शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

शादी

                            शादी

  सुदीप का जन्मदिन सैनिक अधिकारियों की मेस में बड़ी धूमधाम से  मनाया जा रहा था . इसी माह उसका प्रमोशन कैप्टेन के रैंक पर हुआ था . अनेक वरिष्ठ सैनिक अधिकारी एवं उनके परिवार के सदस्य वहां उपस्थित थे . डी जे पर मस्त संगीत चल रहा था . सैनिक अधिकारी हों , जाम हो और संगीत हो तो फिर मस्ती का कहना ही क्या है .सब नाच-गा रहे  थे . पहले तो सिर्फ अधिकारी ही थिरक रहे थे फिर धीरे-धीरे उनकी पत्नियाँ और बच्चे भी सम्मिलित होते गए . सुदीप की जोड़ी रीना से बहुत जम रही थी . उनके नृत्य को देख कर लगता था जैसे किसी संगीत अकादमी से वे उस दिन के नृत्य के लिए विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करके आये हों . सामूहिक नृत्य के बाद उन्होंने अलग से भी  डांस किया . उन्हें  देख कर सब वाह- वाह कहने लगे . नृत्य के बाद बड़ी देर तक तालियों की गड़गड़ाहट से हाल गूंजता रहा . उसके बाद सबने भोजन किया . कार्यक्रम समाप्त होते-होते रात्रि के १२ बज गए .
   घर आकर सुदीप सोने के लिए बिस्तर पर लेट तो गया परन्तु उसकी आँखों से नींद नदारद थी . बार-बार उसे रीना याद आ रही थी . रीना की एक-एक अदाएं उसके सामने बार-बार नाच रहीं थीं . दिन में वह डयूटी पर होता तो भी सामने रीना दिखती . वह पल-पल यही सोचता रहता कि रीना उसकी कैसे हो जाय . उधर रीना भी सुदीप की याद में खोई रहती . जब भी समय मिलता दोनों घूमने जाते . वे मुलाकातें उनकी मिलन की प्यास को बुझाने के बदले और बढ़ा देतीं .
   रीना कर्नल राठौर की इकलौती बेटी थी . कर्नल उसे अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करते थे . वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करके दो महीने पहले ही लौटी थी . रीना बहुत सुन्दर होने के साथ ही बुद्धिमान भी बहुत थी . उसका चयन ऊंचे वेतन पर एक बहु राष्ट्रीय कंपनी में हो गया था . वह कंपनी के बुलावे की प्रतीक्षा कर रही थी . पिता के साथ वह भी मेस जाती , सभी कार्यक्रमों में वह उत्साह से भाग लेती और अपने मधुर स्वभाव से सबका मन मोह लेती . उससे मिलकर सुदीप का तो दिल ही उससे दगा दे  गया था . उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था . दोनों में दोस्ती तो अच्छी थी परन्तु सुदीप को यही विचार सताता रहता कि रीना उससे विवाह नहीं करेगी . एक तो उसकी बहुत अच्छी नौकरी लग चुकी है , दूसरे वह कर्नल राठौर की बेटी है जो एक बहुत बड़े जमींदार परिवार से हैं और आज भी उसी शान शौकत से रहते हैं जबकि वह एक सामान्य गुप्ता परिवार का है . कभी एक फौजी के साहस का सहारा लेकर और  कभी फिल्मों से प्रेरणा लेकर उसने निश्चय किया कि वह कर्नल साहब से विवाह की बात करेगा .
   कर्नल साहब बड़े ठाकुर परिवार से होने के बावजूद आधुनिक विचारों के थे और जांति-पाति के दकियानूसी विचारों को नहीं मानते थे . उन्हें भी सुदीप बहुत अच्छा लगता था . वह भी इंजीनियर था, होनहार था . उसका रंग भी साफ़ था, छः फीट लम्बा था, स्वास्थ्य बहुत अच्छा था .  एक लड़के में और क्या चाहिए ? उनके सामने भी एक ही समस्या थी, रीना का कैरियर . अब वह  समय तो रहा नहीं  है कि बेटी पिया के घर चली गई और वहीं समा गई . अतः वे भी सुदीप से कुछ नहीं बोले . जब सुदीप ने उनसे रीना का हाथ माँगा तो वे भी बहुत प्रसन्न हुए परन्तु उन्होंने संयमित होकर यही उत्तर दिया कि वे सोचकर बताएँगे .
   कर्नल साहब ने अपनी पत्नी से चर्चा की . वे दोनों ही जानते थे कि रीना भी सुदीप को चाहती है परन्तु विवाह  कोई एक दिन का काम तो है नहीं, उसके सभी पक्षों पर विचार करना आवश्यक है . रीना के लिए उनके परिवार में ही कुछ बहुत अच्छे लड़के थे . कोई उच्च शासकीय पदों पर थे तो कोई बड़ी कंपनियों में थे . उनके सम्बन्धियों ने इशारों में रिश्ता माँगा भी था  परन्तु उस समय रीना पढ़ रही थी अतः किसी ने खुलकर बात नहीं की . अभी भी  रीना की उम्र मात्र २२  वर्ष ही थी , विवाह की कोई जल्दी नहीं थी परन्तु अंतिम निर्णय लेने से पूर्व उन्होंने एक बार रीना से पूछना उचित समझा . जब माँ ने रीना से पूछा तो पहले वह न नुकुर करती रही फिर सकुचाते हुए बोली, “जैसा आपको अच्छा लगे , आप निर्णय ले लें .” बेटी की आयु कम है परन्तु भगवान् ने घर बैठे ही इतना अच्छा रिश्ता भेज दिया है , लड़का देखा हुआ है , सब तरह से अच्छा है अतः उन्होंने भी रिश्ते का मन बना लिया .
  विवाह कोई गुड्डे- गुडिया का खेल तो है नहीं कि जहां जब और जैसे चाहा रिश्ता कर लिया .उसमें परिवारों का मिलन होता है . अतः कर्नल साहब ने सुदीप से तो हाँ कह दी परन्तु कहा कि इसके लिए वे उसके पिता से बात करेंगे . सुदीप की ख़ुशी का ठिकाना न रहा . वह अपने परिवार और पिता जी को अच्छी प्रकार  जानता था . उसके पिता कई बार कह चुके थे कि उनका लड़का इंजीनियर है , कैप्टेन हो गया है , उन्हें २०-२५ लाख का दहेज़ तो मिलना ही चाहिए . सुदीप जानता था कि यदि उसके पिता जी ने दहेज का नाम लिया तो कर्नल साहब कभी  भी रिश्ता नहीं करेंगे और अधिकारीयों के मध्य  उसकी स्थिति भी  खराब हो जायगी . अतः उसने अपने पिता को समझा दिया कि वह रीना से विवाह करना चाहता है, कर्नल साहब उनसे बात करेंगे तो वे दहेज़ की कोई बात न करें . कर्नल साहब बहुत बड़े परिवार के हैं , रीना उनकी इकलौती बेटी है . अतः उसे अभी नहीं  तो बाद में ही सही, उनकी सारी संपत्ति मिल जायगी . अतः वे लेनदेन की कोई बात भूल कर भी न करें . सुदीप ने यह भी चेतावनी दे दी कि यदि उसकी शादी रीना से न  हुई तो वह विवाह करेगा ही नहीं . उसके पिता के लिए यह शर्त पहाड़ के समान थी . वे पारिवारिक परम्पराओं को छोड़ने के पक्ष में नहीं थे .उनके पास अच्छे-अच्छे रिश्ते आ रहे थे . उन्हें मुफ्त में छोड़ना उनकी समझ से परे था . घर में कोहराम मच गया . परन्तु सुदीप की माँ तथा अन्य रिश्तेदारों के समझाने पर वे दिल पर पत्थर रख कर बात करने के लिए तैयार हो गए . कर्नल साहब ने पूरे मान - सम्मान के साथ उनसे बात की और रिश्ता पक्का हो गया .
  अब  पुराना ज़माना नहीं रहा जब गाँव और कस्बों में ही रिश्ते हो जाते थे . लड़के वाले कहीं के होते हैं , लड़की वाले कहीं के . सब चाहते हैं कि विवाह उनके घर से उनकी सुविधानुसार हो . सुदीप लखनऊ का रहने वाला था . कर्नल राठौर  जयपुर से थे . उस समय दोनों की पोस्टिंग देहरादून में थी . सुदीप के पिता ने कहा कि शादी लखनऊ से ही करनी होगी . कुछ आनाकानी के बाद कर्नल साहब इसके लिए तैयार हो गए . विवाह के एक दिन पूर्व तिलक  होगा जिसमें २०० लोग आयेंगे तथा विवाह में ५-६ सौ बाराती होंगे जैसे अन्य छोटे-मोटे परन्तु महत्वपूर्ण विन्दुओं पर भी सहमती हो गई . एक अच्छे शादीघर में विवाह करने का निर्णय भी ले लिया गया .
   कुछ समय बाद सुदीप का स्थानांतरण कानपुर हो गया . फोन – मोबाईल पर बातें होती रहतीं . विवाह की तिथि कब आ गई पता ही न चला . कर्नल साहब ने अपनी ओर से कोई कमी न रहने दी . तिलक में सबकी अच्छी आवभगत की गई . नगद के अलावा सुदीप की माँ, बहन, पिता को स्वर्ण के एवं अन्य सम्बंधियों को भी अच्छे उपहार दिए गए . भोजन भी बहुत अच्छा था . बहुत ही अच्छे और उत्साह पूर्ण वातावरण में कार्यक्रम संपन्न  हुआ . सुदीप खुश था , उसके घरवाले भी खुश थे परन्तु पिता चुप-चुप थे . उनके अन्दर उथल-पुथल मची हुई थी . अंततः उनसे न रहा गया . वे अपने साले को लेकर कर्नल साहब के पास पहुंचे . कर्नल साहब ने उनका स्वागत किया और आने का कारण पूछा . गुप्ता जी ने कहा कि उनके कार्यक्रम से वे खुश है परन्तु वे चाहते हैं कि कल विवाह के समय कार अवश्य दी जाये . मेरा लड़का इतना योग्य है , आप का भी स्टेटस इतना बड़ा है , हमारी भी शहर में अच्छी प्रतिष्ठा है , कार तो मिलनी ही चाहिए . कर्नल साहब बहुत दुविधा में पड़ गए . उन्होंने कहा कि वे इस तैयारी के साथ नहीं आए  हैं .वह बाद में दे देंगे . परन्तु गुप्ता जी नहीं माने . एक तरह से उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि विवाह के पूर्व कार देनी ही होगी . अपनी बात कह कर गुप्ता जी चले गए .
   उनके जाने के बाद कर्नल उद्विग्न हो गए . वे अपने उसूलों के पक्के थे, खानदानी ठाकुर, ऊपर से फौजी अफसर . परन्तु आज प्रश्न उनकी बेटी के विवाह का था . क्रोध और जल्दबाजी में निर्णय लेना उचित नहीं  था . अतः उन्होंने पहले अपनी पत्नी से बात की . वह बेचारी क्या कहती ? सन्न रह गई . अन्य संबन्धियों से भी चर्चा की गई . कोई हल नहीं निकल पा रहा था . गंभीर वातावरण और खुसर-पुसर की जानकारी रीना को भी हो गई . उसे बहुत  सदमा लगा और वह चुप हो गई . सबके सामने यक्ष प्रश्न था कि कल कार न देने पर उन्होंने यदि शादी से इन्कार कर दिया तो क्या होगा ! उधर रीना सोचने लगी कि क्या प्यार – विवाह – रिश्तों की सीमा पैसों और कार तक ही होती है ? अपने पिता का सदा हंसमुख और रौबदार रहने वाला चेहरा उदास देखकर वह विद्रोह कर उठी . उसका प्यार-व्यार उसके क्रोध से कपूर की भांति उड़ गया . उसने सबके सामने यह निर्णय सुना दिया कि वह किसी भी कीमत पर सुदीप से विवाह नहीं करेगी . इस निर्णय को लागू करना भी इतना आसा न था . कर्नल साहब ने अंतिम प्रयास के रूप में एक बार संदीप से बात करना उचित समझा परन्तु रीना टस से मस  हुई . उसने कहा कि वह शादी नहीं करेगी, नहीं करेगी, नहीं करेगी और यदि जबरदस्ती की गई तो वह प्राण दे देगी . उसके आगे किसी को कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई .
    उधर सुदीप के घर में खुशियाँ ही खुशियां थीं . जिसने भी रीना को देखा था , उसके मन में रीना थी  आँखों के आगे रीना थी और सबके मुंह में एक ही बात थी कि भगवान ने कितनी अच्छी जोड़ी बनाई है , कितना अच्छा परिवार है . सुदीप विवाह  के लिए तैयार हुआ . उसने जरी का काम की हुई शेरवानी और चूड़ीदार पायजामा पहना , सेहरा बांधा और खूबसूरत बग्घी में सवार हो गया . डी जे पर धुनें बज रहीं थीं और बाल, युवा, प्रौढ़ , स्त्री, पुरुष सभी नाच रहे थे . युवाओं पर तो मस्ती का रंग इतना चढ़ा था कि बारात को आगे बढ़ाने उनको ढकेलना पड़  रहा था . बारात शादी घर के पास पहुंची तो लोगों को आश्चर्य हुआ कि वहां न तो कोई सजावट थी और न ही संगीत बज रहा था . पहले तो सबने समझा कि बिजली उड़ गई होगी ,सुधार रहे होंगे परतु वहां जाकर सबने देखा कि वहां सजावट, संगीत, और विवाह की व्यवस्थाएं क्या , कोई भी नहीं था . प्रबंधक ने पूछने पर बताया कि कर्नल साहब सब कुछ निरस्त करके सुबह ही यहाँ से चले गए हैं . सबको आश्चर्य हो रहा था कि अचानक ऐसा क्या हो  गया कि वे विवाह छोड़ कर चले गए और जाना ही था तो बताकर जाते . यह फजीहत तो न होती . सब गुप्ता जी से पूछने लगे कि ऐसी क्या बात हो गई ? क्या लेनदेन का विवाद  हुआ था ? गुप्ता जी क्या कहते ? बड़े भोले बनकर वे सबको समझा रहे थे कि उन्होंने कर्नल साहब को कितना सहयोग दिया और वे सारे शहर में उनकी प्रतिष्ठा को धूल में मिलाकर चले गए . बारातियों में तरह - तरह की बातें होने लगीं। 
   सेना में यह परंपरा है कि विवाह आदि आयोजनों में उस व्यक्ति की यूनिट से के एक-दो लोगो को भेजा जाता है जो उस यूनिट का प्रतिनिधित्व करते हैं . सुदीप को भी बहुत क्रोध आ रहा था . उन्होंने वापस जाकर कर्नल की शिकायत की . परन्तु कर्नल साहब तो पहले ही उसके कमांडिंग अधिकारी को रिपोर्ट कर चुके थे . सारे मामले की जांच हुई . सुदीप का कोर्ट मार्शल किया गया . उसे उपहार में मिला सामान तो वापस करना ही पड़ा , नौकरी से भी बर्खास्त कर दिया गया . कार के चक्कर में बीबी भी गई , नौकरी भी गई और बचा खुचा प्रकरण पुलिस के हवाले कर दिया गया .          
                                                                       
