मैं एक विद्यार्थी ( २ )
आठवीं की बोर्ड परीक्षा में अच्छे अंक आने के बाद यह तय करना था कि ९वीं में किस कालेज में प्रवेश लेना है . उत्तर प्रदेश में १० वीं तक तो विद्यालय कहलाते हैं परन्तु १२ वीं तक के स्कूलों को इंटर कालेज कहते हैं . उस समय अनेक प्रदेशों में हायर सेकेंडरी (११ वीं) स्कूल के बाद कालेज की पढ़ाई प्रारंभ होती थी परन्तु यूपी में १०+२ व्यवस्था चल रही थी . अब सभी स्थानों पर १०+२+३ की स्नातक व्यवस्था है परन्तु पहले जिन प्रदेशों में हायर सेकेंडरी (११ वीं) स्कूल कहा जाता था ,वहां १२ वीं तक होने के बाद भी पूर्ववत स्कूल ही कहा जाता है और उ.प्र. में इंटर कालेज कहा जाता है जिनमें कक्षा ६ से १२ तक पढ़ाई होती है . उस समय कानपुर में बीएनएसडी कालेज सर्वश्रेष्ठ कालेज गिना जाता था , आज भी है परन्तु २०१३ में अर्थात इसी वर्ष जब मैं वहां गया तो मुझे यह देख कर बहुत दुःख हुआ कि सरकारी हस्तक्षेप के कारण उसकी वह प्रतिष्ठा नहीं रही जो पहले होती थी . उस समय यूपी सरकार सभी प्रतिष्ठित निजी विद्यालयों में पर्याप्त अनुदान देती थी . अब केवल शिक्षकों एवं कुछ स्टाफ का वेतन देती है जिससे भवन , पुस्तकालय , फर्नीचर , प्रयोगशालाओं की व्यवस्था बनाए रखना ही दुष्कर हो गया है क्योंकि अनुदान प्राप्त कालेज छात्रों से अतिरिक्त शुल्क ले नहीं सकते . इसके साथ ही अब शिक्षकों की नियुक्ति भी संस्था स्वयं नहीं कर सकती अर्थात सारी व्यवस्था सरकारी हो गई है . इसके विपरीत वर्तमान आधुनिक प्राइवेट शिक्षण संस्थाएं सरकार से कोई अनुदान नहीं लेती हैं , छात्रों से ही सारी शुल्क लेती हैं और अपने स्तर को बनाए रखती हैं . अब अधिकाँश अच्छे छात्र उन्ही संस्थाओं में पढ़ रहे हैं . ८ वीं के अंकों के आधार पर हमें विश्वास था कि वहां प्रवेश मिल जायगा . इंटर कालेजों में प्राचार्य के अतिरिक्त एक हेड मास्टर भी होता है जो मुख्यतः १० वीं तक की व्यवस्था देखता है . उस समय वहां पर पुत्तु लाल हेड मास्टर थे . सारे प्रवेश वही करते थे . यह बात १९६३ की है . ९ वीं कक्षा से ही विज्ञान , कला एवं वाणिज्य विषय अलग हो जाते थे . वही तय करते थे कि प्रवेश देना है या नहीं और कौन से विषय देने हैं और कौन सा सेक्शन देना है . पूर्व का परीक्षा फल देखा , तत्काल निर्णय किया और प्रवेश फ़ार्म दिया . उन्होंने मना कर दिया तो प्रवेश नहीं मिलेगा . उस समय कक्षा ९ वीं में जी सेक्शन में बोर्ड से ८ वीं उत्तीर्ण करके आने वाले अच्छे छात्रों को प्रवेश दिया जाता था . कक्षाओं में ४० – ४५ छात्र तक होते थे .उनके अपने विद्यालय के भी सैकड़ों छात्र प्रत्येक कक्षा में होते थे . प्रत्येक वार्षिक परीक्षा के बाद मेरिट सूची के आधार पर अगली कक्षा में सेक्शन बनते थे . एक ही कक्षा में बकरी, गधे, घोड़े भरने की परंपरा नहीं थी . इससे यह लाभ होता था कि एक कक्षा में एक जैसे स्तर के छात्र होने से पढ़ाई अच्छी प्रकार हो जाती थी . बी एन एस डी कालेज के कक्षा ९ वीं के अपने श्रेष्ठ छात्र एफ सेक्शन में रखे जाते थे . अन्य विद्यालयों के उन छात्रों को जो बिना बोर्ड के ८ वीं उत्तीर्ण करके आते थे, एफ और जी सेक्शन में प्रायः प्रवेश नहीं मिलता था भले ही उन्होंने अपने विद्यालय में टाप किया हो . इसका अर्थ है कि उस समय जिला बोर्ड से ८ वीं उत्तीर्ण अच्छे छात्रों की बहुत प्रतिष्ठा थी . मेरिट और कम आय वर्ग का होने के कारण मेरी मासिक शुल्क माफ़ कर दी गई थी . रु ६.९२ में से मुझे एक रूपये बयालीस पैसे शुल्क देनी होती थी . १० वीं में भी इतनी ही शुल्क लगती थी .
