मंहगाई का पूँजीवादी अर्थशास्त्र
भारत में डा. मनमोहन सिंह का जो अर्थ शास्त्र चल रहा है, वह मंहगाई का अर्थ शास्त्र है . यह मंहगाई का अर्थशास्त्र इसलिये कहा जाता है कि इसका उद्देश्य ही मंहगाई बढ़ाना है . जो लोग समझते हैं की भविष्य मे कभी मंहगाई कम हो जायगीमंहगाई का पूँजीवादी अर्थशास्त्र अर्थशास्त्र तो यह उनकी भूल है . इसी का दूसरा नाम है पूंजीवादी अर्थशास्त्र अर्थात निरंतर पूँजी बढ़ाते जाओ . मंहगाई बढ़ने का अर्थ है पूंजीवादी कि पूँजी बढ़ना . सुधारवाद का भी यही अर्थ है कि वस्तुओं के भाव में सुधार होते जाएँ, वे मंहगी होती जाएँ जिससे अमीरों कि पूँजी निरंतर बढ़ती जाये . दुनिया के अनेक उन्नत कहे जाने वाले देशों ने इसे अपनाया है और अब भारत भी वही सब कर रहा है जिससे भारत में भी पूंजीवादियों और पूंजीपतियों कि संख्या तेजी से बढ रही है .
भारत में कम्युनिस्टों के साथ मिलकर इंदिरा गाँधी ने समाजवादी व्यवस्थ लागू की थी . जब उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो यही दलील दी थी कि पूँजीवादी लोग बड़े दुष्ट होते हैं . वे गरीबों का शोषण करते हैं . निजी बैंक पूंजीपतियों और जमाखोरों को उधार में धन देते है जिससे वे सामानों को खरीद कर भंडारों में जमा कर लेते हैं और काला बाजारी कर के भारी मुनाफा कमाते हैं . उनके समय में उद्योगपति और व्यवसायी देश और समाज के दुश्मन समझे जाते थे . इसलिए उस समय कांग्रेस के सहयोगी कम्युनिस्टों ने श्रमिक संघों के द्वारा सरकार पर दबाव डाल कर ऐसे श्रमिक क़ानून बनवाये कि देश में सदियों से चले आ रहे उद्योगपतियों के आलावा कोई सर उठा ही न सके . पुराने उद्योगपति इसलिए चल पा रहे थे कि नेताओं को आये दिन धन देते रहते थे . धन खाने के दूसरे साधन थे सरकारी विभाग और सहकारी संस्थाएं . उस समय जनता अपनी गाढ़ी कमाई से जो धन कर के रूप में सरकारी कोष में जमा करती , सरकारी चोर उन्हें खा जाते जिससे देश का धन धीरे-धीरे समाप्त होता गया . भ्रष्ट नेता – अफसर – कर्मचारी बिना कोई उत्पादन किये , बिना कोई व्यवसाय किये ही पूंजी के पति बनते गए . ये लोग १९९० तक देश का सारा धन चट कर गए और सरकार चलाने के लिए देश का सोना विदेश में गिरवी रखना पड़ा . उससे प्राप्त थोड़ा सा धन भी कब तक चलता ? काम चलाने के लिए सरकार नोट भी छापती गयी जब कि उतना धन कोष में नहीं था . परिणाम स्वरूप रुपये का मूल्य घटता गया . सामान खरीदने के लिए अधिक रुपये लगने लगे अर्थात मंहगाई बढ़ने लगी . अपने देश में अनेक आधुनिक मशीनों , उपकरणों, जहाज़ों, युद्ध-सामाग्रियों आदि का उत्पादन होता नहीं था . उन्हें खरीदने के लिए धन कहाँ से आता ? विदेशी कागज़ के रूपये पर सामान क्यों देने लगे ? देश का सोना भी गिरवी में रखा हुआ था तो कर्जा किस आधार पर मिलता ? जब एक व्यक्ति के पास धन न हो और समाज में उसकी इतनी प्रतिष्ठा भी न हो कि कोई उसे कर्ज दे वह गुजारा कैसे चलाता है ? उसे घर का सामान बेचना पड़ता है . जब इंदिरा – राजीव दोनों नहीं रहे और नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री तथा डा. मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने तो जिंदगी भर इंदिरा – राजीव के समाजवाद की हाँ में हाँ मिलाने वाले अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह पलट गए और उन्होंने खुली