                                                                       

 रियों की मेस में बड़ी धूमधाम से  मनाया जा रहा था . इसी माह उसका प्रमोशन कैप्टेन के रैंक पर हुआ था . अनेक वरिष्ठ सैनिक अधिकारी एवं उनके परिवार के सदस्य वहां उपस्थित थे . डी जे पर मस्त संगीत चल रहा था . सैनिक अधिकारी हों , जाम हो और संगीत हो तो फिर मस्ती का कहना ही क्या है .सब नाच-गा रहे  थे . पहले तो सिर्फ अधिकारी ही थिरक रहे थे फिर धीरे-धीरे उनकी पत्नियाँ और बच्चे भी सम्मिलित होते गए . सुदीप की जोड़ी रीना से बहुत जम रही थी . उनके नृत्य को देख कर लगता था जैसे किसी संगीत अकादमी से वे उस दिन के नृत्य के लिए विशेष प्रशिक्षण प्राप्त करके आये हों . सामूहिक नृत्य के बाद उन्होंने अलग से भी  डांस किया . उन्हें  देख कर सब वाह- वाह कहने लगे . नृत्य के बाद बड़ी देर तक तालियों की गड़गड़ाहट से हाल गूंजता रहा . उसके बाद सबने भोजन किया . कार्यक्रम समाप्त होते-होते रात्रि के १२ बज गए .
   घर आकर सुदीप सोने के लिए बिस्तर पर लेट तो गया परन्तु उसकी आँखों से नींद नदारद थी . बार-बार उसे रीना याद आ रही थी . रीना की एक-एक अदाएं उसके सामने बार-बार नाच रहीं थीं . दिन में वह डयूटी पर होता तो भी सामने रीना दिखती . वह पल-पल यही सोचता रहता कि रीना उसकी कैसे हो जाय . उधर रीना भी सुदीप की याद में खोई रहती . जब भी समय मिलता दोनों घूमने जाते . वे मुलाकातें उनकी मिलन की प्यास को बुझाने के बदले और बढ़ा देतीं .
   रीना कर्नल राठौर की इकलौती बेटी थी . कर्नल उसे अपनी जान से भी ज्यादा प्यार करते थे . वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करके दो महीने पहले ही लौटी थी . रीना बहुत सुन्दर होने के साथ ही बुद्धिमान भी बहुत थी . उसका चयन ऊंचे वेतन पर एक बहु राष्ट्रीय कंपनी में हो गया था . वह कंपनी के बुलावे की प्रतीक्षा कर रही थी . पिता के साथ वह भी मेस जाती , सभी कार्यक्रमों में वह उत्साह से भाग लेती और अपने मधुर स्वभाव से सबका मन मोह लेती . उससे मिलकर सुदीप का तो दिल ही उससे दगा दे  गया था . उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था . दोनों में दोस्ती तो अच्छी थी परन्तु सुदीप को यही विचार सताता रहता कि रीना उससे विवाह नहीं करेगी . एक तो उसकी बहुत अच्छी नौकरी लग चुकी है , दूसरे वह कर्नल राठौर की बेटी है जो एक बहुत बड़े जमींदार परिवार से हैं और आज भी उसी शान शौकत से रहते हैं जबकि वह एक सामान्य गुप्ता परिवार का है . कभी एक फौजी के साहस का सहारा लेकर और  कभी फिल्मों से प्रेरणा लेकर उसने निश्चय किया कि वह कर्नल साहब से विवाह की बात करेगा .
   कर्नल साहब बड़े ठाकुर परिवार से होने के बावजूद आधुनिक विचारों के थे और जांति-पाति के दकियानूसी विचारों को नहीं मानते थे . उन्हें भी सुदीप बहुत अच्छा लगता था . वह भी इंजीनियर था, होनहार था . उसका रंग भी साफ़ था, छः फीट लम्बा था, स्वास्थ्य बहुत अच्छा था .  एक लड़के में और क्या चाहिए ? उनके सामने भी एक ही समस्या थी, रीना का कैरियर . अब वह  समय तो रहा नहीं  है कि बेटी पिया के घर चली गई और वहीं समा गई . अतः वे भी सुदीप से कुछ नहीं बोले . जब सुदीप ने उनसे रीना का हाथ माँगा तो वे भी बहुत प्रसन्न हुए परन्तु उन्होंने संयमित होकर यही उत्तर दिया कि वे सोचकर बताएँगे .
   कर्नल साहब ने अपनी पत्नी से चर्चा की . वे दोनों ही जानते थे कि रीना भी सुदीप को चाहती है परन्तु विवाह  कोई एक दिन का काम तो है नहीं, उसके सभी पक्षों पर विचार करना आवश्यक है . रीना के लिए उनके परिवार में ही कुछ बहुत अच्छे लड़के थे . कोई उच्च शासकीय पदों पर थे तो कोई बड़ी कंपनियों में थे . उनके सम्बन्धियों ने इशारों में रिश्ता माँगा भी था  परन्तु उस समय रीना पढ़ रही थी अतः किसी ने खुलकर बात नहीं की . अभी भी  रीना की उम्र मात्र २२  वर्ष ही थी , विवाह की कोई जल्दी नहीं थी परन्तु अंतिम निर्णय लेने से पूर्व उन्होंने एक बार रीना से पूछना उचित समझा . जब माँ ने रीना से पूछा तो पहले वह न नुकुर करती रही फिर सकुचाते हुए बोली, “जैसा आपको अच्छा लगे , आप निर्णय ले लें .” बेटी की आयु कम है परन्तु भगवान् ने घर बैठे ही इतना अच्छा रिश्ता भेज दिया है , लड़का देखा हुआ है , सब तरह से अच्छा है अतः उन्होंने भी रिश्ते का मन बना लिया .
  विवाह कोई गुड्डे- गुडिया का खेल तो है नहीं कि जहां जब और जैसे चाहा रिश्ता कर लिया .उसमें परिवारों का मिलन होता है . अतः कर्नल साहब ने सुदीप से तो हाँ कह दी परन्तु कहा कि इसके लिए वे उसके पिता से बात करेंगे . सुदीप की ख़ुशी का ठिकाना न रहा . वह अपने परिवार और पिता जी को अच्छी प्रकार  जानता था . उसके पिता कई बार कह चुके थे कि उनका लड़का इंजीनियर है , कैप्टेन हो गया है , उन्हें २०-२५ लाख का दहेज़ तो मिलना ही चाहिए . सुदीप जानता था कि यदि उसके पिता जी ने दहेज का नाम लिया तो कर्नल साहब कभी  भी रिश्ता नहीं करेंगे और अधिकारीयों के मध्य  उसकी स्थिति भी  खराब हो जायगी . अतः उसने अपने पिता को समझा दिया कि वह रीना से विवाह करना चाहता है, कर्नल साहब उनसे बात करेंगे तो वे दहेज़ की कोई बात न करें . कर्नल साहब बहुत बड़े परिवार के हैं , रीना उनकी इकलौती बेटी है . अतः उसे अभी नहीं  तो बाद में ही सही, उनकी सारी संपत्ति मिल जायगी . अतः वे लेनदेन की कोई बात भूल कर भी न करें . सुदीप ने यह भी चेतावनी दे दी कि यदि उसकी शादी रीना से न  हुई तो वह विवाह करेगा ही नहीं . उसके पिता के लिए यह शर्त पहाड़ के समान थी . वे पारिवारिक परम्पराओं को छोड़ने के पक्ष में नहीं थे .उनके पास अच्छे-अच्छे रिश्ते आ रहे थे . उन्हें मुफ्त में छोड़ना उनकी समझ से परे था . घर में कोहराम मच गया . परन्तु सुदीप की माँ तथा अन्य रिश्तेदारों के समझाने पर वे दिल पर पत्थर रख कर बात करने के लिए तैयार हो गए . कर्नल साहब ने पूरे मान - सम्मान के साथ उनसे बात की और रिश्ता पक्का हो गया .
  अब  पुराना ज़माना नहीं रहा जब गाँव और कस्बों में ही रिश्ते हो जाते थे . लड़के वाले कहीं के होते हैं , लड़की वाले कहीं के . सब चाहते हैं कि विवाह उनके घर से उनकी सुविधानुसार हो . सुदीप लखनऊ का रहने वाला था . कर्नल राठौर  जयपुर से थे . उस समय दोनों की पोस्टिंग देहरादून में थी . सुदीप के पिता ने कहा कि शादी लखनऊ से ही करनी होगी . कुछ आनाकानी के बाद कर्नल साहब इसके लिए तैयार हो गए . विवाह के एक दिन पूर्व तिलक  होगा जिसमें २०० लोग आयेंगे तथा विवाह में ५-६ सौ बाराती होंगे जैसे अन्य छोटे-मोटे परन्तु महत्वपूर्ण विन्दुओं पर भी सहमती हो गई . एक अच्छे शादीघर में विवाह करने का निर्णय भी ले लिया गया .
   कुछ समय बाद सुदीप का स्थानांतरण कानपुर हो गया . फोन – मोबाईल पर बातें होती रहतीं . विवाह की तिथि कब आ गई पता ही न चला . कर्नल साहब ने अपनी ओर से कोई कमी न रहने दी . तिलक में सबकी अच्छी आवभगत की गई . नगद के अलावा सुदीप की माँ, बहन, पिता को स्वर्ण के एवं अन्य सम्बंधियों को भी अच्छे उपहार दिए गए . भोजन भी बहुत अच्छा था . बहुत ही अच्छे और उत्साह पूर्ण वातावरण में कार्यक्रम संपन्न  हुआ . सुदीप खुश था , उसके घरवाले भी खुश थे परन्तु पिता चुप-चुप थे . उनके अन्दर उथल-पुथल मची हुई थी . अंततः उनसे न रहा गया . वे अपने साले को लेकर कर्नल साहब के पास पहुंचे . कर्नल साहब ने उनका स्वागत किया और आने का कारण पूछा . गुप्ता जी ने कहा कि उनके कार्यक्रम से वे खुश है परन्तु वे चाहते हैं कि कल विवाह के समय कार अवश्य दी जाये . मेरा लड़का इतना योग्य है , आप का भी स्टेटस इतना बड़ा है , हमारी भी शहर में अच्छी प्रतिष्ठा है , कार तो मिलनी ही चाहिए . कर्नल साहब बहुत दुविधा में पड़ गए . उन्होंने कहा कि वे इस तैयारी के साथ नहीं आए  हैं .वह बाद में दे देंगे . परन्तु गुप्ता जी नहीं माने . एक तरह से उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि विवाह के पूर्व कार देनी ही होगी . अपनी बात कह कर गुप्ता जी चले गए .
   उनके जाने के बाद कर्नल उद्विग्न हो गए . वे अपने उसूलों के पक्के थे, खानदानी ठाकुर, ऊपर से फौजी अफसर . परन्तु आज प्रश्न उनकी बेटी के विवाह का था . क्रोध और जल्दबाजी में निर्णय लेना उचित नहीं  था . अतः उन्होंने पहले अपनी पत्नी से बात की . वह बेचारी क्या कहती ? सन्न रह गई . अन्य संबन्धियों से भी चर्चा की गई . कोई हल नहीं निकल पा रहा था . गंभीर वातावरण और खुसर-पुसर की जानकारी रीना को भी हो गई . उसे बहुत  सदमा लगा और वह चुप हो गई . सबके सामने यक्ष प्रश्न था कि कल कार न देने पर उन्होंने यदि शादी से इन्कार कर दिया तो क्या होगा ! उधर रीना सोचने लगी कि क्या प्यार – विवाह – रिश्तों की सीमा पैसों और कार तक ही होती है ? अपने पिता का सदा हंसमुख और रौबदार रहने वाला चेहरा उदास देखकर वह विद्रोह कर उठी . उसका प्यार-व्यार उसके क्रोध से कपूर की भांति उड़ गया . उसने सबके सामने यह निर्णय सुना दिया कि वह किसी भी कीमत पर सुदीप से विवाह नहीं करेगी . इस निर्णय को लागू करना भी इतना आसा न था . कर्नल साहब ने अंतिम प्रयास के रूप में एक बार संदीप से बात करना उचित समझा परन्तु रीना टस से मस  हुई . उसने कहा कि वह शादी नहीं करेगी, नहीं करेगी, नहीं करेगी और यदि जबरदस्ती की गई तो वह प्राण दे देगी . उसके आगे किसी को कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई .
    उधर सुदीप के घर में खुशियाँ ही खुशियां थीं . जिसने भी रीना को देखा था , उसके मन में रीना थी  आँखों के आगे रीना थी और सबके मुंह में एक ही बात थी कि भगवान ने कितनी अच्छी जोड़ी बनाई है , कितना अच्छा परिवार है . सुदीप विवाह  के लिए तैयार हुआ . उसने जरी का काम की हुई शेरवानी और चूड़ीदार पायजामा पहना , सेहरा बांधा और खूबसूरत बग्घी में सवार हो गया . डी जे पर धुनें बज रहीं थीं और बाल, युवा, प्रौढ़ , स्त्री, पुरुष सभी नाच रहे थे . युवाओं पर तो मस्ती का रंग इतना चढ़ा था कि बारात को आगे बढ़ाने उनको ढकेलना पड़  रहा था . बारात शादी घर के पास पहुंची तो लोगों को आश्चर्य हुआ कि वहां न तो कोई सजावट थी और न ही संगीत बज रहा था . पहले तो सबने समझा कि बिजली उड़ गई होगी ,सुधार रहे होंगे परतु वहां जाकर सबने देखा कि वहां सजावट, संगीत, और विवाह की व्यवस्थाएं क्या , कोई भी नहीं था . प्रबंधक ने पूछने पर बताया कि कर्नल साहब सब कुछ निरस्त करके सुबह ही यहाँ से चले गए हैं . सबको आश्चर्य हो रहा था कि अचानक ऐसा क्या हो  गया कि वे विवाह छोड़ कर चले गए और जाना ही था तो बताकर जाते . यह फजीहत तो न होती . सब गुप्ता जी से पूछने लगे कि ऐसी क्या बात हो गई ? क्या लेनदेन का विवाद  हुआ था ? गुप्ता जी क्या कहते ? बड़े भोले बनकर वे सबको समझा रहे थे कि उन्होंने कर्नल साहब को कितना सहयोग दिया और वे सारे शहर में उनकी प्रतिष्ठा को धूल में मिलाकर चले गए . बारातियों में तरह - तरह की बातें होने लगीं। 
   सेना में यह परंपरा है कि विवाह आदि आयोजनों में उस व्यक्ति की यूनिट से के एक-दो लोगो को भेजा जाता है जो उस यूनिट का प्रतिनिधित्व करते हैं . सुदीप को भी बहुत क्रोध आ रहा था . उन्होंने वापस जाकर कर्नल की शिकायत की . परन्तु कर्नल साहब तो पहले ही उसके कमांडिंग अधिकारी को रिपोर्ट कर चुके थे . सारे मामले की जांच हुई . सुदीप का कोर्ट मार्शल किया गया . उसे उपहार में मिला सामान तो वापस करना ही पड़ा , नौकरी से भी बर्खास्त कर दिया गया . कार के चक्कर में बीबी भी गई , नौकरी भी गई और बचा खुचा प्रकरण पुलिस के हवाले कर दिया गया .          
                                                                       
