर देता है . भारत समेत अनेक देशों के लोग इसी रोग से ग्रस्त हैं . भ्रष्टाचार, हत्याएं , आतंकवाद तक सभी सामाजिक विकृतियाँ इसी कारण हो रही हैं . इसके साथ यह भी सत्य है कि व्यक्ति में किसी भी अवस्था में मानवीय गुण विकसित किये जा सकते हैं , डाकू- लुटेरों  को भी संत बनाया जा सकता है .
              आज के बच्चे बचपन से ही टी वी देखने लगते हैं , दृश्यों का सीधा प्रभाव उनके मन पर पड़ता है , उनकी मनोभावनाओं पर पड़ता है उनकी बुद्धि पर नहीं पड़ता या बहुत कम पड़ता है . अतः उनकी बुद्धि  का समुचित विकास नहीं हो पाता है . यदि माता- पिता उसे बचपन से आवश्यक पौष्टिक आहार न देकर फास्ट फ़ूड , कोल्ड ड्रिंक देने लगते हैं तो उनकी बुद्धि अपेक्षाकृत और कमजोर रह जाती है . बड़े होने पर इनकी विचार शक्ति अपने स्वार्थ के इर्द-गिर्द ही भटकती रहती है . वे शिक्षा प्राप्त करके उच्च पद और धन चाहे जितना कमा लें , उनकी मूल प्रवृत्ति पशुवत या आसुरी हो जाती है . दूसरों के कष्टों से उन्हें कुछ लेना- देना नहीं रहता , सिर्फ अपना सुख और लाभ ही दिखाई देता है . 
 इसलिए कथाओं के माध्यम   से बच्चों को व्यक्ति के व्यवहार नैतिकता , धर्म ,अर्थ , राजनीति ,  समाज और देश के प्रति जागरूकता आदि का बहुत अच्छा ज्ञान दिया जा सकता  है .
       ' शिक्षा का उद्द्येश्य धन कमाना भी है, के स्थान पर शिक्षा का उद्देश्य धन कमाना ही है ' मानने वाले आज के शिक्षा विदों और दार्शनिकों ने देश का सारा कुचक्र धन के चारों ओर ही घुमा रखा है . इसलिए शिक्षा   में मानवीय दृष्टिकोण लुप्त सा हो गया है और लोग अधिकार पूर्वक सभी प्रकार के अनैतिक और असामाजिक तथा समाज एवं राष्ट्र विरोधी कार्य गर्व के साथ  खुले आम कर रहे हैं और इस व्यवस्था से उत्पन्न हुई हमारी सरकार और   न्याय व्यवस्था प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसका समर्थन एवं संवर्धन कर रही है .
 समाज में पहले संयुक्त  परिवारों में बुजुर्ग लोग बच्चों को कहानी - किससे सुनाते   रहते थे . अब या तो बुजुर्ग साथ नहीं रहते , रहते हैं तो स्वयं टी वी देखकर समय पार करते रहते हैं . वे स्वयं कुछ पढ़ते नहीं हैं तो उन्हें भी ज्ञान नहीं होता कि बच्चे को किस अवस्था में कैसी कहानी सुनानी है जबकि दूसरी ओर बच्चों को टी वी के कार्टून , गेम्स , उनके मित्र और आजकल गर्लफ्रेंड- ब्वाय फ्रेंड  आकर्षित कर रहे होते हैं . अतः कुल मिलाकर समाज दयनीय स्थिति से गुजर रहा है . प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान और धन में वृद्धि दिखाई दे रही है . परन्तु मशीनें और मशीनों जैसे काम  करने वाले लोग किसी समाज का निर्माण नहीं कर सकते .
       यदि अच्छे बाल साहित्य का सृजन किया जाय और प्रारंभ से ही उसमें बच्चों की  रूचि उत्पन्न की जा  सके तो ज्ञान और धन समाज  को  समृद्ध करेंगे अन्यथा विश्व के चालाक  लोग हमारे ज्ञान और धन को लूट लेंगे . हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि भारत के धन और समृद्धि को लूटने के लिए ही हम पर सदियों पूर्व से आक्रमण होते आ रहे हैं और विदेशियों ने  हमारी सम्पदा को लूटने के साथ हमारी संस्कृति को भी नष्ट करने के पूरे प्रयास किये . एक बात और भी महत्वपूर्ण है कि अच्छा साहित्य अपनी मातृभाषा में ही रचा जा सकता है जिसे बच्चे आत्मसात कर सकें .तभी बच्चे  और समाज  आधुनिकता के ऋणात्मक और अनैतिक कार्यों और विचारों से मुक्त हो सकेंगे और वे वही ग्रहण  करेंगे जो सबके हित में हो . यह कार्य किसी कानून से संभव नहीं है  , केवल अच्छे साहित्य और मुख्य रूप से बाल साहित्य से ही संभव हो सकेगा .