सोमवार, 31 मार्च 2014

लोकतंत्र के तत्व


                                 
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                              लोकतंत्र के तत्व 

                         
 लोकतंत्र वह शासन पद्धति है जो देश की जनता द्वारा नागरिकों की सामान्य इच्छा के अनुरूप स्थापित, संचालित एवं नियंत्रित होती है . किसी भी देश में रहने वाले लोगों की अपनी-अपनी इच्छाएँ तो होती ही हैं परन्तु अनेक इच्छाएँ ऐसी भी होती हैं जो सबमें सामान्य होती हैं . जैसे जीवन की आधारभूत आवश्यकताएं जैसे मकान, वस्त्र, खाद्य वस्तुएं, जल, शिक्षा, धर्म, चिकित्सा सुविधा, रोजगार, उद्योग-व्यवसाय, बिजली, सड़क, परिवहन-व्यवस्था, निजी सुरक्षा, विदेशी आक्रमण से सुरक्षा, नगरों की साफ़-सफाई, व्यक्तित्व विकास की स्वतंत्रता आदि . इन सामान्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए शासन व्यवस्था का सम्पूर्ण दायित्व जब देश के नागरिक सँभालते हैं तो इसे लोकतंत्र कहते हैं . मुस्लिम देशों में प्रायः मुस्लिम लोगों की सामान्य इच्छा रहती है कि शासन इस्लाम में निहित प्रावधानों के अनुसार ही चलाया जाना चाहिये . ऐसे शासन में अन्य धर्मावलम्बियों को अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है . ऐसा शासन बहु संख्यकों की सामान्य इच्छा के अनुसार चलाए जाने पर भी लोकतंत्र नहीं कहा जायेगा . जिन देशों में भिन्न राजनीतिक विचारधारा को स्वीकार नहीं किया जाता है जैसे साम्यवादी देश, वहां भले ही सभी लोग मतदान करते हों, लोकतंत्र नहीं कहलायेगा .
   शासन बल और शक्ति का खेल है . शक्तिशाली व्यक्ति देश के धन एवं पदों पर अधिकार करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं यदि नागरिकों की सम्पूर्ण शक्ति मिलकर भी किसी एक बाहुबली या शक्तिशाली व्यक्ति को शासन से पृथक नहीं रख सकती है तो इसका अर्थ होगा लोकतंत्र निजी तंत्र से दुर्बल है . व्यवस्था भ्रष्ट हो जायगी तथा धीरे-धीरे सामंतवाद और तानाशाही में परिवर्तित होने लगेगी .
  लोकतंत्र की सफलता के लिए निम्नलिखित शर्ते आवश्यक एवं अनिवार्य हैं :    
१.    देश  की संप्रभुता का जनता में सामूहिक रूप से निहित होना क्योंकि लोकतंत्र में सामूहिक रूप से जनता देश की राजा होती है, स्वामी होती है .
२.    नागरिकों का स्वयं को देश के कोष, संपत्तियों तथा संपदाओं का ट्रस्टी समझना तथा इनकी देखभाल एवं संवृद्धि के लिए तत्पर रहना . जिस प्रकार व्यक्ति निजी संपत्ति की देखभाल एवं संवृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहता है , उसे उसी प्रकार देश की संपत्ति के लिए भी करना चाहिए . व्यक्ति स्वयं के लिए  सस्ता, सुन्दर, टिकाऊ सामान क्रय करता है . यदि कोई कर्मचारी या अधिकारी देश या राज्य के लिए घटिया और मंहगा सामान क्रय करता है तो यह इस शर्त का उल्लंघन होगा .
३.    नागरिकों द्वारा सभी कार्य राष्ट्र हित में समर्पित भाव से करना . शासकीय नौकरी अनेक लोग करते हैं परन्तु उनके भाव में भिन्नता होती है . एक शिक्षक पढ़ाता है . वह जीविका अर्जित करने के लिए पढ़ाता है और इसकी चिंता नहीं करता है कि छात्र को कितना समझ आया . दूसरा इसके लिए तत्पर रहता है कि छात्र अच्छी प्रकार विषय को समझ ले . दूसरा व्यक्ति राष्ट्र के प्रति समर्पित है जबकि दोनों सामान पाठ्यक्रम पढ़ा रहे हैं और सामान वेतन ले रहे हैं . जज वाद का निपटारा शीघ्र कर देता है ताकि न्याय का शासन बना रहे तो वह राष्ट्र के लिए समर्पित है . जो गलत निर्णय देते है या सिर्फ तारीखें ही बढ़ाते रहते हैं वे लोगों को निरंतर कष्ट देते रहते और व्यवस्था को असामाजिक तत्वों के हवाले करते जाते हैं जिसमें शक्तिशाली व्यक्ति को मनमानी लूट और अपराध करने का प्रोत्साहन मिलता है . इससे शासन का प्रमुख कार्य, न्याय-व्यवस्था ही नष्ट होती जाती है .  
     हिटलर, मुसोलिनी जैसे तानाशाहों ने भी अपने देश के लोगों को समर्पण भाव से कार्य करने के लिए प्रेरित किया और बलपूर्वक भी उसके लिए बाध्य किया . परिणाम स्वरूप वहां पहले देश ने बहुत उन्नति की परन्तु फिर उन तानाशाहों के कारण वे द्वितीय विश्व युद्ध में फंस गए और उन्हें बहुत क्षति उठानी पड़ी . लोकतंत्र में व्यक्ति किसी के दबाव में नहीं स्व प्रेरणा  से देश के लिए कार्य करता है . देश के जितने प्रतिशत लोग समर्पित भाव से देश के लिए काम करते हैं, देश में लोकतंत्र की सीमा उतने प्रतिशत ही होती है . इसलिए ब्रिटेन और जापान में रजा के होते हुए भी लोकतांत्रिक व्यवस्था है क्योंकि वहां अधिकांश लोग अपने कम एवं देश के प्रति समर्पित हैं .
४.    देश के बाधक तत्वों को नियंत्रित करना अर्थात सक्षम, सुदृढ़ एवं सक्रिय न्यायपालिका होना .सक्षम का अर्थ है किसी भी स्तर के अपराधी को न्याय के सम्मुख लाने की क्षमता होना . सचिव या मंत्री भ्रष्टचार करता है . उन पर वाद चलने के लिए न्यायलय को किसी मुख्यमंत्री या प्रधान मंत्री की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए . सुदृढ़ का अभिप्राय है भय-लोभ रहित विद्वान् जजों का होना जो बड़े से बड़े व्यक्ति को भी दण्डित कर सकें . सक्रिय का अर्थ है देश में विधि विरुद्ध कार्य की जानकारी मिलते ही स्वयं संज्ञान लेकर अपराधी को सजा देना . भारत में भ्रष्टाचार और गबन करने वाले वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी सतत रूप से उच्च पड़ प्राप्त करते जाते हैं एवं मंत्री वर्षों तक अपने पदों पर जमें रहते है . गरीब और असहाय व्यक्ति की भांति न्यायव्यवस्था  मूक दर्शक बनी रहती है . यदि व्यवस्थापिका अथवा कार्यपालिका का पदाधिकारी भ्रष्टा-  चार करता है तो उन्हीं से यह आशा करना कि वे अपने साथी या अधिकारी को सजा दिलवाने के लिए कोर्ट लायेंगे, हास्यास्पद है . सीबीआई से यह आशा करना कि वह सत्तारूढ़ मंत्री या प्रधानमंत्री के विरुद्ध प्रकरण प्रस्तुत करे जो उसका निर्माता, पालक और  भाग्य विधाता है, कहाँ तक संभव होगा . इसीलिए १९८६ में हुए बोफोर्स कांड में ६४ करोड़  रूपये कमीशन खोरी की जाँच में सीबीआई ने २५० करोड़ व्यय करके लगभग २५ वर्ष मुकदमा चलाकर प्रकरण बंद कर दिया कि उसमें कोई अपराधी नहीं है . करोड़ों रुपयों का गोलमाल एवं बड़े आपराध करने वाले अपराधियों को कुछ हजार रुपयों का अर्थ दंड देना भी भारतीय न्यायव्यवस्था की बहुत बड़ी कमजोरी है .