                                                                       



चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम ( दिल्ली विश्वविद्यालय )


     चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम ( दिल्ली विश्वविद्यालय )
  दिल्ली विश्वविद्यालय  में अभी तक तीन वर्षीय स्नातक और स्नातक आनर्स पाठ्यक्रम चलते आ रहे थे परन्तु  सत्र २०१२ से दोनों के स्थान पर चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम प्रारंभ किये गए हैं .अब वहाँ पर तीन वर्ष में पूर्ण होने वाले स्नातक कोर्स चार वर्ष में पूर्ण होंगे . इसमें विद्यार्थी अपना अध्ययन मध्य में भी छोड़ सकते हैं . दो वर्ष पूर्ण करने के बाद पढ़ाई छोड़ने पर छात्र को स्नातक डिप्लोमा, तीन वर्ष बाद स्नातक डिग्री और चार वर्ष पूर्ण करने पर स्नातक आनर्स की डिग्री मिलेगी . उसके पश्चात् स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम एक वर्ष का करने पर भी विचार किया जा रहा है . तीनों के लिए आधार पाठ्यक्रम के ११ पेपर अनिवार्य हैं . इसके अतिरिक्त उनके क्रमशः दो, तीन एवं चार वर्ष में अन्य विषयों के पेपर होंगे -एक मुख्य ( मेजर ) विषय के (८,१४,२० ) ,  दूसरे माइनर विषय के ( २,४,६ ), साथ में एप्लाइड कोर्स के (३,५,५ ) और एक विशेष विषय जो समन्वित आत्मा, मन और शरीर के विकास के लिए तथा सांस्कृतिक गतिविधियों से सम्बंधित होगा, के ( ४,६,८ )। इस प्रकार नए स्नातक पाठ्यक्रम में छात्र को दो वर्षीय डिप्लोमा के लिए विभिन्न विषयों के कुल (११+८+२+३+४=) २८, तीन वर्षीय डिग्री के लिए(११+१४+४+५+६=) ४० और चार वर्षीय आनर्स के लिए  (११+२०+६+५+८=) ५० पेपर उत्तीर्ण करने होंगे .      विश्वविद्यालय प्रशासन का कहना है कि इससे स्नातक पढ़ाई को मध्य में छोड़ने वालों के लिए भी रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त होंगे .तीन वर्षों के बाद दिल्ली में स्नातकोत्तर कक्षाओं के लिए कौन से छात्र मिलेंगे, क्योंकि वहां पढ़ाकू विद्यार्थी तो स्नातक का चौथा वर्ष पढ़ रहे होंगे।  उस समय या तो दिल्ली के ड्राप आउट अर्थात तीन वर्ष बाद पढ़ाई बंद करने वाले छात्र मिलेंगे या फिर देश के अन्य विश्वविद्यालयों के लोग प्रवेश लेने आयेंगे।  जब चार वर्षीय स्नातक आनर्स छात्र कोर्स पूरा करके आयेंगे तो क्या उस समय तीन वर्षीय कोर्स उत्तीर्ण विद्यार्थियों को भी उन्हीं के साथ प्रवेश मिलेगा या उन्हें प्रवेश से पूरी तरह वंचित कर दिया जायगा ? यदि एक छात्र अन्य विश्वविद्यालय से स्नातक डिग्री लेकर आता है तो उसे दिल्ली में स्नातकोत्तर करने के लिए कैसे और किस कक्षा में प्रवेश मिलेगा ? यदि दिल्ली से कोई छात्र अन्य विश्विद्यालय में दो वर्षीय डिप्लोमा कोर्स करके जाता है तो उसे किस कक्षा में प्रवेश मिलेगा , चार वर्षीय स्नातक कोर्स करके जाता है तो क्या उसका वहां पर स्नातकोत्तर में एक वर्ष कम हो जायगा अथवा उसे भी सबके समान पुनः दो वर्ष का स्नातकोत्तर कोर्स करना होगा ? क्या भविष्य में दो वर्षीय कोर्स करने वालों के लिए कोई पृथक  प्रकार की नौकरियां सृजित की जांयगी जिनमें वांछित योग्यता  हायर सेकेंडरी से अधिक हो और स्नातक से कम हो ? ऐसे अनेक अनुत्तरित प्रश्न हैं जिनकी कुंजी केवल दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति के पास नजरबंद है।  
 पुराने पाठ्यक्रम में छात्रों के विश्लेषणात्मक ज्ञान एवं लेखन क्षमता बढ़ाने के लिए प्रत्येक प्रश्नपत्र में एक असाइनमेंट और एक प्रोजेक्ट कार्य पूर्ण करना होता है . उनके स्थान पर अब उन्हें केवल एक समूह चर्चा में भाग लेना होगा अर्थात बहुत कम परिश्रम करना होगा . प्रत्येक प्रश्नपत्र के लिए प्रति सप्ताह लगने वाली कक्षाएं भी कम कर दी गईं हैं . इनसे प्रत्यक्ष रूप से तो ऐसा लगता है कि शिक्षा का स्तर गिरेगा .
   दिल्ली के प्राध्यापकों तथा अनेक बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध किया है परन्तु विश्वविद्यालय प्रशासन के आदेश के आगे कोई कुछ नहीं कर सकता . प्राध्यापकों को नौकरी करनी है इसलिए पढ़ा रहे हैं . विद्यार्थियों को डिग्री लेनी है , इसलिए पढ़ रहे हैं . इसके लिए जब कुछ प्राध्यापकों से पूछा गया तो उनका यही कहना है कि इसके विषय में वे कुछ नहीं जानते हैं , प्रशासन को पता होगा .
   यदि  यह व्यवस्था बहुत अच्छी है तो इसे चुपचाप केवल दिल्ली विश्वविद्यालय में ही क्यों लागू किया गया ? इस पर सारे देश में चर्चा क्यों नहीं की गई ? म. प्र. के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कुछ अति होशियार लोगों के कहने या स्वयं की बुद्धि से २००८ में देश में सर्वप्रथम सेमेस्टर व्यवस्था लागू करके वाहवाही लूटी थी जबकि मैंने इसका पुरजोर विरोध किया था कि इससे सारी पढ़ाई व्यवस्था चौपट होने के साथ ही विद्यार्थियों को समय पर परीक्षाफल देना भी संभव नहीं होगा परन्तु मेरी बात नहीं सुनी गई . पढ़ाई लगभग बंद करवाने के साथ तीन वर्षों तक लाखों विद्यार्थियों के एक - एक वर्ष बर्बाद करने के बाद परीक्षा व्यवस्था में आंशिक सुधार किये गए और उसके लिए किसी भी छात्र को कोई क्षति पूर्ति  नहीं दी  गई . आदि काल से प्रजा की कीमत पर राजा और सामंत अपना मनोरंजन करते आ रहे हैं . आज के राजा – सामंत उसके अपवाद कैसे हो सकते हैं ? भविष्य बर्बाद होगा तो गौ के जैसे सीधे – सादे विद्यार्थियों का होगा जो नहीं जानते कि सही और गलत क्या है .
  भारत में सरकारों ने शिक्षा को घोषित रूप से एक लाभदायक उद्योग में बदल दिया है . सरकार में घुसे अफसर , मंत्री , नेता और उनके चहेते शिक्षा का अच्छा व्यवसाय कर रहे हैं . अतः इनसे किसी कल्याणकारी योजना की आशा करना व्यर्थ है . यहाँ के अधिकारी जनता के धन पर विदेश घूमते रहते हैं . वहां की कोई बात उन्हें अच्छी लग गई तो उसे अपने देश ले आते हैं . यहाँ तक तो सब ठीक है परन्तु भारत में उसे क्रियान्वित करने में केवल एक ही बात का ध्यान रखा जाता है कि उससे निजी लाभ कैसे कमाया जाय .  हांगकांग विश्विद्यालय ने २००५ में ४ वर्षीय स्नातक कोर्स प्रारंभ करने की योजना बनाई . ८ वर्ष तक तैयारियां करने के बाद उसे २०१३ में लागू किया . वहां स्कूल शिक्षा पुनः ११वीं तक कर दी गई और उसके बाद स्नातक ४ वर्ष का रखा गया . उनके विश्विद्यालय में छात्रों की संख्या मात्र साढ़े ग्यारह हजार है . उन्होंने पहले शिक्षा के मानक स्थापित किये , तदनुसार व्यवस्थाएं कीं . दुबई में भी पूरी तैयारी करने के बाद इसे लागू किया गया।  दिल्ली के होशियार लोगों ने २०१२ में सोचा और बिना किसी तैयारी के लाखों छात्रों के लिए तुरंत लागू कर दिया . ऐसे महापुरुषों को हम सलाम करते हैं और शुभ कामनाएँ देते हैं कि उनकी लम्बी छलांग, ऊंची उड़ान सफल हो .
  अमेरिका में ४ वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम हैं .वे ४ वर्ष की स्नातक डिग्री को मान्यता देते हैं जैसे हमारी बी ई या बी टेक. उसके पश्चात् उनके मास्टर डिग्री के पाठ्यक्रम शोध आधारित हैं और उसके बाद पी.एच-डी.  होती है , हमारे देश की भांति एमफिल जैसी कोई डिग्री नहीं करनी पड़ती है . जिस प्रकार म. प्र. में लाखों विद्यार्थियों का समय और धन नष्ट करने तथा शिक्षा का स्तर  गिराने के गीत म.प्र. की सरकार और उसके सरकारी शिक्षाविद झूम-झूम के गा रहे हैं और देश के अन्य राज्यों के विश्विद्यालय उनका अनुकरण करके स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं, मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है की ऐसा ही दिल्ली विश्विद्यालय का अनुकरण करके भी होगा।  हो सकता है वहां के ज्ञानी कुलपति ने यह पाठ्यक्रम भारत के राष्ट्रपति की इस चिंता के निवारण के लिए प्रारंभ किया हो कि भारत के विश्वविद्यालय दुनियां के अन्य संस्थानों से पीछे क्यों हैं । आश्चर्य की बात है कि यू जी सी इस सारे प्रकरण पर खामोश है और अन्य संस्थाओं की भाँति दूर से ही तमाशा देख रही है।    
  

   

अपराधियों का चुनाव

                  अपराधियों का चुनाव 

लोकपाल हम क्यों लाएं , अपने विरुद्ध हम क्यों जाएं ,
अपने बाई - बंधुओं को , फांसी पर हम क्यों लटकाएं। 
अपराधी हमारे अपने हैं , अपराध उनकी लाचारी है ,
शक्ति भोगी वसुंधरा है , वे सत्ता के अधिकारी हैं। 
अपराधियों को कहाँ भेजें , कहाँ रहें भ्रष्टाचारी  ?
चुनाव लड़ना अधिकार सभी का , यही रहेगी नीति हमारी। 
अपराधी जेल में बंद रहें , उन्हें चुनाव लड़वाएंगे ,
न्यायालय अपना काम करें , हम उनको जितवाएंगे। 
कोर्ट सर्कार के लिए नहीं , जनता हित में खुलवाये हैं ,
अपराध बढ़ाने की खातिर , अनेक क़ानून बनाए हैं। 
क़ानून राजनीति  में दखल न दें , हम अपने नियम बनाते हैं ,
हम कोर्ट नहीं जाया करते , राजनीति में वे क्यों आते हैं। 
नेता न्यायाधीश से पूछें , अपराध समाप्त कराओगे ? 
गर अपराधी ही न होंगे , तो बोलो , तुम क्या खाओगे ?
जितने अपराधी ज्यादा हों , वे न्यायलय की शान हैं ,
आरोपी के सामने ऊंचे बैठ , सब जज बनते महँ हैं। 
न आओ तुम बहकावों में , राज हमें ही करने दो , 
हम भी रखेंगे ध्यान तुम्हारा , जैसा चलता है , चलने दो।   
 