उस समय स्कूल कालेजों की अपनी बस व्यवस्थाएं नहीं होती थी . सरकारी बसें पर्याप्त थीं और ठीक थीं . कालेज मेरे घर से ७-८ किमी दूर था . पहली बार शहर में अकेले जाना था . अधिकांश क्षेत्र भीड़ युक्त रहते थे , अतः प्रारम्भ में बस से जाने लगा . आज की पीढी ने पैसे नहीं देखे हैं क्योंकि अब तो रूपये(१००पैसे) में भी कुछ नहीं मिलता है . तब बस का किराया १८ पैसे लगता था . कुछ समय बाद मैं स्टेशन तक १० पैसे में जाता था और आगे ३-४ किमी पैदल चला जाता था क्योंकि बस थोडा चक्कर काट कर जाती थी . समय की तो कोई बचत नहीं होती थी परन्तु ८+८ पैसे बच जाते थे . यद्यपि घर में ऐसा करने के लिए किसी ने नहीं कहा . कुछ समय बाद मैं साइकिल से जाने लगा . कालेज में कितने छात्र थे मुझे नहीं मालूम परन्तु ९ वीं कक्षा में ही १३- १४ सेक्शन थे . कालेज का साइकिल स्टैंड बहुत बड़ा और व्यवस्थित था जैसे स्टेशन के बाहर होते हैं . कालेज में कैंटीन भी थी . वहां प्रदेश में टाप करने वाले छात्र भी थे और मार- कुटाई वाले भी ,परन्तु कालेज में गुंडागर्दी नहीं होती थी . शिक्षक पढ़ाने के साथ नियंत्रण करने में भी सक्षम थे . हमारे कालेज में मध्य में बहुत बड़ा खुला स्थान है . उसके चारों ओर तिमंजला भवन बना हुआ है . हमारी कक्षा सबसे अलग थी . तीन मंजिल ऊपर चढ़ कर पीछे की ओर एक मंजिल उतरना पड़ता था . कक्षा में सभी बोर्ड उत्तीर्ण अच्छे छात्र थे , कालेज के बाहर के थे अतः परस्पर घुलने-मिलने में कोई असुविधा नहीं हुई .
हमारे सभी शिक्षक बहुत अच्छे तो थे ही ,नियमित भी थे . कक्षाएं छोड़ने जैसी समस्याएँ कभी नहीं आईं .वे समझाते भी थे , लिखाते भी थे . उस समय ९ वीं में ६ विषय होते थे . मेरे विषय थे, हिन्दी, अंग्रेजी , गणित ( ये अनिवार्य विषय थे ) तथा वैकल्पिक में विज्ञान, जीन विज्ञान और आर्ट ( ड्राइंग ). उस वर्ष से एक विषय कम कर दिया गया . मैंने जीव विज्ञान छोड़ दिया . कक्षा में एक दिन राउंड लेते हुए हिंदी शिक्षक ने मेरी कापी देख कर कहा कि ऐसी राइटिंग से तीन डंडे ( थर्ड डिविसन ) मिलेंगे . गणित की पुस्तक के लेखक हमारे कालेज के ही हेड मास्टर पुत्तु लाल और कटियार थे , जो कानपुर शहर में अत्यंत प्रतिष्ठित गणित शिक्षक माने जाते थे . प्रत्येक अध्याय में छः- सात खंड तो होते ही थे और प्रत्येक खंड में २० से ३० प्रश्न तक होते थे . हमारी कक्षा अच्छे छात्रों की थी अतः प्रत्येक दिन ३० से ४० सवाल तक करने के लिए दिए जाते थे और हम लोग पूरे करके ले जाते थे . कुछ होशियार छात्र भी थे जो सवाल न आने पर हम लोगों की कापी से टीप लेते थे .
