शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

म.प्र.में जन भागीदारी समितियों का मायाजाल .

म . प्र . में जन- भागीदारी समितियों का मायाजाल

१९९५ में देश की आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब थी । अपनी आय के साधन नहीं थे । विदेशों से सुविधानुसार कर्जे भी नहीं मिल रहे थे। मंत्री-अफसर रुपया नहीं खायेगा तो भूखा मरेगा। ऊपर से छुटभैये नेता बड़े नेताओं कि जान खाए पड़े थे कि तुम लोग तो मलाई खाए जा रहे हो और हम दरी बिछाने ,तम्बू तानने ,भीड़ जुटाने में धूल फांकते - फांकते मरे जा रहे हैं । अफसरों- नेताओं की अक्ल काम कर गई । एक पत्थर से दो चिड़ियाँ मार गिराईं. शिक्षा , स्वास्थ्य जैसे फालतू विभागों में शासकीय व्यय रोकने और छोटे नेताओं का पेट भरने का काम एक साथ कर लिया गया । उन्होंने जनभागीदारी नाम की अवैध संस्थाएं पैदा कर दीं और जबरन उनका पंजीयन रजिस्ट्रार , फर्म्स एवं संस्थाएं भोपाल के कार्यालय में करवा दिया गया । अवैध इसलिए कि संस्थाओं के पंजीयन के मूल नियमों को दरकिनार करके पदाधिकारिओं की नियुक्ति कर दी गई . प्रारम्भ में संस्था का अध्यक्ष सांसद, विधायक या समकक्ष लोक प्रतिनिधि को बनाया जाता था । उपाध्यक्ष जिले का कलेक्टर या उसका प्रतिनिधि , सचिव कालेज का प्राचार्य , विश्वविद्यालय का नामांकित प्रतिनिधि , बैंक अधिकारी , अन्य गणमान्य लोग , कुछ प्राध्यापक आदि सदस्य बनाए जाते थे । पूरे प्रदेश के महाविद्यालयों की जनभागीदारी सूची मध्य प्रदेश के शासन के उच्च शिक्षा विभाग भोपाल में मंत्रीजी के आशीर्वाद से तैयार करके कालेजों को भेज दी जाती है अर्थात समिति के सदस्यों द्वारा पदाधिकारिओं का चुनाव न करवा कर ऊपर से थोप दिए जाते हैं । इन समितियों में अधिकांश सदस्य आते ही नहीं थे । वर्तमान में गणमान्य व्यक्ति के नाम पर प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी के किसी भी व्यक्ति को महाविद्यालय का अध्यक्ष बना दिया जाता है जिसे उस क्षेत्र के विधायक या ऐसे ही किसी शक्तिशाली नेता का आशीर्वाद प्राप्त हो । सचिव अभी भी प्राचार्य को रहना पड़ता है क्योंकि वह बेचारा कहाँ जाये ! मनोनीत अध्यक्ष अपने मोहल्ले के किन्ही भी १०-१२ साथिओं को सदस्य बना लेता है .उपाध्यक्ष तो कलेक्टर या उसका प्रतिनिधि ही होता है परन्तु व्यस्तता के कारण वे शायद ही कभी बैठक में गए हों । समिति में अपने सदस्य होने के नाते अध्यक्ष जैसा चाहे आदेश पारित करवा लेता है । भाग्यशाली प्राचार्यों को सहयोग देने वाले अध्यक्ष भी मिल जाते हैं । अध्यक्ष अपनी मनमानी कर सकें , इसके लिए उच्च शिक्षा विभाग से आदेश आते रहते हैं । इनके आलावा विधायकों तथा नेताओं का समर्थन -सहयोग उन्हें मिलता ही रहता है । फर्म एवं संस्थाओं के पंजीयन के क़ानून के अनुसार किसी संस्था के चुने हुए अध्यक्ष , सचिव तथा कोषाध्यक्ष को धारा २७ के अंतर्गत प्रत्येक वर्ष संस्था के कार्यों की पंजीयक को जानकारी भेजनी पड़ती है, इस घोषणा के साथ की यदि जानकारी गलत होगी तो वे दंड के पात्र होंगे । ये मनोनीत सरकारी अध्यक्ष इस से मुक्त हैं अर्थात किसी भी गड़बड़ी के लिए वे उत्तरदाई नहीं होते हैं । दंड के लिए सरकार प्राचार्य को आदर्श जीव मानती है । तीसरी विचित्रता यह है की किसी भी समिति का सदस्य बनने के लिए सदस्यों को सदस्यता शुल्क देना होता है । यहाँ पर सभी सदस्य सरकारी होते हैं ,अतः उन्हें कोई शुल्क नहीं देना होता है .कुल मिलाकर बिना परिश्रम, बिना खर्च ,बिना किसी दायित्व के ढेर सारे अधिकार उन्हें दे दिए गए हैं । इन समितियों के गठन में कानून के साथ क्रूरतम मजाक यह किया गया है की जिन बेचारे छात्रों के शुल्क से इन समितियों को जीवन मिलता है , उन छात्रों को इसकी गतिविधियों की भनक भी नहीं नहीं लगने दी जाती है .
