शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

पावापुरी और नालंदा

                 पावापुरी और नालंदा
अपरान्ह पटना पहुंचकर डा खत्री  बिहार पर्यटन विभाग में राजगीर भ्रमण के लिए जानकारी प्राप्त करने गए . गया या राजगीर जाने , वहां रुकने , घूमने आदि के सम्बन्ध में उन्हें कोई जानकारी नहीं थी या उन्होंने दी नहीं . वहाँ टैक्सी  एजेंट बैठा रखा था जिसने बताया कि टैक्सी बुक करवा लो वह सब घुमा लायेगा .
   दूसरे दिन हम भगवान भरोसे ट्रेन में सवार होकर राजगीर पहुंचे तथा होटल में रुक गए .  पास ही एक मारवाड़ी भोजनालय में भोजन किया . होटल वाले ने कोई जानकारी नहीं दी सिर्फ इसके कि टैक्सी बुलवा देते हैं ७०० रुपये लगेंगे . वह लगभग ४ घंटे में पावापुरी और नालंदा घुमा लायेगा . राजगीर तो तांगे पर ही भ्रमण पड़ता है क्योंकि तांगे वाले यहाँ टैक्सी वालों को नहीं चलने देते हैं . हम उससे संतुष्ट नहीं हुए . हमने सोचा कि साथ ही बस स्टैंड है . वहां से पूरी जानकारी लेकर जायेंगे .
      वहां एक मिनी बस चलने को तैयार थी . हमने उससे पूछा तो उसने कहा बैठिये , २० रुपये किराया लगेगा , पावापुरी में ही उतार देंगे, आधा घंटा समय लगेगा . हम सवार हो गए . २०-२५ मिनट में एक कसबे सिवली में बस रुकी . वहां अधिकाँश दुकाने खाजा से सजी थीं . खाज वहां का मुख्य उत्पाद है . हथेली के आकर की पतली पापड़ी की एक पर एक ४-५ फैली हुई परतों पर परते होती हैं . मीठा १०० रूपये किलो और नमकीन १२० रूपये किलो . हमने पूछा कि नमकीन मंहगा क्यों है तो दुकानदार ने बताया कि एक किलो में मीठे ३५-३६ खाजे तथा नमकीन लगभग ५५ खाजे चढ़ते हैं . खाना अच्छा लगता है पर ले जाना कठिन है क्योंकि स्थान ज्यादा घेरता है और जरा से दबाव से खाजा चूरा होने लगता है . हमने एक – एक  पाव ले लिये जिसने बैग में बहुत जगह घेर ली .
      आगे बढ़े तो हमने पावापुरी के १० – ८ -२ किमी के पत्थर देखे , कंडक्टर से पूछा भी परन्तु बस आगे बढती गई . एक घंटे बाद जब हमने उसे दबाव देकर पूछा तो उसने हमें उतार  दिया और एक शेयर्ड ऑटो में बैठा कर उससे कह दिया कि हमें पावापुरी उतार दे . उसने भी ८-८ रूपये किराया लिया और थोड़ी देर बाद  हमें पावापुरी के मोड़ पर उतार दिया . वहां तांगे वाले खड़े थे . पावापुरी की ५ रूपये सवारी . परन्तु हम दो थे . वहां तांगे  वाले ४ व्यक्ति मिलने पर ही चलते हैं हमने कहा कि उसे आने- जाने के ४० रूपये दे देंगे ,वह चल पड़ा . वह थोड़ी दूर चलने के बाद कहने लगा कि वह पास के मंदिर में जा रहा है , वहां ४ मंदिर हैं . दूर बहुत अच्छा दिगंबर जैन मंदिर है , वहां के १०० रूपये लगेंगे . हमने कहा कि उसने यह पहले क्यों नहीं बताया ? वह जान गया था कि हम बाहरी व्यक्ति हैं और नए हैं . हमारे पास समय कम था . लौटते समय नालंदा भी देखना था . अतः हम वहीँ तक गए .
