बुधवार, 18 सितंबर 2013

वे दिन


                     वे  दिन
 अस्सी वर्ष को छूने जा रहे राज साहब अपने फ्लैट में भोजन कर रहे थे .१५ वर्ष पूर्व पत्नी का साथ छूट गया था . आज के बच्चे अपने कामों में ही  बहुत व्यस्त रहते हैं . अतः बुजुर्गो को अकेले जीने की मजबूरी भी है  . उनकी जिंदगी भी एक बाई के सहारे आगे बढ़ रही थी . बाई आती , घर की  साफ- सफाई कर देती, कपड़े  धो देती , सुबह - शाम खाना बना देती . और क्या चाहिए ? इलेक्ट्रानिक और कंप्यूटर युग ने युवाओं की व्यस्तता बढ़ा दी है, बुजुर्गों को अकेला रहने पर विवश कर दिया है पर  उसी ने उनके जीने का सहारा भी दिया है . वास्तव में टीवी बुजुर्गों और अकेले लोगों के लिए बहुत बड़ा वरदान है . सीरियल, समाचार, फ़िल्में, खेल-कूद, गाने और जीवन की अनेक खुशियों का माया जाल फ़ैलाने वाले विज्ञापन, व्यक्ति को कुछ तो पसंद आ ही जाता है  . सुबह उठे, अखबार पढ़ लिया, कुछ व्यायाम कर लिए , नहाना  धोना किया, नाश्ता किया सुबह का समय पार हो गया . एक दिन  राज साहब दोपहर का भोजन कर रहे थे , साथ में टीवी भी देख रहे थे . टीवी पर ‘भाग मिल्खा भाग’ कि कहानी और फिल्म पर चर्चा हो रही थी . उसे देखते-देखते राज साहब कहीं अतीत में खो गए .
    उन्हें बचपन के वे  दिन फिर से याद आ गए . मिल्खा सिंह की तरह वे भी उसी क्षेत्र से आये थे बस अंतर यही था कि मिल्खा जी के माता - पिता और सम्बन्धियों की आततायिओं ने हत्या कर दी थी और उनके परिवार को लोगों ने सुरक्षा देकर भारत आने में मदद की थी . १९४५ में उनकी आयु १४ वर्ष थी . वह अखबारों और सभी स्थानों पर रेडियो  का ज़माना भी नहीं था . लोग अफवाहों में जीते थे . लक्की मरवत में उनका घर बन्नू जिला मुख्यालय से तीस मील दूर था . किसानी और कुछ व्यवसाय से घर का काम  बड़ी अच्छी तरह चल जाता था . छः भाइयों में से सबसे बड़े भाई का विवाह हो चुका था . वे घर पर ही काम देखते थे .उसके बाद के दो भाई पुलिस में और तीसरा फ़ौज में भरती हो गया था . उनसे बड़े भाई ने दसवीं पास कर ली थी और वहीं क्लर्क बन गए थे . उन दिनों मुस्लिम लीग का आतंक बढ़ता जा रहा था . १९४५ के अंत में उन्होंने हवा उड़ा दी कि देश में हिन्दू मुसलमानों की हत्याएं कर रहे हैं . इससे मुस्लिमों में क्रोध बढ़ना स्वाभाविक था . परन्तु उस समय कोई दंगे नहीं हुए . उस क्षेत्र में मुसलमानों का बाहुल्य था . अतः हिन्दू डरे – डरे से रहते थे .  १९४७ में  तो यह स्पष्ट हो गया था कि भारत का विभाजन होगा और वह क्षेत्र  पकिस्तान में रहेगा . राजनीति के व्यक्ति तो यह जानते थे परन्तु जन साधारण को दंगों के भय के अतिरिक्त और कुछ पता नहीं था . राज के पिता का अपने क्षेत्र में बहुत सम्मान था . एक दिन राज ने देखा कि उनके पिता के एक मुस्लिम मित्र उनसे धीरे- धीरे कुछ बातें कर रहे थे . उनके जाने के बाद घर में भी कुछ चर्चा हुई और तय किया गया कि हालात बहुत बिगड़ने वाले हैं, अतः कुछ दिनों के लिए बन्नू में अन्य संबंधियों के साथ रहना ठीक होगा .सबसे बड़ी समस्या तो ऊँट और गाय - भैंस की थी कि उन्हें किसके भरोसे छोड़ा जाय . पर  चारों ओर से  दंगे होने  और हिन्दुओं के मारे जाने की ख़बरें हवा में विष घोल रहीं थीं . भाई पुलिस में थे ही . वे भी इसकी पुष्टि करने लगे .घर के सभी सदस्य चिंता में डूब गए थे .                 