५.    अन्य लोगों को भय अथवा क्षति न पहुंचाने की सीमा तक नागरिकों को स्वतंत्रता तथा समानता का अधिकार सुनिश्चित करना ताकि वे विधि सम्मत ढंग से कार्य करते हुए  अपने व्यक्तित्व का समुचित विकास कर सकें . कुछ बच्चों को आधुनिक शिक्षण संस्थाओं में मंहगी और अच्छी शिक्षा उपलब्ध है और अनेक ग्रामीण बच्चों को घटिया शासकीय विद्यालयों में पढ़ना पड़ता है जहाँ न व्यवस्थाएं होती हैं न शिक्षक और न कोई प्रेरणा . बड़े होकर वे किसी प्रतियोगिता में कैसे सफलता प्राप्त करेंगे ? यहाँ पर नौकरी में समानता का अधिकार बेईमानी हो जाता है . लोकतंत्र के मार्ग में ऐसी असमानताएं बहुत बड़ी बाधाएं हैं .म. प्र. में मेडिकल कालेजों का फर्जीवाड़ा सामने आ रहा है जहां प्रवेश परीक्षा में सफलता ही नहीं प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए एक अभिभावक ने ७५ लाख रूपये दिए . धन योग्यता से जीत गया . लोकतंत्र की सफलता के लिए इनकी निगरानी और नियंत्रण बहुत आवश्यक हैं . जांच एजेंसी ने कुछ भ्रष्टाचारियों को तो पकड़ा है परन्तु उन घाघ प्रशासकों और नेताओं का नाम भी नहीं लिया गया जिन्होंने चुन-चुन कर ऐसे भ्रष्ट अधिकारी अत्यंत महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किये थे और वे इनसे कितना लाभ कमा रहे थे .  १२०० शब्द 
६ . शक्ति पृथक्कारण : इस प्रकार भारत की संसदीय व्यवस्था में व्यवस्थापिका वही क़ानून बनाती है जिसे प्रधानमंत्री चाहता है और कहता है . यहाँ पर  दल बदल विरोधी क़ानून की आड़ में प्रधानमंत्री राजीवगांधी के कार्यकाल में ऐसा क़ानून पारित किया गया कि अब कोई भी सांसद या विधायक अपने दल के नेता के आदेशानुसार ही किसी क़ानून के पक्ष या विपक्ष में मत दे सकता है , वह  मतभिन्नता व्यक्त ही नहीं कर सकता।  जैसे अभी संसद में सांप्रदायिक हिंसा विरोधी क़ानून बनाया जाना है।  इसमें हिंसा के लिए बहुसंख्यकों को ही  दोषी माना  गया है . प्रधानमंत्री के कांग्रेस दल का  कोई भी सांसद , वह किसी भी धर्म का हो,  इस बिल से सहमत हो या न हो , इसका विरोध नहीं कर सकता और उसे संसद में  इस के पक्ष में अनिवार्य रूप से मतदान करना ही होगा तथा जनता में भी इसको सही ठहराना होगा . सभी दलों के नेता इसके लिए व्हिप जारी कर देते हैं।  इसका सीधा अर्थ हुआ कि देश की व्यवस्थापिका स्वतन्त्र न होकर  पूरी तरह कार्यपालिका के प्रमुख के अधीन है . जजों को वही निर्णय देने होते हैं जो संसद द्वारा बनाए गए कानूनों के अनुसार हों , उससे न्याय हो या अन्याय . दहेज़ के विरुद्ध  और भरण-पोषण के लिए बनाए कानूनों का भारी दुरूपयोग हो रहा है , जज भी समझते और जानते हैं परन्तु कार्यवाही तो उसी के अनुसार करनी होती है . इसके अतिरिक्त उच्चेवं सर्वोच्च न्यायालयों के अवकाश प्राप्त जजों को कार्यपालिका के प्रमुख अर्थात प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री विभिन्न आयोगों के अध्यक्ष एवं सदस्य भी बनाते रहते है . अतः वे भी इन बड़े नेताओं के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने से बचते हैं . इस प्रकार प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं कुछ हद तक न्यायालय की शक्तियां केंद्रित हो जाती हैं . यदि प्रधानमंत्री सर्वोच्च अदालत का आदेश मानने से इंकार कर दें तो न्यायालयों के पास उसका कोई उपचार नहीं है . लोकतंत्र की अध्यक्षीय प्रणाली में इसकि सम्भावना अपेक्षाकृत कम होती है .
       दूसरी समस्या राजनीतिक दलों के सामंतों की है।  भारत में राजनीतिक दल का प्रमुख ही बहुमत मिलने पर मुख्यमंत्री या प्रधान मंत्री बनता है . चुनावों में वही अपने दल के लिए उम्मीदवार तय करता है और चुनाव की टिकट  प्रायः धन लेकर बेची जाती है .  इससे दल के सभी सदस्य अपने दल प्रमुख या सामंत के पूरी तरह अधीन होते हैं  . परिणाम सवरूप उनका राजनीतिक दल और उसकी सम्पत्तियां उनकी निजी संपत्ति हो जाती हैं  और उसके अधिकार उसकी पत्नी एवं बच्चों को स्थानांतरित होते जाते हैं  . भारत का प्रजातंत्र इसीलिए पारिवारिक सामंतवाद में परिवर्तित होता गया है।  भारत के प्रजातंत्र में ये सामंत अपने परिवार को अधिकार देने का बड़ी निर्लज्जता से समर्थन करते हैं . वे कहते हैं कि डाक्टर का लड़का डाक्टर बनता है , उद्योगपति का लड़का उद्योगपति बनता है , अभिनेता का लड़का अभिनेता बनता है तो कोई आपत्ति नहीं करता है . इसलिए नेता का लड़का नेता बनता है तो क्या आपत्ति है ? यह उसका अधिकार है  .  ये सामंत उक्त उदाहरण देकर जनता को मूर्ख बनाते हैं क्योंकि वे यह बात छुपा जाते हैं कि डाक्टर,  उदयमी या अभिनेता का लड़का यदि असफल हुआ तो यह उनकी निजी क्षति होगी जबकि नेता का लड़का जितना दुष्ट होगा देश का उतना ही शोषण करेगा , भ्रष्टाचार करेगा और जनता को मुसीबत में डालेगा। ये बड़े नेता  अपने परिवार के सदस्यों को वहीँ से टिकट देते है जहां उनके समर्थक अधिक होते हैं ताकि वे जीत जाएँ।  इससे लोगों से जुड़े और उनकी समस्याओं को जानने वाले लोग पीछे रह जाते हैं तथा लोकतंत्र  सामंतवाद और तानाशाही में बदलता चला जाता है जिसमें न लोगों की इच्छाओं का महत्त्व होता है और न विचारों की स्वतंत्रता होती है . 