    वहां श्वेताम्बर जैन मंदिर हैं . पावापुर महावीर स्वामी जी की निर्वाणस्थाली है . एक मंदिर एक बड़े सरोवर के मध्य स्थित है . सरोवर में कमल लगे हैं . उस समय कमल तो नहीं दिखे पर पूरा  सरोवर कमल के पत्तों से आच्छादित है . इसलिए उसकी रमणीयता दर्शनीय है . वहीँ पर पास में नया समोशरण मंदिर है जो बहुत सुन्दर है . पास ही धर्म शाला है जहां रुकने एवं भोजन की अच्छी व्यवस्था है  ताकि दूर – दूर से आने वाले लोग वहां रहकर धर्म लाभ कर सकें . वहां से लौटते समय तांगे में एक ब्रह्मदेव उपाध्याय भी थे जो नालंदा में जैन मंदिर में प्रबंधक हैं . पावापुरी मोड़ से हम उनके साथ मिनी बस में बैठे जो प्रत्येक ५ मिनट में आती रहती हैं . ५ रु किराया लेकर उसने हमें १०- १५ मिनट में नालंदा मोड़ पहुंचा दिया . वहाँ  से रिक्शे वाले ने १०- १० रु में ५ मिनट में नालंदा पहुंचा दिया . उन्होंने बताया कि समय कम है अतः हम पहले संग्रहालय देख लें फिर विश्व विद्यालय के अवशेष देखने जाएँ . कई वीथिकाओं में वहां के उत्खनन से प्राप्त मूर्तियां रखी हुई हैं जो इतिहास के विद्यार्थियों के लिए जिज्ञासा का विषय हैं . वहां से निकल कर हम विश्वविद्यालयके भग्नावशेष देखने गए . हमने सोचा कि स्वयं जाकर देख लेंगे , खंडहर ही तो हैं . परन्तु हम जैसे ही उस परिसर में गए और वहां आश्चर्य जनक भवनों के अवशेष देखे तो सिवाय पत्थर के हम कुछ न समझ सके  अतः डा खत्री बाहर द्वार तक गए और एक संक्षिप्त  गाइड ले आये क्योंकि साढ़े  चार बज चुके थे और एक ही घंटा वहाँ देख सकते थे . उसने संक्षेप में आधे घंटे में हमें उसके सम्बन्ध में जानकारी दी . प्रवेश करते समय एक गाइड २०० रु मांग रहा था परन्तु संक्षिप्त जानकारी के लिए उसने ५० रु लिए . परन्तु वह परम आवश्यक थी .
     नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना  चौथी या पांचवीं सदी में मगध के सम्राट कुमारगुप्त ने करवाई थी .उसके पश्चात हर्षवर्धन ने सातवीं सदी में उसका विकास एवं विस्तार किया . तत्पश्चात बंगाल के पाल राजाओं ने उसके विस्तार में अहम भूमिका निभाई . तीनों राजाओं के कार्य काल के निर्माण पृथक से दृष्टिगोचर होते हैं . निर्माण बड़ी – बड़ी ईंटें बनाकर किया गया है जो आज भी विद्यमान हैं . बिना सीमेंट की बनी वे दीवारे आज भी बहुत अच्छी स्थिति में हैं . दीवारें बहुत मोटी हैं . सामने बड़े-बड़े अध्यापन कक्ष है , उनके पीछे कुछ छोटे ध्यान कक्ष हैं . उनमें जल निकासी एवं वायु प्रवाह के लिए समुचित व्यवस्थाएं हैं . पीछे स्तूप खंड भी हैं . यह विश्वविद्यालय बौद्ध शिक्षा का विश्व प्रसिद्द केंद्र था . उसमें छात्रों को प्रवेश द्वारपाल के प्रश्नों का उत्तर देने पर ही मिलता था . कड़ी प्रवेश परीक्षा होती थी . उसमें १०००० हजार से अधिक छात्र तथा २००० शिक्षक एवं अन्य लोग कार्य करते थे . सैद्धांतिक के बाद ध्यान की परीक्षा भी उत्तीर्ण करनी होती थी . ध्यान की परीक्षा में भारतीय विदेशी छात्रों से पीछे रह जाते थे .
