शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

लोकतंत्र में कानून


                               
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        लोकतंत्र में कानून 
   राज्य की उत्पत्ति का पहला सिद्धांत प्रजा द्वारा राजा से क़ानून और न्याय व्यवस्था बनाए रखने का अनुरोध करना  ही कहा जाता है। इसलिए यदि न्याय व्यवस्था ठीक नहीं  है तो राज्य की आवश्यकता पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। प्राचीन भारतीय राजनीतिक दार्शनिक राजा और प्राजा दोनों को 'दण्ड' के अंतर्गत मानते थे।  भारत में निरंकुश राजा के परिकल्पना नहीं की गई है।  राजा अर्थात जो प्रजा का पुत्रवत पालन करे।  आततायी राजाओं को हटाने या मर देने तक का विचार हमारे मनीषियों ने दिया हाई।  प्रजा पर अत्याचार करने वाला कंस चंद्रवंशी क्षत्रिय था परन्तु उसे राक्षसों, दैत्यों जैसा ही माना गया है। तत्समय के एक आम युवक कृष्णा द्वारा उसका और उसके अत्याचारों का अत कर दिया गया था। अत्याचारी राजा वें को ऋषियों ने मार दिया था और प्रजापालक पृथु को राजा बनाया था।  न्याय का प्रथम सोपान सत्ता की सबके प्रति समान दृष्टि का होना है।  जो राजा इसमें विफल रहता है उसका शासन शीघ्र समाप्त हो जाता है। 
      भारत सारकार ने लोकपाल बिल पास किया है।  लोकपाल में सबसे प्रमुख व्यवस्था यह है कि उसमें ९ सदस्य होंगे जिनमें से एक-एक सदस्य अनुसूचित जाति  अनुसूचित जनजाति, अल्पसंख्यक वर्ग और महिला में से होंगे।  बहुसंख्यक वर्ग का सदस्य होना कोई अनिवार्यता नहीं है। ऐसा इसलिए किया गया है कि देश के बहुसंख्यक अर्थात हिन्दू लोग विश्वसनीय नहीं हैं, अन्य लोगों पर अत्याचार करते रहते हैं। लोकपाल बिल से यह प्रगट होता है कि भ्रष्टाचार भी सांप्रदायिक होता है और उसे सेकुलर किया जाना चाहिए।  देश की इस सेकुलर कांग्रेस ने सांप्रदायिक हिंसा निरोधक बिल में तो यह पूरी तरह स्पष्ट कर दिया कि यदि  देश के बहुसंख्यक हिन्दू महान अत्याचारी हैं और वे बेचारे निरीह अल्पसंख्यकों पर सदा अत्याचार करते रहते हैं जैसे १९८४ में कांग्रेस की प्रेरणा से सिखों का कत्लेआम किया गया था। उस बिल के अनुसार यदि किसी अल्पसंख्यक ने बहुसंख्यक अर्थात हिंदू पर माँरने-पीटने या बलात्कार का आरोप लगा दिया तो उस हिन्दू को सज़ा दी जायगी परन्तु कोई हिन्दू अल्पसंख्यक पर याह आरोप नहीं लगा सकता क्योंकि अल्पसंख्यक होने के नाते  व्ह कोई अपराध कर ही नहीं सकता है। यह  न्याय व्यवस्था पर सीधा प्रहार है जो पहले ही कह रही है कि कानून के सामनें सब सामान नहीं हैं। इतिहास में ऐसी व्यवस्थाएँ  कट्टर तानाशाहों और कट्टर धर्म पर आधारित सरकारों और शासकों की रही हैं।प्राचीन भारत में ऐसी न्याय व्यवस्था कुछ राक्षसों ( रावण )और दैत्यों ( हिरण्यकश्यप )  में प्रचलित थीं। 