 इसलिए राजनीतिक ददलों के वे व्यक्ति जो मंत्री या उसके समकक्ष  उच्च पद प्राप्त कर लेते हैं, अपने राजनीतिक दल में किसी पद पर नहीं होने चाहिए  . व्यक्ति के पास सरकार से  या संगठन में कोई एक पद होना चाहिए  . एक ही व्यक्ति में विभिन्न की शक्ति केंद्रित होने पर तानाशाही होने लगती है  .
७  .  देश एवं राज्य के उच्च पदों जैसे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री , लोक सभाध्यक्ष, विधानसभाध्यक्ष, मुख्यमंत्री आदि एवं राजनीतिक संगठन के प्रमुख पदों पर किसी एक व्यक्ति का कार्यकाल ८ या १० वर्ष से अधिक नहीं होना चाहिए  . क्योंकि एक ही पद व्यक्ति के जमे रहने से वह  तानाशाही की ओर  प्रवृत्त  होने लगता है।  यह लोकतंत्र पर आघात है। 
८  . पार्टी के पदाधिकारियों तथा चुनाव के समय उम्मीदवार का चयन उस दल के सदस्यों द्वारा सर्व सम्मति या मतदान द्वारा योग्यता के आधार पर किया जाना चाहिए न कि हाई कमान द्वारा, जैसा  वर्त्तमान में भारत में हो रहा है  .  जब इनका चयन हाई कमान द्वारा होता है तो लोग पार्टी के मुखिया की चापलूसी करके  एवं धन देकर  इन्हें प्राप्त करते हैं जिससे योगयता पीछे रह जाती है अयोग्यता विभिन्न रूप धारण करके व्यवस्था को नष्ट कर देती है  . भारत की  अव्यवस्थाएं इन्हीं कारणों  से बढ़ती जा रही हैं  . 
९ . प्रत्येक स्तर पर मतदान करने की स्वतंत्रता एवं  निष्पक्षता होना  . भारत का निर्वाचन आयोग जनता द्वारा  मतदान में तो मतदान करने की यथासम्भव निष्पक्षता, स्वतंत्रता एवं गोपनीयता बनाने का प्रयास करता है परन्तु सामंतों के सामने दुबक जाता है  .राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभाध्यक्ष के चुनाव के समय या किसी बिल केलिए  सांसदों, विधायकों को अपने पक्ष में  व्हिप जारी करने का अर्थ है दूसरे के वोटों  पर कब्ज़ा करना और ये  वोट उनके  निजी वोट न होकर उस जनता के  होते  हैं  जिसका वे प्रतिनिधित्व करते हैं  . यह लोकतंत्र नहीं तानाशाही  है  .  इस आपराधिक कृत्य के लिए समुचित दंड का प्रावधान होना चाहिए  . यदि सामंत सोचते हैं कि उनके बेईमान, भ्रष्ट और अपराधी सदस्य घूँस लेकर अन्य के पक्ष में वोट दे देंगे तो वे स्वयं  चरित्रवान बनें और नैतिकता रखने वाले लोगों को ही दल का सदस्य बनाएं, नैतिक लोगों को ही टिकट दें और नैतिकता पूर्ण कार्य करें  .  अपराधी लोगों को जन प्रतिनिधि बनाना और फिर तानाशाही के लिए व्हिप जारी करना लोकतंत्र पर सीधा प्रहार है  . 
 १०   . चुनाव पूर्व राजनीतिक दलों को अपने घोषणा पत्र  में यह स्पष्ट करना  कि आय कहाँ से प्राप्त करेंगे , कितनी प्राप्त करेंगे और कहाँ, कितना व्यय करेंगे . भारत में इन दिनों मुफ्त के मॉल बाँटने की घातक परम्पराएं प्रारम्भ हो गई हैं .  जिससे प्रत्येक  दल अधिक से अधिक सामान बाँटने की घोषणा कर रहे हैं जबकि कोष रिक्त हैं . दान देना  अच्छी बात है परन्तु बिना आय के लोग कितना व्यय बढ़ा सकते हैं ? यदि सत्ता हथियाने के लिए बिना आय के ऋण लेकर व्यय किये जायंगे   तो विकास कार्य अवरुद्ध हो जायगे  . देश में बेरोजगारी , मंहगाई बढ़ती जाएगी तथा मंदी का विस्तार होगा . इससे लोकतंत्र तानाशाही में परिवर्तित होने लगेगा क्योंकि धनाभाव में चुनी हुई सरकार कार्य कर ही नहीं पायेगी  . फासीवाद और नाजीवाद का उदय इन्ही कारणों से हुआ था .  
११ . सक्षम विपक्ष का होना .  विपक्ष ऐसा होना चाहिए जो गुण-दोष के आधार पर सत्ता पक्ष के कार्यों  का समर्थन अथवा विरोध करे  . उसके सुझाव राष्ट्रहित में होने चाहिए, निजी स्वार्थ के लिए नहीं। 

राजतन्त्र-सामंतवाद और प्रजातंत्र के दोष तथा लोकतंत्र

             
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            राजतन्त्र-सामंतवाद  और प्रजातंत्र के दोष तथा लोकतंत्र 

अवधारणा :  राजतन्त्र  में राजा  देश का स्वामी होता है। सामंतवाद में सामंत सामूहिक रूप से  देश के  स्वामी होते हैं।  देश के लोग भी ऐसा ही मानते हैं।   उत्तराधिकार में उनके वंशजों को स्वतः यह अधिकार मिलता रहता है।  प्रजातंत्र में प्रजा चुनाव में मतदान द्वारा यह  अधिकार जिन प्रतिनिधियों को सौंपती है , उन्हें देश का राजा समझती है। प्रधानमन्त्री, मुख्यमंत्री ( या राष्ट्रपति) भी स्वयं को राजा समझते हैं। लोकतंत्र तभी कहा जायगा जब जनता स्वयं को देश का स्वामी समझती हो , शासन पर उसका नियंत्रण हो और सरकार  के लोग भी स्वयं को राजा न समझ कर  यह समझें कि जनता राजा है और उन्हें उनके हित में कार्य करना है।  
   प्रजातंत्र में मंत्रियों का  विचार एवं व्यवहार सामंतों जैसा ही होता है।  वे कर्मचारियों ही नहीं वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारीयों को भी नौकर  और स्वयं को शासक समझते हैं तथा बड़ी हे दृष्टि से देखते हैं।  २०१३ के दिल्ली के विधान सभा चुनावों में  आम आदमी पार्टी का गठन हुआ। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं द्वारा  उनके सदस्यों को बिलबिलाते कीड़े  कहा गया तो भाजपा नेता द्वारा आम-अमरुद पार्टी। भारत  के  केंद्रीय मंत्री ने उनकी चुनाव में भारी सफलता के बबावजूद जोकर कहा।  सोनिया गांधी के दामाद  ने आम आदमी को हेय  दृष्टि से मैंगो मैन कहा था क्योंकि उसका शोषण करने में बहुत आनंद की  प्राप्ति होती है।  राजशाही में तो आम आदमी की गरिमा का प्रश्न नहीं होता है परन्तु राजा का बहुत सम्मान होता है , वह अच्छा हो या बुरा।  भारत के प्रजातंत्र में तो सरकार  के मुखिया प्रधान मंत्री की गरिमा भी नहीं रह गई है। लोकतंत्र में सभी व्यक्तियों की गरिमा होना आवश्यक शर्त है।  
