चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य
भारतीय इतिहास में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का स्थान अद्वितीय है . चन्द्रगुप्त प्रथम ने गुप्त साम्राज्य की स्थापना की थी . उनके सुपुत्र सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया . समुद्रगुप्त के द्वितीय पुत्र चन्द्रगुप्त न केवल एक पराक्रमी सम्राट थे अपितु उनमें एक महान पुरुष के सभी गुण विद्यमान थे . उनके समय में चीनी यात्री फाह्यान भारत आया था . उसने लिखा है कि लोग अहिंसक और शांति प्रिय थे . वह अनेक वर्षों तक भारत में रहा तथा उसने उसके साम्राज्य में अनेक यात्राएं कीं . उसका कभी भी किसी चोर – लुटेरे से सामना नहीं हुआ न ही उसने कभी कहीं चोरी की घटना के सम्बन्ध में सुना . उसने लिखा है कि देश में व्यापार – व्यवसाय की स्थिति अति उन्नत थी . लोग संपन्न और सुखी थे तथा मानवीयता से परिपूर्ण थे . शिक्षण संस्थाओं को सहयोग देना , धार्मिक संस्थाओं को दान देना और परस्पर सहयोग करना लोगों की स्वाभाविक प्रकृति थी . उनके काल में धर्म , दर्शन ,ज्योतिष , खगोल शास्त्र , गणित , विज्ञान , आयुर्वेद , साहित्य और कलाओं आदि की भी बहुत उन्नति हुई . इसलिए उनके शासन काल को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहा जाता है .
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समुद्रगुप्त के बाद उसका बड़ा पुत्र रामगुप्त मगध की गद्दी पर बैठा . वह कायर और अयोग्य शासक था . उसके राज्य पर शक राजा ने आक्रमण किया तो वह सेना समेत शक सेना से घिर गया . वह मारा भी जा सकता था . समर्पण भाव से वह शकराज से समझौते की याचना करने लगा . शकराज ने उसकी दीनहीन हालत देखी तो दया के नाम पर अपमानित करने को उद्यत हो गया . महान समुद्रगुप्त का पुत्र उसकी शरण में था . शकराज ने एक शर्त यह भी रखी कि यदि वह वास्तव में संधि चाहता है तो गुप्त सम्राज्ञी ध्रुवस्वामिनी को उसकी सेवा में प्रस्तुत करे और उनके अधिकारियों की स्त्रियाँ शक नायकों की सेवा में उपस्थित हों . कोई भी राजा इतनी अपमान जनक संधि करने की अपेक्षा युद्ध में मर जाना पसंद करेगा परन्तु कायर रामगुप्त ने शकराज की शर्त स्वीकार कर ली और सम्राज्ञी से कहा कि वह उसकी सेवा में जाये . ध्रुवस्वामिनी ने इसका विरोध किया परन्तु रामगुप्त कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं हुआ . महल में कोहराम मच गया . अंत में ध्रुवस्वामिनी और अन्य स्त्रियों की शकसेना के शिविरों में जाने की व्यवस्था की गई . शकराज अपनी अद्भुत विजय पर फूला नहीं समा रहा था . शक सेना नायक भी इससे अत्यंत प्रसन्न थे . पूरे शिविरों में विजयोत्सव का माहौल था .
रात्रि में महारानी और अन्य स्त्रियों के डोले उनके शिविरों में पहुंचे . शकराज और सेना नायक सुरापान करके उनकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे . परन्तु थोड़ी ही देर में शिविरों का आनन्दोत्सव कोहराम और चीखों से दहल उठा . जब महारानी ध्रुवस्वामिनी रामगुप्त की घृणित इच्छा को पूरा करने का विरोध कर रही थी , उसके देवर चन्द्रगुप्त ने उससे कहा कि वह हाँ कर दे . शेष वह संभाल लेगा . शिविरों में जाने वाले डोले में ध्रुवस्वामिनी के स्थान पर चन्द्रगुप्त स्वयं बैठा था अन्य डोलों में उसके चुने हुए सैनिक थे . स्त्रीवेश में जब वे शिविरों में पहुंचे , राजा और सेनापति मस्त भाव में उनका स्वागत करने को तत्पर हुए . चन्द्रगुप्त और उसके साथियों ने बिना विलम्ब किए उनपर आक्रमण कर दिए जिससे राजा समेत सभी सेना नायक मारे गए . उसी समय चन्द्रगुप्त की सेना ने पूरे शिविर पर हमला बोल दिया . रात्रि का समय था , कोई अधिकारी , सेनापति , राजा आदेश देने वाला न था . भयभीत होकर सैनिक भाग खड़े हुए अथवा मारे गए जबकि गुप्त सेना की कोई विशेष क्षति नहीं हुई .
