तृष्णा का अर्थशास्त्र
मनुष्य की आवश्यकताएं , इच्छाएँ , क्षमताएँ ( जिनमें शारीरिक, मानसिक, आर्थिक क्षमताएं सम्मिलित हैं ), वस्तुओं की आपूर्ति और परिस्थितियां किसी समाज का ताना बाना बुनती हैं . इन्हीं के संयोग से सामाजिक , आर्थिक , राजनैतिक , शैक्षणिक , विधिक आदि विभिन्न व्यवस्थाएं निर्मित होती जाती हैं . मनुष्य की आधारभूत आवश्यकताएं भोजन, कपड़ा और मकान हैं . उसकी इच्छाएँ आवश्यकता तुष्टि के आगे आनन्द तक होती हैं . आनन्द के विविध आयाम हैं . भगवान की उपासना में लीन रहना, अपनी इच्छाओं की पूर्ति करना , गीत-संगीत में मस्त होना , विभिन्न वस्तुओं का सृजन करना, अनेक वस्तुओं का संग्रह करना, नवीन आविष्कार करना, लोगों का कल्याण करना, लोगों को कष्ट देना आदि विविध प्रकार से मनुष्य आनन्द की अनुभूति करता है . सामान्य रूप से वस्तुओं की आपूर्ति होने पर ही व्यक्ति उन्हें प्राप्त कर पाता है परन्तु ऐसे लोग भी होते हैं जो विचित्र कल्पनाएँ करते हैं और अपनी मानसिक क्षमताओं से अनेक नई वस्तुओं का अविष्कार करते हैं जो बाद में लोगों की आवाश्यकता बन जाती हैं . जिस व्यक्ति ने प्रथम बार सोचा होगा कि आसमान में उड़ना है और जिसने सोचा होगा चाँद – तारों की यात्रा करनी है , लोगों ने उनका कितना उपहास किया होगा . नए रूप में गणित का प्रयोग करना और कम्प्यूटर क्रांति करना और चाँद की यात्रा करना , सब कुछ स्वचालित होना आदि घटनाएं अस्वाभाविक और काल्पनिक इच्छाओं के परिणाम स्वरूप ही संभव हुई हैं . इस प्रकार विश्व का विकास ही मनुष्य की इच्छा शक्ति और उसकी असीमित क्षमताओं के कारण होता आ रहा है .
कुछ लोगों की मान्यता है कि इच्छाएँ न्यूनतम हों . अर्थ शास्त्री जेके मेहता कहते हैं कि इच्छाएँ ही दुःख का कारण हैं . अतः इच्छाओं का न्यूनतम होना व्यक्ति के आनन्द और सुख के लिए आवश्यक है . वे तुष्टि को सुख का कारण नहीं मानते . महात्मा गाँधी भी इच्छाओं के संयम के पक्षधर रहे हैं . परन्तु इच्छाओं के न रहने से तो विकास ही नहीं होगा , नवीन अविष्कार ही नहीं होंगे तथा जो वस्तुएं उपलब्ध होंगी , मांग के अभाव में वे भी विलुप्त होने लगेंगी . शरीर का निर्माण भौतिक वस्तुओं से होता है , उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति भी भौतिक वस्तुओं से होगी . जिसे हम आत्मा कहते हैं , वह बिना शरीर के कुछ नहीं कर सकती . अतः शरीर के सुख की उपेक्षा न तो संभव है और न ही उचित . उसी शरीर के सुख के लिए मनुष्य सदैव प्रयत्न शील रहता है . कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश साधु–सन्यासी भी , जो जनता को मोहमाया छोड़कर ईश्वर भजन का उपदेश देते है, अपने शारीरिक सुख के लिए तत्पर रहते हैं . अधिकांश सन्यासी स्वयं साधन संपन्न गृहस्थों पर निर्भर होते हैं . इच्छाओं का न होना सन्यास ही नहीं , अज्ञानता एवं मूर्खता के कारण भी होता है . ३०० वर्ष पूर्व अफ्रीका और अमेरिका के मूल निवासी अपनी अज्ञानता के कारण वन्य प्राणियों एवं उत्पादों पर निर्भर करते थे . उनकी इच्छाएँ और आवश्यकताएं बहुत सीमित थीं . क्या उन्हें सुखी कहा जा सकता है ? उनके अज्ञान एवं दुर्बलता का लाभ उठाकर चालाक यूरोप वासियों ने अफ्रीका वासियों को अनेक पीढ़ियों तक गुलाम बनाकर तथा यातनाएं दे देकर अनेक वर्षों तक अमेरिका में स्थापित अपने उपनिवेशों में काम करवाए . उन्होंने अमेरिका के अधिकांश मूल वासियों का तो सफाया ही कर दिया . व्यक्ति इच्छाओं का परित्याग करके भाग कर कहाँ जायेगा ?