प्रभुसत्ता :  राजतन्त्र में प्रभुसत्ता राजा में निहित होती है और सामंतवाद में सामंतों में।  वे देश के लोगों एवं संपत्ति का निजि  संपत्ति की भाँति  उपयोग कर सकते हैं। प्रजातंत्र में प्रभुसत्ता मंत्रिमंडल, अफसरशाही , न्यायालय एवं धन-बल से शक्तिशाली लोगों में वितरित होती है जो आपनी- अपनी शक्ति के अनुसार उसका उपभोग करते रहते हैं। मंत्री मंडल स्व इच्छानुसार योजनाएं और क़ानून बनाते हैं।  उनसे जनता का हित भी हो सकता है और उनका भी।  मंत्री घूंस लेकर किसी को ठेका दिलवा दें, किसी की नियुक्ति कर दें  या स्थानान्तरण कर दें अथवा योगयता के आधार पर जन हित में ये कार्य करें यह उनकी इच्छा पर निर्भर करता है।  न्यायालय अपनी प्रभुसत्ता शक्ति का उपयोग करके इसे निरस्त कर सकते हैं , मंत्री को दंड भी दे सकते है।  व्यक्ति शक्तिशाली हो   तो योगयता न रखते हुए भी बिना घूंस दिए अपने सारे काम करवा सकता है।  नक्सली सरकार को नहीं मानते।  वे कर देना तो दूर, अपने प्रभाव के क्षेत्र में लोगों से धन वसूलते हैं और लोग उनकी सत्ता को स्वीकार करते हुए उन्हें शासक की भाँति  स्वयं धन देते हैं।  लोकतंत्र में प्रभसत्ता सामूहिक रूप से जनता में निहित रहती है।  जनता संविधान के अनुसार जिसे जिस कार्य की शक्ति प्रदान करती है , उतनी प्रभुसत्ता का उसे  जनहित में उपयोग करना चाहिए। 
शासन की स्थापना : राजतन्त्र में शासन या स्वतन्त्र राज्य की स्थापना राजा की शक्ति से होती है।  सामंतवाद में सामंतों की शक्ति के अनुसार उन्हें शासन में अधिकार मिलते हैं।  प्रजातंत्र में मतदाताओं  द्वारा सरकार की स्थापना होती है, मतदाताओं के मत चाहे जैसे भी मिलें। 
     पहले राजा अपना राज्य स्थापित करने या उसका विस्तार करने के लिए अन्य राज्यों पर आक्रमण करते थे जिसमे भरी धन लगता था और जान-मॉल की भी भारी क्षति भी होती थी।  भारत के इतिहास में मध्य युग अर्थात मुस्लिम एवं अंग्रेजों के काल में विजयी  राजा और उसकी सेना द्वारा  लूट एवं कत्ले आम सामान्य बातें थीं।प्रजातंत्र में चुनावों में बहुत धन व्यय होता है जिसमें काले धन की मात्रा  बहुत रहती है परन्तु यह धन भ्रष्टों की तिजोरियों से निकल कर जनता तक पहुँचता है।  अतः वैसी क्षति या अपव्यय नहीं होता  जैसा  युद्धों में होता  था ।
   युद्धों के काल में देश एवं धर्म के नाम पर युद्ध करने के आलावा सैनिकों को यह भी कहा जाता था कि विजयी होने पर उन्हें  लोगों को लूटने , मारने, दास  बनाने जैसे अनेक अधिकार मिलेंगे। क्रूर एवं चरित्रहीन  विजयी राजा-सुल्तान  और उसके सैनिक हत्याएं , लूटपाट , बलात्कार जैसे कार्य आनंद पूर्वक करते थे।  राजा उन्हें धन और भूमि भी देते थे।  इसमें साधारण जनता कष्ट भोगती थी।  प्रजातंत्र में चुनाव जीतने के लिए नेता वोटरों को सस्ता अनाज, मुफ्त के प्लाट, मकान, बिजली , कर्ज माफी, घरेलू मंहगे सामान आदि देने का वायदा करते हैं जिसके लिए करों का बोझ उस भोली- भाली जनता को ढोना पड़ता है जो कानून का पालन करती है। सिर्फ सत्ता सुख की कामना करने वाले नेताओं में अच्छे चरित्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।  
   उस युग में धर्म, जाति,वंश के नाम पर लोगों में शासकों के प्रति श्रद्धा - भक्ति पैदा की जाती थी। अनेक शासक भय फैलाकर भी जनता को अपने वश में  रखते थे।  प्रजातंत्र में वोटरों से झूठे वायदे करके, धन देकर,  जाति ,वर्ग,धर्म, क्षेत्रीयता, वंश आदि के नाम से सम्मोहित करके अथवा  डरा-धमका कर  वोट प्राप्त कर लिए जाते हैं।
  प्राचीन समय में भी अनेक राजा-सामंत  अपढ़ होते थे। अपढ़ व्यक्ति भी अपने तीव्र आक्रमणों से विजय प्राप्त करते थे. उनके सैनिक होने के लिए पढ़ाई- लिखाई की कोई आवश्यकता नहीं थी . उसी  प्रकार  प्रजातंत्र में भी अपढ़ और अयोग्य व्यक्ति शासनाधिकार प्राप्त कर लेते हैं तथा वोटरों के लिए शिक्षा एवं ज्ञान  कोई शर्त नहीं है। यह भी अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य है कि भारत में तो अनेक पढ़े-लिखे , ज्ञानी और योग्य व्यक्ति मतदान करने ही नहीं जाते हैं। भारत के प्रजातंत्र में सांसद- विधायक भी , जो स्वयं को महान ज्ञानी और योग्य समझते हैं, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति के चुनाव के समय एवं संसद में महत्वपूर्ण विषयों पर मतदान के समय कभी स्वेच्छा से , कभी बहिष्कार के नाम पर सदनों से गायब हो जाते हैं। यदि मूर्ख और अपढ़ कहे जाने  वाले लोग भी वोट न डालें तो यहाँ पुनः प्रत्यक्ष राजशाही स्थापित हो जाती , प्रजातंत्र भी न रहता।इसलिए प्रजातंत्र के लिए यह कहना कि इसमें अपढ़- शिक्षित , सदाचारी-दुराचारी, छोटे-बड़े सभी का  वोट सामान होना अनुचित है, तर्क सांगत नहीं है क्योंकि यह सैनिक शक्ति से सत्ता परिवर्तन की तुलना में बहुत-बहुत अच्छा है।  
