बुधवार, 18 सितंबर 2013

मैं एक विद्यार्थी (३)

     मैं एक विद्यार्थी (३)
   मुझे क्या करना है , कैसे करना है , कहाँ पढ़ना है, क्या पढ़ना है  झे ही लेने होते थे . मैंने दसवीं कक्षा बीएनएसडी इंटर कालेज से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी और मेरे सभी सहपाठियों को बहुत अच्छे अंक मिले थे . परन्तु दूर होने के कारण मैंने ११वीं अपेक्षा कृत निकट के मारवाड़ी इंटर कालेज, जो कैनाल रोड पर स्थित है से करना उचित समझा . वहां ११ वीं विज्ञान में प्रवेश लेने वाले छात्रों में मात्र ५ छात्र ही १० वीं में प्रतम श्रेणी उत्तीर्ण थे जिनमें मेरे अंक सबसे अधिक थे और अंत तक अधिक बने रहे . उस समय संस्थाओं का नियंत्रण उनकी संचालक समितियां ही करती थीं . शासन शिक्षकों को पूरा वेतन अनुदान तो देते थे परन्तु वर्तमान के समान अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करते थे . अतः शिक्षक जाति – धर्म के अनुसार न रख कर योग्यता के आधार पर रखे जाते थे . वे अपना दायित्व समझते थे . वे व्यक्तिगत स्तर पर ट्यूशन भले ही पढ़ते रहें हों,  कक्षाओं में नियमित रूप से पढ़ाना और अपनी पूरी लगन से पढ़ाना उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती थी . सैद्दांतिक विषयों की पढ़ाई के साथ प्रायोगिक कार्य भी अच्छी प्रकार कराये जाते थे और आज की भांति बिना प्रायोगिक कार्य  कराये परीक्षा में अंक देने की परम्परा नहीं थी . रसायन विज्ञान की प्रायोगिक परीक्षा वरिष्ठ छात्रों से सुना था कि उनके बाह्य परीक्षक बड़े सख्त थे, वे मिश्रण अपने कालेज से बना के लाये थे जो किसी में घुल ही नहीं रहा था अर्थात उसका विश्लेषण बहुत कठिन था . उत्तर प्रदेश में अधिकांश कालेज प्राइवेट हैं परन्तु उस समय उनका पढ़ाई का स्तर बहुत अच्छा होता था . हाँ, एक तथ्य यह भी था कि कालेजों का स्तर बहुत स्पष्ट था . किस अंक के छात्र प्रवेश के लिए किस कालेज को प्राथमिकता देंगे, यह कालेज के नाम से ही ज्ञात हो जाता था . उसी के अनुरूप बोर्ड में मेरिट भी आती थीं . मारवाड़ी कालेज वाणिज्य विषयों के लिए प्रसिद्ध था .विज्ञान विषय सामान्य थे अतः प्रथम श्रेणी के कम छात्र प्रवेश लेते थे . इसलिए वहां कक्षा में कम्पटीशन का माहौल नहीं था परन्तु जैसा मैंने कहा शिक्षक अच्छा पढ़ाते थे . इसलिए उनका छात्रों पर नियंत्रण भी अच्छा होता था . किसी विवाद पर कालेज में पुलिस का आना प्राचार्य क्या शिक्षक भी अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझते थे . दूसरे शब्दों में उस समय के शिक्षक अपनी योग्यता से कालेज में अनुशासन बनाने में सक्षम थे . अतः पढ़ाई भी होती थी और छात्र पढ़ते भी इस भावना से थे कि इसी से उनका भविष्य बनेगा . वह ज़माना मुफ्त के अंक देने वाले शिक्षकों और मुफ्त के सर्टिफिकेट बाँटने वाले बोर्डों, विश्वविद्यालयों और सरकारों का नहीं था .