  अंततः यह तय किया गया कि नौकरी वाले भाइयों को छोड़कर सभी लोग पूर्वी पंजाब चले जांय . संभव है चार- पांच महीने बाद हालात सुधर जाएँ तो सब वापस आ जायेंगे . राज, उनके भाई , उनके सबसे बड़े  भाई – भाभी और लगभग डेढ़ वर्ष की सुन्दर बेटी रानी तथा माता- पिता ने घर द्वार छोड़ने का निर्णय कर लिया . जब वे जाने लगे तो उनके पिता के मित्र के छह बेटे हथियार बंद होकर उनके साथ चले , उन्हें गाड़ी में बैठाया और जब गाड़ी चल पड़ी, उन्हें अलविदा कहकर वापस लौटे . घर से लेकर सारी  यात्रा का माहौल ऐसा बना हुआ था कि जरा सी आहट होती तो लगता था कि  पता नहीं क्या होने वाला है . एक दिन प्रातः लगभग ग्यारह बजे गाड़ी में बैठे तो दूसरे दिन रात्रि  में आठ-नौ बजे लाहौर पंहुचे . लाहौर प्लेटफार्म से दूर आग जलती दिख रही थी परन्तु ट्रेन के साथ कोई समस्या नहीं आई . लाहौर से पटियाला के लिए रवाना  हुए . रास्ते में रायपुर में ट्रेन बदलनी पड़ती थी . राज को इतना ध्यान है कि ट्रेन बदली तो उस समय परिवार के पास कोई पैसा नहीं था . पटियाला पहुंचे तो स्टेशन पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्त्ता मिल गए . वे सबको कैम्प ले गए जो पटियाला के महाराजा ने विस्थापितों के लिए खोल रखे थे .
      कैम्प में भोजन मिलता था परन्तु असहाय बन कर हाथ कब तक फैलाते . हर क्षण अंतरात्मा चीत्कार कर उठती . तीनो भाई मजदूरी करने लगे . सात-आठ दिन बाद एक कमरा मिल गया . सब लोग उसमें चले गये . उन दिनों मजदूरी दो रूपये मिलती थी . आटा १५-१६ रुपये मन ( लगभग ३७ किलो) था , देसी घी पांच रुपये सेर था . उन दिनों पटियाला में डालडा घी  नहीं मिलता था . सब्जियां भी सस्ती थीं . गुजारा होने लगा . मझले भाई से मजदूरी नहीं हो पाती थी अतः उसे काम  मिलने में असुविध होने लगी . वह दसवीं पास था . उसे पांच रूपये देकर काम ढूढने दिल्ली भेज दिया .
     अचानक भाभी जी बीमार हो गईं . इलाज क्या करवा पाते ! वह पंद्रह दिन में चल बसीं . घर में संस्कार के लिए भी पैसे नहीं थे . उन्हें अच्छी तरह याद है कि किस प्रकार मकान मालिक से १५ रूपये उधार लेकर उनका अंतिम संस्कार किया गया था . घर मातम से भर गया, ऊपर से छोटी सी बच्ची का रुदन . दादी उसे लिए रहतीं. सुबह और शाम जब कोई घर पर रहकर उसे पकड़ता तो वे  घर का काम कर पातीं . पता नहीं ईश्वर सब की कौन सी परीक्षा ले रहा था . कुछ दिन बीते नहीं कि बच्ची भी बीमार हो गई . उसे सूखा रोग हो गया .थोड़ा - बहुत जो इलाज करवा सकते थे करवाया  परन्तु उसकी हालत नहीं सुधर पाई . डाक्टरों ने जवाब दे दिया कि यह ठीक नहीं हो सकती है . असहाय होकर स्थिति को भुगतने से अधिक गरीब और कर भी क्या सकता है ?