अंग्रेजी में हम सब दुखी होते थे . हमारे शिक्षक बड़े परिश्रम से ग्रामर में पन्चुएशन पढ़ा रहे थे परन्तु कम रुचि के कारण एक दिन छात्रों ने आक्रोश व्यक्त करने के लिए जैसे ही वे कक्षा में आये और छात्र खड़े हुए, सबने कहना शुरू कर दिया पन्चुएशन-पन्चुएशन . उनका अप्रसन्न और क्रोधित होना स्वाभाविक था .सबको दो-दो बेत खाने पड़े . अंग्रेजी छोड़कर भागते भी कहाँ ?
कक्षा के बाहर तो परस्पर मिलने का समय ही नहीं मिलता था क्योंकि घर दूर था , समय पर कालेज पहुंचे और छुट्टी होते ही घर को रवाना हो लिए . लंच में कुछ समय मिल जाता था . युवक हों और किसी के मन में शरारत न आये यह कैसे संभव है . कक्षा से निकल कर हम सीधे ही कालेज की तिमंजिली छत पर होते थे . जो कानपुर की व्यस्ततम मॉल रोड ( महात्मा गाँधी रोड ) के किनारे है . एक छात्र मूंग के दाने और एक कांच के पतली नली रखता था . वह मूंग के दाने मुंह में भर लेता और नली से नीचे रोड पर गुजरने वाले रिक्शों पर बैठी लड़कियों और महिलाओं पर मारता था . निशाना लगाने का आनंद तो था ही परन्तु जब निशाना लग जाता तो वह थोड़ा पीछे हट जाता था . मूंग यदि कपड़ों पर लगा तब तो उन्हें पता भी नहीं चलता था और चेहरे या खुले हाथ पर लग गया तो चौंकने के आलावा उन्हें पता नहीं चलता था कि क्या हुआ और रिक्शा आगे चला जाता था . कालेज की छत वैसे ही ऊंची थी और उस पर ऐसा तो कुछ था नहीं कि लोग ऊपर देख कर चलें . शरारत भी हुई और अगले को पता भी नहीं चला कि कोई शराफत से शरारत कर गया .
उन दिनों तिमाही – छमाई परीक्षाएं भी होती थीं . मेरे मोहल्ले में एक और छात्र भी वहीँ पर ९ वीं में पढ़ता था . उसका कोई फिसड्डी सेक्शन था . उसने बताया कि यहां पर पास होना बहुत कठिन है . परन्तु मुझे किसी भी स्तर पर परेशानी नहीं हुई . अधिकांश छात्र कक्षा ९ में किसी न किसी विषय में फेल हो जाते थे . कुछ अंकों तक उन्हें ग्रेस अंक देकर पास किया जाता था . कक्षा ९ में सभी विषयों में पास हो जाने का अर्थ होता था १० वीं में अच्छी प्रकार उत्तीर्ण होना ही है . कक्षा ९ वीं के वार्षिक परिणामों में मुझे १० वीं का सेक्शन सी मिला जो टापर छात्रों का था . उस समय १० वीं पास करना ही कठिन होता था . हमारी कालोनी के जो लड़के – लड़कियां १० वीं द्वितीय श्रेणी उत्तीर्ण हो जाते थे वे अपने को भाग्य शाली समझते थे . कक्षा १० वीं में वहां सी सेक्शन का अर्थ था इन छात्रों को यूपी बोर्ड में मेरिट में आना है और कभी – कभी छात्र टाप भी करते थे .
