मंगलवार, 4 नवंबर 2014

सामंती संघर्ष


                       सामंती संघर्ष
   भारत में लोकतंत्र नहीं है, प्रजातंत्र है जिसमें प्रजा ५ वर्षों बाद अपने राजा का चुनाव करके पुनः प्रजा बन जाती है और अगले चुनाव तक शासन पर काबिज सामंतों का अच्छा या बुरा शासन सहने के लिए बाध्य होती है. जबकि लोकतंत्र वह व्यवस्था है जिसकी स्थापना, संचालन एवं नियंत्रण जनता द्वारा होता है . वर्तमान व्यवस्था में सत्तासीन सामंत जनता को तरह-तरह के कष्ट देकर अपना मनोरंजन करते हैं, आनंद उठाते हैं. जैसे नगर निगम आपसे जबरन कर तो लेगी परन्तु सेवा दे या न दे, उसकी इच्छा. सड़क बनवाए न बनवाए उसकी मर्जी. सड़क घटिया बनवाये या बनवाते ही तोड़ दे, आपके घर के रास्ते बंद कर दे, कीचड़ मचा दे, उसकी इच्छा. आप चिल्लाते रहिए , वे आनंदित होते रहेंगे. आप ने आन्दोलन किया तो पकड़ कर मुकदमा कर देंगे. पुराने राजाओं-सामंतों की भांति आज भी क़ानून उनका है, न्याय उनका है.
    आदिकाल से सामंत परस्पर मित्रता और संघर्ष करके अपनी शक्ति बढ़ाते रहे हैं. आज भी वही कर रहे हैं. वर्तमान में मीडिया जिसे गठबंधन कहता है, वह गठबंधन नहीं, सामन्ती व्यवस्था है. पहले जब महाराजा या सम्राट कमजोर हो जाते थे तो उनके दूर राज्यों में बैठे राज्यपाल, गवर्नर स्वयं को स्वतन्त्र राजा घोषित कर देते थे. स्वतन्त्र हो गए तो राजा अन्यथा वे सामंत रहते थे भले ही उन्हें राजा की उपाधि दे दी गई हो. प्राचीन काल में राजा अपने सामंतों के परस्पर मिलने को बड़ी संदेह की दृष्टि से देखते थे . आज भी कोई दो-तीन नेता एक साथ बैठ जाएं तो मीडिया में उन्हीं की चर्चा होने लगती है, उनके मिलने के निहितार्थ ढूढ़े जाते हैं कि वे क्या गुल खिलाने वाले हैं. यदि वर्तमान राजनीतिक घटनाओं को सामंतवाद के सन्दर्भ में देखा जायगा तो अनेक अर्थ स्वयं ही स्पष्ट हो जायेंगे.
    वर्तमान में सर्वाधिक चर्चा भाजपा-शिवसेना के सन्दर्भ में हो रही है. शिवसेना के सर्वेसर्वा उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के स्थापित सामंत हैं. चुनाव के पूर्व वे अपनी शक्ति बढ़ाने के प्रयास में भाजपा को अधिक सीटें नहीं देना चाहते थे. उधर भाजपा (इसके सामंत स्वतन्त्र नहीं हैं.संघ के बिना वे अस्तित्वहीन हैं) अपनी शक्ति बढ़ाना चाहती थी. मित्रता को लांघते हुए दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़े ताकि वे अपनी वास्तविक शक्ति दिखा सकें. भाजपा भारी पड़ गई. अब वह शिव सेना की हेकड़ी समाप्त करना चाह  रही है ताकि वे जैसा कहें वैसा शासन चले. यदि शिव सेना को शामिल किया और वह भाजपा से इतर अपनी योजनाएं लागू करके अपनी प्रतिष्ठा और शक्ति बढ़ाने लगी, तो भाजपा का प्रभाव कम हो जायगा. शतरंज के खेल की भांति उनमें शह और मात का खेल मित्रता पूर्वक चल रहा है. परन्तु खेल में हारा व्यक्ति भी स्वयं को हारा हुआ तो मानता ही है. इस खेल के संघर्ष में भाजपा की क्षति भी हो सकती है . भविष्य में विपक्षी सामंत एक होकर उसे पीछे धकेल सकते हैं जैसे लोक सभा के बाद वाले उपचुनावों में हुआ था.