   पूर्व में शासन पर अधिकार शक्तिशाली राजा का होता था।  योद्धा, धनी  एवं धर्म गुरु सत्ता में अच्छे पद प्राप्त कर लेते थे।  ये पद उत्तराधिकार में चलते रहते थे।  प्रजातंत्र में भी सब लोग चुनाव नहीं लड़ सकते हैं।  उसके लिए धन, बल, क्षत्रप का सहयोग , पूर्व नेता का सम्बन्धी जैसे गुण होना आवश्यक है। भारत में तो अनेक विभागों में किसी व्यक्ति या अधिकारी के निधन होने पर उसके निकट सम्बन्धी को नौकरी दे दी जाती है जैसे वह  विभाग उनकी निजी संपत्ति हो।  उसमें योगयता को भी नहीं देखा जाता है।  
  राजतन्त्र में कमजोर शासक खोने पर आतंरिक षड्यंत्रों एवं बाह्य आक्रमणों के कारण सत्ता अस्थिर रहती थी।  उसी प्रकार प्रजातंत्र में भी विपक्षियों के कारण कमजोर सरकारें भंग हो जाती हैं।  
   लोकतंत्र में उक्त दोषों का यथा सम्भव निराकरण हो जाता है।  
राजशाही स्वतः चलती रहती थी परन्तु प्रजातंत्र में ४ या ५ वर्ष बाद नेताओं को जनता के सामने जाकर वोट के लिए हाथजोड़ने पड़ते है , सच स्वीकार करना पड़ता है कि वे सेवक हैं।  जनता की बातें हे नहीं आक्रोश का सामना भी करना पड़ता है और अनेक प्रतिष्ठित नेता चुनाव में हार भी जाते हैं।  जो जीत जाते हैं वे प्रजा पर शासन करने के लिए राजा बन जाते हैं समाचारपत्र और मीडिया उनकी बारम्बार स्तुति करते हैं कि उनका राज स्थापित हो गया।  
शासन का संचालन:   राजतन्त्र में राजा के आदेश ही क़ानून और न्याय होते थे।  किसी से अप्रसन्न हुए तो सीधा मृत्यु दंड दिया।  क़त्ल करना, हाथी से कुचलवाना, ऊंचाई से नीचे फेंकना आदि क्रूर तरीकों से विद्रोहियों और अपराधियों को मरवा दिया जाता था।  बाद में दंड संहिता तथा अन्य कानूनों का विकास किया गया जिसके अनुसार सज़ा का प्रावधान होता था परन्तु न्यायलय राजा-नवाब एवं धनवानों का पक्ष लेते थे।  कभी गरीब जके भी बात सुनी जाती थी तो उस राजा की कीर्ति दूर-दूर तक फैल जाती थी।  प्रजातंत्र में व्यवस्थापिका क़ानून बनाती है , कार्यपालिका उसके अनुसार कार्य करती है और तथा कथित स्वतन्त्र न्यायालय न्याय करते हैं। राजशाही की भांति यहाँ भी न्यायालय शासक वर्ग एवं धनी  लोगों का पक्ष लेते हैं।  कुछ अपवादों को छोड़कर  भारत के न्यायालय वर्षों तक निर्णय ही नहीं देते हैं।  परन्तु ये न्यायालय अनेक बार अपराधियों को कड़ी सज़ा शीगघ्र  ही दे देते हैं और कभी-कभी बड़े लोग और  मंत्री तक इनकी चपेट में आ जाते हैं और सज़ा - जेल भुगतते हैं। लोकतंत्र में कार्य व्यवस्था इस प्रकार होगी कि लोग अपराध करें ही नहीं , करें तो अपराध की प्रकृति और समय के अनुसार उन्हें प्रायश्चित का दंड दिया जाय और कठोर सज़ा केवल आदतन और क्रूर अपराधियों को ही दी जाये।  इस दृष्टि से अमेरिका के न्यायालय बहुत सक्रिय  एवं सक्षम हैं।  वहाँ भ्रष्टाचार में लिप्त गवर्नार को तीन वर्ष के अंदर १४ वर्ष के कारावास की  सज़ा इसलिए सुना दी गई कि उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया था और अपने कार्यों पर दुखी भी था।  
     राजा-नवाबों के  शासन के अधिकारी उनके निकट के सम्बन्धी या राजा के चहेते होते थे।शासन में हरम से भी दखल होते थे।  प्रजातंत्र में यद्यपि योगयता के आधार पर अधिकारीवर्ग की नियुक्ति के लिए संस्थाएं बनाई गई हैं परन्तु  ये नियुक्तियां  भारी घूंस, नेता -अफसरों से रिश्तेदारी  एवं जाति-धर्म के  आधार पर भी होती रहती हैं।  भोपाल में इन दिनों मेडिकल कालेजों में प्रवेश एवं नौकरियों में नियुक्ति के लिए भारी घूंस देने का भंडाफोड़ हुआ है। राज्यों में तो कर्मचारियों-अधिकारियों का स्थानांतरण  भी मंत्रियों की आय का बड़ा साधन बन गया है। राजशाही में प्रशासनिक नियुक्तियां राजा करता था और नया राजा प्रायः उसमे बदलाव कर देता था।  प्रजातंत्र में सत्तारूढ़ दल बदलते रहता हैं अतः स्थाई एवं प्रशिक्षित नौकरशाही अनिवार्य हो जाती है। बदलती सरकारें इसी नौकरशाही के भरोसे पर चलती रहती है। 
  राजशाही में राजा की आय का स्रोत जनता से प्राप्त कर, विदेशों पार आक्रमण से लूटा गया धन और सामंतों द्वारा दी गई भेंटें होती थीं।  राजा -सुल्तान उस राशि का उपयोग स्वेच्छानुसार करते थे।  अपने महल बनवाना, किले बनवाना, खाने-पीने और वस्त्रों पर व्यय करना, सेना व्यय तथा ऐश-ओ -आराम के अनेक साधन होते थे।  वे अपने चहेतों को भी दिल खोलकर धन बांटते थे।  उत्सवों पर दान- दक्षिणा भी करते थे।  अपने सम्मान एवं कीर्ति में वृद्धि के आयोजनों पर भी जम कर व्यय करते थे।उसी जनता धन से बनवाए गए उनके राजमहल एवं किले वर्त्तमान में मंहगे और आलीशान होटलों में परिवर्तित हो गए हैं और उनकी आय एवं प्रतिष्ठा के सूचक बन गए हैं।  100
प्रजातंत्र में भी मंत्री अफसर जनता से प्राप्त धन को अपनी इच्छानुसार उपयोग करते हैं। वे  प्रधानमंत्री , मुख्यमंत्री चुने जाने  पर राजा- महाराजाओं जैसे उत्सव्  आयोजित किये जाते हैं ताकि जनता समझ सके कि अब वे ही उनके राजा है - दाता  हैं।ये नेता जब भी कोई कार्य करते हैं जनता को यह एहसान दिखने से नहीं चूकते कि वे उनके लिए  कार्य  करवा रहे हैं जबकि वह  सारा धन जनता धन होता है। वे जनता धन का जम कर दुरूपयोग करते हैं , बर्बाद करते हैं और भ्रष्टाचार करते हैं। इसलिए अनेक नेता अल्प काल में ही बिना कोई उद्योग-व्यवसाय किये  अरबपति हो गए।  
  राजतंत्र में जन हित के कार्यों पर राजा बहुत कम व्यय करते थे।  प्रजातंत्र में बहुत व्यय करते हैं।  इसलिए भ्रष्टाचार के बावजूद जनता के लिए बहुत काम होता रहता है। सदियों से चले आ रहे भारत और स्वतंत्रता के ६६ वर्ष बाद अब तक के  भारत में कितना अंतर है !  