अतः १० वीं में सी सेक्शन मिलना ही बहुत बड़ी बात होती थी जो मुझे भी मिला . कक्षा में ४२ विद्यार्थी थे जिनमे से अधिकाँश एफ सेक्शन से आये थे . कक्षा के बाहर हमारे पास समय भी कम था और कक्षाएं कभी खाली नहीं जाती थी अतः कुछ पुराने मित्रों के आलावा जो मेरे साथ थे , अन्य लोगों से बहुत घुलना-मिलना नहीं हो पाया , सामान्य बात ही होती थी . जागेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव जी हिंदी और अंग्रेजी दोनों पढ़ाते थे और बहुत अच्छा पढ़ाते थे . वे सामयिक विषयों पर भी चर्चा करते , कभी निबंध तो कभी स्वरचित कविता लिखने को भी कहते थे कटियार जी गणित पढ़ाते थे .गणित या ज्यामिति की समस्या को हल कैसे करना है , उसका पूरा विश्लेषण करना सिखाया जाता था . प्रायः अधिकाँश छात्र सभी सवाल कर लेते थे .एन सी मिश्र जी विज्ञान पढ़ाते थे . वे बड़े खुश मिजाज थे .मुस्कुराकर ही बात करते थे . छात्र उन्हें देख कर ही खुश हो जाते थे . कुल मिलाकर कक्षा में आनंद बना रहता था . उस समय १० वी बोर्ड परीक्षा में कक्षा ९ एवं १० दोनों का सम्मिलित पूरा पाठ्यक्रम आता था . अतः दोनों वर्षों का कोर्स याद करना पड़ता था. हमारी पढ़ाई इस प्रकार कराई जाती थी कि नवम्बर तक १० वी का कोर्स पूरा हो जाये ताकि दोहराने का समय मिल जाये . जिन कक्षाओं में कमजोर छात्र रहते थे उन्हें उसी प्रकार सहजता से पढ़ाया जाता था , वैसे ही शिक्षक रहते थे ताकि वे उत्तीर्ण हो जाएं . उस समय सैद्धांतिक प्रश्न ही पूछे जाते थे और ८४- ८५ % अंक में टाप हो जाता था, टाप की स्थिति तो अब भी ऐसी ही है .मेरी रटने कि क्षमता और लिखने की स्पीड दोनों कम रहे हैं . अतः मैं एक औसत छात्र था . मुझे ७२.६% अंक मिले .
१० वीं की परीक्षा के पूर्व कक्षा के छात्रों ने गेट टुगैदर रखा . ढाई रूपये फोटो ग्रुपिंग के और ढाई रुपये नाश्ते- पानी के देने थे . हमने फोटो तो स्मृति के लिए खिंचवाया परन्तु नाश्ते के लिए ढाई रूपये देने में असमर्थता व्यक्त की . फोटो खिंचवाने के बाद मैं और मेरा एक साथी चले गए . दूसरे दिन अध्यापक ने कहा कि हम क्यों चले गए थे , पीछे खाने का सामान बचा पड़ा था , सहयोग राशि नहीं दी थी तो क्या हुआ . परन्तु उसके साथ ही यह भी चर्चा थी कि व्यय अधिक हो गया है और कुछ सक्षम बच्चों से अतिरिक्त सहयोग की बात हो रही थी .बिना सहयोग राशि दिए हम किस नैतिकता से उसमें सम्मिलित होते ? अच्छा तो मुझे भी नहीं लगा था, माता-पिता भी इसके लिए मना नहीं करते पर मैं यथा संभव प्रयास करता था कि मेरे कारण घर पर अनावश्यक बोझ न पड़े . अब यदि कभी कंजूसी करता हूँ तो बेटे कहते हैं कि मुझे किस बात की कमी है तो मेरा यही उत्तर होता है कि बचपन की आदत छोड़ना संभव नहीं है . हाँ अब मैं कंजूसी नहीं करता, मितव्ययिता का ध्यान रखता हूँ .
मैं कक्षा ९ वीं में था तो चक्कर आते थे . यद्यपि मैं प्रातः घूमने जाता था, व्यायाम करना, खेलना – कूदना, अंकुरित चने खाना , सभी कुछ करता था परन्तु मुझे अनेक बार आंखों के आगे अँधेरा लगता था . दवा भी करवाई परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ .ऐसे समय में पानी पीने से कुछ राहत मिल जाती थी . मुझे लगने लगा कि यह सब गर्मी के कारण हो रहा है और मैंने चाय पीना छोड़ दिया .
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