राक्षस राज रावण :
१५.वेदवती
१५.वेदवती
कुबेर को पराजित करके तथा उसका धन एवं पुष्पक विमान प्राप्त करके रावण बहुत प्रसन्न था .उसे लगने लगा कि वह अजेय है .अब देवताओं पर विजय प्राप्त करने की उसकी इक्षा बड़ी तीव्र होती जा रही थी . वह हिमालय की उपत्यकाओं में विचरण करता हुआ प्रकृति का आनंद ले रहा था . वहां वन में उसने एक तपस्विनी कन्या को देखा .उस अद्भुत सौन्दर्य युक्त कन्या ने ऋषियों के समान जटाओं को बांध रखा था तथा काले हिरन के चर्म से बदन डंक रखा था जिससे वह और भी खूबसूरत दिख रही थी . उसे देखकर रावण को बहुत आश्चर्य हुआ कि इतनी सुन्दर कन्या अकेले इस सघन वन में कैसे विचरण कर रही है वह सोचने लगा कि कि यह कोई ऋषि कुमारी है या देवलोक की अप्सरा है . उसके छरहरे बदन ,गौरवर्ण , लावण्यमय मुख और अप्रतिम सौन्दर्य को देखकर रावण बरबस उसकी ओर खिंचा चला जा रहा था . उस कन्या के निकट जाकर ,उसे तीव्र दृष्टि से निहारते हुए रावण ने अति मधुर स्वर में कहा ,"सुंदरी ! तुम कौन हो ? तुम्हारी सुन्दर देह , उस पर तपस्वी रूप और यह सघन वन देख कर मेरे मन में अनेक प्रश्न उठ रहे हैं भद्रे ! यह रूप तुमने क्यों धारण किया है ? तुम्हारे पिता एवं पति कौन हैं ? किस फल की प्राप्ति के लिए तुम यह कठोर टाप कर रही हो ? रावण के इस प्रकार पूछने पर उस यशस्वी तपस्विनी ने अपनी कोमल वाणी में रावण से कहा ," राजन! देवगुरु बृहस्पति के परम तेजस्वी पुत्र ब्रह्मर्षि कुशध्वज मेरे पिता जी थे . वे भी देव गुरु के समान बुद्धि एवं ज्ञान के पुंज थे . मेरा नाम वेदवती है . जब मैं युवास्था को प्राप्त हुई तो अनेक पराक्रमी वीर जिनमें देवता , यक्ष , गन्धर्व , राक्षस ,दैत्य असुर नाग आदि थे मेरे पिताजी से मेरे विवाह का आग्रह करने लगे परन्तु मेरे पिता ने उनमे से किसी को भी हाँ नहीं की . उन्होंने प्रारंभ से ही निश्चय कर लिया था कि वे मुझे देवेश्वर विष्णु को ही देंगे . विष्णु को दामाद के रूप में देखने की मेरे पिता जी की परम इच्छा थी .एक दिन अपने घमंड में चूर दैत्य राज शम्भू ने मेरे पिता जी से कहा कि वे मेरा विवाह उससे कर दें परन्तु पिता जी ने उन्हें भी मना कर दिया. जब उसके बार- बार आग्रह करने पर भी मेरे पिता तैयार नहीं हुए तो एक दिन सोते समय उसने निर्ममता पूर्वक मेरे पिता जी की हत्या कर दी. मेरी माता जी इस दुःख को सहन नहीं कर पाईं और वे पिता जी के साथ चिता पर बैठ कर सटी हो गईं . मैं दैत्य राज के चंगुल में फंसने से बच गई . तब से मैंने यह प्रतिघ्या की है कि मैं पिताजी के मनोरथ को पूरा करूंगी चाहे जितना भी कठोर टाप करना पड़े , चाहे जितना भी समय लग जाय . रावण मन ही मन में कह रहा था कि दैत्य राज से तो तुम बच गई परन्तु मुझसे बच कर कहाँ जाओगी . वह कानों से तो उसकी बातें सुन रहा था परन्तु उसकी नजरें कन्या कि देह पर टिकी हुईं थीं . अपना प्रभाव ज़माने के लिए उसने वेदवती से गर्व पूर्वक कहा ," देवी ! तुम धन्य हो तुमसे मिलकर मैं बहुत आनंद का अनुभव कर रहा हूँ . सुंदरी ! मै लंकाधिपति राक्षस राज रावण हूँ . " उसकी बात सुनते ही देव कन्या ने कहा , " पौलत्स्य नंदन ! मैंने आपको पहचान लिया है . मैं अपने तप से ब्रह्माण्ड कि सभी बातें जान लेती हूँ " रावण सोचने लगा कि तब तो इसे मेरे विचार का ज्ञान भी हो गया होगा . अब उस कन्या को समर्पण करने के लिए रावण प्रेरित करने का प्रयत्न करने लगा . उसने कहा , " देवी !तुम्हारा तप देखकर मैं अभिभूत हो गया हूँ . परन्तु तुम्हारे इस कोमल शरीर पर यह कठिन व्रत शोभा नहीं देता है . तुम अपने साथ अन्याय कर रही हो . मैं तुम्हें इतना कष्ट सहते हुए नहीं देख सकता . " उसकी बात पर वेदवती ने विनम्रता पूर्वक पुनः कहा कि वह विष्णु जी को प्राप्त करने तक तपस्या में तत्पर रहेगी और उसे इसमें कुछ भी कष्ट प्रद नहीं लगता है .