   बाद में वहां पटियाला में  पाकिस्तान से अन्य रिश्तेदार भी आये . वहां वे सात-आठ महीने रहे . घर में सबको लगने लगा कि यहाँ भविष्य ठीक नहीं है . जब कुछ सम्बन्धी हरिद्वार जाने लगे तो हम लोग भी उनके साथ चले गए . वहां फिर पहले रिफ्यूजी कैम्प में रहना पड़ा . वहां जाकर पुनः मजदूरी करने लगे . फिर राज ने स्टेशन के बाहर मूंगफली बेचना शुरू कर दिया . रानी लगातार बीमार चल रही थी . न दूध पीती न रोटी खाती , सिर्फ थोड़ा  सा दलिया खा लेती थी . घर की समस्या पूर्ववत  थी . शाम को उसे पकड़ते तो माँ खाना बनाती .      वे स्टेशन के बाहर बैठकर मूंगफली बेचते ही थे , रानी को भी पास में बैठा लेते . पता नहीं कैसे रानी ने इच्छा व्यक्त की या उन्होंने स्वयं ही उसे मूंगफली के कुछ दाने दे दिए , उसने खा लिए . वह तो कुछ खा ही नहीं पाती  थी . न पचने वाली मूंगफली उस छोटी सी बच्ची को खिलाकर वे कितना  पछताये थे . रात भर नींद नहीं आई थी . वे सोचते जाते  कि पता नहीं उसकी तबियत कितनी खराब हो जायेगी  . रात बीत गई , उसे कुछ नहीं हुआ . सुबह वे  आश्वस्त हो गए थे कि अब रानी को कुछ नहीं होगा . उसके बाद  रानी जब भी साथ बैठती, मूंगफली मांगती ,वे  भी दे देते  , उसके लिए और कुछ तो उनके  पास था नहीं .
    कुछ दिनों बाद घर में सब का ध्यान रानी की ओर गया . वह पहले से अच्छी लगने लगी थी . यह आश्चर्य कैसे हो गया ? तब राज ने बताया था कि वह उसे मूंगफली खिलाता रहा है . कुछ ही समय में रानी स्वस्थ हो गई , सुन्दर वह थी ही . अब घर उसकी चहलकदमी से आनंदित हो उठा .
    उनको भी तो मजदूरी करने या मूंगफली बेचने में रूचि नहीं थी . मजबूरी में करना पड़ रहा था . इस मध्य बड़े भाई की दिल्ली में नौकरी लग गई तो राज भी उसके पास चले गए थे .उस समय  वह सिर्फ आठवीं पास थे .उन्होंने आई टी आई में प्रवेश लिया तो उनका  मन पसंद ट्रेड उन्हें इसलिए नहीं दिया गया कि वे १० वीं पास नहीं हैं . तब उन्होंने  आगे पढने का निश्चय किया था . दसवीं पास करने के बाद वे कैसे वायु सेना में चले  गये थे  और जिन्दगी पटरी पर चलने लगी थी . कब उनका विवाह हुआ, बच्चे हुए और परिवार बढ़ा  और फिर एक दिन जीवन संगिनी का साथ छूट गया और लगा जैसे जीवन पुनः एक छोटे से दायरे में सिमट गया हो . बेटा –पोता अच्छा काम कर रहे हैं , जीवन में देखने में तो कोई कमी नहीं दिखती है परन्तु परन्तु वे एक - एक दिन आज भी नहीं भूलते जब उन्होंने जीवन और मृत्यु को साथ- साथ चलते देखा था और पूरी तरह ईश्वर और भाग्य के आधीन हो गए थे . फिर सोचने लगे कि  वे आज भी तो कालचक्र के आधीन होकर ही जी रहे हैं . 
        


      

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