निंदा शास्त्र महा शास्त्र


              निंदा शास्त्र महा शास्त्र
डा खत्री ने यह लेख २००३ में लिखा गया था . उस समय अमेरिका ने ईराक पर हमला कर दिया था . २००४ में भारत में आम चुनाव होने थे . उस समय लालकृष्ण आडवाणी इंडिया शाइनिंग का नारा दे रहे थे जबकि सोनिया गाँधी एनडीए सरकार की कठोर शब्दों में निंदा कर रही थीं . निंदा शास्त्र के आधार पर उस समय जो राजनीतिक विश्लेषण किये गए थे , वे आज भी उतने ही सत्य दृष्टिगोचर हो रहे हैं .     
  निंदा शास्त्र महान अस्त्र है ,महान शस्त्र है . यह सदियों से स्वयं सिद्ध है . निंदा के द्वारा बड़े से बड़े काम होते आ रहे हैं .चुनाव में नेता निंदा रुपी शस्त्र से ही विपक्षियों को धराशायी करते हैं . संसद में क्या होता है ? विधान सभाओं में क्या होता है ? सारी चर्चा निंदा के इर्द-गिर्द घूमती रहती है . पेड़ से सेव आदिकाल से गिरते आ रहे हैं, परन्तु न्यूटन के दिमाग पर सेव गिरने की ऐसी चोट लगी कि उन्होंने गिरने, उठने, बैठने, सोने, भागने आदि सभी विधाओं की साइन्टिफिक व्याख्याएं कर डालीं जो आज हमारे काम आ रही हैं . मेरे मस्तिष्क को भी आधुनिक युग की एक घटना ने पूरी तरह झकझोर दिया है . भारतीय संसद पर आतंकी हमला हुआ . हमारे देश के लोगों ने उन लोगों की भरपूर निंदा की जिन्होंने हमला करवाया था . सबने एक सुर में कड़े इसे कड़े शब्दों में निंदा की . माननीय नेताओं का यह कार्य अत्यंत प्रशंसनीय था . लेकिन दुःख की बात तब प्रारम्भ हुई जब ईराक पर हमले कि लिए भारतीय संसद अमरीका की निंदा करने के लिए शब्द ही नहीं ढूढ़ पाई .निंदा करना तो वीरों का वीरों के लिए शस्त्र है . अमरीका ने पिद्दी ईराक पर बमों से हमला किया परन्तु वीर फ़्रांस और वीर रूस की , हमले का समर्थन न करने के लिए निंदा की . अमेरिका तो महावीर है . उसकी निंदा तो ठोस शब्दों में की जनी चाहिए थी, परन्तु सांसदों को शब्द ही नहीं मिले . भारतीय संसद की इस दशा ने मुझे निंदा पुराण का विस्तृत विवेचन एवं शोध करने के लिए प्रेरित किया . जो देश कुछ भी न कर पाता हो, वह निंदा भी न कर पाए तो जियेगा कैसे ! रोटी न मिले, पानी न मिले पर हवा तो मिले . निंदा हवा है . चुनाव आ रहे हैं . यदि नेताओं की सारी हवा निकल गई तो विपक्षियों की निंदा कौन करेगा ?यदि निंदा से प्रहार नहीं करेंगे तो किन शस्त्रों से चुनाव लड़ा जायगा ? हार-जीत कैसे होगी, नहीं होगी तो लोकतंत्र का क्या होगा, लोकतंत्र नहीं रहेगा तो क्या तानाशाई होगी, तानाशाही होगी तो किसकी होगी आदि अनेक प्रश्न मेरे मस्तिष्क में भर गए . इनके दबाव के कारण मुझे शोध करके निंदा महा पुराण का सार प्रस्तुत करने के लिए बाध्य होना पड़ा . निंदा पुराण जिसने समझ लिया उसने दुनिया और उसके आगे सब कुछ समझ लिया .यह लोक और परलोक दोनों स्थानों पर समान गुणकारी है . निंदक एवं निन्दित दोनों आत्माओं को इसका पुण्य लाभ समान रूप से मिलता है .
    यह निंदा का महात्म्य है कि इसमें जितना डूबते जाओ, उतना ही आनंद आता है . मन में निंदा करने के नित नए-नए विचार उत्पन्न होते हैं . यदि आप इसमें माहिर हो गए तो चुनावों में गिरी हालत में भी विधायक तो बन ही जायेंगे . श्री काशी राम और सुश्री मायावती ने क्या किया ? ठाकुर – ब्राह्मणों की कठोर शब्दों में निंदा करते गए . उनका कद बढ़ गया . निंदा रथ पर चढ़ कर लालू अमर हो गए . लालू चालीसा लिखे गए . लेकिन यह शुभ लक्षण नहीं है कि लालू जैसे शुद्ध अहिंसक, समाजवादी नेता निंदा जैसे परम अस्त्र का त्याग करके लाठी की बैसाखी के सहारे चलने लगे हैं . वाम पंथियों की निंदा सामर्थ्य शक्ति का भारी ह्रास हो ही चुका है . इसलिए लोक सभा को निंदा प्रस्ताव के समय शर्मनाक  स्थिति से गुजरना पड़ा .  यदि निंदा समाप्त हो गई तो लोग अहिंसक से हिंसक हो जायेंगे . कोई लाठी भांजेगा,  कोई त्रिशूल बांटेगा तो कोई तलवार चमकाएगा . जूते भी चला सकते हैं . मेरी भांति आप भी इनसे सहमत नहीं होंगे . शेर, चीतों, तेंदुओं जैसे हिंसक जीवों  की रक्षा के लिए अभ्यारण्य और अहिंसक निन्दाजी के लिए कुछ नहीं .इसके लिए मेरा मत है कि निंदा शास्त्र को ज्योतिष के समान एक विषय का स्वरूप दिया जाना चाहिए . विद्यालयों में तो इसे कम्पलसरी सब्जेक्ट के रूप में पढ़ाया जाए क्योंकि काम चलाऊ अंग्रेजी की भांति निंदा भी सबको आनी चाहिए .कालेज स्तर पर टेस्ट लेकर प्रवेश देना ही उपयुक्त होगा . होनहारों को सी.एम्. के आगे पी.एम. की कुर्सी तक रेस करनी है . मेरा दावा है कि इसमें छात्र संख्या इतनी अधिक हो जायगी कि एक क्या अनेक निंदा विश्विद्यालय खोलने पड़ेंगे . जब एक्टिंग संस्थानों से ट्रेनिंग लेकर अनेक हीरो लोगों के दिलों पर राज कर सकते हैं तो निंदा संस्थानों से निकलने वाले लोग जनता के ऊपर राज क्यों नहीं करेंगे ?
       निंदा से भगवान् तक अभिभूत हो जाते हैं तो आम आदमी की बिसात ही क्या  है ? मैं लम्बे- चौड़े इतिहास में न पड़ कर निंदा का साहित्यिक अध्ययन संत कबीर की वाणी से प्रारम्भ करता हूँ – ‘ निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय . बिन पानी, साबुन बिना निर्मल करे सुभाय ..‘ कबीर दस जी कहते हैं कि निंदा रस का आस्वादन निरंतर मिलता रहे, इसके लिए निंदा उद्योग लगाइए .अपने आँगन में एक टपरा डालकर अपने निंदक को उसमें बसाइए . बस लग गया निंदा - उद्योग .आप जब भी कमरे से बाहर निकलेंगे आपको निंदा का प्रसाद मिलेगा . निंदक को नियरे रखने में कभी भी अच्छा मकान या महल बना कर मत दीजिये . इससे वह निंदा के स्थान पर आपकी स्तुति करेगा और आपका स्वभाव निर्मल होने के स्थान पर कठोर होता जायगा . इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बाजपेयी सरकार है . जब उन्होंने अपने निंदकों को पहचान लिया तो उन्हें मंत्री बना दिया और कुटिया के बदले बड़े-बड़े बंगले दे दिए . कबीर-वाणी का मखौल उड़ाया . नेता निंदा करना भूल गए . इसका प्रभाव अमरीका के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव के समय सबने देखा . अब आप इनसे पूछो कि जब तुम्हारे पास निंदा शास्त्र ही नहीं रहा तो अगला चुनाव क्या एटम बम से लड़ोगे ? जब तक लोग संघ और भाजपा को कोसते रहे, निंदा करते रहे,उनका स्वभाव निर्मल होता गया . वे अबाध गति से आगे बढ़ते गए . बाजपेई जी प्रधान मंत्री बने और कार्यकाल भी पूरा कर रहे हैं . नरेंद्र मोदी जी की तो जितनी निंदा की गई, वे उतना ही प्रखर होकर उभरे . यह है एक महान संत की वाणी का प्रभाव ! एक और महात्व पूर्ण उदाहरण है निंदा पुराण का . लोग इंद्रा जी की कितनी निंदा करते रहे, वे गद्दी पर जमी रहीं . उन्होंने आपात काल लगाया . निंदकों को दूर कर दिया .वे चुनाव हार गईं . जनता पार्टी की सरकार बनी .ढेर सारे निंदक इंदिरा जी का स्वभाव निर्मल करने लगे और जनता ने उन्हें पुनः सर- आँखों पर बैठा लिया .
   अब निंदा के  आध्यात्मिक महत्त्व का वर्णन करते हैं . महात्मा गाँधी ने विश्व को प्रेम व् अहिंसा का पाठ  पढ़ाया . निंदा से बढ़ कर कोई भी अहिंसक अस्त्र-शस्त्र नहीं हो सकता . आप प्रेम पूर्वक निंदक को नियरे रखिये वह शुद्ध अहिंसक ढंग से आपका स्वभाव निर्मल करता रहेगा . अहिंसा आत्मा है , निंदा मन है , निंदक शरीर है . इनका समग्र रूप ही विश्व कल्याण का मार्ग है .
    लोग कहते है कि पाकिस्तान बनाकर भारी भूल की गई . वह हिंदुस्तान का सबसे बड़ा निंदक है . उसे निकट रख कर अच्छा कार्य किया . एक नहीं, दो पाकिस्तान , ताकि दोनों कानों से निंदा रस का आनंद मिल सके .पिछले वर्ष भारत- पाक की सेनाएं आमने- सामने खड़ी थीं . लगता था कभी भी एटम बम का विस्फोट हो सकता है . कठिन घडी में बुश द  ग्रेट काम आये . उन्होंने दोनों देशों को निंदा पुराण का चिन्तन- मनन करने की सलाह दी . प्रयोग सफल रहा . सेनाएं सुख पूर्वक वापस लौट गईं .हमलों के लिए निंदा , हत्याओं के लिए निंदा , आगजनी के लिए निंदा , बम विस्फोट के लिए निंदा , इसके लिए निंदा , उसके लिए निंदा , सबके लिए निंदा . क्या फार्मूला है . सारे कार्य हमारी शांति एवं अहिंसा के सिद्धांत के अनुसार संपन्न हो गए .
निंदा के अमर प्रयोग : अंग्रेजी राज्य में सरकार नेताओं की निंदा न करके जेल में ठूंस देती थी . इससे उनकी चमड़ी कठोर और  खुरदरी हो गई . जब वे सरकार बने तो भारी समस्या खड़ी हो गई . छोटी–छोटी बातें उन्हें जोंक की तरह चिपक जातीं और कष्ट देतीं थीं . स्वतन्त्र भारत में निंदा का प्रचार हुआ, प्रसार हुआ . नेताओं की त्वचा चिकनी और आत्मा शुद्ध होती गई . अब नेताओं पर बड़ी – बड़ी बातों का प्रभाव भी नहीं पड़ता . चिकनी त्वचा से सब कुछ फिसल जाता है . पाकिस्तान ने हमारे नेताओं की जम कर निंदा की . देश के नेताओं ने भी उनके एहसान का फल चुकाया . १९४८ में पाकिस्तानी कबाइलियों को कश्मीर में बसाया ही नहीं , उन्हें कश्मीर ही दे दिया . १९६५ में भारत ने जीतकर पाकिस्तान को इलाके लौटा दिए .१९७१ में पाकिस्तान को हराकर भारत ने उसके इलाके एवं एक लाख सैनिकों को, खिला–पिलाकर हट्ट-कट्टे बनाकर सम्मान सहित वापिस किया  .इतना ही नहीं शरणार्थियों के रूप में एक करोड़ बंगला देशियों को वोटर का सम्मान भी प्रदान किया . यदि पाकिस्तान भारत की लगातार निंदा न करता तो देश के नेताओं का स्वभाव इतना खूबसूरत कैसे होता !
   लोग कहते हैं कोई –कोई मंत्री रूपये खा जाते हैं . उनकी सर्वत्र निंदा की जाती है .बैंकों का पैसा लोग खा गए . उनकी निंदा होती रहती है . भोपाल के देना बैंक टीटी नगर ने बाकायदा एक मुर्गी वाले ऋणी का निंदा प्रशस्ति पटल तैयार करवाकर आगंतुकों के दर्शनार्थ रखा ताकि अन्य लोग भी उससे प्रेरणा लें . ऋण वापस न करें .उनके प्रशस्ति पत्र भी टगेंगे .निंदा कर दी, वसूली की आवश्यकता ही नहीं रही . वाह निंदा रानी वाह .
   लेखक को दुःख इस बात का होता है कि जब इतनी बड़ी – बड़ी घटनाएं निंदा के द्वारा सहज में निपट जाती हैं तो छोटी मोटी घटनाओं में यह प्रयोग क्यों नहीं करने चाहिए.? हमारे न्यायालयों में करोड़ों मुकदमें लंबित हैं . निंदा का प्रयोग करें . सभी मुकदमें आनन – फानन में समाप्त हो जायेंगे . एक मुश्त हत्याओं के लिए निंदा और थोड़ी बहुत कहा – सुनी के लिए मुकदमें ! करोड़ों की चोरी के लिए निंदा और छोटी – मोटी चोरियों के लिए दण्ड . यह कहाँ का न्याय है ?यदि निंदा को राष्ट्रीय आभूषण घोषित कर दिया जाये तो फालतू के मुकदमें नहीं करने पड़ेंगे . सब काम एक ही सूत्र ‘ निंदा ‘ से चल जायेंगे . पुलिस की आवश्यकता नहीं रहेगी , न्यायालय भी सीमित हो जायेंगे . सेनाओं की आवश्यकता समाप्त हो जायगी .देश में नौकरी से निकलने का अभियान भी नहीं चलाना पड़ेगा .सबको निंदा करने में एक्सपर्ट बनाकर सेवाएं समाप्त कर दीजिये .वे सड़क पर निंदा पुराण गायेंगे . देश की बचत ही बचत होगी .कभी कोई चोरी वगैरह हो भी जायगी तो सरकारी कोष में बचत का इतना पैसा होगा कि उससे दुगुनी क्षतिपूर्ति की जा सकेगी . देश में इतने महान शास्त्र के होते हुए भी जब कुछ नासमझ जीव , परीक्षाओं में बच्चों को नकल के नाम पर पकड़ कर दण्ड देने की बात करते हैं तो दिल ज़ार- ज़ार हो जाता है . उन्हें कौन समझाए कि अबोध नौनिहालों पर इतना अत्याचार क्यों कर रहे हैं ? उनकी तो अभी निंदा झेलने की उम्र भी नहीं है .