मगध राज्य की जनता शकराज से हार के कारण बहुत दुखी थी . रामगुप्त द्वारा ध्रुवस्वामीनी को उन्हें समर्पित करने की बात से तो सभी बहुत क्षुब्ध और क्रोधित थे . जब उन्हें चन्द्रगुप्त की वीरता , साहस और पराजय को विजय में बदलने का समाचार मिला तो लोग ख़ुशी से झूम उठे . इससे चन्द्रगुप्त की प्रतिष्ठा में बहुत वृद्धि हो गई . परन्तु रामगुप्त इससे बहुत भयभीत हो गया और चिढ़ गया क्योंकि वह एक वीभत्स खलनायक बनकर उभरा था . सत्ता , सेना और कोष अभी उसके अधिकार में ही थे . उसने चन्द्रगुप्त को बंदी बनाने का प्रयास किया या अन्य प्रकार से प्रताड़ित करने के , यह इतिहास में गुम है . भाई से संघर्ष में अंततः चन्द्रगुप्त ने सत्ता पर अधिकार कर लिया . सैन्य अधिकारी , मंत्री परिषद् और प्रजा सभी चन्द्रगुप्त को राजा के रूप में चाहते थे . ध्रुवस्वामिनी ने रामगुप्त के साथ रहने से इन्कार कर दिया था क्योंकि उसने अपनी जान बचाने के लिए महरानी को शकराज की सेवा में भेजने की अत्यंत अपमान जनक शर्त स्वीकार की की थी . सत्ता संघर्ष में रामगुप्त मारा गया या कहीं भाग गया अज्ञात है . ध्रुस्वमिनी ने चन्द्रगुप्त से विवाह कर लिया और पुनः मगध की पट्टाभिमहारानी बन गई .
चन्द्र गुप्त ने तत्कालीन समय में प्रचलित विदेश नीति के अनुसार शक्तिशाली शासकों से विवाह सम्बन्ध स्थापित किये . उसका विवाह नागवंश की राजकुमारी कुबेर नागा के साथ हुआ था और उससे उत्पन्न पुत्री प्रभावती का विवाह उसने वाकाटक नरेश ( वर्तमान दक्षिण म.प्र., आन्ध्र , उड़ीसा का क्षेत्र ) से किया था . गुजरात के शक राजा पर आक्रमण के समय वाकाटकों से खतरा उत्पन्न हो सकता था जो विवाह सम्बन्ध होने पर सहयोग में बदल गया .
समुद्र गुप्त के राज्य का विस्तार यद्यपि बहुत था परन्तु अनेक राजा नाम मात्र के ही आधीन थे . व्यवस्था की दृष्टि से बड़े साम्राज्य में नए शासक बैठाना आसन नहीं होता था . अतः कर लेकर उसी राजा को शासन करने देते थे . जब सम्राट कमजोर पड़ता जैसे रामगुप्त , तो वर्षों के परिश्रम से राज्य के आधीन लाए गए राजा एक ही झटके पुनः स्वतन्त्र हो जाते और राज्य पर आक्रमण भी करने लगते थे . एक शक राजा ने मगध पर आक्रमण किया था और मारा भी गया था . एक अन्य शक राजा रुद्रसिंह त्रितीय काठियावाड़ , गुजरात और मालवा का शासक था . चन्द्रगुप्त ने उसे हराकर उसके राज्य को अपने राज्य में मिला लिया . इसके बाद उसने वाल्हीक राज्य जो वर्तमान अफ्गानिस्तान तक फैला हुआ था को अपने अधिकार में ले लिया . पूर्व में बंगाल तक उसका राज्य था . प्राचीन भारत की परम्परानुसार चन्द्रगुप्त ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की . उसका शासन काल ३८० से ४१५ ईसवी तक अनुमानित है . यह विश्वास किया जाता है कि पूर्व से प्रचलित पंचांग को उन्होंने विक्रम सम्वत नाम दिया . उनके मगध राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी परन्तु शासन व्यवस्था की दृष्टि से उन्होंने उज्जयिनी को अपनी दूसरी राजधानी बनाया .
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य अपने दरबार के नवरत्नों के कारण अधिक विख्यात हुए . संस्कृत के अमर कवि कालिदास , प्रसिद्द ज्योतिष विद्वान वराहमिहिर , आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरी जैसे विख्यात विद्वान् उनके दरबार की शोभा बढ़ाते थे . दिल्ली में क़ुतुब मीनार के पास स्थित लौह स्तम्भ उनके कार्यकाल का माना जाता है जिस पर आज तक जंग नहीं लगा है . आज के वैज्ञानिक उस रासायनिक विधि को नहीं खोज पाए हैं जिससे जंग रहित लौह वस्तुएं बनाई जा सकें . उस काल में २४ फीट लम्बे और १८० मन ( लगभग किलो ) को किस विधि से गोल ढाला गया था यह भी आश्चर्य का विषय है .