   कक्षा में मेरे अंक सर्वाधिक थे, अतः मुझसे अच्छे अंक लाने की आशा करना स्वाभाविक था . तिमाही की परीक्षा हो रही थी . गणित के प्रश्नपत्र में मेरे होश उड़ गए . मैंने आसान समझ  कर पहला प्रश्न प्रारंभ किया . मैं उसमें अटक गया . दूसरे प्रश्न और फिर तीसरे प्रश्न में भी अटक गया . इसका अर्थ था शून्य अंक आना . मैंने पेन रख दिया और आँखें बंद करके बैठ गया कि अब क्या करूँ . तिमाही के अंक सालाना में नहीं जोड़े जाते थे पर पेपर छोड़ कर भाग भी नहीं सकते थे . थोड़ी देर बाद पुनः प्रयास किया, ईश्वर की कृपा से सभी प्रश्न सही होते चले गए . उस समय रिफ्रेशर बुक्स नहीं आती थीं . उच्च स्तरीय मणि जाने वाली त्रिकोंमिति और स्थिति विज्ञान की पुस्तकें १०० वर्ष पहले लिखी गेन थीं और उसी रूप में चल रही थीं . गणित की पुस्तकों में जो प्रश्न हल किए रहते थे, उनसे समझना पड़ता था . शिक्षक कठिन प्रश्न भी हल करवाते थे . भौतिक या रसायन शास्त्र के आंकिक प्रश्न स्वयं करने होते थे . वह कोचिंग का ज़माना नहीं था . शिक्षक निजी स्तर पर ट्यूशन पढ़ाते थे . १२ वीं की परीक्षा में ११वीं का पाठ्यक्रम भी रहता था . एक प्रश्नपत्र ११वीं से एवं दूसरा १२वीं के कोर्स से आता था . भौतिक शास्त्र में प्रश्न के साथ नुमेरिकल रहता था या लम्बे उत्तर का प्रश्न होता था . आब्जेक्टिव प्रश्न नहीं होते थे . इसलिए उत्तीर्ण होने के लिए भी पूरा पाठ्य क्रम पढ़ना पड़ता था . १२ वीं में प्रथम श्रेणी लाना कठिन माना जाता था . मेरी लिखने की गति कम थी और स्मरण शक्ति भी कुछ कम थी . परिश्रम करके १२वीं में ७१.४% आ गए जो कालेज में सर्वाधिक थे . उसका प्रभाव यह हुआ कि मारवाड़ी कालेज के मेरिट बोर्ड पर १९६७ की सूची में मेरा नाम भी दर्ज हो गया जो आज भी लगी हुई है .
    दसवीं में मुझे ७२.६% अंक मिले थे जो  राष्ट्रीय छात्र वृत्ति के लिए वांछित अंकों से ४ कम थे . अतः मुझे ५० रुपये प्रतिमाह के स्थान पर १६ रूपये प्रति माह की छात्र वृत्ति मिली परन्तु १२ वीं के बाद विश्वविद्यालय की ६०० रूपये सालाना की छात्रवृत्ति मिल गई . उन दिनों भी सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं था . सतयुग में भी राक्षस होते थे . दसवीं में हमारे जैसे छात्र दिन –रात परिश्रम से पढ़ते थे . हमारे मोहल्ले का एक छात्र पढ़ने में कमजोर था . वह परीक्षा के दिन प्रातः ३ बजे १२ किमी दूर कहीं जाता था . उसे पैसे देकर पेपर बता दिया जाता था जिससे वह उन प्रश्नों के उत्तर याद करके ७ बजे परीक्षा दे देता था . उसने प्रत्येक पेपर ऐसे ही दिया . वह मुश्किल से पास हो पाया था . विज्ञान विषयों के साथ हमें हिंदी एवं अंग्रेजी साहित्य भी पढ़ना होता था . दोनों में ५-५ पुस्तकें थीं . हिंदी गद्य-पद्य दोनों में प्राचीन लेखकों और कवियों की रचनाएं ही पढाई जाती थीं . पद्य में सूर-तुलसी से लेकर पद्माकर, सेनापति, प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा आदि की रचनाएं थीं . मेरी स्मरण शक्ति भी कमजोर थी . भूल जाता था . कहीं  शब्दों के अर्थ कठिन होते तो कही भाव . ऊपर से अलंकारों – समासों का भी हिसाब रखो . आदत के अनुसार पूरा पाठ्यक्रम पढ़ते थे . सारी  रात पढ़ते बीत गई . सुबह तो  पुस्तकें छोड़ने की मजबूरी थी . कालेज जाने का समय हो गया था . जितना बना कर आये . परीक्षा देकर बाहर आये तो हल्ला था कि वह पेपर पिछली रात आउट हो गया था . संभव था कि उसे पूरे प्रदेश में निरस्त करके पुनः करवाया जाय. मुसीबत आती है तो सीधे लोगों के लिए ही आती है . पर  हवा आई और चली गई .
