विलंबित परीक्षा परिणामों के लिए छात्रों को छतिपूर्ति दें
आज -कल मध्य प्रदेश में विलम्ब से परीक्षाएं करवाना तथा उससे भी अधिक विलम्ब से परीक्षा परिणाम निकालना
विश्विद्यालयों का फैशन हो गया है .इससे छात्रों की बहुत क्षति हो रही है । स्नातकोत्तर परीक्षाओं के परिणाम अभी तक नहीं निकले हैं .इन छात्रों को एम् फिल या पी. एच-डी. करनी हो तो उनका यह वर्ष तो बेकार चला गया .अगले वर्ष स्नातक और स्नातकोत्तर के छात्रों के साल बेकार जाएँगे ।क्या हमारे प्रदेश के विश्वविद्यालय और सरकार अन्य विश्वविद्यालयों में उनके लिए सीटें खाली रखवाएंगी ?यदि नहीं, तो क्षतिपूर्ति करना उनका कर्त्तव्य नहीं दायित्व है. यदि छात्र विलम्ब से परीक्षा फार्म भरते हैं ,उन्हें दंड -शुल्क देना होता है। विश्वविद्यालय प्रथम एक सप्ताह विलम्ब के लिए रु.३००/- फिर रु १०००/- और रु १५००/-तक भी विलम्ब -शुल्क वसूलता है । किसी पर कोई रहम नहीं किया जाता । किसी भी तरह का फार्म भरने में विलम्ब हो जाए तो मनमाने तरीके से विलम्ब शुल्क वसूले जाते हैं। छात्र इसलिए शुल्क नहीं देते की उनका भविष्य खराब किया जाय .विश्वविद्यालयों का दायित्व है कि समय पर परीक्षाएं करवाएं और समय पर अर्थात १ जुलाई तक सत्र के सभी परीक्षा परिणाम दे दें .और यदि नहीं देते तो क्षतिपूर्ति दें जो उनका दायित्व है.क्षतिपूर्ति के लिए चतुर्थ श्रेणी के नियमित कर्मचारी को आधार माना जा सकता है कि मान लीजिए कि पढने के बाद छात्र चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी ही बनता तो उसे न्यूनतम रु ३००/- दैनिक वेतन तो मिलता। १ जुलाई के जितने दिनों बाद कक्षा का परिणाम निकलता है ,उतने दिनों तक उसे रु ३००/- प्रतिदिन के हिसाब से क्षतिपूर्ति दी जाय. यदि सरकार और विश्वविद्यालय सोचते हैं कि उनके स्नातक और स्नातकोत्तर छात्र चपरासी बनने कि योग्यता भी नहीं रखते तो ऐसे विश्विद्यालयों को बंद कर दें क्योंकि ये तो मैकाले के उन स्कूलों से भी बदतर हैं जो कम से कम क्लर्क तो बना देते थे। कुलपतिओं और रजिस्ट्रारों को रु ८००००/- या एक लाख वेतन लुटाने से क्या लाभ ?
आजकल मीडिया के माध्यम से विश्वविद्यालय विलम्ब से परीक्षा परिणाम निकलने का ठीकरा प्राध्यापकों के सिर पर फोड़ रहें है कि वे समय पर काम नहीं करते हैं , सरकार भी उनकी हाँ में हाँ मिलाती है क्योंकि दोनों का उद्देश्य युवा पीढ़ी को बर्बाद करना है .अप्रेल २००८ में सेमेस्टर प्रणाली लागू करने के लिए बरकतुल्ला विश्वविद्यालय भोपाल में प्राचार्यों कि बैठक की गई थी . उसमें मैं भी उपस्थित था । मैंने कहा की पी जी डी सी ए की परीक्षा में कुछ सौ छात्र होते है ,उसके दो सेमेस्टर का परीक्षा फल ये एक वर्ष के स्था न पर दो वर्ष में निकाल पाते हैं ,ये हजारों छात्रों का परीक्षाफल समय से कैसे निकाल पाएंगे ? मैंने पूछा की एक परीक्षा में तीन से साढ़े तीन महीने लग जाते हैं .दो परीक्षाओं में सात महीने लगेंगे । छुटिया और त्यौहार भी आएँगे , पढाई कब होगी ? रजिस्ट्रार से इसका हल पूछा गया , उन्होंने प्रमुख सचिव- आयुक्त के आतंक के कारण या अंदरूनी मिलीभगत के कारण कह दिया कि वह एक माह में परीक्षा करवाकर समय पर रिजल्ट दे देंगे । उसके बाद इन्होने दो सेमेस्टर के अलावा पुरानी वार्षिक परीक्षाएं भी जारी रक्खीं .शिक्षकों को साल भर परीक्षाओं में , आतंरिक मूल्याङ्कन में , हाजरी का रिकार्ड बनाने में झोंक दिया ताकि वे छात्रों को पढ़ा न सके ,युवा अयोग्य बनते जाएँ और उसका राजनीतिक हल निकाला जा रहा है कि स्थानीय युवाओं को नौकरी में प्राथमिकता दी जाय । प्राथमिकता देने का तो मैं भी समर्थक हूँ ,परन्तु युवाओं में इतनी योग्यता देने में डर क्यों लगता है कि वे प्रदेश ही नहीं ,कहीं भी नौकरी करने कि क्षमता रखते हों । संभवतः इसलिए कि तब वे सरकार और विश्विद्यालयों को मनमानी नहीं करने देंगे .सेमेस्टर परीक्षाओं में एक विषय का एक पेपर होता है .पैसे लूटने के चक्कर में इन्होने दो- दो पेपर रखे .मेरे सुझाव को ठुकरा दिया गया कि एक विषय का एक पेपर रखो ।वार्षिक परीक्षाओं का शुल्क रु ७००/- था .सेमेस्टर में रु.११००/ + ११००/-=रु २२००/- अर्थात प्रति छात्र रु १५००/- अधिक वसूला गया.प्रदेश में यदि ५ लाख छात्र हों तो सीधे-सीधे रु ७५ करोड़ का अतिरिक्त धन प्राप्त कर लिया जायगा बेचारे छात्रों से .इतने ज्यादा पैसे लेकर भी समय पर परीक्षाफल न देने कि क्षति पूर्ती क्यों नहीं दी जानी चाहिए ?इन्ही घपलों और लूट खसोट के कारण सरकार छात्र-संघ के चुनाव करने के नाम पर डरने लगती है .प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के अनुसार विश्विद्यालय शुल्क वसूलता है । समय पर परिणाम देना अन्यथा उसकी क्षतिपूर्ति करना उसी का दायित्व है .
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