  पहले राजा के दरबारी उसकी चापलूसी करते थे। प्रजातंत्र में पार्टी के नेता अपने बड़े नेताओं, मंत्रियों,मुख्यमंत्री और प्रधान मंत्री के गुणगान करते हैं , वे चाहे कितने भी निकम्मे एवं भ्रष्ट हों। भारत के विदेश मंत्री  सलमान खुर्शीद कहते हैं कि सोनिया गांधी सारे देश की माँ  हैं ! कभी कांग्रेस के अध्यक्ष देवकांत बरुआ कहते थे कि इन्दिरा भारत है और भारत इन्दिरा  है।  चापलूसी  राजदरबार का स्थायी भाव रहा है।  ये चापलूस ही शासन को बर्बाद करते रहे हैं। 
        लोकतंत्र में यथासम्भव  योग्य लोगों को ही नियुक्त किया जायगा अतः शासन अच्छा होगा। उसमें शासक वर्ग को यह ध्यान रखना होता है कि राष्ट्र का धन जनता का धन है , उनका नहीं और यथा सम्भव उसका सदुपयोग करना है।  दुरूपयोग करने पर पश्चिमी देशों में सज़ा के कड़े प्रावधान  हैं।  भारत जैसे देश में प्रजातंत्र में काम करने, न करने , मक्कारी करने या गलत करने पर कर्मचारी पर प्रायः कोई आरोप नहीं लगता है।  यदि वे तिकड़म से अपने वरिष्ठ अधिकारियों को खुश रख सकते हैं तो उन्हें नौकरी में वेतन के साथ नियमित पदोन्नतियां भी मिलती जाती हैं।  देश-प्रदेश में अनेक विभाग घाटे में चले गए और बंद होने के कगार पर अ गए और अनेक तो बंद भी हो गए जिनमें जनता का अरबों रुपया लगा हुआ था परन्तु उनके प्रशासक नियमित रूप से पदोन्नत होते गए। लोकसभा में तथा विधानसभाओं में सदस्य न स्वयं कम करते हैं और न काम करने  देते हैं  परन्तु वे अपने वेतन-भत्ते  नियमानुसार पूरे लेते हैं क्योंकि प्राचीन सामंतों की भाँति जनता धन का दुरूपयोग करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझते हैं।  
लोकतंत्र में काम न करने वाले लोग अपने पद पर नहीं रह पाएंगे और दूसरों के कार्य में बाधा पहुंचाने वालों को सज़ा दी जायगी। 
 प्राचीन काल में छोटे राजा-सामंत सम्राटों को कर के अतिरिक्त भी विशेष अवसरों पर भेंट- उपहार देते थे, युद्ध में उनकी सहायता करते थे।  इसके बदले सम्राट भी उन्हें दरबार में ऊंचे पद और जागीरें देते थे।  प्रजातंत्र में भी जो लोग नेताओं को चुनावों में सहयोग करते हैं , उनकी सरकार बनने  पर नेता उन्हें अनेक प्रकार से लाभ पंहुचाते हैं। उद्योगपतियों को करों में छूट , उनके तथा अन्य वोटरों के लाभ के लिए क़ानून बनवाना , उन्हें भूखंड और ठेके देना जैसे अनेक कार्य करते हैं।  जो लोग मंत्रियो - अफसरों को घूंस देते हैं उनके कम भी आसानी से होते जाते हैं।  यह भी राजतंत्र का परिवर्तित रूप ही है जिसे सब भ्रष्टचार कहते हैं परन्तु ऐसा सदियों से चला आ रहा है। पहले राजा-सम्राट यह लेन -देन  का कार्य सर्वजनिक  रूप से करते थे  जबकि वर्त्तमान नेता  यह छुपकर करते हैं क्योंकि वे जानते हैं या पूर्णतयः गलत है भ्रष्टाचार है , समानता के नियमों के विपरीत और संविधान का उल्लंघन है।  
 इस सन्दर्भ में एक अन्य समानता भी  है पहले जब सम्राट कमजोर होते थे तो उनके आधीन छोटे राजा-नवाब उन्हें कर देना बंद कर देते थे। वे जनता से प्राप्त कर को अपने कोष में रख लेते थे, अपनी सेना और मित्रों की संख्या में वृद्धि करते रहते थे और अवसर देख कर स्वतन्त्र शासक बन जाते थे। 
 प्रजातंत्र में  जब शीर्ष नेता कमजोर होते हैं तो उनके दल एवं बाहर के छोटे या नए नेता भ्रष्टाचार द्वारा धन जामा करते जाते हैं और अवसर मिलने पर स्वतन्त्र दल या गुट बना लेते हैं और धीरे-धीरे बड़े सामंत बनते जाते हैं और कालान्तर में अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करके राजाओं की भाँति  व्यवहार करने लगते हैं। भारत में विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। 
  धन के विषय में एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि राजशाही में राजा जनता कर को जनहित में उपयोग न करके अपने कोष में रख लेते थे जिसपर  आक्रमणकारी विजयी  राजा अधिकार कर लेते थे। 
 महमूद गजनवी, तैमूरलंग, अहमदशाह अब्दाली , नादिरशाह जैसे लुटेरे और अंग्रेज देश का अकूत धन अपने देशों में ले गए।  प्रजातंत्र में भ्रष्टाचार से कमाए गए धन को उद्योगपति , व्यापारी, अफसर, नेता स्वयं विदेशों में जमा कर आते हैं जिसका वे स्वयं शायद ही उपयोग कर पाएं।  ऐसे अनेक लोगो के आकस्मिक निधन के बाद वह सारा धन विदेशियों का स्वतः हो जाता है।  
    लोकतंत्र में धन का उचित उपयोग करने पर नियंत्रण रहेगा अतः ऐसी स्थिति निर्मित नहीं होगी।   
    राजशाही में राजा के कमजोर होने पर दरबार में गुटबंदी होने लगती थी जिससे शासन का स्तर गिरता जाता था। प्रजातंत्र में गुटबंदी और सामंतों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के कारण अस्थिरता उत्पन्न होती रहती है।
   प्रजातंत्र पर कुछ अन्य आक्षेप भी किये गए हैं कि उसमें सांस्कृतिक विकास बाधित होते हैं एवं यदि वैज्ञानिक आविष्कारों के पूर्व प्रजातंत्र हो जाता तो ये आविष्कार ही न हो पाते।  राज्याश्रय में सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सीमित लोगों को ही प्रोत्साहन दिया जाना सम्भव था जबकि अब जनता के सहयोग से सांस्कृतिक विकास द्रुत गति से हो रहा है।  मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में ही शासन के सहयोग से वर्ष भर विश्वस्तरीय सांस्कृतिक आयोजन निःशुल्क होते रहते हैं , कलाकारों एवं सहितीकारों को अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार वितरित किये जा रहे हैं।  शिल्पकारों के लिए शासन की और से अनेक हाट लगाए जा रहे हैं , उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शिल्प को स्थापित करने में सहयोग दिए जा रहे हैं।  अमेरिका में संगीत कार्यक्रमों में लोग १००-२०० डालर की टिकटें लेकर जाते हैं जिससे सांस्कृतिक विकास स्वतः होता जाता है।  फिल्मों के विकास  को देखें तो यह भी जन समर्थन के कारण तीव्र गति से बढ़ा  है।  इसी प्रकार अमेरिका में लोकतंत्र १७७६ से है।  वहाँ वैज्ञानिक आविष्कार सर्वाधिक हुए हैं  जबकि भारत जैसे अनेक देशों में राजतंत्र के चलते न तो वैज्ञानिक आविष्कार हुए न ही क्षेत्र का विकास हुआ।  