        भारत में संसद और विधान सभाओं में तो होहल्ला होता है जिसमें जितनी उद्दंडता की जाए  उतनी अच्छी मानी जाती है।  किसे बिल के पक्ष या विपक्ष में वोट  देने का अधिकार केवल पार्टी प्रमुख का होता है , शेष सदस्यों को उसके तानाशाही पूर्ण आदेश के अनुसार अपना मत देना या नहीं देना होता है।  अतः कोई जनप्रतिनिधि उसमें अपने दिमाग खपाए भी तो किसके लिए।  इसलिए भारत में क़ानून लिपिक स्तर के लोग बनाते हैं और व्यवस्थापिका उसे पास कर देती है। परिणाम स्वरूप विभिन्न मुद्दों पर देश में भिन्न-भिन्न क़ानून बना दिया गए हैं जिनमे देश की सारी  न्यायव्यवस्था उलझ गई है। कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश जज किस- किस क़ानून को पढ़ें और समझें।  अतः वे निर्णय के स्थान पर तारीखें देकर अपनी नौकरी कर रहे हैं। परिणाम स्वरूप देश में तीन करोड़ से अधिक वाद लंबित हैं। क़ानून के इस जंगल में भ्रष्टाचारी, अत्याचारी, बेईमान, ठग, चोर, लुटेरे, डाकू, डॉन और आतंकवादी आदि  बड़ी शान-बान से रहते हैं। महिला उत्पीड़न के विरुद्ध कठोर बनते हैं और रेप की जघन्य घटनाएं इत्मीनान से होती रहती हैं, रैगिंग के विरुद्ध कठोरता की बात होती है और उससे बेफिक्र रैगिंग चलती रहती है।भ्रष्टाचार रोकने की बात की जाती है और भ्रष्टाचार रॉकेट के वेग से आकाश के उस पार उड़ जाना चाहता है।  मंहगाई सूर्य को भी बढ़ने के लिए आतुर दिखती है।    
    चूंकि  भारत में कानून की दृष्टि में सब बराबर नहीं हैं , इसलिए देश के कानूनों  का उद्देश्य विपक्ष को दण्डित करना होता है।  जैसे यदि महिला ने शिकायत की तो पुरुष को दण्डित करना है, बहू ने शिकायत की तो पुरुषों के अलावा उसकी सास, नन्द, भाभी, भतीजी , भांजी  और जिसे वह  कहे, कठोर दंड देना है। प्रेमिका ने शिकायत कर दी तो खैर नहीं है।  अनुसूचित वर्ग ने किसी सवर्ण के विरुद्ध शिकायत कर दी तो सवर्ण को बिना पूछे दंड देना ही है । आश्चर्य की बात है इसे विश्व के लोग भी लोकतंत्र कहते हैं।  अमेरिका में क़ानून जाति , धर्म, वर्ग, लिंग, सामाजिक प्रतिष्ठा आदि में भेद नहीं करता। इसलिए वहाँ अपराधी बच नहीं पाते और अधिकांश प्रकरणों में वे स्वयं अपनी गलती मान लेते हैं। वहाँ क़ानून सीमित और स्पष्ट हैं। इसलिए विकृत बुद्धि और विशेष परिस्थितियों को छोड़कर लोग स्वेच्छा से उनका पालन करते हैं।  
     लोकतंत्र में कानून का प्रथम प्रयास होगा कि लोग अपराध करें ही नहीं।  सामाजिक दबाव के सिद्धांत और लोक शक्ति के विस्तार से इसे व्यवहारिक रूप दिया जा जायेगा।  कानून का दूसरा कार्य है लोगों में पश्चाताप उत्पन्न करना।  अतः अचानक होने वाले अपराधों, जो परिस्थिति वश या अज्ञानता के कारण  हुए हों, में इस प्रकार के दण्ड दिए जांयगे जिनमें समाज सेवा का उद्देश्य निहित हो। आदतन अपराधियों , योजना बद्ध ढंग से अपराध करने वालों और जघन्य अपराधियों को कठोर सजाएं दी जांयगी।  सजा की परिमाण सबके लिए सामान न होकर अपराधी के पद और उसकी व्यापकता के आधार पर दिए जांयगे। सामन्य व्यक्ति , आदतन अपराधी , अधिकारी, पुलिस, प्रशासक, मंत्री, जज आदि को उत्तरोत्तर कठोर दण्ड दिए जांयगे। प्राचीन भारतीय व्यवस्था में ऐसे ही विधान थे।  
