बुधवार, 28 अप्रैल 2010

हिंसक देश -बंध अपराध हैं

हिंसक देश- बंध अपराध हैं । हिंसा करने के लिए बंध का सहारा लेना लोगों की आदत बनती जा रही है.भारत में मंहगाई के नाम पर दिनांक २७ अप्रेल को देश की अनेक पार्टिओं ने बंध का आयोजन किया.बिहार एवं बंगाल में ट्रेनों को रोका गया ,आग भी लगाई गई लालू, मुलायम, माया ने मंहगाई के विरोध में भारत -बंध का आवाहन किया । संसद में सरकार के विरुद्ध बोले भी परन्तु सरकार के विरुद्ध वोटिंग करके सरकार का साथ दिया कि यह अच्छी सरकार है,बनी रहे. इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि नेताओं को मंहगाई या लोगों की समस्याओं से कुछ लेना देना नहीं है। उन्हें अपनी ताकत दिखाने और हिंसा करने के लिए यह नाटक करना था। यदि वे बिना बंध के तोड़- फोड़ करते तो सजा मिल सकती थी। लोग उन्हें अपराधी मानते उनकी नेता की छवि ख़राब होती अब मीडिया ने उनके समाचार दिए, उनकी फोटो दिखाई लोग बंध नहीं चाहते हैं ।उच्चतम न्यायलय भी बंध करने, लोगों को परेशान करने और हिंसा करने पर आपत्ति कर चुका है ,परन्तु नेता अपनी नेतागिरी के लिए यह सब करते हैं.समाचारपत्र भी लिख रहे हैं कि विरोध का कोई और तरीका होना चाहिए।
स्वतंत्रता आन्दोलन में जब गांधीजी असहयोग आन्दोलन कर रहे थे तो गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने उनसे प्रश्न किया था कि आप जो आन्दोलन कर रहें हैं यदि आजादी के बाद भी लोग सरकार के विरुद्ध इसी प्रकार आन्दोलन करने लंगेंगे तो सरकारें कैसे चलेंगी ? गांधीजी ने कहा कि अभी हम sarkar के विरुद्ध इसलिए असहयोग आन्दोलन करते हैं कि यह विदेशी सरकार है और हमारा शोषण कर रही है आजादी के बाद अपनी सरकार होगी , अपनी सरकार के विरुद्ध कोई क्यों आन्दोलन करेगा ! आज तक अपनी सरकार नहीं बन सकी है. आन्दोलन हो रहे हैं और लोगों के लिए नहीं ,अपनी दादागिरी दिखाने के लिए हो रहें हैं दादागिरी दिखाने के लिए जितनी ज्यादा हिंसा, तोड़-फोड़ होगी, लोगों को जितनी अधिक परेशानी होगी,नेताजी का कद उतना ही बड़ा हो जायगा.यदि सरकार की ताकत हो तो उसे रोक ले। सरकार में बैठे नेता सोचते हैं की हमें क्या लेना देना है लोग परेशान होंगे तो नेताओं और उनके दलों की छवि ख़राब होगी, लोग उनसे नाराज होंगे तो उन्ही का नुकसान होगा.लेकिन यह भी सत्य है की जो अधिक उग्र रूप धारण कर लेता है, आन्दोलन को जितना हिंसक बनाता है ,मंत्री लोग उनसे डरने लगते हैं और उनकी मांगें मान लेते हैं ,इससे यह सन्देश जाता है जितनी हो सके हिंसा करो। पूर्व के अनेक आन्दोलन इसके प्रमाण हैं। इससे भी हिंसा को महत्व प्राप्त होने लगता है दूसरी ओर शांति पूर्ण ढंग से अपनी मांग रखने वालों या जिनकी ताकत कम होती है, उनकी बातें कोई सुनना भी नहीं चाहता है जिससे लोगों में क्रोध भरता जाता है। मन में बैठा यह क्रोध कब और कहाँ प्रगट होगा और किस रूप में होगा , कोई नहीं कह सकता है। वर्तमान व्यवस्था में ऐसे आन्दोलन बढेंगे, कोई खुश हो या दुखी हो।
इस व्यवस्था से मुक्ति का एक ही रास्ता है लोकतंत्र की स्थापना, जिसमे शासन का अर्थ होगा, लोगों की इच्छा से सभी कार्य होना इस व्यवस्था का विस्तृत वर्णन रजतपथ के दिसम्बर - जनवरी '२०१० अंक में दिया गया है।
डा डी खत्री

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