गुरुवार, 23 अगस्त 2012

मुहम्मद इकबाल (अलामा इकबाल )

मुहम्मद इकबाल (अलामा इकबाल )
   सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा , हम बुलबुले हैं इसकी , यह गुलिस्ताँ हमारा , जैसे कालजयी शेर के शायर मुहम्मद इकबाल हिंदुस्तान,पाकिस्तान की सीमाओं से भी पार ईरान , ईराक , अरब देशों के लोगों के भी दिलों  के बेताज बादशाह थे और आज भी हैं .पाकिस्तान ने उन्हें अपना राष्ट्रीय कवि माना और उनके जन्म दिन (९ नवम्बर १८७७ ) ९ नवम्बर को आज भी वहां राष्ट्रीय अवकाश रहता है  . ये वह शक्सियत हैं जिन्होंने हिन्दू - मुस्लिम द्विराष्ट्र का सिद्धांत दिया था , मुस्लिम लीग के द्वारा उसे परवान चढ़ाया  और जो उनकी मृत्यु(१९३८) के ९ वर्ष बाद पाकिस्तान के रूप में साकार हुआ .
इकबाल के पूर्वज सप्रो गोत्र के कश्मीरी ब्रह्मण थे जो जम्मू से पंजाब के स्यालकोट नगर में आकर बस गए थे और उन्होंने लगभग २५० वर्ष पूर्व इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था . उनके पिता शेख नूर मुहम्मद दर्जी थे . उनके माता- पिता धार्मिक और नेक इन्सान थे .उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्यालकोट में हुई थी . वे ४ वर्ष की आयु में घर पर अरबी सीखने लगे वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धिके थे और पथ को शीघ्र याद कर लेते थे . उन्होंने १८९३ में १०वी ,१८९५ में १२वी , तथा उसके बाद शासकीय महाविद्यालय लाहौर  से  १८९७ में बी.ए.( दर्शन शास्त्र , अंग्रेजी और अरबी साहित्य ) और १८९९ में एम्.ए.( दर्शन शास्त्र )  पास कर लिया जिसमें उन्हें पंजाब विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था .
   शासकीय महाविद्यालय लाहौर में उन्हें अरबी - फारसी के विद्वान् प्राध्यापक आर्नाल्ड का विशेष स्नेह प्राप्त हुआ तथा उनकी प्रेरणा से उनमें साहित्य के प्रति विशेष रूचि उत्पन्न हुई . लाहौर में उन दिनों मुशायरे की भे धूम रहती थी . इकबाल ने भी उन में शामिल होकर अपने कलाम सुनाना प्रारंभ किया और शोहरत की बुलंदियों को छूने लगे . ग़ज़ल लिखना तो उन्होंने स्कूल से ही शुर कर दिया था . उस समय के प्रसिद्द शायर उस्ताद दाग के पास डाक से वे अपनी रचनाएं भेजते थे . दो - चार ग़ज़लें देखकर उन्होंने कहा कि उनमें सुधार जैसा कुछ भी संभव नहीं है . उनकी ग़ज़लें पूर्ण थीं , बहुत अच्छी थीं . इससे इकबाल का आत्म विश्वास बहुत बढ़ गया और वे जीवन भर लिखते रहे . 
१८९५ में उनका पहला विवाह करीम बीबी से हुआ था .दूसरा सरदार बेगम से और १९१४ में तीसरा विवाह मुख़्तार बेगम से किया था .१८९९ में एम्. ए. पास करते ही वे ओरिएंटल कालेज  में दर्शन -- अरबी के प्रवक्ता नियुक्त्त  हो गए थे . शीघ्र ही वे जूनियर प्रोफेस्सर के पद पर शासकीय महाविद्यालय लाहौर में दर्शन--अंग्रेजी पढाने लगे . अपने दार्शनिक ज्ञान तथा शायराना अंदाज के कारण वे कालेज में तथा बाहर भी लोक्प्रिता प्राप्त करते जा रहे थे .   १९०५ में वे छात्रवृत्ति लेकर अध्ययन करने इंग्लॅण्ड चले गए . वहां उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कालेज में प्रवेश लिया . वहां   पर उन्होंने १९०६ में बी. ए. , १९०७ में लिंकन इन से बारिस्टर तथा १९०८ में जर्मनी जाकर ' प्रशा में तत्वमीमांसा का विकास '  पर पी-एच.डी .प्राप्त कर ली . उनका शोध प्रबंध शीघ्र  ही प्रकाशित हो गया था लन्दन में उन्होंने ६ माह तक अरबी का अध्यापन भी किया .भारत लौटकर वे अध्यापन के साथ जिला अदालत लाहोर में १९३४ तक वकालत भी करते रहे .  