इच्छा के अभाव में व्यक्ति काम करने के लिए प्रेरित ही नहीं हो सकता है . इच्छाओं की पूर्ति होने पर व्यक्ति प्रसन होता है , इच्छा की पूर्ति न होने पर व्यक्ति क्षुब्ध होने लगता है , वह निराश भी हो सकता है और उसे क्रोध भी आ सकता है . अतः इच्छाओं की सीमा क्या होनी चाहिए जिससे व्यक्ति अपना जीवन सहजता से व्यतीत कर सके ? इसे तृष्णा के अर्थशास्त्र की विवेचना से अच्छी प्रकार समझा जा सकता है .
तृष्णा का अर्थशास्त्र , अर्थशास्त्र की वह शाखा है जिसमें व्यक्ति की तीव्र इच्छाओं से उत्पन्न अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया जाता है .इसमें इच्छित वस्तु सुख का साधन न होकर स्वयम साध्य हो जाती है . यद्यपि इसका सम्बन्ध मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं से नहीं है परन्तु वर्तमान अर्थव्यवस्था मनुष्य की तृष्णाओं से ही संचालित होती प्रतीत होती है . आज मोबाईल छोटे से छोटे व्यक्ति की भी आवश्यकता बन चुका है परन्तु उसमें यह तृष्णा होना कि उसके पास सर्वश्रेष्ठ मोबाईल ही होना चाहिए अथवा किसी व्यक्ति के पास अच्छी कार है परन्तु उसकी तीव्र इच्छा रहती है कि उसकी कार सर्वश्रेष्ठ होनी चाहिए या अनेक परिधान होते हुए भी किसी महिला की इच्छा होना कि उसके पास वैसे वस्त्र नहीं हैं जो अन्य के पास हैं , जैसे अनेक उदाहरण हो सकते हैं जहाँ व्यक्ति को उस वस्तु की व्यावहारिक आवश्यकता नहीं है परन्तु वह उसे पाने की तीव्र इच्छा रखता है . यह अर्थशास्त्र उस अर्थशास्त्र से भिन्न है जो कहता है कि पेट भरा होने पर व्यक्ति के लिए भोजन की उपयोगिता नहीं रह जाती है अथवा आपूर्ति अधिक होने पर वस्तु का मूल्य कम हो जाता है या क्रय क्षमता न होने पर व्यक्ति वस्तु को प्राप्त नहीं कर सकता है .
सर्वप्रथम आर्थिक रूप से सक्षम व्यक्तियों की चर्चा करते हैं . जो आर्थिक रूप से सक्षम है वह अपनी तृष्णा की पूर्ति सहजता से कर लेता है . वस्तु क्रय करने में उसे कोई असुविधा न हो , इसके लिए बैंक अनेक प्रलोभन देकर क्रेडिट कार्ड वितरित करते रहते हैं . प्रत्यक्ष रूप से वे क्रेडिट कार्ड से लाभ देने के लिए कहते हैं परन्तु उसमें अनेक छुपे हुए प्रावधान होते हैं जिससे वे ग्राहक से धन वसूलते रहते हैं . कर्जे लेने की प्रवृत्ति बढ़ने से व्यक्ति वह सामान भी लेता जाता है जिसकी उसे विशेष आवश्यकता न हो . इससे अनेक कम्पनियाँ नए – नए उत्पाद बाजार में लाती जाती हैं . अपना व्यवसाय बढ़ाने के लिए वे विज्ञापन पर भी बहुत धन व्यय करती हैं . बड़े- बड़े खिलाड़ी , अभिनेता उनके विज्ञापनों से करोड़ों रूपये अतिरक्त आय प्राप्त करते रहते हैं . इससे मीडिया तथा पत्र - पत्रिकाओं का जीवन चलता ही नहीं बल्कि दौड़ता है .