                  

तृष्णा का अर्थशास्त्र


                 तृष्णा का अर्थशास्त्र
 मनुष्य की आवश्यकताएं , इच्छाएँ , क्षमताएँ ( जिनमें शारीरिक, मानसिक, आर्थिक क्षमताएं सम्मिलित हैं ), वस्तुओं की आपूर्ति और परिस्थितियां किसी समाज का ताना बाना बुनती हैं . इन्हीं के संयोग से सामाजिक , आर्थिक , राजनैतिक , शैक्षणिक , विधिक आदि विभिन्न व्यवस्थाएं निर्मित होती जाती हैं . मनुष्य की आधारभूत आवश्यकताएं भोजन, कपड़ा और मकान हैं . उसकी इच्छाएँ आवश्यकता तुष्टि के आगे आनन्द तक होती हैं . आनन्द के विविध आयाम हैं . भगवान की उपासना में लीन रहना, अपनी इच्छाओं की पूर्ति करना , गीत-संगीत में मस्त होना , विभिन्न वस्तुओं का सृजन करना, अनेक वस्तुओं का संग्रह करना, नवीन आविष्कार करना, लोगों का कल्याण करना, लोगों को कष्ट देना  आदि विविध प्रकार से मनुष्य आनन्द की अनुभूति करता है . सामान्य रूप से वस्तुओं की आपूर्ति होने पर ही व्यक्ति उन्हें प्राप्त कर पाता है परन्तु ऐसे लोग भी  होते हैं जो विचित्र  कल्पनाएँ करते हैं और अपनी मानसिक क्षमताओं से अनेक नई वस्तुओं का अविष्कार करते हैं जो बाद में लोगों की आवाश्यकता बन जाती हैं . जिस व्यक्ति ने प्रथम बार सोचा होगा कि आसमान में उड़ना है और जिसने सोचा होगा चाँद – तारों की यात्रा करनी है , लोगों ने उनका कितना उपहास किया होगा . नए रूप में गणित का प्रयोग करना और कम्प्यूटर क्रांति करना और चाँद की यात्रा करना , सब कुछ स्वचालित होना आदि घटनाएं अस्वाभाविक और काल्पनिक इच्छाओं के परिणाम स्वरूप ही संभव हुई हैं . इस प्रकार विश्व का विकास ही मनुष्य की इच्छा शक्ति और उसकी असीमित क्षमताओं के कारण होता आ रहा है .
    कुछ लोगों की मान्यता है कि इच्छाएँ न्यूनतम हों . अर्थ शास्त्री जेके मेहता कहते हैं कि इच्छाएँ ही दुःख का कारण हैं . अतः इच्छाओं का न्यूनतम होना व्यक्ति के आनन्द और सुख के लिए आवश्यक है . वे तुष्टि को सुख का कारण नहीं मानते . महात्मा गाँधी भी इच्छाओं के संयम के पक्षधर रहे हैं . परन्तु इच्छाओं के न रहने से तो विकास ही नहीं होगा , नवीन अविष्कार ही नहीं होंगे तथा जो वस्तुएं उपलब्ध होंगी , मांग के अभाव में वे भी विलुप्त होने लगेंगी . शरीर का निर्माण भौतिक वस्तुओं से होता है , उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति  भी भौतिक वस्तुओं से होगी . जिसे हम आत्मा कहते हैं , वह बिना शरीर के कुछ नहीं कर सकती . अतः शरीर के सुख की उपेक्षा न तो संभव है और न ही उचित . उसी शरीर के सुख के लिए मनुष्य सदैव प्रयत्न शील रहता है . कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश साधु–सन्यासी भी , जो जनता को मोहमाया छोड़कर ईश्वर भजन का उपदेश देते है, अपने शारीरिक सुख के लिए तत्पर रहते हैं . अधिकांश सन्यासी स्वयं साधन संपन्न गृहस्थों पर निर्भर होते हैं . इच्छाओं का न होना सन्यास ही नहीं , अज्ञानता एवं मूर्खता के कारण भी होता है . ३०० वर्ष पूर्व अफ्रीका और अमेरिका के मूल निवासी अपनी अज्ञानता के कारण वन्य प्राणियों एवं उत्पादों पर निर्भर करते थे . उनकी इच्छाएँ और आवश्यकताएं बहुत सीमित थीं . क्या उन्हें सुखी कहा जा सकता है ? उनके अज्ञान एवं दुर्बलता का लाभ उठाकर चालाक यूरोप वासियों ने अफ्रीका वासियों को अनेक पीढ़ियों तक गुलाम बनाकर तथा यातनाएं दे देकर अनेक वर्षों तक  अमेरिका में स्थापित अपने उपनिवेशों में काम करवाए . उन्होंने  अमेरिका के अधिकांश मूल वासियों का तो सफाया ही कर दिया . व्यक्ति इच्छाओं का परित्याग करके भाग कर कहाँ जायेगा ?
  इच्छा के अभाव में व्यक्ति काम करने के लिए प्रेरित ही नहीं हो सकता है . इच्छाओं की पूर्ति होने पर व्यक्ति प्रसन होता है , इच्छा की पूर्ति न होने पर व्यक्ति क्षुब्ध होने लगता है , वह निराश भी हो सकता है और उसे क्रोध भी आ सकता है . अतः इच्छाओं की सीमा क्या होनी चाहिए जिससे व्यक्ति अपना जीवन सहजता से व्यतीत कर सके ? इसे तृष्णा के अर्थशास्त्र की विवेचना से अच्छी प्रकार समझा जा सकता है .
   तृष्णा का अर्थशास्त्र , अर्थशास्त्र की वह शाखा है जिसमें व्यक्ति की तीव्र इच्छाओं से उत्पन्न अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया जाता है .इसमें इच्छित वस्तु सुख का साधन न होकर स्वयम साध्य हो जाती है . यद्यपि इसका सम्बन्ध मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं से नहीं है परन्तु वर्तमान अर्थव्यवस्था मनुष्य की तृष्णाओं से ही संचालित होती प्रतीत होती है . आज  मोबाईल छोटे से छोटे व्यक्ति की भी आवश्यकता बन चुका है परन्तु उसमें यह तृष्णा होना कि उसके पास सर्वश्रेष्ठ मोबाईल ही होना चाहिए अथवा किसी व्यक्ति के पास अच्छी कार है परन्तु उसकी तीव्र इच्छा रहती है कि उसकी कार सर्वश्रेष्ठ होनी चाहिए या अनेक परिधान होते हुए भी किसी महिला की इच्छा होना कि उसके पास वैसे वस्त्र नहीं हैं जो अन्य के पास हैं , जैसे अनेक उदाहरण हो सकते हैं जहाँ व्यक्ति को उस वस्तु की व्यावहारिक आवश्यकता नहीं है परन्तु वह उसे पाने की तीव्र इच्छा रखता है . यह अर्थशास्त्र उस अर्थशास्त्र से भिन्न है जो कहता है कि पेट भरा होने पर व्यक्ति के लिए भोजन की उपयोगिता नहीं रह जाती है अथवा आपूर्ति अधिक होने पर वस्तु का मूल्य कम हो जाता है या क्रय क्षमता न होने पर व्यक्ति वस्तु को प्राप्त नहीं कर सकता है .
  सर्वप्रथम आर्थिक रूप से सक्षम व्यक्तियों की चर्चा करते हैं . जो आर्थिक रूप से सक्षम है वह अपनी तृष्णा की पूर्ति सहजता से कर लेता है . वस्तु क्रय करने में उसे कोई असुविधा न हो , इसके लिए बैंक अनेक प्रलोभन देकर क्रेडिट कार्ड वितरित करते रहते हैं . प्रत्यक्ष रूप से वे क्रेडिट कार्ड से लाभ देने के लिए कहते हैं परन्तु उसमें अनेक छुपे हुए प्रावधान होते हैं जिससे वे ग्राहक से धन वसूलते रहते हैं . कर्जे लेने की प्रवृत्ति बढ़ने से व्यक्ति वह सामान भी लेता जाता है जिसकी उसे विशेष आवश्यकता न हो . इससे अनेक कम्पनियाँ नए – नए उत्पाद बाजार में लाती जाती हैं . अपना व्यवसाय बढ़ाने के लिए वे विज्ञापन पर भी बहुत धन व्यय करती हैं . बड़े- बड़े खिलाड़ी , अभिनेता उनके विज्ञापनों से करोड़ों रूपये अतिरक्त आय प्राप्त करते रहते हैं . इससे मीडिया तथा पत्र - पत्रिकाओं का जीवन चलता ही नहीं बल्कि दौड़ता है .
   इस व्यव्स्था से उद्योग – व्यवसाय की बहुत प्रगति होती है . नए – नए उत्पादों का आविष्कार होता जाता है, रोज़गार के अनेक नए अवसर उपलब्ध होते हैं . कंपनिया नए आविष्कारों और उत्पादों के निर्माण के लिए तकनीकी व्यक्तियों को अत्यधिक उच्च वेतन देती हैं . कुछ वस्तुएं अनावश्यक हो सकती हैं परन्तु अनेक नई वस्तुओं से व्यक्ति का जीवन स्तर भी ऊपर उठता है . इसी के परिणाम स्वरूप आज श्रमिक भी स्कूटर – मोटरसाइकिल पर चल रहा है , मोबाईल का प्रयोग कर रहा है , अच्छे वस्त्र पहन रहा है , अपने बच्चों को घटिया सरकारी स्कूलों के स्थान पर निजी संस्थाओं में पढ़ा रहा है और इसके लिए वह पर्याप्त परिश्रम भी करता है , उनकी महिलाएं लोगों के घरेलू काम करके घर के व्यय पूरे करने के लिए संघर्ष करती हैं . कुल मिलाकर समाज प्रगति करता जाता है . देश में धनवानों अर्थात पूँजीवाद का बोलबाला होने लगता है , व्यवस्थाओं का निजी करण होने लगता है और पूँजी पति अपने देश का धन कमाने के बाद दूसरे देशों में धन के शिकार पर निकल पड़ते हैं .
  इसके ऋणात्मक पक्ष भी सामाजिक अर्थ व्यवस्था को बहुत प्रभावित करते हैं . कर्जे लेने और देने की प्रवृत्ति के कारण ही अमेरिका और यूरोप के देश मंदी में फंस गए थे . एक कार की कंपनी अपने उत्पाद बढ़ाती है , उसकी आय बढ़ती है . उसे देख कर अनेक कार कम्पनियाँ अपने उत्पाद बनाने और उनका विस्तार करने लगती हैं . प्रतिद्वंदिता के परिणाम स्वरूप उनका मूल्य सीमित रहता है . कार उद्योग से सम्बंधित सहायक उद्योग भी तीव्रता से बढ़ते जाते हैं . मंदी की स्थिति आने पर ऐसे उद्योग से जुड़े लोगों का जीवन यापन भी कठिन हो जाता है और बेरोजगारी तेजी से बढ़ने लगती है . ऐसे उद्योगों में कार्यरत लोगों ने जो कर्जे ले रखे थे , वे उन्हें चुकाने में असमर्थ हो जाते हैं जिससे बैंकों का दिवाला निकल जाता है अर्थात जिन लोगों ने अपने परिश्रम से धन कमाकर बैंकों में जमा किया था , उनका सारा धन लुट चुका होता है . यह खतरा सर्वाधिक भूमि और भवन उद्योग से जुड़े लोगों में होता है जहां भूमि के भाव कृत्रिम रूप से बढ़ा दिए जाते हैं .
     जो लोग अपनी सीमित आय में तृष्णा के कारण अनावश्यक व्यय करते हैं वे या तो ऋण ग्रस्त रहते हैं या उनकी पूर्ति के लिए ललचाते रहते हैं . उनके लिए वस्तुएं बहुमूल्य हो जाती हैं , आदमी छोटा हो जाता है . इससे अनेक लोग अपने नैतिक दायित्वों से दूर होते जाते हैं . विवाह के बाद या कभी – कभी पहले भी लोग अपने माता – पिता के भरण-पोषण से भी विमुख हो जाते हैं , भाई – बहनों के दायित्व की बात कौन कहे . पहले लोग पारिवारिक दायित्व हर मूल्य पर निभाते थे , आज वे इसके लिए अपनी किसी सुख – सुविधा को कम नहीं करना चाहते . जो लोग ऋण के भार से दब जाते हैं या जो धनाभाव में तृष्णा को पूरा नहीं कर पाते वे हीनता काम्लेक्स में फंस जाते हैं और स्वयं को अक्षम , अभाग्यशाली या दुर्भाग्यशाली मानने लगते हैं और जीवन में अनावश्यक कष्ट एकत्र कर लेते हैं . वे आनंद के स्थान पर तनाव में रहने लगते हैं , अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं , चिड़चिड़े हो जाते हैं , आत्महत्या तक कर लेते हैं . 
   जो लोग तृष्णा पूरी  करने के लिए धन नहीं रखते , फिर भी पूरी करना चाहते हैं , वे चोरी, छीना–झपटी, धोखाधड़ी जैसे अपराधों में लिप्त होते जाते हैं . इसका सर्वाधिक घृणित पक्ष है व्यक्ति का धन को साध्य मानना . अधिकारी , नेता गण प्रारम्भ में अपनी सुख सुविधाएं जुटाने के लिए भ्रष्टाचार करते हैं . परन्तु धीरे-धीरे धन ही उनके लिए साध्य हो जाता है . ऐसे लोग देश, समाज, मानवीयता आदि से कोई सम्बन्ध नहीं रखते . उनका एक ही कार्य होता है धन और अधिक धन एकत्र करते जाना . अनेक अधिकारीयों – नेताओं के घर छापे में करोड़ों रूपये प्राप्त होते हैं . वे कभी भ्रष्टाचार द्वारा अर्जित धन लाकरों में रखते हैं तो कभी गद्दों में भर कर उस पर सोते हैं . भारत के चारा घोटाले से लेकर राष्ट्र मंडल , टूजी , कोलगेट आदि के घोटाले इसी धन तृष्णा के परिणाम स्वरूप हुए हैं . राष्ट्र से गद्दारी करते हुए ऐसे लोग बड़े – बड़े सौदों में अरबों डालर की घूंस खाते हैं , गबन करते हैं और काला धन विदेशों में जमा करते जाते हैं . इसी भ्रष्टाचार  कारण भारत में सरकारी योजनाएं वर्षों तक लटकाई जाती हैं जिससे उनकी लागत बढ़ती जाती है और जनता को उसकी भरपाई करनी पड़ती है . बड़े-बड़े अस्पताल और सरकारी डाक्टर तथा मंत्री लोगों के जीवन का सौदा करके धन अर्जित करते है , निजी शिक्षण संस्थान धन देकर लाइसेंस खरीदते हैं और फिर डिग्रियां बेचने का व्यवसाय करते हैं . डान अपनी दादा गीरी से धन लूटते हैं .यह सब उसी धन तृष्णा के कारण होता है .
  भारत में इसी तृष्णा का लाभ उठा कर नेता जनता को भिन्न – भिन्न प्रकार के मंहगे सामान, कर रियायतें, मुफ्त की बिजली, पानी, मकान, कर्जे माफ़ी  आदि का लालच देकर चुनाव जीतते हैं और जम कर भ्रष्टाचार करते है।  कर से प्राप्त धन से वस्तुएं खरीद कर वे लोगों में बाँट देते हैं, अनेक लोगों को उपयोगी वस्तुएं मिल जाती हैं , उनका जीवन स्तर उठ जाता है , उद्योगों-व्यवसायियों को भी अर्थ लाभ होता है मंहगाई बढ़ती जाती है  परन्तु इससे देश के विकास के लिए धन उपलब्ध नहीं हो पाता है . मुद्रा स्फीति होतीं जाती है।  धनाभाव होने के कारण  बेरोजगारी बढ़ती जाती है .  इसलिए देश और राज्यों में सरकारी कार्यालयों तथा उपक्रमों में लाखों पद रिक्त पड़े हैं और युवक बेरोजगार घूम रहे हैं . इसी भ्रष्टाचार के कारण भारत सरकार ने देश के निर्यात को बाधित किया और आयात को अनेक प्रकार की छूट तथा प्रोत्साहन दिए जिससे भारत का चालू खाता घाटा बहुत बढ़ गया और विकास दर कम हो गई .
  यदि तृष्णा सीमित हों अर्थात व्यावहारिक इच्छाएँ हों तो लोग उसके लिए प्रयास करते हैं जिससे आर्थिक विकास सही ढंग से होता है . तृष्णा पर नियंत्रण का मुख्य आधार न्याय व्यवस्था होती है जिसमें अनुचित ढंग से धन लाभ करने के लिए कठोर दंड के प्रावधान हों . भारत के न्यायालयों में अनेक वर्षों तक निर्णय ही नहीं दिए जाते जिससे यहाँ भ्रष्टाचार दिन-रात प्रगति करता जाता है . इसीलिए  भारत विश्व के भ्रष्टाचारी देशों में गिना जाता है .
 इस व्यवस्था में व्यक्ति शीघ्रातिशीघ्र बिना परिश्रम के अमीर बनना चाहता है, मुफ्त में धन एवं वस्तुएं प्राप्त करना चाहता है . भारत में मुफ्तखोरी और कामचोरी का भी यही कारण है . इसी के कारण भारत में श्रमिकों एवं कर्मचारियों- अधिकारीयों का वेतन तो तीव्र गति से बढ़ रहा है परन्तु कार्य संस्कृति नष्ट हो रही है . तृष्णा के अर्थशास्त्र में प्रत्यक्ष रूप से यद्यपि आर्थिक प्रगति दृष्टिगोचर होती है परन्तु अंततः यह मानवता के लिए अभिशाप है .