इन जनभागीदारी समितियों के माध्यम से उच्च शिक्षा का वैधानिक रूप से राजनीतिकरण कर दिया गया है । इसका काला पक्ष यह है जनभागीदारी समितियां जन सहयोग के माध्यम से महाविद्यालयों के खर्चे पूरे करेंगी , इस प्रत्याशा में सरकार ने महाविद्यालयों के अनुदान बंद कर दिए । चाक - डस्टर से लेकर पुस्तकालय ,कम्पूटर , प्रयोगशाला , फर्नीचर आदि के सभी व्यय सरकार ने बचा लिए । जो सदस्य अपनी जेब से एक पैसा नहीं दे सकते वे अन्य लोगों से क्या कहकर धन जमा करेंगे ? जनभागीदारी की आय का एक मात्र श्रोत छात्रों से लिया गया शुल्क है । उनसे होने वाले क्रय एवं निर्माण कार्यों में अध्यक्ष और सदस्य , अपनी- अपनी क्षमता के अनुसार सेवा करते हैं और प्रसन्न बने रहते हैं बशर्ते प्राचार्य कोई कानून न दिखाएं । इनके सहयोग से सरकार ने धीरे- धीरे शुल्क बढ़ाते हुए उच्च , तकनीकी , चकित्सा शिक्षा आदि मंहगी कर दीं तथा शिक्षा का व्यवसायीकरण कर दिया । सरकार भयभीत है कि यदि छात्र-संघ के चुनाव होंगे तो ये बेचारे छुटभैये नेता कहाँ जायेंगे ।
जनभागीदारी समितियों का रवैया
चूंकि जनभागीदारी समितियों में बिना किसी योग्यता के अध्यक्ष की नियुक्ति होती है और वह व्यक्ति सत्तारूढ़ दल का चहेता होता है ,इसलिए वह इस समिति में इस प्रकार व्यवहार करता है जैसे मुख्यमंत्री अपने राज्य में करता है .बस एक अंतर होता है मुख्या मंत्री को विपक्ष का ,मीडिया का , जन प्रतिनिधियों का और अपने दल के लोगों का भी थोडा -बहुत भय होता है जबकि ज भा अध्यक्ष को भय तो किसी का होता नहीं है , ऊपर से उसे सहायता करने के लिए प्राचार्य होता है जिसे सरकार की ओर से भारी दबाव में रखा जाता है कि अध्यक्ष की आज्ञा मानो . इस अध्यक्ष और उसके चेलों के मुख्य कार्य होते हैं ,
१ मीटिंग में छात्रों से वसूले गए पैसों से चाय-वाय खाना पीना .२ सत्र के प्रारंभ में प्रवेश के समय अपने चहेतों के लिए नियम विरुद्ध प्रवेश के लिए प्राचार्य पर दबाव बनाना । ३.अपने चहेते छात्रों को शुल्क में छूट तथा फंड से धन दिलवाना । ४.अपने लोगों को कालेज में नौकरी पर लगवाना , वह काम करे या न करे । ५.यह देखना कि कालेज में कोई खरीदारी हो रही हो तो अपनी या परिचित कि दूकान से सामान खरीद वाना । ६.अपनी पार्टी के किसी नेता का जन्म दिन या अन्य कोई अवसर हो तो समाचारपत्रों में उसकी फोटो के साथ अपनी फोटो लगाकर बधाई सन्देश छपवाना और छात्रों के इन पैसों से भुगतान करवाना । ७.इस निधि से होने वाले निर्माण कार्यों के ठेके हथिआना .