   विश्विद्यालय को कई सदियों तक राजा अपना पूरा सहयोग देते रहे . नालंदा के नाम २०० गाँव थे जिनकी आय से उसका व्यय चलता था . अन्य किसी सन्दर्भ में राजा कोई हस्तक्षेप नहीं करते थे . उसके विशाल भग्नावशेषों को देखकर भारत की प्राचीन गौरवमयी संस्कृति एवं ज्ञान के विस्तार का अनुमान लगाया जा सकता है . ११९३ में बख्तियार खिलजी ने नालंदा पर आक्रमण कर दिया था . उसने सम्पूर्ण विश्विद्यालय को आग के हवाले कर दिया तथा कत्लेआम का आदेश दिया ताकि कोई भारतीय विद्वान् जीवित न बचे . सभी छात्रों तथा शिक्षकों को, जो सामने आ गए,  कत्ल कर दिया गया . वहां महीनों तक आग जलती रही . बाद में ये अवशेष  भूमिगत हो गए थे जो खुदाई के बाद निकले हैं .
      बख्तियार खिलजी दक्षिणी अफगानिस्तान का रहने वाला तुर्क था . वह पहले कुतुबुद्दीन ऐबक की सेना में भरती होने आया परन्तु वहां उसे अच्छा पद नहीं मिला . इधर – उधर प्रयास करता हुआ वह अवध पहुंचा . वहां के सरदार ने उसे अपने साथ रख लिया तथा उसे मिर्जापुर में एक जागीर दे दी . उसने अपनी सेना बनाई तथा छुटपुट हमले करता रहा और सफलता प्राप्त करता गया . ११९३ में उसने बिहार पर आक्रमण किया तथा एक भाग पर कब्ज़ा कर लिया . उसी समय नालंदा पर भी आक्रमण हुआ था . १२०३ में उसने बिहार पर कब्ज़ा कर लिया . १२०६ में वह बंगाल पहुंचा जहां उस समय लक्ष्मण पाल का शासन था . बख्तियार खिलजी अपने १८ सैनिकों के साथ आगे निकल गया था . वहां किसी ने उसका सामना ही नही किया, राजा भाग गया . बंगाल खिलजी का हो गया . उसी वर्ष उसने तिब्बत पर आक्रमण किया जाते समय अपने परम विश्वसनीय सरदार अली मर्दान  खिलजी को घोड़ा घाट उपजिले में राज्य की व्यवस्ता के लिए नियुक्त कर दिया . बख्तियार तिब्बत से घायल और बीमार होकर लौटा . घोड़ा घाट में अली की देखरेख में उपचार और विश्राम करने लगा . सुअवसर देख कर अली ने उसकी हत्या कर दी .    

   साढ़े पांच बजे सुरक्षा कर्मी सबको ढूंढ – ढूंढ कर वहां से बाहर कर रहा था . खत्री जी रात्रि भोजन नहीं करते हैं . परिसर के बाहर वहाँ सिर्फ  एक टपरे वाला होटल है . वहीँ भोजन करना पड़ा . हमें ज्ञात हुआ कि राजगीर के लिए  अंतिम बस ७ बजे जाती है . हमारे आलावा वहां बाहर मोड़ तक आने वाले लोग नहीं थे . अतः शीघ्रता से एक तांगे वाले को ४ सवारी का पैसा ४० रु देकर बाहर तक आये . बस ने १०-१० रु में हमें २०-२५ मिनट में राजगीर पहुंचा दिया . तब हमें समझ आया कि अपरान्ह बस वाले कंडक्टर ने हमसे धोखा किया था . ५ रु किराये के लालच में वह हमें दूर तक ले गया जिससे हमारे डेढ़ – दो घंटे का समय बर्बाद हो गया . परन्तु हमने वहां लोगों को जितनी निकट से देखा वह उनसे दूर रह कर समझना संभव नहीं है .      ( क्रमशः )

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