    महाराष्ट्र के चुनाव से  पूर्व कांग्रेस ( सोनिया गाँधी-राहुल ) और राष्ट्रवादी कांग्रेस (शरद पवार ) के सामंत एक साथ देश के शासन का सुख भोग रहे थे. लोकसभा की करारी हार के बाद पवार ने सोचा कि अलग होने से वे अधिक सीटें पा लेंगे जिससे मुख्यमंत्री उनके दल का बनेगा. परन्तु कांग्रेस और पवार दोनों के दल पिछड़ गए. सत्ता हाथ से चली गई. कहावत है भागते भूत की लंगोटी ही सही. कांग्रेस ने दिल्ली में हारने के बाद बिना शर्त नए सामंत केजरीवाल का समर्थन कर दिया था और स्वयं शून्य प्राय होते हुए भी केजरीवाल का मुंह कांग्रेस के भ्रष्टाचार से दूर भाजपा की ओर मोड़ दिया. उसी तर्ज पर पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस ने भी महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए भाजपा को बिना शर्त समर्थन दे दिया. इससे भाजपा को शक्ति मिल गई और वह शिवसेना से अधिक शक्ति के साथ मोल-तोल करने की स्थिति में आ गई. इससे इतना लाभ तो पवार कांग्रेस को मिलेगा ही कि भाजपा उनके नेताओं के विरुद्ध कार्यवाही से बचेगी. उनकी सामन्ती कड़क कम भले ही हो गई हो, कुछ तो बनी रहेगी.
   सामंतों का कुल सिद्धांत और उद्देश्य सत्ता में भागीदारी प्राप्त करना और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष लाभ लूटना होता है, वह कहीं से भी मिले, कैसे भी मिले. लोकसभा चुनाव के पूर्व भाजपा द्वारा प्रधान मंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी के नाम की घोषणा के बाद बिहार के जनता दल (यू) के सामंत नितीश कुमार परेशान हो गए कि इससे भाजपा का स्तर बहुत बढ़ जायेगा. अतः वे उस भाजपा से अलग हो गए जिसके साथ मिलकर वे बिहार का चुनाव जीते थे और मिलकर सरकार चला रहे थे. बाद में उन्हें लगा कि उनकी शक्ति बहुत कम है. उन्होंने उस लालू और कांग्रेस को अपना साथी बना लिया जिन्हें कोस-कोस कर वे बिहार के मुख्यमंत्री बने थे. ये आज भाजपा के साथ  होते तो नितीश और शरद यादव की प्रतिष्ठा बहुत अधिक होती परन्तु बिना समझ के संघर्ष करने से दोनों की सामन्ती शक्ति घट गई. जबकि भाजपा के साथ जाकर राम बिलास पासवान ने अपनी खोई हुई सामन्ती पहचान को पुनः प्राप्त कर लिया.
  सामंतों का यह संघर्ष दो दलों के मध्य ही नहीं चलता है, एक दल के अन्दर भी चलता रहता है जहाँ एक नेता अपनी सामन्ती शक्ति बढ़ाने अपने दल के सर्वशक्तिमान सामंत को खुश करता रहता है , दूसरे सामंत की बुराई करता रहता है. भाजपा में नरेंद्र मोदी के उभरने की कहानी सबके सामने है . वे अपने दल के बड़े सामंतों लालकृष्ण अडवाणी, सुषमा स्वराज आदि को पीछे छोड़ते हुए किस प्रकार आगे बढ़े हैं और स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध किया है, यह सबने देखा है.

     

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