  





      




  
   

  

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य


                  चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य
    भारतीय इतिहास में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का स्थान अद्वितीय है . चन्द्रगुप्त प्रथम ने गुप्त साम्राज्य की स्थापना की थी . उनके सुपुत्र सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया . समुद्रगुप्त के द्वितीय पुत्र चन्द्रगुप्त न केवल एक पराक्रमी सम्राट थे अपितु उनमें एक महान पुरुष के सभी गुण विद्यमान थे . उनके समय में चीनी यात्री फाह्यान भारत आया था . उसने लिखा है कि लोग अहिंसक और शांति प्रिय थे . वह अनेक वर्षों तक भारत में रहा तथा उसने उसके साम्राज्य में अनेक यात्राएं कीं . उसका कभी भी किसी चोर – लुटेरे से सामना नहीं हुआ न ही उसने कभी कहीं चोरी की घटना के सम्बन्ध में सुना . उसने लिखा है कि देश में व्यापार – व्यवसाय की स्थिति अति उन्नत थी . लोग संपन्न और सुखी थे तथा मानवीयता से परिपूर्ण थे . शिक्षण संस्थाओं को सहयोग देना ,  धार्मिक संस्थाओं को दान देना और परस्पर सहयोग करना लोगों की स्वाभाविक प्रकृति थी . उनके काल में धर्म , दर्शन ,ज्योतिष , खगोल शास्त्र , गणित , विज्ञान , आयुर्वेद , साहित्य और कलाओं आदि  की भी बहुत उन्नति हुई . इसलिए उनके शासन काल को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहा जाता है .
 समुद्रगुप्त के बाद उसका बड़ा पुत्र रामगुप्त मगध की गद्दी पर बैठा . वह कायर और अयोग्य शासक था . उसके राज्य पर शक राजा ने आक्रमण किया तो वह सेना समेत शक सेना से घिर गया . वह मारा भी जा सकता था . समर्पण भाव से वह शकराज से समझौते की याचना  करने लगा . शकराज ने उसकी दीनहीन हालत देखी तो दया के नाम पर अपमानित करने को उद्यत हो गया . महान समुद्रगुप्त का पुत्र उसकी शरण में था . शकराज ने एक शर्त यह भी रखी कि यदि वह वास्तव में संधि चाहता है तो गुप्त सम्राज्ञी ध्रुवस्वामिनी को उसकी सेवा में प्रस्तुत करे और उनके अधिकारियों की स्त्रियाँ शक नायकों की सेवा में उपस्थित हों . कोई भी राजा इतनी अपमान जनक संधि करने की अपेक्षा युद्ध में मर जाना पसंद करेगा परन्तु कायर रामगुप्त ने शकराज की शर्त स्वीकार कर ली और सम्राज्ञी से कहा कि वह उसकी सेवा में जाये . ध्रुवस्वामिनी ने इसका विरोध किया परन्तु रामगुप्त कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं हुआ . महल में कोहराम मच गया . अंत में ध्रुवस्वामिनी और अन्य स्त्रियों की शकसेना के शिविरों में जाने की व्यवस्था की गई . शकराज अपनी अद्भुत विजय पर फूला नहीं समा रहा था . शक सेना नायक भी इससे अत्यंत प्रसन्न थे . पूरे शिविरों में विजयोत्सव का माहौल था .
   रात्रि में महारानी और अन्य स्त्रियों के डोले उनके शिविरों में पहुंचे . शकराज और सेना नायक सुरापान  करके उनकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे . परन्तु थोड़ी ही देर में शिविरों का आनन्दोत्सव कोहराम और चीखों से दहल उठा . जब महारानी ध्रुवस्वामिनी रामगुप्त की घृणित इच्छा को पूरा करने का विरोध कर रही थी , उसके देवर चन्द्रगुप्त ने उससे कहा कि वह हाँ कर दे . शेष वह संभाल लेगा . शिविरों में जाने वाले डोले में ध्रुवस्वामिनी के स्थान पर चन्द्रगुप्त स्वयं बैठा था अन्य डोलों में उसके चुने हुए सैनिक थे . स्त्रीवेश में जब वे शिविरों में पहुंचे , राजा और सेनापति मस्त भाव में उनका स्वागत करने को तत्पर हुए . चन्द्रगुप्त और उसके साथियों ने बिना विलम्ब किए उनपर आक्रमण कर दिए जिससे राजा समेत सभी सेना नायक मारे गए . उसी समय चन्द्रगुप्त की सेना ने पूरे शिविर पर हमला बोल दिया . रात्रि का समय था , कोई अधिकारी , सेनापति , राजा आदेश देने वाला न था . भयभीत होकर सैनिक भाग खड़े हुए अथवा मारे गए  जबकि गुप्त सेना की कोई विशेष क्षति नहीं हुई .
  मगध राज्य की जनता शकराज से हार के कारण बहुत दुखी थी . रामगुप्त द्वारा ध्रुवस्वामीनी को उन्हें समर्पित करने की बात से तो सभी बहुत क्षुब्ध और क्रोधित थे . जब उन्हें चन्द्रगुप्त की वीरता , साहस और पराजय को विजय में बदलने का समाचार मिला तो लोग ख़ुशी से झूम उठे  . इससे चन्द्रगुप्त की प्रतिष्ठा में बहुत वृद्धि हो गई . परन्तु रामगुप्त इससे बहुत भयभीत हो गया और चिढ़ गया क्योंकि वह एक वीभत्स खलनायक बनकर उभरा था . सत्ता , सेना और कोष  अभी उसके अधिकार में ही थे . उसने चन्द्रगुप्त को बंदी बनाने का प्रयास किया या अन्य प्रकार से प्रताड़ित करने के , यह इतिहास में गुम है . भाई से संघर्ष में  अंततः चन्द्रगुप्त ने सत्ता पर अधिकार कर लिया . सैन्य अधिकारी , मंत्री परिषद् और प्रजा सभी चन्द्रगुप्त को राजा के रूप में चाहते थे . ध्रुवस्वामिनी ने रामगुप्त के साथ रहने से इन्कार कर दिया था क्योंकि उसने अपनी जान बचाने के लिए महरानी को शकराज की सेवा में भेजने की अत्यंत अपमान जनक शर्त स्वीकार की की थी . सत्ता संघर्ष में रामगुप्त मारा गया या कहीं भाग गया अज्ञात है . ध्रुस्वमिनी ने चन्द्रगुप्त से विवाह कर लिया और पुनः मगध की पट्टाभिमहारानी बन गई .
    चन्द्र गुप्त ने तत्कालीन समय में प्रचलित विदेश नीति के अनुसार शक्तिशाली शासकों से विवाह सम्बन्ध स्थापित किये . उसका विवाह नागवंश की राजकुमारी कुबेर नागा के साथ हुआ था और उससे उत्पन्न पुत्री प्रभावती का विवाह उसने वाकाटक नरेश ( वर्तमान दक्षिण म.प्र., आन्ध्र , उड़ीसा का क्षेत्र )  से किया था . गुजरात के शक राजा पर आक्रमण के समय वाकाटकों से खतरा उत्पन्न हो सकता था जो विवाह सम्बन्ध होने पर सहयोग में बदल गया .
  समुद्र गुप्त के राज्य का विस्तार यद्यपि बहुत था परन्तु अनेक राजा नाम मात्र के ही आधीन थे . व्यवस्था की दृष्टि से बड़े साम्राज्य में नए शासक बैठाना आसन नहीं होता था . अतः कर लेकर उसी राजा को शासन करने देते थे . जब सम्राट कमजोर पड़ता जैसे रामगुप्त , तो वर्षों के परिश्रम से राज्य के आधीन लाए गए राजा एक ही झटके पुनः स्वतन्त्र हो जाते  और राज्य पर आक्रमण भी करने लगते थे . एक शक राजा ने मगध पर आक्रमण किया था और मारा भी गया था . एक अन्य शक राजा रुद्रसिंह त्रितीय काठियावाड़ , गुजरात और मालवा का शासक था . चन्द्रगुप्त ने उसे हराकर उसके राज्य को अपने राज्य में मिला लिया . इसके बाद उसने वाल्हीक राज्य जो वर्तमान अफ्गानिस्तान तक फैला हुआ था को अपने अधिकार में ले लिया . पूर्व में बंगाल तक उसका राज्य था . प्राचीन भारत की परम्परानुसार चन्द्रगुप्त ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की . उसका शासन काल ३८० से ४१५ ईसवी तक अनुमानित है . यह विश्वास किया जाता है कि पूर्व से प्रचलित पंचांग को उन्होंने विक्रम सम्वत  नाम दिया . उनके मगध राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी परन्तु शासन व्यवस्था की दृष्टि से उन्होंने उज्जयिनी को अपनी दूसरी राजधानी बनाया .
    चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य अपने दरबार के नवरत्नों के कारण अधिक विख्यात हुए . संस्कृत के अमर कवि कालिदास , प्रसिद्द ज्योतिष विद्वान वराहमिहिर , आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरी जैसे विख्यात विद्वान् उनके दरबार की शोभा बढ़ाते थे . दिल्ली में क़ुतुब मीनार के पास स्थित लौह स्तम्भ उनके कार्यकाल का माना जाता है जिस पर आज तक जंग नहीं लगा है . आज के वैज्ञानिक उस रासायनिक विधि को नहीं खोज पाए हैं जिससे जंग रहित लौह वस्तुएं बनाई जा सकें . उस काल में २४ फीट लम्बे और १८० मन ( लगभग   किलो ) को किस विधि से गोल ढाला गया था यह भी आश्चर्य का विषय है .
   उस काल का इतिहास ज्ञात करने के पर्याप्त स्रोत नहीं हैं . गुप्त काल का शासन २५० वर्ष से अधिक समय तक रहा है . इतिहास में इस पूरे काल की आर्थिक , सामाजिक , धार्मिक , वैज्ञानिक , साहित्य एवं कलाओं के विकास का वर्णन किया गया है . अतः चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में किस क्षेत्र में कितना विकास हुआ स्पष्ट नहीं है .
    चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में व्यापार बहुत उन्नत था . पाटलिपुत्र ( पटना ) से कौशाम्बी , उज्जयिनी होते हुए एक सड़क गुजरात में भडोंच बंदरगाह तक जाती थी .यह बहुत उन्नत नगर था यहाँ से समुद्री मार्ग से पश्चिमी देशों मिस्र, रोम, ग्रीस, फ़ारस और अरब देशों से व्यापार होता था .पूर्व में बंगाल की खाड़ी में ताम्रलिप्ति नामक बहुत बड़ा बंदरगाह था जहाँ से पूर्व एवं सुदूरपूर्व के देशों बर्मा, जावा, सुमात्रा, चीन आदि से व्यापार होता था .भारत से निर्यात होने वाले सामान में मुख्य रूप से मोती, मणि, सुगंधी, सूती वस्त्र, मसाले, नील, दवाएं, हाथीदांत आदि होते थे . विदेशों से चांदी, तांबा, टिन, रेशम, घोड़े, खजूर आदि मँगाए जाते थे .
उनके राज्य में इनके अतिरिक्त भी कई बंदरगाह थे, विद्या एवं व्यापार के विकसित केंद्र थे . 
   चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य वैष्णव था परन्तु उसका सेनापति बौद्ध था . उस समय यज्ञ करने वाले , शिव, विष्णु एवं सूर्य के उपासक, जैन, बौद्ध सभी मतों के मानने वाले परस्पर प्रेम से रहते थे . धर्म के सिद्धांतों में उनमें परस्पर शास्त्रार्थ होते थे और जब संतुष्ट हो जाते थे तो दूसरा धर्म भी ग्रहण कर लेते थे . उन दिनों नालंदा विश्विद्यालय विश्वप्रसिद्ध शिक्षा , विशेष रूप से बौद्ध धर्म एवं दर्शन का केंद्र था .राजा उसके लिए समुचित सहयोग देता था . उस समय देश में लाखों बौद्ध भिक्खु थे जिनके निर्वाह के लिए राजा एवं प्रजाजन  भरपूर सहयोग देते थे . कभी-कभी तो लोगों में दान-दक्षिणा देने की होड़ सी लग जाती थी .
  फाहियान ने लिखा है कि उस समय राजा मृत्यु दंड नहीं देते थे . सामान्य रूप से अर्थ दंड लगता था परन्तु जघन्य अपराधों के लिए अंग भंग भी किये जाते थे . लोगों के सद्व्यवहार एवं आचार-विचार के लिए भी फाह्यान लिखता है कि लोग लहसुन-प्याज तक नहीं खाते हैं , सुरापान नहीं करते हैं . इतने बड़े देश में कहीं भी चोरों , डकैतों का भय न होना भी राज्य की बहुत बड़ी विशेषता थी जो संभवतः अन्य किसी राज्य में संभव नहीं रही है . धनी लोगों तथा जनता ने चिकित्सालय खुलवाए हुए थे जिनमें गरीबों तथा विकलांगों को , वे चाहे कहीं के भी हों , निःशुल्क चिकित्सा मिलती थी तथा उनके रहने का व्यय भी उठाया जाता था . उसने लिखा है कि मालवा की जलवायु सम है ,जनसँख्या अधिक है तथा लोग सुखी हैं . लोग राजा की जमीन जोतते थे और कर का भुगतान करते थे . वे कहीं भी आ-जा सकते थे तथा कोई भी व्यवसाय कर सकते थे .
  फाह्यान ने राजा की उदारता, न्यायप्रियता तथा सुयोग्य शासन व्यवस्था की भूरि-भूरि प्रशंसा की है . सामान्य रूप से प्रजा सुखी तथा संतुष्ट थी . राजा की वीरता, साहस, दूरदृष्टि, सदाचरण, सुशासन ज्ञान, विज्ञान, धर्म, संस्कृति , साहित्य, कलाओं के विकास, सुदृढ़ आर्थिक व्यवस्था एवं प्रजा के सुख की दृष्टि से विश्व इतिहास के किसी भी राज्य से चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य और उनका राष्ट्र श्रेष्ठ थे . वे महान ही नहीं महानता के सर्वश्रेष्ठ मानदंड भी हैं .
                     