अर्थ व्यवस्था अर्थात जिसे जैसा अच्छा लगे, करे और धन कमाए तथा देश की जमा पूँजी जो सरकारी कंपनियों , प्राकृतिक संसाधनों के रूप में शेष थी , को बेच कर धन प्राप्त करने का विदेशियों का सुझाव मान लिया . धन आने लगा और सरकार चल पड़ी . वर्षों से सरकार लोगों को पूँजीपतियों के भूत से डराती आ रही थी , अब अचानक पूंजीवाद का गुणगान कैसे करती? अतः उन्होंने संविधान से ‘समाजवादी ‘ शब्द तो नहीं हटाया पर पूँजीवाद लागू कर दिया और उस पर जनकल्याण का लेबल लगा दिया कि नेता भी खाएं , अफसर – कर्मचारी भी खाएं और जनता भी खाए . जिसका जितना जोर हो वह उतना खाए . जैसे जो जमीन पर कब्ज़ा कर ले , जमीन उसकी , जो नौकरी पर कब्ज़ा कर ले नौकरी उसकी , जो गरीबी का कार्ड बनवा ले सारी सुविधाएं उसकी . कुल मिलाकर जो जैसा हथकंडा अपना ले, लूट उसकी . इस अर्थ शास्त्र का परिणाम यह निकला कि देश में संत्री से मंत्री तक सभी मालामाल होते गए और देश बेहाल होता चला गया . अब डा. सिंह को देश को यह समझाना पड़ रहा है कि विदेशी धनवान आकर ही देश को चला पायेंगे . इंदिरा गाँधी पूँजीपति नाम के जिस भूत का नाम लेकर लोगों को डराया करती थी और लोग उसके डर के कारण उसे वोट देते जाते थे, अब वर्तमान कांग्रेसी सरकार लोगों को किसी दलाल नाम के खतरनाक जंतु का नाम लेकर भयभीत कर रही है और उससे निपटने के लिए महान विदेशी पूंजीपतियों को , जो अपना देश तबाह कर चुके हैं , भारत बुलवा रही है . पहले कांग्रेसी विपक्षियों को पूंजीपतियों का दलाल कहते थे और अब दलालों का दलाल कह रहे हैं क्योंकि पूंजीपति अब कांग्रेस के हितैषी हो गए हैं , अत्यंत प्रिय हो गए हैं . इसलिये सरकार उनकी पूंजी बढ़ाने का हर सम्भव प्रयत्न कर रही है. उनकी पूँजी तभी बढ़ेगी जब वस्तुएं मंहगी होंगी अर्थात मंहगाई बढ़ेगी . इसलिए जब सरकार का कोई मंत्री या तथाकथित अर्थशास्त्री मंहगाई कम करने कि बात करता है तो यह मान कर करता है कि जनता मूर्ख है और उसे निरंतर बहलाना, फुसलाना और हसीन सपने दिखाना संभव है . लेकिन जब जनता जागती है तो फ़्रांस जैसी क्रांति करती है अथवा पश्चिम एशियाई देशों के समान उथल- पुथल . इसका ध्यान सत्ता धारी तब तक नहीं रखते जब तक क्रांति न हो जाय फिर कांग्रेस क्यों रखे ?
डा. मनमोहन सिंह और उनकी तिकड़ी ( डा.सिंह, चिदंबरम और मोंटेक सिंह) की प्रारंभ से ही यह परिकल्पना रही है कि विदेशी पूंजीपति और उनकी पूँजी से ही भारत चल सकता है . भारत में बड़े योजना बद्ध ढंग से वे इस के लिए विगत ९ वर्षों से कठिन परिश्रम कर रहे हैं . भारत में बैंकों ने ब्याज दरें बढ़ा दीं ताकि देश के उद्योग विदेशी उद्योगों के सामने न टिक पाएं . भारत के लगभग सभी उद्योगों पर चीन ने कब्ज़ा कर लिया है . भारतीय उद्यमी वर्षों से यह आस लगाए बैठे ही रह गए कि बैंक की ब्याज दरें कम होंगी . अर्थ व्यवस्था नष्ट होने पर दिखावे के लिए वित्त मंत्री चिदंबरम ने रिज़र्व बैंक से कहा कि वह ब्याज दरें घटाए , उसने भी मुंह दिखाई कर दी और कह दिया कि बैंक ब्याज दरें घटा दें . उधर गिरते रूपये का वास्ता देकर सरकार ने रिज़र्व बैंक पर दबाव बनाया और उसने ब्याज दरें पहले की अपेक्षा २% बढ़ा दीं . भारत के उद्यमी एक ओर रूपये के गिरते मूल्य से परेशान थे, सरकार ने तोहफे में क़र्ज़ और भी महंगा कर दिया ताकि वे कभी उठ न पायें .
