रविवार, 19 फ़रवरी 2012

सरकार और न्यायालय


                                                   सरकार और न्यायालय 
   न्यायमूर्ति गांगुली के दुःख व्यर्थ हैं .अवकाश ग्रहण करने के बाद जिस तरह वह सरकार की आलोचना कर रहे हैं , यह उन्हें अपने पद पर रहते हुए करना चाहिए था .भारत में तीन करोड़ मुकदमों का भण्डार है , इसके लिए कौन दोषी है ?यह दुःख का विषय है कि भारत में न्यायालय लोकतान्त्रिक स्वरूप ले ही नहीं सके . इसलिए आज भारत सामंतवाद के चंगुल में फंस गया है . उनके २- जी घोटाले के निर्णय   की पूर्व लोक सभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने आलोचना ठीक ही की है . सोमनाथ चटर्जी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता रहे हैं . उनका सिद्धांत है राजनीतिक दल का मुखिया अर्थात सर्वेसर्वा . वह जो कुछ कह दे वही सत्य है . उसकी आलोचना शब्दों से भी नहीं कर सकते . उसके  कार्यों का विरोध सपने में भी सोच लिया तो हत्या होना निश्चित है जैसा कम्युनिस्ट चीन और पूर्व के कम्युनिस्ट रूस में होता रहा है .उनके अनुसार सरकार का अर्थ है लोगों द्वारा जबरन चुनवाये  गए लोग  क्योंकि कम्युनिस्टों के देश में दूसरा राजनीतिक दल होता ही नहीं है और जिसे सर्वेसर्वा कह दे , वह अकेला ही चुनाव में खड़ा होता है और सबको उसी को वोट देने ही होते हैं . इसलिए सोमनाथ जी ने जो कहा और जो लोकसभाध्यक्ष रहते हुए कहते थे , वह उनकी पार्टी और उनके विचारों के अनुसार सही है .
   रही बात न्यायमूर्ति गांगुली जी की , तो वे सरकार किसे कहते है ? वे सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश रहे हैं . वे जानते ही होंगे कि संविधान में 'सरकार' नाम कि कोई संस्था नहीं है . संविधान में 'कार्यकारिणी ' नाम कि भी कोई संस्था नहीं है . हाँ , वहां मंत्रिमंडल है , प्रधान मंत्री आदि हैं . राजनीति शास्त्र में सरकार का अर्थ वह संस्था है जो प्यार से या दण्ड देकर लोगों से अपने आदेश का पालन करवा सके . व्यवस्थापिका , कार्यकारिणी और न्यायालय  तीनो मिलकर सरकार कहलाते हैं . पूर्व काल में राजतन्त्र था और तीनो शक्तियां एक ही व्यक्ति , राजा या  बादशाह में निहित  होती थी परन्तु लोकतंत्र में तीनों शक्तियों को पृथक कर दिया गया है . इसलिए कार्यकारिणी द्वारा  द्वारा किया गया कार्य तभी सरकार का कार्य माना जाता है जब वह व्यवस्थापिका द्वारा बनाए गए क़ानून के अनुरूप हो . कार्य क़ानून के अनुरूप है या नहीं इसका निर्णय करना न्यायालय का कार्य  और अधिकार है . यदि न्यायालय मंत्रिमंडल या किसी अन्य अधिकारी के आदेश को रोक देता है तो न्यायालय से समर्थन न मिलने तक वह कार्य मंत्रिमंडल का या किसी अधिकारी विशेष का कहा जाएगा , सरकार का नहीं और न्यायालय के आदेश के अनुसार ही उन्हें कार्य करना होगा . यदि कोई न्यायाधीश किसी कार्य को सरकार का कार्य या सरकार का आदेश कहते हैं तो उन्हें भी उसकी आलोचना का अधिकार नहीं है क्योंकि सरकार के कार्य में न्यायालय की स्वीकृति स्वतः निहित हो जाती है . 