रावण को आभास हो गया कि उसे प्रेम से नहीं समझाया जा सकता है .अब उसने अधिकार पूर्वक कहना प्रारंभ किया ," इतने कठोर तप से जिस पति के लिए तुम प्रयास कर रही हो , वह अब पूर्ण हुआ समझो . मैं तुम्हें अपनी महारानी बनाना छठा हूँ . मैंने अभी कुबेर का मान मर्दन किया है . अब मैं देव लोक पर अधिकार करने जा रहा हूँ . और तुम जिस विष्णु के लिए परेशान हो , वह शक्ति और वैभव में मेरे सामने कहीं नहीं टिकता है . अतः तुम मेरी ह्रदय साम्राज्ञी बनकर मुझे कृतार्थ करो . तुम्हारे एक इशारे पर मेरे समस्त दास- दासियाँ तुम्हारी सेवा में तत्पर होंगे . अब तुम मेरे साथ स्वर्ण मयी लंका में चल कर अपने पुण्यों का आनद भोगो . प्रिये , मेरे निकट आओ . मुझसे अब और विरह सहन नहीं हो रहा है "
वेदवती परिस्थितियों को पहले से ही समझ रही थी . उसने सोचा कि वह शक्ति में तो उसे परास्त कर नहीं सकती है और यदि श्राप देती है तो उसकी तपस्या नष्ट हो जाएगी . अत अनुनय करती हुई वह उससे दया मांगने लगी . रावण पर इससे कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं था . उसने आगे बढ़ कर वेदवती को पकड़ना चाहा परन्तु वह पीछे हट गई . रावण सुन्दर कन्या के लिए सदैव तैयार रहता था . वहां पर तो अत्यंत सुन्दर रमणी उसके सामने थी , एकांत वन था , खुला आकाश था प्रकृति अपना अनद चारों ओर बिखेर रही थी , मंद - मंद सुमधुर वायु उसके तन को और अधिक संतप्त कर रहा था . उसका धैर्य जाता रहा . उसने क्रोधित होते हुए कहा , " लंकाधिपति महाबली रावण तुझसे विनय कर रहा है और तू उसकी निरंतर उपेक्षा करके उसका अपमान करती जा रही है . यह अछम्य है . लंकेश तुम्हारी 'न' सुनने के लिए प्रणय - निवेदन नहीं कर रहा है . " इतना कहते हुए उस महाकाय रक्षस ने क्रूरता पूर्वक वेदवती के बाल पकड़ लिए . वह उसे घसीट कर नीचे पटकता इससे पूर्व ही वेदवती ने बड़ी चपलता से अपने बलों में एक हाथ मारा , उसके केश ऐसे कट गए जैसे किसी ने उन पर तलवार चला दी हो और कुछ पीछे हट गई . उसने रावण से कहा ," अभिमानी राक्षस , तू सर्व शक्तिमान नहीं है , तू मेरी तपस्या को नष्ट नहीं कर पायेगा . भगवान विष्णु मेरी रक्षा करेंगे . मैं पुनर्जन्म लेकर तेरी मृत्यु का कारण बनूंगी " इतना कह कर उस तपस्वी देव कन्या ने अपने योगबल से वहां पर अग्नि प्रगट कर दी और उसमें समां गई .रावण अवाक देखता रह गया , उसे अपनी ऐसी हार की कल्पना भी नहीं की थी . वह कुंठित मन से अपने शिविर कि ओर लौटने लगा . कुछ ही क्षणों में आसमान में काली घटाएं छाने लगें . वायु क्रोधित हो उठी . तेज आंधी -तूफ़ान आ गया . मेघ कर्कश ध्वनि कर-कर के गरजने लगे मनो वे रावण को युद्ध की चुनौती दे रहे हों . मूसलाधार वर्षा होने लगी . वृक्ष टूट कर धराशायी होने लगे और बाढ़ में बहने लगे . रावण की सेना के शिविर भी उड़ गए . वर सैनिक भी उद्विग्न हो उठे . रावण के मन में भी धीरे - धीरे भय का प्रवेश होने लगा .
वेदवती ने पुनः एक सुन्दर कन्या के रूप में जन्म लिया . जब वह युवती हुई , वह भी रावण के चंगुल में फंस गई .रावण उसे लेकर लंका गया तो सदैव की भांति उसे अपने पुरोहित को दिखाया . उसे देखते ही पुरोहित ने कहा , राजन , यह कन्या लंका और लंकेश दोनों के लिए घातक है . रावण ने उसे तुरंत मारकर समुद्र में फेंकने का आदेश दिया . उसके अगले जन्म में वह राजा जनक की पुत्री सीता के रूप में उत्पन्न हुई ..सीता का जन्म लेकर अपने पूर्व जन्मों के तप के प्रभाव से उसने भगवान राम ( विष्णु ) को पति के रूप में प्राप्त किया और रावण के काल का कारण बनी .
मेरे विचार में भगवान श्री राम ने देवी सीता को अग्निदेव के साथ भेज दिया था. देवी सीता के स्थान पर उनकी प्रतिछाया के रूप में जिसे आश्रम में रखा वो देवी वेदवती थीं. ये देवी वेदवती अग्नि से प्रकट हुई थीं और राक्षस राज रावण इनहीं का हरण कर के अपने प्रदेश लंका ले गया था. अग्नि से प्रकट होने के कारण ये देवी रावण द्वारा अपमानित होने पर दुखों से निवृत्ति के लिये अग्नि में प्रवेश कर अपने गृह स्थान को गमन करना चाहती थीं. इसीलिए बार-बार अग्नि देव का आवाहन करती थीं. अग्नि परीक्षा के बहाने भगवान श्री राम ने इन्हें अग्निदेव के साथ वापस भेज दिया और अग्नि देव ने माता सीता देवी को श्रीराम को वापस सौंप दिया. अग्नि से शुद्ध और अग्नि परीक्षा के पीछे मूल कारण यही प्रतीत होता है. जय श्रीराम. सिया वर ram चन्द्र की जय.
जवाब देंहटाएं