हाँ, प्रजातंत्र में कुछ अल्पज्ञानी लोग इसमें रूकावट डालने के प्रयास करते हैं।  १९८० के दशक में भारत ने उपग्रह छोड़ा था जो असफल रहा।  उस समय कुछ समाजवादी किस्म के नेताओं का कहना था कि इतना धन व्यर्थ कर दिया इसको गरीब लोगों में बाँट देते तो वे कुछ अच्छा खा-पी लेते।आज भारत में जो संचार क्रांति हुई है , भारत ने अनेक उपग्रह बनाए हैं और मिसाइलें छोड़ी हैं , यह उसी असफलता को सुधरने के बाद सम्भव हुआ है।  भारत के मंगल मिशन पर ४५० करोड़ रूपये व्यय होने पर भी कुछ सुगबुगाहट थी कि इससे क्या लाभ होगा।  भोपाल में ४५० करोड़ रूपये व्यय करके मिसरोद से बैरागढ़ का २४ किमी मार्ग बनाया गया है जो बनते ही टूटने लगा  है और जिससे नगर के लाखों लोग कष्ट का अनुभव कर रहे हैं।  अतः प्रत्येक काल में विभिन्न स्तरों पर विघ्न संतोषी जीव बोलते रहते हैं परन्तु काम होते जा रहे हैं।  यही प्रजातंत्र की राजतन्त्र पर सफलता है। 
  प्रजातंत्र को बहुसंख्यकों का अल्पसंख्यकों पर अत्याचारी शासन भी कहा गया है।  इतिहास खता है कि विश्व में हिन्दू राजाओं को छोड़कर सभी धर्मों के लोगों ने अल्पसंख्यकों पर क्रूर अत्याचार किये हैं।  जन जागृति  के साथ पश्चिमी दार्शनिकों ने धर्म के शासन में हस्क्षेप के विरुद्ध  अपने विचार दिए जिनका धीरे- धीरे प्रचार- प्रसार हुआ।  अब पश्चिमी देशों में या जिन देशों में  ईसाई बहुसंख्यक हैं, शासन द्वारा अल्प संख्यकों पर अत्याचारों को रोका गया है और उन्हें अपना धर्म पालन करने की स्वतंत्रता भी दी गई है , कुछ अपवाद हो सकते हैं।  परन्तु मुस्लिम देशों में राजशाही हो या प्रजातंत्र , अन्य धर्मावलम्बियों को जन-माल की क्षति आज भी उठानी पड़ती है क्योंकि वे राज्य को इस्लाम के प्रचार-प्रसार का एक साधन मानते हैं और काफिरों से घृणा करते हैं।  यद्यपि अब उनमें भी कुछ परिवर्तन आने लगे हैं परन्तु आज भी मुस्लिम देशों के शासक और अन्य देशों के मुस्लिम नेता सत्ता में आगे बढ़ने के लिए धर्म का अवलम्बन लेना  अपने धर्म का ही अंग मानते हैं।  भारत में तो अल्पसंख्यकों अनेक अधिकार संविधान द्वारा दिए गाये हैं जबकि बहुसंख्यकों को कोई अधिकार नहीं हैं।  भारत में हिन्दू द्वारा संचालित स्कूल में हिन्दू धर्म की शिक्षा देने पर मीडिया  और अनेक हिन्दू विरोधी नेता हंगामा करने लगते हैं।  इसके विरोध में सरकार और न्यायलय भी कार्यवाही कर सकते हैं परन्तु यदि किसी अल्पसंख्यक द्वारा स्कूल संचालित किया जा रहा तो उसमें भले ही हिन्दू बच्चों और शिक्षकों की संख्या उनके धर्म वालों से अधिक हो , वे अपने धर्म आधारित पाठ, प्रार्थनाएं एवं अन्य कार्य कर सकते हैं। अतः प्रजातंत्र को बहुसंख्यकों का अल्पसंख्यकों पर शासन कहना उचित नहीं है।
  प्रजातंत्र पर यह भी आक्षेप है कि आपातकाल में जैसे बाह्य आक्रमण के समय सारिशाक्ति राष्ट्राध्यक्ष को सौंपनी पड़ती है अर्थात प्रजातंत्र को स्थगित करना पड़ता है।  राष्ट्र का जीवन सर्व प्रथम विचारणीय है।  उसके लिए यदि वे किसी एक , जैसे राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री को अधिकार देते हैं तो उचित भी है क्योंकि एक देश में रहने वाले लोग , वे सत्ता पक्ष में हों या विपक्ष में, अंततः हैं तो एक , परस्पर शत्रु तो नहीं हैं  क्योंकि प्रजातंत्र में भी विपक्ष की सहमति एवं सहयोग लेने का पूरा प्रयास किया जाता है।  अतः यह भी आरोप निराधार है।   
 नियंत्रण  : राजा सर्वोच्च होता है उस पार किसी का नियंत्रण नहीं होता है।  राज्य एवं कीर्ति बढ़ती है तो उसकी और घटती है तो उसकी।  परन्तु अच्छे शासक अपने सलाहकार या मंत्रिमंडल की सहमति से ही शासन करते थे। प्राचीन  भारत में  राजा भी दंड अर्थात शासन संहिता के आधीन रहकार कार्य करते   थे।  उन्हें परामर्श देने के लिए मंत्रियों के अतिरिक्त धर्मगुरु भी होते थे जो नैतिकता पर आधारित शासन चलाते थे जिसमें मनुष्य की गरिमा भी रहती थी।फिर भी राजा स्वेच्छाचारी होते थे।  भरी सभा जिसमें उनके पिता राजा धृतराष्ट्र , दादा भीष्मपितामह और गुरु द्रोणाचार्य भी उपस्थित थे,  में दुःशासन द्वारा द्रौपदी का चीर हरण और हिटलर - मुसोलिनी द्वारा विपक्षियों की हत्याएं जैसी घटनाएं प्रदर्शित करती हैं कि राजा पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं होता था।   
प्रजातंत्र में  मंत्रियो पर भी क़ानून लागू होते हैं जिनके अनुसार दोषी पाए जाने  पर उन्हें भी साधारण नागरिक की भांति दंड भोगना पड़ता है।  पश्चिमी देशों तथा  जापान में लोकतंत्र में भ्रष्टों को शीघ्र सज़ा मिल जाती है जबकि भारत जैसे देश में बहुत विलम्ब से या सज़ा मिल ही नहीं पाती  है।प्रजातंत्र में उचित नियंत्रण लागू कर दिए जाँय तो  वह लोकतंत्र हो जायगा जिसमें आम आदमी राजा होगा , सबकी गरिमा होगी   और सब मिलकर राज्य व्यवस्था का संचालन करेंगे।     
       
   
   
     







    



किसकी सरकार ?


                                               किसकी सरकार ?    
    लोक सभा चुनाव २०१४ के परिणामों के लिए राजनेता चिंतित है और जनता उत्सुक है कि किसकी  सरकार बनेगी . मीडिया वाले उसमें अपना तड़का लगते रहते हैं कि इसकी सरकार बन रही है उसकी सरकार बन रही है जैसे कोई मोदी की सरकार बना रहा है तो कोई राहुल की सरकार न बन पाने की भाविष्य वाणी कर रहा है तो कोई अरविन्द केजरीवाल की बात कर रहा है और कोई कोई तो तीसरे मोर्चे का नाम भी ले लेता है . मीडिया और लोगों की चर्चाओं से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि सरकार किसी की भी  बने ‘जनता की सरकार’ तो नहीं बन रही है क्योंकि यह आज तक कभी नहीं बनी . 
   कुछ मीडिया वाले स्वयं को जनता का बड़ा हितैषी दिखाते हुए सरकारी व्यवस्थाओं की दुर्दशा का वर्णन करते है और लोकतंत्र का नाम लेते हैं . जब कि इनमें से कोई यह भी नहीं जानता कि लोकतंत्र का अर्थ क्या है और सरकार किसे कहते हैं . इन्हें धन कमाने, जनता को सम्मोहित करने, मूर्ख बनाने और राजनीति करने की कला तो खूब आती है परन्तु राजनीतिशास्त्र का अल्प ज्ञान भी नहीं है अन्यथा ये किसी व्यक्ति या किसी पार्टी की सरकार बनने की बात कभी न करते .