     मंत्रिमंडल जो कि विशाल कार्य कारिणी (कार्य कारिणी मेंमंत्रिमंडल के अतिरिक्त  छोटे अधिकारी  से लेकर मुख्यसचिव , कैबिनेट  सचिव, विभिन्न संस्थानों के प्रमुख जैसे रिसर्व बैंक के गवर्नर , महालेखाकार , चुनाव आयुक्त , लोकसेवा आयोग के अधिकारी  आदि वे सभी पदाधिकारी आते है जो किसी भी रूप में सरकार के कार्य करते हैं तथा  कोई आदेश पत्र दे सकते हैं ) का चेहरा  मात्र है . परन्तु लोगों के साथ-साथ न्यायाधीशों द्वारा भी उन्हें पूरी सरकार मानने के कारण मंत्री स्वयं को सरकार तथा  मनमाने कार्य करना अपना अधिकार समझते हैं और कभी नहीं चाहते कि न्यायालय उनके काम में दखल दे. 
        हमारे देश के न्यायलयों में सबसे बड़ी कमी यह है कि वे स्वयं कुछ नहीं करते . जब कोई धन या बुद्धि की ताकत के साथ उनका दरवाजा खटखटाता है तो कुछ निर्णय देने के लिए तत्पर होते हैं . लोकतंत्र में उनका दायित्व है जनता के हितों की रक्षा करना क्योंकि जनता के द्वारा दिए गए करों से ही उन्हें भी वेतन मिलता है और सारे व्यय होते हैं . यदि जनता के धन को कहीं पर भी कोई क्षति  होती है तो उनका दायित्व है उसे रोकें . परन्तु आज तक स्वतन्त्र भारत में ऐसा कभी नहीं हुआ . डा. सुब्रमण्यम स्वामी को ज्ञान है , उनके पास क्षमता भी है . वे जी जान से भ्रष्टों के विरुद्ध  संघर्ष कर रहें हैं , जब कि यह न्यायालयों का दायित्व है की ऐसे सभी कार्यों में स्वतः हस्तक्षेप करके अपराधियों को सजा दें . ३ करोड़ मुक़दमे यह स्पष्ट करते है कि भारत में अधिकाँश कार्य नियम विरुद्ध हो रहे हैं या अपराध घटित हो रहे हैं परन्तु अपराधी नहीं मिलते दूसरे शब्दों में भारत में अपराध तो होते है परन्तु  अपराधी नहीं होते . इन परिस्तिथियों में यदि न्यायालयों के साथ भी अन्याय हो रहा है तो उन्हें यह कहने का कोई अधिकार नहीं है कि सरकार न्यायालयों के लिए कम धन दे रही है या पद नहीं बढ़ा रही है या उपेक्षा कर रही है . माननीय न्याय मूर्ति गांगुली जी किससे यह आशा करते हैं कि वह अपना समय और धन लगाकर न्यायालयों की सुविधा बढाने के लिए सरकार के विरुद्ध मुकदमा करे और बची  खुची  जिन्दगी न्यायालय की चौखट पर न्योछावर कर दे . 
   क़ानून की इन्हीं कमियों और न्यायाधीशों के द्वारा अपने अधिकारों का समुचित उपयोग न करने के परिणाम स्वरूप १९७५ में भ्रष्टाचार सिद्ध होने के बाद इंदिरा गाँधी ने प्रधान मंत्री का पद छोड़ना तो दूर ,आपात काल लगाकर  संविधान को ही स्थगित कर दिया था तथा तानाशाही लागू कर दी थी  जिसमें लोगों से जीवन का अधिकार भी छीनने की बात न्यायालय में चल रही थी . आपात काल लगाने की दोषी इंदिरा जी नहीं थीं , हमारे न्यायालय ही थे जो भ्रष्टाचारी को कानूनी ढंग से हटा नहीं सके . उसके बाद भी न्यायालयों की कार्यपद्धति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ . आज पुनः यदि तथा कथित सरकार के नेता या अफसर  न्यायालयों का आदेश मानने से इनकार कर दे और कोई नेता ताना शाही पर उतार आये तो हमारे न्यायालयों के पास उसका क्या उपचार है ?

