बुधवार, 18 सितंबर 2013

जेब में कानून

                             जेब में कानून
   भारत की कानून व्यवस्था विलम्ब से निर्णय देने के लिए तो कुख्यात है ही ,उसे सत्ताबल, धनबल, बाहुबल, और रिश्तेदारी से इच्छित रूप भी दिया जा सकता है , यह अनेक प्रकरणों से सिद्ध होता है . सीबीआई के दुरूपयोग के आरोप को सरकार अर्थात सत्तासीन नेता बार- बार अस्वीकार करते रहते हैं . सीबीआई द्वारा कोयला घोटाले की जांच में  केन्द्रीय क़ानून  मंत्री द्वारा किये गए हस्तक्षेप को उच्चतम न्यायालय ने  रंगे हाथ पकड़ लिया और सीबीआई को सरकार का तोता कहा . करूणानिधि ने केन्द्रीय सरकार में कांग्रेस के साथ मिलकर मंत्री मंडल बनाया था . जब उसने सरकार से अपना समर्थन  वापस लिया तो अगले ही दिन उसके पुत्र स्टालिन के भवनों पर  छापा मार दिया गया कि उसने ५ वर्ष पूर्व  एक मंहगी विदेशी कार खरीदी थी जिस पर कस्टम कर नहीं चुकाया था . करूणानिधि समझ गए कि उनकी  सारी संपत्ति को निशाना बनाया जा सकता है अतः उन्होंने विरोध के स्वर वापस ले लिए . उसके एक दिन पहले तक सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह भी केन्द्रीय सरकार को आँखे दिखा रहे थे . स्टालिन  के घर पर छापे के बाद उन्होंने भी आँखें नीची कर लीं . मायावती पहले से ही समझदार हैं . इन दोनों के पास  आय से अधिक संपत्ति होने की जांच सीबीआई कर रही है . करूणानिधि के मुंह बंद करते ही सत्तासीन नेता  कहने लगे कि सीबीआईको ऐसा नहीं करना था और उसकी सारी  कार्यवाही रुकवा दी . सरकार के पास पैसे नहीं हैं . प्रधान मंत्री बड़े भोलेपन से कहते हैं कि पैसे पेड़ों पर तो उगते नहीं हैं . वित्त मंत्री कहते हैं कि कर वसूली तेज करो और जब ये अधिकारी ऐसा करते हैं तो यही नेता उन्हें गलत कहते हैं , उनके जांच के काम को रुकवा देते हैं क्योंकि कानून उनकी जेब में है .
     जब अन्ना  हजारे ने लोकपाल के लिए आन्दोलन किया तो यही सरकारी नेता कहते थे कि कानून सड़क पर नहीं, संसद में बनता है . लेकिन जब वोट राजनीति के चलते सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून एक अध्यादेश द्वारा लागू करवा दिया तो संसद की बात क्यों नहीं याद आई क्योंकि कानून उनकी जेब में है . जब चाहा , जैसा चाहा कानून बनाया और लागू कर दिया . यह सरकार की इस परिभाषा को साकार करता है कि सरकार सर्वशक्तिमान और संप्रभु है और वह सब कुछ कर सकती है .
   संजय दत्त ने अंडरवर्ड के उन लोगों से चीनी बन्दूक और गोले लिए थे जिन्होंने १९९३  में मुम्बई मे विस्फोट करके लगभग ३०० लोगो की हत्या की थी , अनेक लोग घायल हुए था और संपत्ति की भारी क्षति हुई थी . पहले उस पर टाडा के अंतर्गत  केस लगाया गया  फिर उसे टाडा की धाराओं से मुक्त कर दिया गया . निचली अदालत ने उसे ६ वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई जिसे उच्चतम न्यायालय ने ५ वर्ष कर दिया क्योंकि उस अपराध में उससे कम सजा दी ही नहीं जा सकती थी . भारत की शिक्षा प्रणाली ने लोगों में  राष्ट्र चेतना समाप्त कर दी है . अतः उसके अनेक प्रशंसक सजा के विरुद्ध मुखरित हो गए . उनमें उच्चतम  न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मारकंडेय काटजू भी थे जो सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से सहमत नहीं थे . इसके विपरीत प्रज्ञा ठाकुर को अस्वस्थ होने के बावजूद पिछले ५ वर्षों से जमानत तक नहीं दी जा रही है और न ही अभी तक समुचित आरोप पत्र दाखिल किया गया है . उसका इतना ही अपराध कहा जा रहा है कि एक हत्या कांड में अपराधी ने उसकी मोटर साईंकिल प्रयुक्त की थी , जबकि प्रज्ञा ठाकुर का कहना है कि उसने वह मोटर साइकिल बेच दी थी परन्तु नाम नहीं बदलवा सकी थी . संजय दत्त को प्रारम्भिक डेढ़ वर्ष की जेल के बाद जमानत मिल गई थी और वह २० वर्षों से अभिनेता का अपना काम बखूबी कर रहा था . कांग्रेस के एक दिग्गज नेता हैं सज्जन सिंह जिन पर २९ वर्ष बाद १९८४ में हुए सिख दंगों के लिए अब निचली अदालत में मुकदमा चलाने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया है जबकि अनेक गवाह अब इस दुनियां में नहीं होंगे . सलमान खान ने २००२ में कर सर कुछ लोगों को कुचल दिया था , ११ वर्ष बाद अब मुक़दमे के विन्दु तय किये जा रहे हैं .