        भारतीय कानून व्यवस्था का सबसे बड़ा दोष है न्य़ायालयों का कार्यपालिका अर्थात मंत्री मंडल के आधीन होना। मंत्रिमंडल  के व्यवहारिक प्रमुख की इच्छानुसार ही क़ानून बनते हैं जिनके अनुसार जज निर्णय देते हैं।  सभी जज जानते हैं कि सारकार के निर्णय मंत्रियों के आदेश पर होते हैं।  परन्तु राज्य के विरुद्ध मुकदमों में वे सारा दोष सचिवों  या प्रमुख सचिवों का मानते हैं और दंड का भागी भी उन्हें ही बनाया जाता है।  और ऊससे भी अधिक विचित्र बात ब्याह है कि यदि जज किसी प्राश्निक अधिकारी को दंड देते हैं तो उसे जनता के टैक्स के धन से देना होता है , कुर्क होती है तो उनके कार्यालय की संपत्ति अर्थात जनता की संपत्ति होती है।  जो न्याय व्यवस्था जनता धन को अधिकारी का धन मानती हो , मंत्री का धन मानती हो, वह  स्वाभाविक रूप से  उन्हें ही अपना दाता भी मानती होगी क्योंकि वे ही अपने जनता धन से न्यायालयों को सारी सुविधाएं देते है, जजों को वेतन और निजी सुविधाएं देते हैं और अवकाश ग्रहण करने पर बड़े जजों को पुनः सम्मानजनक पद देते हैं।
  
   भारतीय संविधान की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि उसमें सरकार के गठन और अधिकारों आदि के सन्दर्भ में कुछ भी नहीं लिखा है।  फिर ये नेता , ये मंत्री सवयम को सरकार कैसे कहने और समझने लगे।  न्यायालय स्वयं  सरकार का  हिस्सा हैं परन्तु जब वे भी उन्हें सरकार कहने और मानने लगे तो उनमे तानाशाही आना और मनमानी करना स्वाभाविक है क्योंकि सरकार का अर्थ ही है जो सम्प्रभु है और जो चाहे, जैसे चाहे कर सकती है। इस परिभाषा और व्यवहार से मंत्रियों के कोई भी कार्य न तो भ्रष्टाचार कहे जाने चाहिए और न ही उन पर ऊँगली उठाई जानी चाहिए।  अपने इन्हें अधिकारों का सदुपयोग करके प्रधान मंत्री इंदिरागांधी ने भ्रष्टाचारी सिद्ध होने पर आपात काल लगा दिया था और एकछत्र तानाशाह बन गई थीं और चाटुकारों ने हिटलर- मुसोलिनी की धुन पर इंदिरा इस इण्डिया और इण्डिया इस इंदिरा का स्तुतिगान प्रारम्भ कर दिया था।  न्यायालयों ने भी उन्हें सरकार मानने के कारन सही माना और उनकी इच्छानुसार न्याय किया।  पदों का दुरूपयोग रोकना यदि न्यायलय अपना दायित्व नहीं समझते तो प्रशासक और नेता अपनी मनमानी करने के लिए स्वतन्त्र हैं। संविधान की शपथ लेकर संवैधानिक पदों पर कब्ज़ा करने के बाद संविधान की धज्जियाँ उड़ाना अपना अधिकार समझने वाले शासक क़ानून से ऊपर होने के कारण आज देश संविधान के उद्देश्य -- देश में एकता और भ्रातृत्व भाव विकसित करना तथा व्यक्ति की गरिमा को स्थापित करना कहीं अंतरिक्ष में विलीन हो गए हैं। आज देश में व्यक्ति क्या  किसी पद की प्रतिष्ठा और गरिमा नहीं बची है जिसे लोग आदर की दृष्टि से देख सकें।    