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एलिशा

एलिशा

  जॉन और सारा का छोटा सा परिवार था . एक सुन्दर सी गुड़िया रीनी से घर में रौनक बनी रहती थी .जॉन का कोई पक्का काम नहीं था . परन्तु वह घर के खर्च के लिए आवश्यक धन जुटा ही लेता था . रीनी तीन वर्ष की थी कि घर में एलिशा आ गई . एलिशा श्वेत पुष्प के समान सुन्दर थी . उसे देखकर जॉन और सारा सारे कष्ट भूल जाते थे. उसे हुए अभी दो महीने भी नहीं बीते थे कि सारा कि तबियत खराब होने लगी . जॉन की  आय से मुश्किल  से घर का खर्च ही चला पाता  था  .स्वास्थ्य बीमे  के लिए उसके पास पैसे ही नहीं बचते थे . वह पत्नी का इलाज नहीं करा सका और सारा चल बसी . अभी एलिशा तीन महीने कि भी नहीं थी . जॉन पर कर्जा भी चढ़ गया था . अतः दूसरे विवाह की  बात कहाँ से सोचता . उसने दोनों बेटियों को उनकी मौसी के पास छोड़ दिया और स्वयं काम की  तलाश में सैन फ्रांसिस्को चला गया .बेटियां मौसी के पास बढ़ने लगीं . जब एलिशा की  उम्र बारह वर्ष कि हुई तो मौसी ने उन्हें बोर्डिंग  में डाल दिया . 
        रीनी पढ़ने में अच्छी ही परन्तु एलिशा का मन पढ़ने लिखने में कम लगता था . जब स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम होते ,एलिशा उनमें बढ़-चढ़ कर भाग लेती . नृत्य और बेले उसे बहुत पसंद थे . उसके नृत्यों से सभी उसकी प्रशंसा करते . इसलिए पढ़ने  में सामान्य होने पर भी उसके  शिक्षक उसे चाहते थे . एलिशा हाई स्कूल में पढ़ती थी तो उसने क्लबों में जाना शुरू कर दिया था . वहां एक युवक सिम के साथ नाचने में उसे बड़ा अच्छा लगता था . एलिशा खूब सूरत तो थी , उनकी दोस्ती शीघ्र ही प्यार में बदल गई और सत्रह वर्षीय एलिशा ने सिम से विवाह करके स्कूल से मुक्ति पा ली .सिम और रीनी में बहुत प्यार था . एक वर्ष बाद उसने रेमंड  को जन्म दिया . रेमंड चार वर्ष का हुआ तो सिम -एलिशा ने पुनः क्लब जाना शुरू कर दिया . एलिशा की  जवानी सर चढ़ कर बोल रही थी . क्लब में वह जिसे अच्छा नृत्य करते  देखती , उसके साथ नाचने के लिए उसका मन  मचल उठता . उस क्लब में  सैनिक अफसर जोसफ भी आता था . उन दिनों जोसफ की  पोस्टिंग सैन डिएगो में  एक स्कूल में मिलिट्री ट्रेनिंग अफसर के रूप  में हुई थी . उसकी आयु तीस के पार होगी . क्लब में जब वह जोसफ के साथ नाचती लोग ,उन्हें देखते रह जाते परन्तु सिम इसे कब तक देखता रहता . उसने क्लब जाना ही छोड़ दिया . एलिशा पर इसका कोई असर नहीं पड़ा . जब वह क्लब से लौटती , घर में भी उसके पैर थिरकते रहते , ओंठों पर गीत रहते . कभी- कभी वह सिम को भी क्लब के किस्से  सुनाती और उससे कहती कि वह भी  चला करे . अन्दर ही अन्दर घुटता सिम एक दिन फफक ही पड़ा . उनमें तनाव बढ़ने लगा . एलिशा को सिम कि ईर्ष्या से नफरत होने लगी . अब वह जोसफ के और निकट आने लगी और शीघ्र ही उसने सिम को तलाक देकर जोसफ से विवाह कर लिया . वह अपने बेटे रेमंड को लेकर जोसफ के साथ रहने लगी .
      सैन डिएगो एक सुन्दर शहर है . वे कभी प्रशांत महासागर के बीच पर सर्फिंग करने जाते , कभी म्युसिक  कंसर्ट का आनंद लेते , कभी कभी क्लब  जाते . जो और एलिशा की  जोड़ी देखकर लगता था कि  विधाता ने उन्हें एक दूसरे के लिए ही बनाया है .दो वर्ष साथ रहने के बाद जोसफ की  पोस्टिंग बहुत दूर   बोस्टन में हो गई . कुछ समय बाद द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया . मित्र देशों की  ओर से अमेरिका    भी युद्ध में शामिल हो गया .अब मिलिट्री वालों को छुट्टी मिलने का सवाल  ही नहीं  था . अतः एलिशा को रे के साथ अकेले ही मिलिट्री की कालोनी में  रहना था , एक दिन एलिशा को पता  चला कि बैंक एक मकान की  नीलामी करने वाला है . उसने सुन रखा था कि नीलामी में कभी -कभी मकान बहुत   सस्ते मिल जाते हैं . एलिशा भी नीलामी में चली गई और उसे एक सस्ता मकान मिल  गया . रे के साथ अब वह अपने मकान में आ गयी .  वहां पर उसके पड़ोस में रे कि आयु के बच्चे भी थे अतः वहां रे का दिल भी जल्दी लग गया . दोनों माँ -बेटा पड़ोसियों में ऐसे घुल -मिल गए जैसे वे उनके सगे सम्बन्धी   हों . एलिशा रे को होम वर्क में मदद करती . आस- पड़ोस के बच्चों को भी प्रोजेक्ट वर्क में मदद करती .इस प्रकार वह सबकी प्रिय आंटी बन गई थी .