८.अपने लिए कमरा -टेलेफोन मांगना । ९ अवसर मिलते ही अपने नाम का बोर्ड या पत्थर लगवाना .१०.कभी कभी स्टाफ से चंदा भी ले सकते हैं .कुल मिलाकर प्राचार्य तथा स्टाफ पर दबाव बनाए रखना ।
सभी प्राचार्य उनकी सभी बातें माने यह आवश्यक नहीं है .सभी समितियां उक्त सभी उत्पात करे , यह भी जरूरी नहीं है । परन्तु इन छुटभैये नेताओं को छात्र हित से कोई लेना देना नहीं है क्योंकि इनमे से अधिकांश को इतनी अक्ल ही नहीं होती है । कुल मिलाकर ये बहुत बड़ा न्यूसेंस हैं । इनकी एक घटना है , भोपाल के एक बड़े कालेज में परीक्षाएं हो रही थीं । परीक्षा हाल में होनी थी परन्तु ज भ अध्यक्ष ने वह अपने उत्सव के लिए ले लिया और लगे पार्टी करने । उनके शोर से बगल के कक्ष में परीक्षा दे रहे छात्रों को क्या हानि हो रही है इससे उन्हें कोई लेना-देना नहीं था.प्राचार्य बेचारा अपने अध्यक्ष को क्या कह सकता है ? अनेक किस्से , मेल-मेल के किस्से कहाँ तक बखान करें ! क्या छात्रों से लिए गए इन पैसों का सदुपयोग प्राचार्य , प्राध्यापक और छात्र मिलकर नहीं कर सकते हैं ? पूरे प्रदेश में प्राचार्य इनसे त्रस्त हैं । सरकार में बैठे अफसर -नेता जब यह सुनते हैं तो बहुत खुश होते है की चलो अच्छा है ,प्राचार्य उलझे रहेंगे तो शासन से कुछ नहीं कहेंगे , छात्रों के लिए , कालेज के विकास के लिए कोई मांग नहीं करेंगे ।
शासन ने दागी मिसाइल
म प्र में कालेजों को शासन ने वर्षों से पुस्तकालय, वाचनालय, प्रयोगशालाओं , उपकरणों , फर्नीचर ,भवन -निर्माण आदि के लिए , जिनसे छात्रों का कहीं से भला होने वाला हो ,कोई भी राशि देने के प्रावधान पूरी तरह समाप्त कर दिए हैं ।अच्छे शिक्षक तो क्या कोई भी नए शिक्षक ,प्राचार्य नियुक्त नहीं किये जा रहे हैं .अतिथि विद्वान् कहकर युवकों का वर्षों से शोषण किया जा रहा है । स्टाफ है नहीं और साल भर चलने वाली परीक्षाओं का ऐसा जाल बनाया गया है कि कोई शिक्षक चाह कर भी न पढ़ा सके । जनभागीदारी समितियों के फंड पर भी कब्ज़ा शासन का ही है । बिना तिकड़म के कोई बड़ा काम करवाने का शासन से आदेश नहीं मिल सकता है । इतने झंझावात झेलते हुए भी कई साहसी प्राचार्य कालेजों में कुछ-कुछ काम करवा ही ले जाते हैं । शासन इससे आग बबूला हो गया है और उसने मिसाइल दाग कर छात्रों के जनभागीदारी फंड को फूं- फां कर दिया । अब चालाक से चालाक प्राचार्य भी कुछ नहीं कर पाएगा । शासन ने आदेश देकर छात्रों को दी जाने वाली अनेक छात्रवृतियों के रूप में यह धन खर्च कर दिया । इसका एक पक्ष तो यह है कि छात्रों को उनके धन से जो सुविधाए दी जानी चाहिए थीं ,नहीं दी गईं , इसलिए पैसे बचते गए । दूसरा पक्ष यह है की यदि यह धन तथा कथित सरकारी जनभागीदारी समितियों का मान भी लिया जाये तो क्या उनके साथ ऋण लेने का , वापिस करने का कोई अनुबंध किया गया कि कितने दिनों में ,कितने ब्याज के साथ वापिस करेंगे । नहीं , ऐसा कुछ नहीं किया गया क्योंकि जनभागीदारी समितियों को प्रशासनिक अधिकारी फर्जी और गैरकानूनी मानते हैं । इसलिए सीधे प्राचार्य को आदेश दिया और रुपये पार कर दिए . यदि खजाने में कुछ नहीं है तो छात्रवृतियों का ढोंग किस बात का कर रहे हो ? जब कालेजों में सुविधाएँ ही नहीं होने दे रहे हो तो छात्रवृति लेने वाले भी पैसे लेने के बाद कालेज में क्या करने आयें? क्या म.प्र . की सरकार बड़े-बड़े विज्ञापनों में उन छात्रों के फोटो छापवाएगी जिनके पैसों से ये जन कल्याण के कार्य जबरन किये जा रहे हैं । प्रदेश में प्राइवेट विश्विद्यालय खुल रहें हैं , प्राइवेट कालेज खुल रहें हैं । अगर सरकारी कालेज अच्छे होंगे ,वहां कौन पढने जाएगा ? उन बेचारों ने भी अपनी दौलत लुटाकर दो पैसे कमाने के लिए निजी संस्थाएं खोली हैं .अगर अफसर -नेता उनके हित में सरकारी कालेजों को बर्बाद नहीं करेंगे तो उनका क्या होगा ?संत तुलसीदास सही कह गए हैं ,''परहित सरिस धर्म नहीं भाई "। अपने बच्चों ,युवाओं का हित कभी नहीं करना चाहिए.उन्हें पढ़ाकर इतना योग्य नहीं बनने देना चाहिए की वे अपना भला सोच सकें .परायों का हित करना ही असली धर्म है .क्योंकि परायों का हित करने से पुण्य-लाभ होता है ,भगवान खुश होते हैं ,धन-दौलत मिलती है ,सुख समृद्धि आती है . अगर पराया विदेशी हो और उसको लाभ पहुचाया जाय तो सोने में सुहागे जैसी चमक भी आ जाती है।


























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