    इसी प्रकार कुछ लोग वृद्ध राजनीतिज्ञों और दलबदलुओं के कुर्सी मोह की चर्चाएँ भी चटकारे लेकर करते हैं ताकि जनता को मूर्ख बनाते रहें परन्तु ये कभी इस पर चर्चाएँ नहीं करते , न करवाते हैं कि ये नेता और उनके दल देश की समस्याओं के हल किस प्रकार निकालेंगे . चुनाव के समय उनके चर्चा के प्रिय विषय होते हैं – अयोध्या  की बाबरी मस्जिद , गोदरा नहीं, उसके बाद के दंगे , हिन्दू  साम्प्रदायिकता, नेताओं के अपने दल विरोधी बयान और ऐसे अन्य विषय जिससे जनता दिग्भ्रमित होती रहे और वे अपने-अपने चहेतों को चुनाव जितवा ले जाएं .
    दो मार्च को रजतपथ विचारमंच ने ‘ लोकतंत्र का स्वरूप ‘ विषय पर बुद्धिजीवियों की संगोष्ठी की थी जिसमें सामंतवाद और वर्तमान प्रजातंत्र की विस्तार से तुलना करके वर्तमान घटनाओं की व्याख्या की गई थी जो लोकतंत्र के नाम पर लोगों के मन में उठते रहते हैं . यह भी बताया गया था कि लोकतत्र में  समाज, शिक्षा, अर्थव्यवस्था , प्रशासन एवं न्याय प्रणाली आदि कैसे होंगे और उन्हें कैसे क्रियान्वित करेंगे . परन्तु एक चैनेल को छोड़कर वहां कोई नहीं पहुंचा क्योंकि वे जानना ही नहीं चाहते, लोगों के सामने लाना ही नहीं चाहते कि वास्तविक लोकतंत्र क्या है . इस अंक में संगोष्ठी का सार-संक्षेप दिया गया है .
    भारत की वर्तमान राजनीतिक  व्यवस्था नव सामंतवाद है जिसे कांग्रेसी  प्रधान मंत्री नरसिम्हा राव ने पूर्णता प्रदान की  थी . अपनी अल्पमत सत्ता बचाने के लिए उन्होंने अपनी कांग्रेस पार्टी की कीमत पर अनेक प्रदेशों में स्थानीय सामंतों, क्षत्रपों को स्वतन्त्र और मजबूत बनाया . 
    सामंत वे होते हैं जिनके अधिकार तो सारे होते हैं परन्तु कर्तव्य शून्य होते हैं, वे जितना काम कर दें जनता पर एहसान होता है . ये क़ानून से ऊपर होते है, जनता धन का आदि काल से अपनी सुख- सुविधाओं के लिए पूरी लगन से उपयोग करते रहे हैं . इनके पास चमचों की शक्तिशाली टीम भी होती है जो उन्हें महान सिद्ध करती रहती है . इन्हें नव सामंत इसलिए कहा है कि ५ वर्षों के बाद इन्हें जनता के सामने जाना पड़ता है, हाथ भी जोड़ने पड़ते हैं, वोट के लिए चिरौरी भी करनी पड़ती है . दूसरे दर्जे के सामंत या अप्रत्यक्ष सामंत वे हैं जिनके पास धन बल, भय बल, प्रशासनिक बल, कानूनी या न्यायिक बल, मीडिया बल, साम्प्रदायिकता(धर्म) का बल, जाति, क्षेत्र या भाषा का बल या अन्य किसी प्रकार का बल होता है जो चुनाव को प्रभावित कर सकता है या उन्हें क़ानून से ऊपर रखता है, मनमानी करने के अधिकार देता है . यदि कोई इन्हें सामन्ती शक्ति के दुरूपयोग से रोकता है तो कानून इन्हें पूरी मदद करता है, पुलिस और न्यायलय उनका साथ देते हैं . जैसे किसी बड़े अधिकारी ने घपले किये, प्रथम उसके विरुद्ध जांच की अनुमति नहीं मिलेगी, मिल गई तो उसके साथी केस कमजोर कर देंगे, न्यायलय अनेक वर्षों तक उनके मुकदमों को टालता जायगा, उनके प्रमोशन होते जांयगे और अधिकार बढ़ते जांयगे, घपले बढ़ते जांयगे . कोई भी सामंत मरने से पहले अपने पद, मान – सम्मान और सुख सुविधाएँ क्यों छोड़ना चाहेगा ? वह आख़िरी दम तक लड़ेगा, आप उन्हें चाहे सिद्धान्तहीन या पद लोलुप कहें, दल बदलू कहें या और कोई उपाधि दें . सामंतों का एक ही सिद्धांत होता है – किसी भी प्रकार सत्ता-सुख भोगना .  
                
    नरसिम्हा राव की सरकार में सामंत बाहर से समर्थन कर रहे थे . उसके बाद वे मिलकर शासन करने लगे और अब वे इतने शक्ति शाली हो गए हैं कि मिलकर देश (के मंत्री पदों) को परस्पर बाँट लेते हैं और एक संयोजक नियुक्त कर देते हैं जिसे प्रधान मंत्री कहा जाता है . वह किसी मंत्री की शिकायत उसके सामंत से तो कर सकता है परन्तु स्वयं उसके विभाग में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता . इसलिए चुनावों में सभी सामंत कहीं पर किसी से मिलकर चुनाव लड़ते है और कहीं पर उस दल के विरुद्ध लड़ते हैं . चुनावों में सभी सामंत अपनी शक्ति बढ़ाने में लगे रहते हैं क्योंकि सदन में उनके सदस्यों की संख्या के आधार पर उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी मिलेगी . जो व्यक्ति उन्हें सबसे अधिक संतुष्ट करेगा अर्थात लाभ देगा वही प्रधान मंत्री बनेगा, उसके सदस्यों की संख्या भले ही कम हो . इसी लिए निर्दलीय इकलौता सदस्य मधु कोंडा झारखण्ड का मुख्य मंत्री बन गया था . ‘गठबंधन की राजनीति’ राजनीति शास्त्र का कोई सिद्धांत नहीं है , सामंतवाद है . उसी से वर्तमान राजनीति की घटनाओं को समझा जा सकता है .
    सामन्तवाद के आधार पर यदि विश्लेषण करें तो क्या नरेंद्र मोदी अन्य सहयोग देने वाले दलों को मनमानी की छूट दे पायेंगे ? इसलिए पहले तो वे संयोजक प्रधानमंत्री बन ही नहीं पायेंगे और यदि भाग्य ने बहुत जोर मारा और बन भी गए तो चल नहीं पाएंगे क्योंकि अन्य दलों पर भाजपा की कूटनीति या संघ का अनुशासन कैसे चलेगा ? उनकी पार्टी भाजपा के सदस्य क्या अपनी सामन्ती शाक्ति छोड़ना चाहेंगे ? इसलिए वे स्वयं को दल का सिपाही न सही, सेनापति तक ही मानें तो अधिक सुखी रहेंगे .
   कांग्रेस की हालत खस्ता तो है परन्तु सोनिया गाँधी की कूटनीति शून्य नहीं हुई है . हाँ, राहुल अपनी अक्ल जहाँ-जहाँ लगाएँगे कांग्रेस को क्षति पहुंचेगी . यदि भाजपा के अतिरिक्त अन्य दलों की सदस्य संख्या कांग्रेस के साथ मिलकर अधिक हो रही होगी तो वह दिल्ली में केजरीवाल सरकार बनाने की भांति केंद्र में भी बिना शर्त किसी को भी समर्थन दे देगी और अवसर की तलाश में चुपचाप पीछे बैठ जाएगी . लोकतंत्र का मुखौटा लगाए हुए घाघ सामंतों की भीड़ से बाहर निकल कर लोकतंत्र की स्थापना करना जिसमें सरकार की स्थापना, संचालन एवं नियंत्रण जनता का हो वर्तमान परिस्थितियों में तो संभव नहीं दिखता है .