       द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हुआ तो जोसफ को भी छुट्टी मिल गई . जोसफ पत्नी और उसके बेटे के साथ रहने लगा . उसने शीघ्र ही मिलिट्री -सेवा से अवकाश ले लिया और उसने अपना व्यवसाय शुरू कर दिया .  उन्होंने एक अलग मकान ले लिया . एक वर्ष बाद एलिशा ने एक सुन्दर कन्या को जन्म दिया .  कन्या बड़ी हुई , स्कूल जाने लगी तो एलिशा के पास समय बचने लगा .जोसफ व्यवसाय में व्यस्त रहता पर वे कभी-कभी क्लब जाने  और नृत्य कार्यक्रमों में भाग लेने का समय निकाल ही लेते थे . जिन्दगी का कौन सा मोड़ आदमी को कहाँ ले जारहा है , कोई नहीं जानता . एक दिन अचानक जोसफ कि तबियत  ख़राब हुई और बिगडती ही चली गई . बहुत दवा कराई गई परन्तु जोसफ बच न सका . अभी एलिशा पचास की  भी नहीं  थी . बेटे रेमंड का विवाह हो चुका था  . उसके तीन बेटे और एक बेटी थी . उसने माँ से बहुत कहा कि उसके ही साथ रहे लेकिन उसे यह मंजूर नहीं था . अपनी  भी कोई जिंदगी होती है . बच्चों के साथ रहो तो उनके अनुसार ही चलना होगा . फिर उसकी अपनी बेटी भी तो है . परन्तु बेटे के आग्रह को देखते हुए उसने एक मकान उसके घर के पास ले लिया .धीरे -धीरे पति   का गम तो कम होने लगा परन्तु अब वह क्या करे , उसके सामने यह विकट समस्या थी .
   जो लोग दूसरों को देखकर काम करते है , वे दूसरों कि भावनाएं ही देखते रह जाते हैं कि लोग क्या कहेंगे .पता नहीं कितनी जिन्दगी शेष है , परन्तु जितने दिन जियो उत्साह से जियो , कुछ करते हुए जियो . जो लोग इस सिद्धांत को अपना लेते हैं यह दुनियां उनके आगे झुकने लगती है . एलिशा के मन में अनेक विचार आते , परन्तु किसी बात पर मन पक्का न होता . अंत में उसने तय किया कि सबसे पहले वह पढेगी और उसके बाद तय करेगी कि उसे क्या करना है . उसने पुस्तकें ली और बच्चों कि तरह पढ़ना शुरू किय . पहले उसने दसवीं पास की.उसके बाद उसने हायर सेकेंडरी पास की . अब वह हाई स्कूल ग्रेजुएट  थी और आत्म विश्वास से लबरेज थी . उसने टैक्स की गणना करना सीखा और टैक्स विभाग में पंजीयन करवा लिया तथा टैक्स की  प्रैक्टिस  करना सीख लिया . एलिशा बात चीत में तो कुशल थी  ही , उसकी स्वंत्र प्रैक्टिस चलने लगी . . वह सफलता पूर्वक अधिकारियों के समक्ष तर्क रखती और व्यवसायियों  को लाभ होता . उसकी ख्याति बढ़ने लगी . अब वह व्यावसायिक , सामाजिक संगठनों में भी सक्रिय होने लगी थी , उसके व्यक्तित्व का ऐसा प्रभाव होता कि लोग उसे आग्रह पूर्वक अपने संगठनों का अध्यक्ष बनाते . इतनी व्यवस्तताओं के होते हुए भी वह बच्चों के लिए अपना समय देना नहीं भूलती  थी . अपने पौत्रों को ही नहीं , वह स्कूल जाकर  बच्चों की  पढाई में मदद करती थी , गरीब  बच्चों को आर्थिक मदद भी करती थी .अब वह दादी माँ थी .वह  क्लब में भी जाती , नाचती भी ,क्योंकि उसे यह सबसे प्रिय था .
  जिन्दगी के दिन बीत रहे  थे . वह पैसठ की  हो गई थी . उसके नाती -पोते थे जो उसे बहुत चाहते थे . परन्तु एलिशा का  मन अनंत  में घूमता रहता , क्या तलाशता रहता , उसे भी नहीं मालूम था . एक दिन वह अपने कक्ष में बैठी फाइलों में उलझी हुई थी कि उसका एक किरायेदार उसे किराया देने आया . उसके साथ एक मित्र भी था . उसने  मित्र से एलिशा कि बहुत प्रशंसा की .अपने मित्र के बारे में उसने एलिशा को बताया कि अल्फ्रेड भी बहुत खुश मिजाज इन्सान है . उन्हें भी सामाजिक  संस्थाओं में रूचि है और वे नृत्य में बहुत एक्सपर्ट हैं . नृत्य की  बात होते  ही एलिशा के मन के तार झंकार कर उठते . एलिशा ने उससे पूछा कि वह किस क्लब जाता है , वहां और कौन- कौन आते है . कुछ बाते उसके कारोबार और परिवार के सम्बन्ध में भी हुईं . अल्फ्रेड की  उम्र साठ से कुछ कम थी , उसकी पत्नी का निधन हो चुका था . उसके घर में भी नाती -पोते थे . उसके बाद धीरे -धीरे उन  दोनों की बाहर और क्लबों में मुलाकाते बढ़ने लगीं और पता ही   नहीं चला कि कब प्यार हुआ और विवाह भी हो गया . दादा-दादी कि शादी हुई थी .स्वाभाविक है उन्हें दहेज़ में ढेर सारे सौतेले नाती- पोते भी मिले . अपने आकर्षक व्यक्तित्व और मीठे बोलों तथा सहायता कि प्रवृत्ति के कारण सारे बच्चे अपनी प्रिय दादी को बहुत प्यार करने लगे . एलिशा आज भी जवान थी विचारों से भी और काम से भी .इतना बड़ा परिवार होने पर भी वह अपनों -परायों, सभी के लिए समय निकाल लेती थी . उसकी जिन्दादिली ही उसके अच्छे स्वास्थ्य का कारण थी . 
   एलिशा पच्चानबे वर्ष की हो गई थी .बारह वर्ष पूर्व अल्फ्रेड का निधन हो चुका था . उसके पुत्र -दो पौत्र औरपुत्री - पौत्री भी स्वर्ग सिधार चुके थे . उसके परिवार में प्रपौत्रो - प्रपौत्रियों समेत अनेक लोग थे . वह ऊपर से तो आज भी अच्छी थी परन्तु अन्दर से कहीं टूट भी रही थी . एक दिन उसे सीने में दर्द हुआ . बच्चों ने  अस्पताल  ले जाना चाहा परन्तु उसने मना कर दिया . इतना तो जी लिया , सारे सुख भोग लिए . अब उसकी कोई इच्छा नहीं रह गई थी . दादी कि बीमारी का हाल सुन कर सारे सम्बन्धी इकट्ठे हो गये थे . एलिशा सबसे बात करने कि कोशिश  करती . परन्तु वह अचेत होती जा रही थी अचानक उसकी धडकनें बंद सी हो गई . लोगों    ने ध्यान से देखा ,  वह  शांत हो गई थी . छोटे से बड़े , सबकी जुबान पर एलिशा की जिन्दगी के  जीवंत किस्से थे  .