इस व्यव्स्था से उद्योग – व्यवसाय की बहुत प्रगति होती है . नए – नए उत्पादों का आविष्कार होता जाता है, रोज़गार के अनेक नए अवसर उपलब्ध होते हैं . कंपनिया नए आविष्कारों और उत्पादों के निर्माण के लिए तकनीकी व्यक्तियों को अत्यधिक उच्च वेतन देती हैं . कुछ वस्तुएं अनावश्यक हो सकती हैं परन्तु अनेक नई वस्तुओं से व्यक्ति का जीवन स्तर भी ऊपर उठता है . इसी के परिणाम स्वरूप आज श्रमिक भी स्कूटर – मोटरसाइकिल पर चल रहा है , मोबाईल का प्रयोग कर रहा है , अच्छे वस्त्र पहन रहा है , अपने बच्चों को घटिया सरकारी स्कूलों के स्थान पर निजी संस्थाओं में पढ़ा रहा है और इसके लिए वह पर्याप्त परिश्रम भी करता है , उनकी महिलाएं लोगों के घरेलू काम करके घर के व्यय पूरे करने के लिए संघर्ष करती हैं . कुल मिलाकर समाज प्रगति करता जाता है . देश में धनवानों अर्थात पूँजीवाद का बोलबाला होने लगता है , व्यवस्थाओं का निजी करण होने लगता है और पूँजी पति अपने देश का धन कमाने के बाद दूसरे देशों में धन के शिकार पर निकल पड़ते हैं .
इसके ऋणात्मक पक्ष भी सामाजिक अर्थ व्यवस्था को बहुत प्रभावित करते हैं . कर्जे लेने और देने की प्रवृत्ति के कारण ही अमेरिका और यूरोप के देश मंदी में फंस गए थे . एक कार की कंपनी अपने उत्पाद बढ़ाती है , उसकी आय बढ़ती है . उसे देख कर अनेक कार कम्पनियाँ अपने उत्पाद बनाने और उनका विस्तार करने लगती हैं . प्रतिद्वंदिता के परिणाम स्वरूप उनका मूल्य सीमित रहता है . कार उद्योग से सम्बंधित सहायक उद्योग भी तीव्रता से बढ़ते जाते हैं . मंदी की स्थिति आने पर ऐसे उद्योग से जुड़े लोगों का जीवन यापन भी कठिन हो जाता है और बेरोजगारी तेजी से बढ़ने लगती है . ऐसे उद्योगों में कार्यरत लोगों ने जो कर्जे ले रखे थे , वे उन्हें चुकाने में असमर्थ हो जाते हैं जिससे बैंकों का दिवाला निकल जाता है अर्थात जिन लोगों ने अपने परिश्रम से धन कमाकर बैंकों में जमा किया था , उनका सारा धन लुट चुका होता है . यह खतरा सर्वाधिक भूमि और भवन उद्योग से जुड़े लोगों में होता है जहां भूमि के भाव कृत्रिम रूप से बढ़ा दिए जाते हैं .
जो लोग अपनी सीमित आय में तृष्णा के कारण अनावश्यक व्यय करते हैं वे या तो ऋण ग्रस्त रहते हैं या उनकी पूर्ति के लिए ललचाते रहते हैं . उनके लिए वस्तुएं बहुमूल्य हो जाती हैं , आदमी छोटा हो जाता है . इससे अनेक लोग अपने नैतिक दायित्वों से दूर होते जाते हैं . विवाह के बाद या कभी – कभी पहले भी लोग अपने माता – पिता के भरण-पोषण से भी विमुख हो जाते हैं , भाई – बहनों के दायित्व की बात कौन कहे . पहले लोग पारिवारिक दायित्व हर मूल्य पर निभाते थे , आज वे इसके लिए अपनी किसी सुख – सुविधा को कम नहीं करना चाहते . जो लोग ऋण के भार से दब जाते हैं या जो धनाभाव में तृष्णा को पूरा नहीं कर पाते वे हीनता काम्लेक्स में फंस जाते हैं और स्वयं को अक्षम , अभाग्यशाली या दुर्भाग्यशाली मानने लगते हैं और जीवन में अनावश्यक कष्ट एकत्र कर लेते हैं . वे आनंद के स्थान पर तनाव में रहने लगते हैं , अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं , चिड़चिड़े हो जाते हैं , आत्महत्या तक कर लेते हैं .