उस काल का इतिहास ज्ञात करने के पर्याप्त स्रोत नहीं हैं . गुप्त काल का शासन २५० वर्ष से अधिक समय तक रहा है . इतिहास में इस पूरे काल की आर्थिक , सामाजिक , धार्मिक , वैज्ञानिक , साहित्य एवं कलाओं के विकास का वर्णन किया गया है . अतः चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में किस क्षेत्र में कितना विकास हुआ स्पष्ट नहीं है .
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में व्यापार बहुत उन्नत था . पाटलिपुत्र ( पटना ) से कौशाम्बी , उज्जयिनी होते हुए एक सड़क गुजरात में भडोंच बंदरगाह तक जाती थी .यह बहुत उन्नत नगर था यहाँ से समुद्री मार्ग से पश्चिमी देशों मिस्र, रोम, ग्रीस, फ़ारस और अरब देशों से व्यापार होता था .पूर्व में बंगाल की खाड़ी में ताम्रलिप्ति नामक बहुत बड़ा बंदरगाह था जहाँ से पूर्व एवं सुदूरपूर्व के देशों बर्मा, जावा, सुमात्रा, चीन आदि से व्यापार होता था .भारत से निर्यात होने वाले सामान में मुख्य रूप से मोती, मणि, सुगंधी, सूती वस्त्र, मसाले, नील, दवाएं, हाथीदांत आदि होते थे . विदेशों से चांदी, तांबा, टिन, रेशम, घोड़े, खजूर आदि मँगाए जाते थे .
उनके राज्य में इनके अतिरिक्त भी कई बंदरगाह थे, विद्या एवं व्यापार के विकसित केंद्र थे .
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य वैष्णव था परन्तु उसका सेनापति बौद्ध था . उस समय यज्ञ करने वाले , शिव, विष्णु एवं सूर्य के उपासक, जैन, बौद्ध सभी मतों के मानने वाले परस्पर प्रेम से रहते थे . धर्म के सिद्धांतों में उनमें परस्पर शास्त्रार्थ होते थे और जब संतुष्ट हो जाते थे तो दूसरा धर्म भी ग्रहण कर लेते थे . उन दिनों नालंदा विश्विद्यालय विश्वप्रसिद्ध शिक्षा , विशेष रूप से बौद्ध धर्म एवं दर्शन का केंद्र था .राजा उसके लिए समुचित सहयोग देता था . उस समय देश में लाखों बौद्ध भिक्खु थे जिनके निर्वाह के लिए राजा एवं प्रजाजन भरपूर सहयोग देते थे . कभी-कभी तो लोगों में दान-दक्षिणा देने की होड़ सी लग जाती थी .
फाहियान ने लिखा है कि उस समय राजा मृत्यु दंड नहीं देते थे . सामान्य रूप से अर्थ दंड लगता था परन्तु जघन्य अपराधों के लिए अंग भंग भी किये जाते थे . लोगों के सद्व्यवहार एवं आचार-विचार के लिए भी फाह्यान लिखता है कि लोग लहसुन-प्याज तक नहीं खाते हैं , सुरापान नहीं करते हैं . इतने बड़े देश में कहीं भी चोरों , डकैतों का भय न होना भी राज्य की बहुत बड़ी विशेषता थी जो संभवतः अन्य किसी राज्य में संभव नहीं रही है . धनी लोगों तथा जनता ने चिकित्सालय खुलवाए हुए थे जिनमें गरीबों तथा विकलांगों को , वे चाहे कहीं के भी हों , निःशुल्क चिकित्सा मिलती थी तथा उनके रहने का व्यय भी उठाया जाता था . उसने लिखा है कि मालवा की जलवायु सम है ,जनसँख्या अधिक है तथा लोग सुखी हैं . लोग राजा की जमीन जोतते थे और कर का भुगतान करते थे . वे कहीं भी आ-जा सकते थे तथा कोई भी व्यवसाय कर सकते थे .
फाह्यान ने राजा की उदारता, न्यायप्रियता तथा सुयोग्य शासन व्यवस्था की भूरि-भूरि प्रशंसा की है . सामान्य रूप से प्रजा सुखी तथा संतुष्ट थी . राजा की वीरता, साहस, दूरदृष्टि, सदाचरण, सुशासन ज्ञान, विज्ञान, धर्म, संस्कृति , साहित्य, कलाओं के विकास, सुदृढ़ आर्थिक व्यवस्था एवं प्रजा के सुख की दृष्टि से विश्व इतिहास के किसी भी राज्य से चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य और उनका राष्ट्र श्रेष्ठ थे . वे महान ही नहीं महानता के सर्वश्रेष्ठ मानदंड भी हैं .
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का इतिहास
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