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

शिशु गीत

                          शिशु गीत 
अच्छा  बच्चा ,सुन्दर  बच्चा छोटा   बच्चा , प्यारा   बच्चा 
सब  की  आँख  का  तारा  बच्चा   
सबका    राजदुलारा     बच्चा 
छोटा  बच्चा  , प्यारा      बच्चा 
खूब  पढ़ेगा  , खूब  बढेगा ,
घर  का  रोशन  नाम  करेगा  ,
बड़े -बड़े  यह  काम  करेगा  
देश  का  ऊंचा  नाम  करेगा 
सबसे  न्यार   मेरा  बच्चा  
छोटा  बच्चा , प्यारा  बच्चा 
आ ...ऊ ..कार  मारे  किलकारी  ,
छोटे  हाथ  बजाएं  ताली  ,
घुटने  के  बल  कभी  है  चलता , 
कभी  है  उठता , कभी  है  गिरता  ,
उठता  -गिरता  , फिर  चल  पड़ता  ,
दोड़ने  की  भी  कोशिश  करता ,
सबसे  तेज  है  मेरा  बच्चा ,
छोटा  बच्चा , प्यारा  बच्चा 

लैंगसटन ह्युगिस

                                                                    लैंगसटन ह्युगिस 

प्रख्यात अफ्रीकी अमेरिकी कवि जेम्स लैंगसटन ह्युगिस १ फरवरी १९०२ को जलीं मिसौरी,अमेरिका में हुआ था .जब वह छोटा था , उसके पिता उसकी माँ को  तलाक देकर  मैक्सिको चले गए .उसकी माँ को काम के लिए इधर -उधर जाना पड़ता था ,अतः उसका लालन-पालन उसकी नानी ने किया जो उसे नीग्रो लोगों कि कहानियाँ सुनती  रहती थी  .उसकी प्राम्भिक शिक्षा उन्हीं के पास हुई . उसके बाद वह अपनी माता तथा उसके पति  के पास लिंकन  , इलिनाय चले गए . वे बाद में ओहियो जाकर रहने लगे  .हाई स्कूल ग्रजुएट  होने बाद  उन्होंने आजीविका के लिए रसोइये,धोबी तथा बस क्लीनर के काम किये उसके बाद जलपोत श्रमिक के रूप में काम करते हुए अफ़्रीकी यूरोप देशों के यात्राएं भी कीं . इस मध्य वे अपने पिता के पास मक्सिको भी गए तथा पढ़ने के लिए सहायता मांगी . पिता कविता लिए नहीं , केवल इंजीनियरिंग पढ़ने हेतु धन  देने के लिए तैयार हुए . वे  कोलंबिया विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग   पढ़ने  लगे परन्तु  सहायता  बंद होने से उसे छोड़कर बाद मेंपेंसिलवानिया से  बी.ए. पास किया . उन्हें एक इतिहासकार के पास सहायक की नौकरी मिली परन्तु कविता के लिए समय न मिलने से उसे छोड़ दिया .१९६७ में कैंसर  से उनका निधन हो गया .
       लैंगसटन ह्युगिस बचपन से ही कविता करने लगे थे जो पत्र -पत्रिकाओं में छपती रहती थीं .उन्होंने अंग्रेजी साहित्य के विविध पक्षों पर अपनी स्थायी  छोड़ी है .उन्होंने १५ उपन्यास, कहानी संग्रह, लेख -संग्रह ,११ नाटक , १४ काव्य , ४ अनूदित रचनाएं , तथा पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादन , रेडियो वार्ताएं आदि लिखी हैं .
         वे काले लोगों के विभिन्न आंदोलनों से जुड़े रहे . उनके कष्टों के साथ-साथ उनके संगीत , खुशियाँ तथा संस्कृति के विभिन्न आयामों का उन्होंने  प्रभाव पूर्ण चित्रण किया है . वे जाज संगीत से प्राम्भ से जुड़े रहे .जीवन में उन्हें अनेक सम्मान मिले . अपनी बात को सरलतम सब्दों में व्यक्त करने में वे सिद्ध हस्त हैं .
          मेरे लोग                                                                                              लोकतंत्र 
रात्रि खूबसूरत है ,                                                                 लोकतंत्र नहीं आएगा ,
और विसे ही हैं मेरे लोगों के चेहरे .                                            आज, इस वर्ष 
सितारे खूबसूरत है ,                                                                और न कभी 
और वैसे ही हैं मेरे लोगों की आँखें .                                            भय और समझौतों से .
खूबसूरत सूर्य भी है  ,                                                               मुझे भी उतना ही अधिकार है ,
खूबसूरत है मेरे लोगों की आत्माएं .                                             जैसे दूसरों को है ,
मैं भी अमरीका गता हूँ .                                                           खड़े रहने का ,
मैं एक काला भाई हूँ ,                                                              अपने ही पैरों पर ,
जब कंपनी आई ,                                                                    तथा भूमि लेने का .
उन्होंने मुझे किचेन में भेज दिया .                                               मेरे कान पाक गए हैं .
परन्तु , मैं हंसा ,                                                                     लोगों से सुनते-सुनते ,
मैंने खूब खाया                                                                        काम स्वाभाविक रूपसे हो रहे हैं .
और शक्ति शाली हो गया .                                                        कल दूसरा दिन है ,
कल,                                                                                    मरने पर मुझे आजादी नहीं चाहिए 
जब, कंपनी आएगी ,                                                               मैं कल की रोटी पर नहीं जी सकता .
मैं मेज पर रहूँगा .                                                                   स्वतंत्रता ,
मुझे यह कहने का साहस                                                          एक दृढ बीज है ,
कोई भी नहीं करेगा -                                                                जिसे लगाया गया है , बहुत आवश्यकताओं के समय .
 किचेन मेंजाकर खाओ .                                                           मैं भी यहाँ रहता हूँ , 
तब,                                                                                      मुझे भी आजादी चाहिए 
वे     देखेंगे, मैं कितना खूबसूरत हूँ.                                             तुम्हारी तरह .
साथ ही ,                                                                               प्रस्तुति             ; डा. ए. डी. खत्री     
वे होंगे शर्मिंदा ,
मैं, भी, अमरीका गाता  हूँ .


सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

अमेरिका में लोकतंत्र और भारत में सामंतवाद है


अमेरिका में लोकतंत्र और भारत में सामंतवाद है

लोकतंत्र का अर्थ है लोगों की व्यवस्था अर्थात व्यवस्था में लोगों की सह्भागिता कितनी है , व्यवस्था पर उस देश या संस्था के लोगों का कितना नियंत्रण है . सामंत का अर्थ है ऐसे लोगों जिनके अधिकार सभी है परन्तु कर्तव्य शून्य हैं ,जिनके पास चमचों की फ़ौज होती है जो उन्हें महान सिद्ध करती रहती है तथा लोग जितना परेशान और दुखी होते हैं सामंतों को उतना ही आनंद आता है .यहाँ पर धन, राजनीति और न्यायव्यवस्था के सन्दर्भ में दोनों देशों की चर्चा की जारही है .
अमेरिका में सारा धन 'कर दाताओं का धन होता है '. समाचार पत्रों में कहीं पर भी केंद्र या राज्य के पैसे या राष्ट्रपति अथवा गवर्नर के धन की बात नहीं कही जाती है . इसलिए कहीं पर भी धन का दुरूपयोग या क्षति हुई तो उसकी जिम्मेदारी तय की जाती है और क्षति पूर्ति का आदेश तथा दण्ड दिए जाते हैं . भारत में जनता से वसूला गया धन जनता का नहीं कहा जाता है . वह धन केंद्र , राज्य , प्रधानमंत्री , मुख्यमंत्री या किसी विभाग का हो जाता है . फिर ये लोग उसका उपयोग जैसे चाहे करें और चाहे अपने देश-विदेश के खातों में जमा करें . अमेरिका में कोई ठेके मनमाने ढंग से नहीं दिए जा सकते , प्रत्येक विभाग में अर्थशास्त्री होते हैं जो तत्काल हानि - लाभ का विश्लेषण करते हैं और सही ढंग से काम करने का दबाव बनाए रखते हैं .जबकि भारत की सामंतवादी व्यव्यस्था में जनता धन को बर्बाद करना , नेता - अफसर अपना अधिकार समझते हैं . इसलिए वे जब तक धन लूटते रहते हैं , सब चुप रहते हैं . बाद में कभी हल्ला हुआ भी तो या तो लुटेरों का पता ही नहीं चल पाता , पता चल भी गया तो सिद्ध नहीं हो पाता , सिद्ध हो भी गया तो भी धन कभी नहीं मिलता. अमेरिका में नेता जनता केधन से अपने बड़े - बड़े पोस्टर , विज्ञापन नहीं लगा सकते , सरकारी खर्च पर देश भर में घूम - घूम कर फालतू के भाषण नहीं दे सकते , अपने को महान नहीं सिद्ध कर सकते जैसा भारत में रोज होता है .
अमेरिका में सामंत नहीं हैं अतः राजनीतिक हाई कमांड भी नहीं होती है . भारत में चुनाव में टिकट पार्टी के हाई कमांड अर्थात बड़े सामंत को ढेर सा धन देकर , उसकी चरण वंदना करके और उसे अपना भाग्य विधाता मानने का विश्वास दिलाने पर मिलता है , जबकि अमेरिका अपनी योग्यता सिद्ध करने पर टिकट मिलता है . अमेरिका में २०१२ में राष्ट्रपति का चुनाव होना है . एक वर्ष पूर्व से ही संभावित उम्मीदवार इसके प्रयास में लग जाते हैं . एक ही दल के कई लोग सामने आते हैं . उनके टी वी डिबेट होते हैं , समाचारपत्रों में उनके विचार छपते हैं जिसमें उन्हें देश की समस्याओं पर बहस करनी होती है , जैसे उन्हें यह बताना होता है कि वे मंहगाई , बेरोजगारी , शिक्षा , युद्ध , आतंकवाद आदि समस्याओं को कैसे दूर करेंगे . एक पार्टी का होने के बावजूद वे परस्पर एक दूसरे पर आरोप -प्रत्यारोप भ लगते हैं , जनता के प्रश्नों के उत्तर भी देते हैं , उसके बाद सभ ५० राज्यों में वोटिंग होती है , जो जीतता है , पार्टी का उम्मीदवार बनाया जाता है . इस चुनाव में हारे हुए नेता भी फिर उसे अपना नेता मान लेते हैं और विपक्ष से चुनाव के समय एक होकर उसके पीछे खड़े रहते हैं , पूरी ताकत से उसके पक्ष में प्रचार करते हैं , भारत जैसे उसके वोट नहीं काटते हैं . भारत में नेताओं के पास इतना ही ज्ञान होता है कि वे विपक्षियों कि अधिकतम निंदा कर सकें , धर्म, जाति , गरीबी आदि के नाम पर लोगों को ब्रमित कर सकें , धन, सामान बाँट कर या भविष्य में देने का वायदा करके या डरा धमकाकर वोट लूट सकें .