    परीक्षा में नकल करना आसान नहीं था . इसलिए उ.प्र. में अधिकांश प्राइवेट कालेज होने के बावजूद १०वीं और १२वीं का परीक्षा फल ३७-३८ प्रतिशत ही रहता था . अनुत्तीर्ण होने पर भी छात्र को उसी कक्षा में पुनः प्रवेश दे दिया जाता था क्योंकि बाहर कोचिंग थी नहीं , वह आगे कैसे पढता .फेल होने पर किसी को अपराधी मानकर कालेज से बाहर करने का पाप नहीं किया जाता था . इसके साथ ही मैं यह भी जानकारी दे दूं कि १९६३- ६४ में एयर मैन के चयन में भी पेपर ३०० रुपये में आउट हो जाता था . ऑब्जेक्टिव पेपर के प्रश्नों के उत्तर कि पहले का उत्तर ‘ए’ या दूसरे का ‘डी’ अदि बता दिए जाते थे . जिस प्रकार शरीर के साथ बीमारियाँ स्वाभाविक रूप से रहती हैं वैसे ही सामाजिक व्याधियां भी आदिकाल से रहती आई हैं और आगे भी आती रहेंगी . समय के अनुसार उसका रूप बदलता रहता है .
  पढने वाले छात्र होते थे तो कुछ उत्पति भी होते थे परन्तु वे शिक्षकों का आदर करते थे , उनके सामने उद्दंडता नहीं करते थे . एक फालतू घूमने वाल छात्र भी दिखता था . किस्में किस विषय पर क्या बात हुई , मुझे नहीं मालूम परन्तु उसे एक दुसरे लड़के ने उठक बैठक लगाने का दंड दिया . वह ठीक से उठ- बैठ नहीं पा रहा था .  दादा लड़के ने उसकी तलाशी ली . उसके पास चाकू था . चाकू जब्त करके उससे उठक बैठक करवाई .
  उन दिनों परिवार नियोजन के साधनों का प्रचार होने लगा था . हमारा कालेज भी अन्य कालेजों की तरह केवल लड़कों का था . छात्र भी उस पर चर्चा करते . एक दिन एक शिक्षक ने एक छात्र से एक पेन जब्त किया जिसके निचले पारदर्शी भाग में एक नग्न लड़की थी . फिर चर्चा थी कि शिक्षक स्टाफरूम में उसका अवलोकन कर रहे थे . 
   छुटपुट शरारतें अपनी जगह थीं परन्तु नैतिकता का स्तर बहुत ऊंचा था . उन दिनों मनोरंजन का साधन राम लीला होती थी . अनेक स्थानों पर १०-१२ दिन तक उसका मंचन होता था .  सीता स्वयंबर के बाद अर्ध रात्रि के बाद २-३ बजे परशुरामी होती थी जो प्रातः ६-७ बजे तक चलती थी . राम वनवास के दिन दशरथ का विलाप भी देर रात्री तक चलता था . रामलीला में बहुत भीड़ होती थी . बाल, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष सभी जाते थे . जब इच्छा हो वहां आते-जाते थे . महिलाऐं क्या लड़कियां भी बिना किसी समस्या के आती- जाती थीं . १९७० के बाद भी ऐसी घटनाएं  नहीं सुनने में आईं जिसमें लूट-खसोट या जोर जबरदस्ती की कोशिश की गई हो .
   हमारे घर के पीछे पार्क में सायं काल कुछ युवक कसरत करते थे , वेटलिफ्टिंग करते थे . सभी सामान्य परिवार के थे . मैं भी जाता था . उसमें बंगाली युवक अधिक आते थे . दुर्गा पूजा बंगाली बहुत उत्साह से मनाते हैं . एक  मोहल्ले  में दुर्गा पूजा के अवसर पर छोटा सा सांस्कृतिक कार्य क्रम हो रहा था जिसमें आमंत्रित श्रोताओं को भी गाने के लिए कहा जा रहा था . एक स्मार्ट युवक साधना- राजेन्द्र कुमार की फिल्म आरजू का गाना गाने लगा – ‘ए फूलों की रानी, बहारों की मल्लिका, तेरा मुस्कुराना गजब हो गया ' . वह सुर और लय में गा रहा था जिसमें उसकी आँखें और भाव भंगिमाएं भी साथ दे रही थीं . महिलाऐं और  लड़कियां भी थीं . बस एक युवक ने मंच पर चढ़ कर उसके सामने से माइक खींच लिया और उसे डांटकर नीचे उतार दिया कि स्टेज हीरोपंती के लिए नहीं है . यह उन्ही वर्जिश करने वालों में से एक था . कहने का तात्पर्य है उस समय युवकों की शक्ति समाज रक्षा में लगती थी . महिलाऐं भी सीमित दायरे में रहती थीं . दिल्ली की मुख्य मंत्री शीला दीक्षित कहती हैं कि वे अपने समय में बिना किसी भय के अकेले कालेज आती-जाती थीं परन्तु आज उनकी पोती घर से बाहर जाती है तो उन्हें चिंता रहती है . जन साधारण की सुरक्षा की बात कौन करे ?


             

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