जो लोग तृष्णा पूरी करने के लिए धन नहीं रखते , फिर भी पूरी करना चाहते हैं , वे चोरी, छीना–झपटी, धोखाधड़ी जैसे अपराधों में लिप्त होते जाते हैं . इसका सर्वाधिक घृणित पक्ष है व्यक्ति का धन को साध्य मानना . अधिकारी , नेता गण प्रारम्भ में अपनी सुख सुविधाएं जुटाने के लिए भ्रष्टाचार करते हैं . परन्तु धीरे-धीरे धन ही उनके लिए साध्य हो जाता है . ऐसे लोग देश, समाज, मानवीयता आदि से कोई सम्बन्ध नहीं रखते . उनका एक ही कार्य होता है धन और अधिक धन एकत्र करते जाना . अनेक अधिकारीयों – नेताओं के घर छापे में करोड़ों रूपये प्राप्त होते हैं . वे कभी भ्रष्टाचार द्वारा अर्जित धन लाकरों में रखते हैं तो कभी गद्दों में भर कर उस पर सोते हैं . भारत के चारा घोटाले से लेकर राष्ट्र मंडल , टूजी , कोलगेट आदि के घोटाले इसी धन तृष्णा के परिणाम स्वरूप हुए हैं . राष्ट्र से गद्दारी करते हुए ऐसे लोग बड़े – बड़े सौदों में अरबों डालर की घूंस खाते हैं , गबन करते हैं और काला धन विदेशों में जमा करते जाते हैं . इसी भ्रष्टाचार कारण भारत में सरकारी योजनाएं वर्षों तक लटकाई जाती हैं जिससे उनकी लागत बढ़ती जाती है और जनता को उसकी भरपाई करनी पड़ती है . बड़े-बड़े अस्पताल और सरकारी डाक्टर तथा मंत्री लोगों के जीवन का सौदा करके धन अर्जित करते है , निजी शिक्षण संस्थान धन देकर लाइसेंस खरीदते हैं और फिर डिग्रियां बेचने का व्यवसाय करते हैं . डान अपनी दादा गीरी से धन लूटते हैं .यह सब उसी धन तृष्णा के कारण होता है .
भारत में इसी तृष्णा का लाभ उठा कर नेता जनता को भिन्न – भिन्न प्रकार के मंहगे सामान, कर रियायतें, मुफ्त की बिजली, पानी, मकान, कर्जे माफ़ी आदि का लालच देकर चुनाव जीतते हैं और जम कर भ्रष्टाचार करते है। कर से प्राप्त धन से वस्तुएं खरीद कर वे लोगों में बाँट देते हैं, अनेक लोगों को उपयोगी वस्तुएं मिल जाती हैं , उनका जीवन स्तर उठ जाता है , उद्योगों-व्यवसायियों को भी अर्थ लाभ होता है मंहगाई बढ़ती जाती है परन्तु इससे देश के विकास के लिए धन उपलब्ध नहीं हो पाता है . मुद्रा स्फीति होतीं जाती है। धनाभाव होने के कारण बेरोजगारी बढ़ती जाती है . इसलिए देश और राज्यों में सरकारी कार्यालयों तथा उपक्रमों में लाखों पद रिक्त पड़े हैं और युवक बेरोजगार घूम रहे हैं . इसी भ्रष्टाचार के कारण भारत सरकार ने देश के निर्यात को बाधित किया और आयात को अनेक प्रकार की छूट तथा प्रोत्साहन दिए जिससे भारत का चालू खाता घाटा बहुत बढ़ गया और विकास दर कम हो गई .
यदि तृष्णा सीमित हों अर्थात व्यावहारिक इच्छाएँ हों तो लोग उसके लिए प्रयास करते हैं जिससे आर्थिक विकास सही ढंग से होता है . तृष्णा पर नियंत्रण का मुख्य आधार न्याय व्यवस्था होती है जिसमें अनुचित ढंग से धन लाभ करने के लिए कठोर दंड के प्रावधान हों . भारत के न्यायालयों में अनेक वर्षों तक निर्णय ही नहीं दिए जाते जिससे यहाँ भ्रष्टाचार दिन-रात प्रगति करता जाता है . इसीलिए भारत विश्व के भ्रष्टाचारी देशों में गिना जाता है .
इस व्यवस्था में व्यक्ति शीघ्रातिशीघ्र बिना परिश्रम के अमीर बनना चाहता है, मुफ्त में धन एवं वस्तुएं प्राप्त करना चाहता है . भारत में मुफ्तखोरी और कामचोरी का भी यही कारण है . इसी के कारण भारत में श्रमिकों एवं कर्मचारियों- अधिकारीयों का वेतन तो तीव्र गति से बढ़ रहा है परन्तु कार्य संस्कृति नष्ट हो रही है . तृष्णा के अर्थशास्त्र में प्रत्यक्ष रूप से यद्यपि आर्थिक प्रगति दृष्टिगोचर होती है परन्तु अंततः यह मानवता के लिए अभिशाप है .
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