       लोकतंत्र में न्यायालय सरकार का सबस प्रमुख हिस्सा होते हैं।  देश की सामाजिक,  राजनीतिक,  आर्थिक, शैक्षणिक आदि सभी व्यवस्थाओं को सतत रूप से प्रगति के पथ पर ले जाने  वाली न्याय प्रणाली को सुनिश्चित करना न्याय व्यवस्था का दायित्व है।  व्यवस्थापिका को कानून बनाने का अधिकार है परन्तु  अस्पष्ट, भेदभावपूर्ण और अनैतिकता को प्रभावित करने वाले कानून बनाने से रोकना न्यायालयों का कार्य है।  प्रशसनिक अधिकारीयों का दायित्व कानून के अनुसार कार्य  व्यवस्था को बनाए रखना है। छोटे अपराधों का त्वरित निर्णय करने का अधिकार उन्हीं का है परन्तु बड़े अपराधों एवं घपलों पर कार्यवाही का सारा दायित्व न्यायपालिका का ही है।  इसलिए राज्य एवं केंद्रीय स्तर पर सभी जाँच एजेंसियां जैसे एस टी एफ़ और सी बी आई तथा उन्हें सहयोग देने के लिए विशेष सुरक्षा बल न्यायालयों के अंतर्गत आने चाहिए। 
   कर विभाग के अधिकारी अपनी कार्यवाही करते रहेंगे परन्तु न्यायालयों को भी अधिकार होगा कि वे जानकारी मिलने पर छापे डलवाएं और कार्यवाही करें।  इससे कर चोरी की सेटिंग का स्तर न्यून हो जायगा।
     प्रशासनिक  स्तर पर प्रशासन एवं  न्याय अधिकारी पृथक हों तथा न्यायालयीन व्यवस्था में भी सतर्कता और न्याय अधिकारी या जज पृथक हों।  देश में जाँच के लिए बनाये गए जाँच आयोग सीधे न्यायलय के आधीन होंगे तथा न्यायाधीश उन पर सीधे कार्यवाही करेंगे किसी से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है।  कैग जैसी संस्थाएं अपने  प्रतिवेदन उच्च या उच्चतम न्यायलय में भी देंगी और उस पर स्पष्टीकरण मांगने तथा कार्यवाही का पूरा अधिकार भी न्यायालय को होगा। लोकपाल और लोकायुक्त जांच के पश्चात् अपना प्रतिवेदन किसी मंत्रिमंडल को नहीं देंगे, जांच उन्होंने की है , दंड भी वे ही देंगे अथवा सीधे न्यायालय को देंगे क्योंकि यदि किसी वरिष्ठ जज द्वारा की गई जाँच भी अविश्वसनीय है तो ऐसी न्यायव्यवस्था का अर्थ क्या है ? साथ ही उनकी जाँच स्वीकार करने या अस्वीकार करने का अधिकार मंत्रिमंडल के पास होने का अभिप्राय यही है कि न्याय व्यवस्था नेताओं- अधिकारीयों के आधीन है और न्यायलय अपने सामंतों की इच्छा का आदर करने के लिए बाध्य हैं।  लोकतंत्र में यह नहीं हो सकता। 
   लोकतान्त्रिक न्यायालयों द्वारा दिए गए  दण्ड के विरुद्ध यदि राज्यपाल या राष्ट्रपति के समक्ष दया की अपील की जाती है तो उसे गृह विभाग के अफसरों और मंत्रियों से पूछने का क्या अर्थ यह नहीं है कि न्यायलय ने उचित दण्ड नहीं दिया है जिस का अंतिम निर्णय उनसे अधिक योग्य और विशेषज्ञ अफसर-मंत्री करेंगे।  ऐसे सभी प्रकरणों पर सामान स्तर  के वर्त्तमान या अवकाश प्राप्त जज से उन्हें स्थिति को समझना चाहिए और उचित निर्णय देना चाहिए।  लोकतंत्र चाहिए तो शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का पालन करना होगा और सक्षम न्यायव्यवस्था स्थापित करनी होगी। 
 
      
                                  

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