  



नाज़ीवाद

                         नाज़ीवाद
    नाज़ीवाद एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका जिसे जर्मनी के तानाशाह हिटलर ने प्रारंभ किया था . हिटलर का मानना था कि जर्मन आर्य है और विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं . इसलिए उनको सारी दुनिया  पर राज्य करने का अधिकार है . अपने तानाशाही पूर्ण आचरण से उसने विश्व को द्वितीय विश्व युद्ध  में झोंक दिया था . १९४५ में हिटलर के मरने  के साथ ही नाज़ीवाद का अंत हो गया परन्तु ‘नाज़ीवाद’ और ‘हिटलर होना’ मानवीय क्रूरता के पर्याय बन कर आज भी भटक रहे है .
    हिटलर का जन्म १८८९ में आस्ट्रिया में हुआ था . १२ वर्ष की आयु में उसके पिता का निधन हो गया था जिससे उसे आर्थिक संकटों से जूझना पड़ा . उसे चित्रकला में बहुत रूचि थी . उसने चित्रकला पढ़ने के लिए दो बार प्रयास किये परन्तु उसे प्रवेश नहीं  मिल सका . बाद में उसे मजदूरी से  तथा घरों में पेंट पुताई करके जीवन यापन करना पड़ा . प्रथम विश्व युद्ध प्रारंभ होने पर वह सेना में भरती हो गया . वीरता के लिए उसे आर्यन क्रास से सम्मानित किया गया . युद्ध समाप्त होने पर वह एक संगठन  
जर्मन लेबर पार्टी में सम्मिलित हो गया जिसमें मात्र २०-२५ सदस्य थे . हिटलर के भाषणों से अल्प अवधि में ही उसके सदस्यों की संख्या हजारों में पहुँच गई . पार्टी का नया नाम रखा गया ‘नेशनल सोशलिस्ट जर्मन लेबर पार्टी’ . जर्मन में इसका संक्षेप में नाम है ‘नाज़ी पार्टी’ . हिटलर द्वारा प्रतिपादित इसके सिद्धांत ही नाज़ीवाद कहलाते हैं .
   हिटलर ने जर्मन सरकार के विरुद्ध विद्रोह का प्रयास किया . उसे बंदी बना लिया गया और ५ वर्ष की जेल हुई . जेल में उसने अपनी आत्म कथा ‘मेरा संघर्ष’ लिखी . इस पुस्तक में उसके विचार दिए हुए हैं . इस पुस्तक की लाखों प्रतियाँ शीघ्र बिक गईं जिससे उसे बहुत ख्याति मिली . उसकी  नाज़ी पार्टी को पहले तो चुनावों में कम सीटें मिलीं परन्तु १९३३ तक उसने जर्मनी की सत्ता पर पूरा अधिकार का लिया और एक छत्र तानाशाह बन गया . उसने अपने आसपास के देशों पर कब्जे करने शुरू कर दिए जिससे दूसरा विश्व युद्ध प्राम्भ हो गया . वह यहूदियों से बहुत घृणा करता था . उसने उन पर बहुत अत्याचार किये , कमरों में ठूँसकर विषैली गैस से हजारों लोग मार दिए गए . ६ वर्षों के युद्ध के बाद वह हार गया और उसने अपनी प्रेमिका, जिसके साथ उसने एक-दो दिन पहले ही विवाह किया था, के साथ गोली मारकर आत्महत्या कर ली .
                     नाज़ीवाद के उदय के कारण       
प्रथम विश्व युद्ध १९१४ से १९१९ तक चला था . इसमें जर्मनी हार गया था . युद्ध के कारण उसकी बहुत क्षति हुई . इन सब के ऊपर ब्रिटेन, फ़्रांस आदि मित्र राष्ट्रों ने उस पर बहुत अधिक दंड लगा दिए . उसकी सेना बहुत छोटी कर दी, उसकी प्रमुख खदानों पर कब्ज़ा कर लिया तथा इतना अधिक अर्थ दंड लगा दिया कि अनेक वर्षों तक अपनी अधिकांश  कमाई उन्हें देने के बाद भी जर्मनी का कर्जा कम नहीं हो रहा था .१९१४ में एक डालर =४.२ मार्क था जो १९२१ में ६० मार्क, नवम्बर १९२२ में ७०० मार्क,जुलाई १९२३ में एक लाख ६० हजार मार्क तथा नवम्बर १९२३ में एक डालर  = २५ ख़राब २० अरब मार्क के बराबर हो गया . अर्थात मार्क लगभग शून्य हो गया जिससे मंदी, मंहगाई और बेरोजगारी का अभूतपूर्व संकट पैदा हो गया . उस समय चुनी हुई सरकार के लोग अपना जीवन तो ठाट- बात से बिता रहे थे परन्तु देश की समस्याएँ कैसे हल करें , उन्हें न तो इसका ज्ञान था और न ही बहुत चिंता थी . ऐसे समय में हिटलर ने अपने ओजस्वी भाषणों से जनता को समस्याएँ हल करने का पूरा विश्वास दिलाया . इसके साथ ही उसके विशेष रूप से प्रशिक्षित कमांडों विरोधियों को माँरने तथा आतंक फ़ैलाने के काम भी कर रहे थे जिससे उसकी पार्टी को धीरे- धीरे सत्ता में भागीदारी मिलती गई और एक बार चांसलर ( प्रधान मंत्री ) बनने  के बाद उसने सभी विरोधियों का सफाया कर दिया और संसद की सारी शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित कर ली . उसके बाद  वे देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री सबकुछ बन गए . उन्हें फ्यूरर कहा जाता था .
              नाज़ीवाद का आधार
हिटलर से 11वर्ष पूर्व इटली के प्रधानमंत्री मुसोलिनी भी अपने फ़ासीवादी विचारों के साथ तानाशाही पूर्ण शासन चला रहे थे . दोनों विचारधाराएँ समग्र अधिकारवादी, अधिनायकवादी, उग्र सैनिकवादी, साम्राज्यवादी, शक्ति एवं प्रबल हिंसा की समर्थक,लोकतंत्र एवं उदारवाद की विरोधी, व्यक्ति की समानता,स्वतंत्रता एवं मानवीयता की पूर्ण विरोधी तथा राष्ट्रीय समाजवाद (अर्थात राष्ट्र ही सब कुछ है . व्यक्ति के सारे कर्तव्य राष्ट्रीय हित में कार्य करने में हैं ) की कट्टर समर्थक हैं . ये सब समानताएं होते हुए भी जर्मनी ने अपने सिद्धांत फासीवाद से नहीं लिए . इसका विधिवत प्रतिपादन १९२० में गाटफ्रीड ने किया था जिसका विस्तृत विवरण हिटलर ने अपनी पुस्तक ‘मेरा संघर्ष’ में किया तथा १९३० में ए. रोज़नबर्ग ने पुनः इसकी व्याख्या की थी . इस प्रकार  हिटलर के सत्ता में आने के पूर्व ही नाज़ीवाद के सिद्धांत स्पष्ट रूप से लोगों के सामने थे जबकि अपने कार्यों को सही सिद्ध करने के लिए मुसोलिनी ने सत्ता में आने के बाद अपने फ़ासीवादी सिद्धांतों को प्रतिपादित किया था . इतना ही नहीं जर्मनों की श्रेष्ठता का वर्णन अनेक विद्वान् करते आ रहे थे और १०० वर्षों से भी अधिक समय से जर्मनों के मन में अपनी श्रेष्ठता के विचार पनप रहे थे जिन्हें हिटलर ने मूर्त रूप प्रदान किया .
                       नाज़ीवाद के सिद्धांत
प्रजातिवाद : १८५४ में फ्रेंच लेखक गोबिनो ने १८५४ तथा १८८४ में अपने निबंध ‘मानव जातियों की असमानता’में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि विश्व की सभी प्रजातियों में गोरे आर्य या ट्यूटन नस्ल सर्वश्रेष्ठ है . १८९९ में ब्रिटिश लेखक चैम्बरलेन ने इसका अनुमोदन किया .जर्मन सम्राट कैसर विल्हेल्म द्वितीय ने देश में सभी पुस्तकालयों में इसकी पुस्तक रखवाई तथा लोगों को इसे पढ़ने के लिए प्रेरित किया . अतः जर्मन स्वयं को पहले से ही सर्व श्रेष्ठ मानते थे . नाज़ीवाद में इस भावना को प्रमुख स्थान दिया गया .
  हिटलर ने यह विचार रखा कि उनके अतिरिक्त अन्य गोरे लोग भी  मिश्रित प्रजाति के हैं अतः जर्मन लोगों को यह नैसर्गिक अधिकार है कि वे काले एवं पीले लोगों पर शासन करें, उन्हें सभ्य बनाएं .  इससे हिटलर ने स्वयं यह निष्कर्ष निकाल लिया कि उसे अन्य लोगों के देशों पर अधिकार करने का हक़ है . उसने लोगों का आह्वान किया कि श्रेष्ठ जर्मन नागरिक शुद्ध रक्त की संतान उत्पन्न करें . जर्मनी में अशक्त एवं रोगी लोगों  के संतान उत्पन्न करने पर रोक लगा दी गई ताकि देश में भविष्य में सदैव स्वस्थ एवं शुद्ध रक्त के बच्चे ही जन्म लें .
   हिटलर का मानना था कि यहूदी देश का भारी शोषण कर रहे हैं . अतः वह उनसे बहुत घृणा करता था . परिणाम स्वरूप सदियों से वहां रहने वाले यहूदियों को अमानवीय यातनाएं दे कर मार डाला गया और उनकी संपत्ति राजसात कर ली गई . अनेक यहूदी देश छोड़ कर भाग गए . उस भीषण त्रासदी ने यहूदियों के सामने अपना पृथक देश बनाने की चुनौती  उत्पन्न कर दी जिससे इस्रायल का निर्माण हुआ .  
राज्य सम्बन्धी विचार : नाजीवाद में राज्य को साधन के रूप में स्वीकार किया गया है जिसके  माध्यम से लोग प्रगति करेंगे . हिटलर के मतानुसार राष्ट्रीयता पर आधारित राज्य ही शक्तिशाली बन सकता है क्योंकि उसमें नस्ल, भाषा, परंपरा, रीति-रिवाज आदि सभी समान होने के कारण लोगों में सुदृढ़ एकता और सहयोग की भावना होती है जो विभिन्न भाषा, धर्म  एवं प्रजाति के लोगों में होना संभव नहीं है . हिटलर ने सभी जर्मनों को एक करने के लिए अपने पड़ोसी देशों आस्ट्रिया, चेकोस्लोवाकिया आदि के जर्मन बहुल इलाकों को उन देशों पर दबाव डाल कर जर्मनी में मिला लिया तथा बाद में उनके पूरे देश पर ही कब्ज़ा कर लिया . अनेक  देशों पर कब्ज़ा करने को नाजियों ने इसलिए आवश्यक बताया कि सर्व श्रेष्ठ होते हुए भी जर्मनों के पास भूमि एवं संसाधन बहुत कम हैं जबकि उनकी आबादी बढ़ रही है . समुचित जीवन निर्वाह के लिए अन्य देशों पर अधिकार करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है .इसलिए हिटलर एक के बाद दूसरे देश पर कब्जे करता चला गया .