देश कि समस्याओं से तो उन्हें कभी लेना- देना ही नहीं रहा . इसलिए वहां के नेताओं को देश- विदेश कि सब जानकारी रहती है , वे किसी कि कठपुतली न होकर स्वयं निर्णय लेने में सक्षम होते हैं . राजनीतिक निर्णय भी वहां नेता नहीं , जनता लेती है . महत्व पूर्ण क़ानून बनाने से पहले चुनाव के समय मतपत्र के साथ वोटरों को सभी क़ानून भी दिए जाते हैं जिन्हें स्वीकार करने या न करने का उन्हें अधिकार होता है . यदि जनता का बहुमत उस क़ानून के पक्ष में होता है तो क़ानून बनाया जाता है अन्यथा नहीं . भारत जैसे उलटे- पुल्टे क़ानून जनता पर थोपने कि परम्परा वहां नहीं है .
अमेरिका में कानून व्यवस्था बहुत अच्छी है . इसका यह अर्थ नहीं न है कि वहां अपराध नहीं होते , अपराधी तो वहां भी हैं परन्तु वहां सजा भी है . व्यक्ति पकड़े जाने पर यदि अपना अपराध स्वीकार कर लेता है तो सजा काम हो जाती है अन्यथा लम्बी सजा होती है . भारत कि भांति वहां सभी सजाएं साथ -साथ नहीं चलती , एक के बाद एक चलती हैं .अतः सजाएं ८०-१०० साल कि भी हो सकती हैं .अमेरिका में क़ानून और दया का घाल मेल नहीं है . अपराध स्वीकार करने पर सजा इसलिए कम हो जाती है कि व्यक्ति को अपराध बोध हो रहा है ,वह पश्चाताप कर रहा है . इस स्थिति में आगे अपील भी नहीं की जाती है , अतः मुकदमों कि अनावश्यक संख्या भी नहीं बढ़ती है . वहां पर राजनीतिक दल पुलिस पर दबाव नहीं बनाते हैं जबकि भारत में छोटे अपराधियों तक को बचाने का काम नेता करते हैं .उ.प्र. के चुनावों का एक बढ़िया उदाहरण देखिए . भारत के संविधान में धर्म के नाम पर राज्य द्वारा कोई भी काम नहीं किए जाने कि व्यवस्था है परन्तु राजनीतिक लाभ के लिए केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस स्वयं धर्म के नाम पर आरक्षण देने पर आमादा है अर्थात संविधान तोड़ना अपना अधिकार मानती है . चुनाव के समय कोई अतिरिक्त घोषनाएँ नहीं की जा सकती हैं , परन्तु देश के क़ानून मंत्री स्वयं चुनाव आयुक्त कि चेतावनी की उपेक्षा करते हुए धर्म के नाम पर अपनी पत्नी और पार्टी के लिए वोट मांग रहेहैं . चुनाव आयोग को उनका चुनाव चिन्ह जब्त करने , उन्हें चुनाव के लिए अयोग्य घोषित करने , तथा गिरफ्तार तक करने का अधिकार है परन्तु चुनाव आयुक्त ने ऐसा न करके इसकी शिकायत राष्ट्रपति को की , राष्ट्र पति ने पत्र प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को भेज दिया . अब वह भारत के क़ानून मंत्री से पूछेंगे कि क़ानून मंत्री क़ानून का उल्लंघन कर रहा है , क्या करना चाहिए और इस मध्य कांग्रेस के अनेक नेता क़ानून मंत्री के पक्ष में खड़े हो गए . अमेरिका किस्सा देखिए . राष्ट्रपति ओबामा इलिनॉय राज्य से हैं , डेमोक्रेटिक हैं . २००८ में इलिनॉय के लोक प्रिय डेमोक्रेट गवर्नर भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए . दिसंबर २००८ में डिस्ट्रिक्ट अटोर्नी ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया ,राज्य प्रतिनिधि सभा (विधान सभा )ने उन पर महा अभियोग चलाया जिसमें डेमोक्रेट बहुमत में हैं .दो महीने के अन्दर डेमोक्रेट और रिपब्लिकन के ११४ सदस्यों ने सर्वसम्मति से उन्हें बर्खास्त कर दिया और दिसंबर २०११ में कोर्ट ने उन्हें १४ वर्ष की कारावास कि सजा इसलिए दे दी कि उन्होंने कोर्ट में अपना अपराध स्वीकार कर लिया , जनता से माफ़ी मांग ली और अपनी करनी पर पश्चाताप किया .यदि वहां डेमोक्रेट , भारत कि भांति अपराधी और भ्रष्ट गवर्नर का साथ देते तो वहां पूरे देश में पार्टी ही समाप्त हो जाती . अमेरिका में पूँजी वाद के कारण आर्थिक समस्याएँ हैं , परन्तु लोकतंत्र भी है .जबकि भारत में निकम्मे नेताओं और अफसरों द्वारा कृत्रिम रूप से उत्पन्न कि गई समस्याएँ ही समस्याएँ हैं .
डा. ए.डी. खत्री , भोपाल