  भारतीय  मछुआरों की हत्या के आरोप में इटली के दो मछुआरे पकड़ लिए गए . वे मृतक दोनों मछुआरो के परिवार को एक-एक करोड़ रूपये देने तथा उनके बच्चों को इटली में पढ़ाने का पूरा व्यय देने के लिए तैयार थे परन्तु न्यायालय ने उन्हें नहीं छोड़ा कि उचित सजा दी जायगी . बाद में इटली के राजदूत ने सर्वोच्च न्यायलय में उन्हें वापस जेल तक लाने का शपथ पत्र देकर उन्हें जमानत पर छुड़वाया और  इटली वोट डालने के नाम पर भेज दिया . परन्तु राजदूत ने उन्हें वापस लाने में असमर्थता व्यक्त कर दी . न्यायालय ने राजदूत को समन जारी किया , भारत सरकार ने उन्हें वापस आने की चेतावनी दी परन्तु उन पर कोई असर नहीं हुआ . लेकिन जब सोनिया गाँधी ने उन्हें वापस आने के लिए कहा तो वे आ गए . बाद में ज्ञात हुआ कि उन्हें आने के लिए अनेक छूटें दी गई हैं जैसे उन्हें फांसी नहीं दी जायगी, उन्हें जेल में बंद नहीं किया जायगा , वे इटली के दिल्ली स्थित दूतावास में आराम से रहेंगे और अपनी कुशल मंगल की जानकारी पुलिस को सप्ताह में एक बार देते रहेंगे . उन्हें ये विशेष छूटें किस नियम के आधार पर दी गईं ? क्या  किसी भारतीय को भी ऐसी छूट मिल सकती है ? दिन प्रतिदिन होने वाली घटनाओं में ऐसी कानूनी स्थितियां  उत्पन्न होती रहती हैं जब नेताओं और अधिकारीयों को तत्थ उनके सम्बन्धियों को छोड़ दिया जाता है और साधारण व्यक्ति के लिए सारे क़ानून एक साथ लगा दिए जाते हैं .
      जिला अदालतों में जज न्यायिक सेवाओं से आते हैं . सेक्स और हत्या के प्रकरणों में इन जजों ने जितनी तीव्रता से कुछ प्रकरण निपटाए हैं वे प्रशंसनीय हैं . उच्च एवं उच्चतम न्यायालय में अनेक जज वरिष्ठ अधिवक्ताओं में से बनते हैं जिन्हें अपराध, अपराधियों और कानून की बारीकियों का बहुत अनुभव होता है . इन्वारिष्ठ जजों को बहुत ही स्पष्ट निर्णय देने चाहिए ताकि निचली अदालतों के न्यायाधीशों को प्रकरणों को निपटाने में कानूनी दुविधाएं न हों . इसके साथ ही स्वयं को सरकार कहने और मानने वाले नेता भी कानून बनवाते समय उनमें यह स्पष्ट रूप से लिखवा दिया करें कि वे क़ानून किस पर लागू होंगे और किस नेता, अधिकारी पर नहीं, किसके पुत्र ,पुत्री, दामाद, भाई , पिता तथा अन्य सम्बन्धी पर वे लागू होंगे और किस पर नहीं . अधिक अच्छा  हो कि छूट प्राप्त  महापुरुषों के नाम ही क़ानून में लिख दिए जांय ताकि कोई कार्यवाही या  निर्णय करने वाले अधिकारी , जज दुविधा में न पड़ें और न ही उनके लिए लोगों को हड़ताल. प्रदर्शन का अवसर मिले और न ही अफसरों के ऐसे किसी कार्य के लिए सरकारी नेताओं को शर्मिंदा होने पड़े और अफसरों को उनकी बातें सुनकर अपमानित होना पड़े . फ़्रांस में १७८९ की क्रान्ति के पूर्व ऐसे स्पष्ट प्रावधान थे कि कर सिर्फ नंगी – भूखी जनता पर ही लगाए जांयगे, अमीर सामन्तो और पादरियों पर नहीं . सरकार का काम कर लेना है , देना नहीं . १९७५ में जब इंदिरा गांधी को चुनावी भ्रष्टाचार के कारण इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने संसद की सदस्यता से वंचित कर दिया तो उन्होंने प्रधान मंत्री का पद  छोड़ने के स्थान पर आपात काल लगा दिया , सारे विपक्षियों और चूं  तक करने वाले हजारों लोगो को जेल में बंद करवा दिया और कानून पास करवा दिया कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधान मंत्री और लोक सभाध्यक्ष के विरुद्ध कोई मुकदमा नहीं चल सकता है . इसके साथ ही  नागरिकों के सारे अधिकार भी छीन लिए गए . सभी न्यायालयों ने उसी के अनुसार निर्णय दिए, किसी ने आपत्ति नहीं की और इंदिरा गाँधी प्रधान मंत्री बनी रहीं . पुनः ढुलमुल नहीं, ऐसे ही स्पष्ट कानूनों की आवश्यकता है .   

    

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