दूसरी ओर अर्थशास्त्री बार-बार कह रहे हैं कि भारत की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए आयत कम किया जाय और निर्यात बढ़ाया जाय . सरकारी अर्थशास्त्री , प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री भी यही कह रहे हैं और कर रहे हैं उसका उल्टा ताकि उनका यह सिद्धांत सत्य सिद्ध हो जाय कि देश को अब विदेशी पूँजीपति ही चला सकते हैं . विदेशी पूँजीपति शेयर बाज़ार में धन लगाते हैं जिससे उत्पादन नहीं बढ़ता , सिर्फ उद्योगपतियों की पूँजी कागजों पर बढ़ती है जिससे प्रभावित होकर भारतीय लोग भी शेयर बाज़ार में अपनी बचत लगा देते हैं . अवसर पाते ही ये विदेशी अपने शेयर बेच कर अपनी पूँजी लाभ सहित लेकर भाग जाते हैं . इस प्रकार देश का धन बाहर निकलता जाता है और रुपया कमजोर होता जाता है . देश का धन तो देश में ही घूमता रहता है परन्तु विदेशी पूंजीपतियों द्वारा बाहर ले जाया गया धन वैसे ही नहीं लौटता जैसे शरीर छोड़ने के बाद आत्मा . वित्त मंत्री चिदंबरम सभी चीजों पर सेवा कर लगा चुके हैं . यदि अगली बार इन्हें भारत की जनता अवसर देगी तो वे सरकार की आय बढ़ाने के लिए परस्पर बातचीत के लिए भी कर लगा देंगे पर उससे भी इनका पेट नहीं भर पायेगा क्योंकि पूँजीपति और उनके दलालों का पेट सम्पूर्ण ब्रह्मांड से भी बड़ा होता है .
रूपये में सुधार के लिए यह भी सुझाव दिए गए हैं कि सरकार अपना घाटा कम करे . उसने जैसे ही खाद्य सुरक्षा क़ानून लागू किया, सब जान गए कि इनके पास धन तो है नहीं . ये खाद्य सुरक्षा पर सवा लाख करोड़ रूपये व्यय करेंगे तो भारत का बजट घाटा बहुत बढ़ जायगा . परिणाम स्वरूप रुपया और लुढ़कने लगा . सरकार के पास अब घाटा कम करने का एक ही मार्ग बचा है कि वह बजट में अन्य कल्याणकारी कार्यों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा और विकास के लिए कम राशि रखे , गैस, डीजल, खाद आदि की सब्सिडी समाप्त करे बिजली, पेट्रोल के रोज रेट बढ़ाए . इससे उद्योग तो भूल ही जाइये , लोगों का जीवन भी संकट में पड़ जायगा . परन्तु महान पूंजीवादी मंत्रियों को इससे क्या लेना-देना ? मंदी अमेरिका में आये और रुपया भारत का लुढ़के, भारत के प्रधान मंत्री डा मनमोहन सिंह का यही अर्थशास्त्र है .
प्रधान मंत्री डा सिंह बहुत सीधे , सच्चे और भोले हैं . वे जानते हैं कि देश के नेता-अफसर-कर्मचारी महाभ्रष्ट हैं . परन्तु विदेशी पूँजीपति परम दयालु हैं . वे अपने-अपने देशों से मशक्कत से धन कमाकर भारत के भ्रष्टों का पेट भरने दौड़े-दौड़े आयंगे . वे इसीलिए विदेशियों की खुशामत कर रहे हैं . वे बेचारे इससे अधिक देश के लिए और क्या कर सकते हैं ?
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