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

उच्च शिक्षा के लिए प्रदेश एवं देश की नीति

उच्च शिक्षा के लिए प्रदेश एवं देश की नीति

उच्च शिक्षा के लिए राज्य सरकारों की स्थिति बहुत स्पष्ट है . ऐसा पढाओ कि लोग लिख पढ़ भी न सकें ताकि उनके द्वारा किये जा रहे घपलों की व्यापकता वे समझ ही न पाएं . म. प्र. इसमें अग्रणी है . अप्रेल २००८ में प्राचार्यों की बैठक में जबरन सेमेस्टर सिस्टम लागू करने की नीति का विरोध करते हुए मैंने प्रमुख सचिव एवं आयुक्त उच्च शिक्षा से कहा था कि जिस तरह से वे सेमेस्टर सिस्टम लागू करना चाहते हैं उससे तो छात्रों का भविष्य ही चौपट हो जायगा . मेरी पहली आपत्ति थी कि एक परीक्षा करवाने में ३ माह से अधिक समय लगता है ऐसी ही दो सेमेस्टर और एक पुरानी परीक्षा करवाने में ही १० माह लग जायेंगे , पढाई कब होगी ? दूसरी आपत्ति यह रखी कि जब विश्विद्यालय १००० से भी कम छात्रों वाली पी.जी.डी.सी. ए. परीक्षा एक के स्थान पर दो साल में करवा पाता है तो हजारों छात्रों का परिणाम कितने समय में आयगा ? मेरी आपत्तियों को दर किनार करके सेमेस्टर लागू हो गए और सब देख रहे है कि लाखों छात्रों का साल बर्बाद हो गया . परीक्षा व्यवस्था और परीक्षक ऐसे बनाए कि बिना कक्षाएं लगे ही अधिकाँश छात्र अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो गए . ये छात्र किस प्रतियोगिता में टिक पाएंगे ? कालेजो में निर्माण कार्य अधिकांशतः पी. डब्ल्यू. डी. या किसी अन्य सरकारी विभाग द्वारा किये जाते है जिनका काम प्राचार्य से पैसे झटक लेना होता है उसके बाद किसी की जिम्मेदारी नहीं होती है . कम्प्युटर जैसी मशीनरी क्रय करवाने के लिए भी सरकारी लोग या उनके एजेंट सक्रिय रहते हैं . मशीनरी के रखरखाव के लिए स्टाफ दिया नहीं जाता . अतः वह पड़ी-पड़ी खराब हो जाती है . बिचौलियों कि तो आय हो ही गई .पूर्व सरकार ने भी इसी लिए कर्ज लिया था , यह भी कुछ वैसा ही करेगी . क्योंकि जब पढाई ही नहीं होती , कक्षाएं ही नहीं लगती , मशीनें बेचारी क्या कर लेंगी ? सरकार अपनी ओर से तो बचे खुचे प्राध्यापकों को वेतन दे दे वही बहुत है .
अमेरिका के स्टैन फोर्ड निजी विश्विद्यालय के पास ८१८० हेक्टेअर भूमि है , वहां पर उसने वर्ष २००८ में ६८.८ करोड़ डालर केवल शोध कार्यों पर ही व्यय किये थे .वहां महज १५ हजार बच्चे पढ़ते हैं और १९१० का स्टाफ है .वे अमेरिका में ही लाखों रुपये देने वाले हजारों छात्रों को प्रवेश नहीं दे पाते हैं . कलिफ़ोर्निया विश्विद्यालय के १० शहरों में कैम्पस हैं . उसके पास बर्कले में ६६५१ तथा सैन डिएगो में २२०० हेक्टे अर भूमि है. २००८ में उसने शोध पर केवल सैन डिएगो में ही ८४.२ करोड़ डालर व्यय किये थे जब मंदी चल रही थी . क्या सरकार इतनी भूमि म.प्र. में भी उन्हें देगी और वहां के नोबेल पुरस्कार प्राप्त प्राध्यापकों से यहाँ पढ़ वाएगी या उन विश्विद्यालयों से पढ़ वाएगी जो वहां अवैध ढंग से काम कर रहें हैं और उनमे अनेक भारतीय बच्चे भी फंस चुके हैं .देश में शिक्षा के व्यापारिओं ने अपने विश्विद्यालयों तथा महाविद्यालयों को इसी लिए बर्बाद कर दिया है कि लोग इनसे घृणा करें और विदेशी यों की ओर दौड़ें .अपने विश्विद्यालय जहां सरकारों पर बोझ बन चुके हैं , विदेशी संस्थान पैसे देंगे .वे पैसे तभी देंगे जब वे यहाँ से कमाएंगे . सारी जनता देख रही है कि निजी संस्थान एक के बाद अनेक संस्थान खोल रहे हैं , उन्हें कमाई हो रही फिर शासन स्वयं अपने संस्थान क्यों नहीं खोलकर अपनी आय बढाते हैं ? एक ही बात है कि सारी व्यवस्था ही निकम्मी हो गई है और इस निकम्मी व्यवस्था से बर्बादी के अतिरिक्त कोई आशा करना व्यर्थ है .
यही स्थिति सारे प्रदेशों की है क्योंकि उन्हें केंद्र का समर्थन प्राप्त है .विदेशों में जो काला धन जमा किया जाता है वह प्रायः विदेशी सौदों से ही मिलता है . विदेशी विश्वविद्यालयों को अनुमति देना ऐसा सौदा है जिसमें कैग के आडिट में फंसने की भी कोई सम्भावना नहीं है .अतः कोई अडंगा न लगा सके , कोई विदेशी संस्थानों के विरुद्ध प्रदर्शन , आन्दोलन न कर सके , केंद्र सरकार ऐसे क़ानून बनाने के लिए प्रतिबद्ध है .इन निकम्मे नेताओं से कोई पूछे कि विदेशों से कुछ लाना ही था तो 'शिक्षा का स्तर 'लाते , अपने विश्विद्यालयों को विश्व स्तर का बनाने का प्रयास करते,नियमित प्राध्यापकों की नियुक्ति करते, उन्हें शोध की सुविधा और प्रेरणा देते .वर्तमान सरकार उदारीकरण (उधारीकरण) के नाम पर भ्रष्टाचार करने के लिए उदारता पूर्वक सब से कर्जे लेकर देश की भावी पीढ़ी को यूरोप के संकट ग्रस्त देशों के समान मुसीबत में डालने का जो कुत्सित प्रयास कर रही है वह घोर अपराध ही नहीं पाप भी है .देश के ठगों को तो ये सरकार पकड़ नहीं पाती ,कोई विदेशी लूट कर ले जाएगा तो रपट भी दर्ज नहीं होगी जैसे भोपाल गैस कांड में हजारों निर्दोष लोगों के हत्यारे एंडरसन के विरुद्ध आपराधिक मामला दर्ज करने के स्थान पर देश के तथाकथित रहनुमाओं ने उन्हें बाइज्जत , सुरक्षित उनके घर अमेरिका तक पहुंचवाया था .विदेशी विश्विद्यालय हिन्दुस्तान में फ्रेंचाइसी देकर शिक्षा -सेवा के नाम पर बिना कोई कर दिए खुला व्यापार करेंगे ताकि अपने और अपने देश के लिए धन कमा सके . अपनों को बर्बाद और परायों को आबाद करने का सरकारी सूत्र है ' परहित सरिस धरम नहीं भाई '. पराया जितना पराया होगा , जितनी दूर का होगा उतना ही पुण्य लाभ मिलेगा जो सीधा विदेशी खातों में जमा हो जाएगा .इसलिए ये लोग किसी की बात सुनने के लिए तैयार नहीं हैं .
डा. ए. डी खत्री , एडवोकेट एवं पत्रकार , भोपाल ( पूर्व प्राचार्य , च. शे. आ.शा. अग्रणी स्नातकोत्तर महाविद्यालय , सीहोर , म. प्र.)