   जर्मनी में राज्य का अर्थ था हिटलर . वह देश, शासन, धर्म सभी का प्रमुख था . हिटलर को सच्चा देवदूत कहा जाता था . बच्चों को पाठशाला में पढ़ाया जाता था – “ हमारे  नेता एडोल्फ़ हिटलर ! हम आपसे से प्रेम करते हैं, आपके लिए प्रार्थना करते हैं, हम आपका भाषण सुनना चाहते हैं . हम आपके लिए कार्य करना चाहते हैं .” हिटलर ने अपने कमांडों के द्वारा आतंक का वातावरण पहले ही निर्मित कर दिया था . उसे जैसे ही सत्ता में भागीदारी मिली ,उसने सर्व प्रथम विपक्षी दलों का सफाया कर दिया . एक राष्ट्र , एक दल, एक नेता का सिद्धांत उसने बड़ी क्रूरता पूर्वक लागू किया था . उसके विरोध का अर्थ था मृत्यु . 
व्यक्ति का स्थान : नाजी  कान्ट  तथा फिख्टे  के इस विचार को मानते थे कि व्यक्ति के लिए सच्ची स्वतंत्रता इस बात में निहित है कि वह राष्ट्र के कल्याण के लिए कार्य करे . उनका कहना था कि एक जर्मन तब तक स्वतन्त्र नहीं हो सकता जब तक जर्मनी राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र न हो जो उस समय वह वार्साय संधि की शर्तों के अनुसार संभव ही नहीं था . नाजियों का एक ही नारा था कि व्यक्ति कुछ नहीं है , राष्ट्र सब कुछ है . अतः व्यक्ति को अपने सभी हित राष्ट्र के लिए बलिदान कर देने चाहिए . मित्र देशों के चंगुल से जर्मनी को मुक्त करने के लिए उस समय यह भावना आवश्यक भी थी . परन्तु नाजियों ने इसका विस्तार शिक्षा, धर्म, साहित्य, संस्कृति, कलाओं,  विज्ञान, मनोरंजन, अर्थ-व्यवस्था आदि जीवन के सभी क्षेत्रों में कर दिया था .इससे सभी नागरिक नाज़ियो के हाथ के कठपुतले से बन गए थे .
बुद्धिवाद का विरोध : शापेनहार, नीत्शे, जेम्स, सोरेल, परेतो जैसे अनेक दार्शनिकों ने बुद्धिवाद के स्थान पर लोगों की सहज बुद्धि ( इंस्टिंक्ट ), इच्छा शक्ति,और अंतर दृष्टि ( इंट्यूशन )को उच्च स्थान दिया था . नाजी भी इसी विचार को मानते थे कि व्यक्ति अपनी बुद्धि से नहीं भावनाओं से कार्य करता है . इसलिए अधिकांश पढ़े-लिखे और सुशिक्षित व्यक्ति भी मूर्ख होते हैं . उनमें निष्पक्ष विचार करने के क्षमता नहीं होती है . वे अपने मामलों में भी बुद्धि पूर्वक विचार नहीं करते हैं . वे भावनाओं तथा पूर्व निर्मित अव धारणाओं के आधार पर कार्य करते हैं . इसलिए जनता को यदि अपने अनुकूल कर लिया जाये तो उसे बड़े से बड़े झूठ को भी सत्य मनवाया जा सकता है . बुद्धि का उपयोग करके लोग परस्पर असहमति तो बढ़ा सकते हैं परन्तु किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते हैं . अतः बुद्धिमानों को  साथ लेकर एक सफल एवं शक्ति शाली संगठन नहीं बनाया जा सकता है . शक्ति शाली राष्ट्र निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि लोगों को बुद्धमान बनाने के स्थान पर उत्तम नागरिक बनाया जाना चाहिए . उनके लिए तर्क एवं दर्शन के स्थान पर शारीरिक, नैतिक एवं औद्योगिक शिक्षा देनी चाहिए . उच्च शिक्षा केवल प्रजातीय दृष्टि से शुद्ध जर्मनों को ही दी जानी चाहिए जो राष्ट्र के प्रति अगाध श्रद्धा रखते हों . नेताओं को भी उतना ही बुद्धिवादी होना चाहिए कि वह जनता कि मूर्खता से लाभ उठा सके और अपने कार्य क्रम बना सकें .  अबुद्धिवाद से नाज़ियों ने अनेक महत्वपूर्ण परिणाम निकाले और अपनी पृथक राजनीतिक विचारधारा स्थापित की .
लोकतंत्र विरोधी : प्लेटो की भांति हिटलर भी लोकतंत्र का आलोचक था . उसके अनुसार अधिकांश व्यक्ति बुद्धि शून्य, मूर्ख, कायर और निकम्मे होते हैं जो अपना हित नहीं सोच सकते हैं . ऐसे लोगों का शासन कुछ भद्र लोगों द्वारा ही चलाया जाना चाहिए .
साम्यवाद विरोधी : साम्यवाद मानता है कि अर्थ या धन ही सभी कार्यों का प्रेरणा स्रोत है . धन के लिए ही व्यक्ति कार्य करता है और उसी के अनुसार सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाएं निर्मित होती हैं . परन्तु अधिकांश व्यक्ति बुद्धिहीन  होने के कारण  अपना हित सोचने में असमर्थ होते हैं . उनके अनुसार साम्यवाद वर्तमान से भी बुरे शोषण को जन्म देगा .
 अंध श्रद्धा ( सोशल मीथ ) : सोरेल की भांति हिटलर भी यही मानता था कि व्यक्ति बुद्धि और विवेक के स्थान पर अंध श्रद्धा से कार्य करता है . यह अंध श्रद्धा लोगों को राष्ट्र के लिए बड़ा से बड़ा बलिदान करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है . नाज़ियों ने जर्मन लोगों में अनेक प्रकार की अंध श्रद्धाएँ उत्पन्न कीं और उन्हें राष्ट्र निर्माण में तत्पर कर दिया .
शक्ति और हिंसा का सिद्धांत : नाज़ियों ने लोगो में अन्ध  श्रद्धा उत्पन्न कर दी कि जो लड़ना नहीं चाहता उसे इस दुनियां में जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है . इस सिद्धांत को प्रतिपादित करना हिटलर की मजबूरी भी थी क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुई वार्साय की संधि में उस पर जो दंड एवं प्रतिबन्ध लगाए गए थे , वार्ता द्वारा उससे बाहर निकलने का कोई मार्ग नहीं था . उन परिस्थितियों में युद्ध ही एक मात्र रास्ता था और उसके लिए सभी जर्मन वासियों का सहयोग आवश्यक था . इसलिए लोगों ने उसे सहयोग भी दिया .
अर्थव्यवस्था : वह साम्यवाद का विरोधी था इसलिए जर्मनी के पूंजीपतियों ने उसे पूरा सहयोग दिया . परन्तु उसका पूंजीवाद स्वच्छंद नहीं था , उपूंजीपतियों को मनमानी लूट और धन अर्जन का अधिकार नहीं था . वह उसी सीमा तक मान्य था जो नाज़ियों के सिद्धांत और जर्मन राष्ट्र के हित के अनुकूल हो .
   उसने उत्पादन बढ़ाने के लिए सभी तरह के आंदोलनों , प्रदर्शनों और हड़तालों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था . सभी वर्गों के संगठन बना दिए गए थे जो विवाद होने पर न्यायोचित समाधान निकाल लेते थे ताकि किसी का भी अनावश्यक शोषण न हो . अधिक रोजगार देने के लिए उसने पहले एक परिवार एक नौकरी का सिद्धांत लागू किया फिर अधिक वेतन वाले पदों का वेतन घटा कर एक के स्थान पर दो व्यक्तियों को रोजगार दिया . इस प्रकार उसने दो वर्षों में ही अधिकांश लोगों , जिनकी संख्या लाखों में थी, को रोजगार उपलब्ध कराये . इससे शिक्षा, व्यवसाय, कृषि, उद्योग, विज्ञानं, निर्माण आदि सभी क्षेत्रों में जर्मनी ने अभूतपूर्ण उन्नति कर ली . १९३३ से लेकर १९३९ तक छः वर्षों में उसकी प्रगति का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि जिस जर्मनी का कोष रिक्त हो चुका था, देश पर अरबों पौंड का कर्जा था, प्राकृतिक संसाधनों पर मित्र देशों ने कब्ज़ा कर लिया था और उसकी सेना नगण्य रह गई थी , वही जर्मनी विश्व के बड़े राष्ट्रों के विरुद्ध एक साथ आक्रमण करने कि स्थिति में था, सभी देशों में हिटलर का आतंक व्याप्त था और वह इंग्लैंड, रूस तक अपने देश में बने विमानों से जर्मनी में ही बने बड़े-बड़े बम गिरा रहा था . मात्र छः वर्षों में उसने इतना धन एवं शक्ति अर्जित कर ली थी जो अनेक वर्षों में भी संभव नहीं है .
  स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने के कारण  हिटलर युद्ध हार गया, उसने आत्म हत्या कर ली .  पराजित हुआ व्यक्ति ही इतिहास में गलत माना जाता है अतः द्वितीय विश्वयुद्ध की सभी गलतियों के लिए हिटलर और मुसोलिनी उत्तरदायी ठहराए गए और आज भी सभी राजनीतिक विद्रूपताओं के लिए ‘हिटलर होना’, ‘फासीवादी होना’ मुहावरे बन गए हैं .

    हिटलर और नाज़ियों के अबुद्धिवाद के सिद्धांत अर्थात मनुष्य बुद्धिशून्य और मूर्ख होता है और अपना हित नहीं समझ पाता है, का सर्वाधिक कुशलता पूर्वक प्रयोग भारत में हो रहा है . नेता-परिवारों  के प्रति अंध श्रद्धा के कारण ही यहाँ के लोकतंत्र में सामंत का लड़का- लड़की सामंत, मुख्यमंत्री का लड़का मुख्यमंत्री , मंत्री का लड़का मंत्री आसानी से बन जाते हैं. उसी अबुद्धिवाद और अंध श्रद्धा के कारण सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी ही देश चला सकते हैं क्योंकि वे नेहरु और इंदिरा गाँधी के वारिस हैं भले ही कांग्रेस के शासन काल में भ्रष्टाचार और मंहगाई, अपराध, साम्प्रदायिकता और आतंकवाद निरंतर बढ़ते जा रहे हों . उसी के आधार पर एक कुशल नेता की छवि निर्मित करके अब नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री बनने के प्रयास कर रहे हैं . उनकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि देश के कितने लोगों में  उनके प्रति अंध श्रद्धा उत्पन्न हो पाती है .