      दार्शनिक होने के कारण वे चाहते थे कि विश्व एक  इस्लामिक झंडे के नीचे आ जाय अन्य मुस्लिम विद्वानों की भांति वे भी धर्म-समाज- राजनीति को एक ही इस्लामिक दर्शन के विभिन्न पक्ष मानते थे जिन्हें एक - दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता है . उन्होंने ईरान , ईराक , अरब देशों में जाकर अनेक भाषण दिए . मुस्लिम देशों में पृथक सीमाएं उन्हें पसंद नहीं थीं .परन्तु धर्म के नाम पर राजा अपना अधिकार छोड़कर किसी एक महाराजा के आधीन हो  जायेंगे जैसी असंभव राजनीतिक कल्पना देखकर लगता है कि उन्हें राजनीति का ज्ञान नहीं था . अलग देश की सीमाएं तो छोडिये , भारत से जो मुस्लमान वीसा और अनुमति प्राप्त करके  २-४ दिन के लिए पाकिस्तान घूमने भी जाते हैं तो इकबाल के पाकिस्तान में प्रवेश से लेकर लौटने तक पाक जासूस घेरे रहते हैं और उसे कहीं  जेल में बंद न  कर दें ,  पूरे समय उन्हें यह भय बना रहता है .
      भारत में उन्होंने मुस्लिम लीग के सक्रिय सदस्य बनकर राजनीति में प्रवेश किया . १९२० में जब मुस्लिम लीग के नेता आपस में लड़ पड़े और लीग समाप्त प्राय हो गयी तो उन्हें बहुत बड़ा झटका लगा .जिन्ना तो राजनीति से दूर हो गए थे . परन्तु इकबाल ने  जिन्ना को बार- बार पत्र लिख कर प्रेरित किया कि भारत में मुसलमानों के हितों और अधिकारों की रक्षा वही कर सकते हैं . अपने भाषणों में इकबाल भय व्यक्त करते थे कि भारत में बहु संख्यक हिन्दुओं का राज होइने पर मुस्लिम धरोहर , संस्कृति , धर्म सब संकट में फंस सकते हैं . वे जिन्ना की भांति कांग्रेस को हिन्दू पार्टी मानते थे . सिकुलर अर्थात धर्म निरपेक्ष विचार के वे धुर विरोधी थे .क्योंकि वे विश्व में केवल इस्लाम ही चाहते थे .मुस्लिम लीग पुनः प्रारंभ होने पर १९३० में वे उसके अध्यक्ष बने तो इलाहबाद में अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने भारत के उत्तर - पश्चिम भाग तथा बंगाल को मुस्लिम राज्य बनाने का विचार प्रथम बार रखा था . जिन्ना जैसा व्यक्ति, जिसने खिलाफत आन्दोलन का समर्थन  इसलिए नहीं किया था कि यह केवल धार्मिक उन्माद के कारण हो रहा है ( जबकि गाँधी जी ने प्रबल समर्थन दिया था )तथा मुस्लिम कट्टर पंथियों से दूर रहता था , इकबाल के कारण कट्टरपंथी हो गया तथा देश का बंटवारा करवाकर ही दम लिया .. इकबाल एक बार लाहौर से मुस्लिम सीट पर पंजाब विधान सभा के लिए चुने गए थे . 
  'संस्कृति  के   चार  अध्याय ' पुस्तक  में  राष्ट्र  कवि  दिनकर  ने  भी  इकबाल  के  लिए  कहा  है ,"इकबाल  की  कविताओं  से  , आरम्भ  में , भारत की सामासिक संस्कृति को बाल मिला था , किन्तु, आगे चलकर उन्होंने बहुत सी ऐसी चीजें भी लिखीं जिनसे हमारी एकता को व्याघात पहुंचा ." 
        पर शायरी में तो उनका कोई मुकाबला ही नहीं था . इकबाल कि शायरी का जब अंग्रेजी में अनुवाद हुआ तो उनकी ख्याति इंग्लॅण्ड तक फ़ैल गई जिससे प्रभावित होकर जार्ज पंचम ने उन्हें 'सर' की उपाधि दी.
बाद में उनकी कविताओं का अनुवाद यूरोप की अन्य भाषाओं में भी हुआ . अरब देशों के लोग भी उनकी शायरी समझें ,इसलिए उन्होंने अधिकांश शायरी फारसी में की है . कुछ पुस्तकें उर्दू में भी हैं . १९३८ में वे स्पेन से लौटे तो गले में कोई असाध्य रोग हो गया जो ठीक नहीं हो सका . लाहौर में दिनांक २१ अप्रेल १९३८ को उनका निधन हो गया . भोपाल के नवाब ने उनके लिए पेंशन स्वीकृत की थी . पाकिस्तान में उनके नाम पर अनेक संस्थाएं हैं . वे पाक ही नहीं ,भारत के लोगों के दिलों में आज भी हैं . उन्हें प्राप्त उपाधियाँ हैं --'शायर -ए- मुशरिफ '( पूर्व के कवि), मुफाकिए - ए- पाकिस्तान(पाकिस्तान के प्रस्तोता ) , हाकिम - उल- उम्मत ,तथा पाकिस्तान के राष्ट्रीय  कवि .
साहित्य सृजन :उन्होंने अधिकांश शायरी फारसी में की है . फारसी की रचनाएँ है --असरारे -खुदी ,रामूजे बेखुदी , पयामे मशरिक , जावेद नामा आदि . उर्दू में - बाल- जिब्रील(पीड़ित जनता ) तथा बांग- ए-दरा(देश भक्त) प्रमुख हैं . गद्य में उनके भाषण समाहित हैं .
   इकबाल की जुबान ही शायरी है . जो कहा ,शेर हो गया . उन्होंने रामुर नानक पर लिखा , धार्मिक सौहार्द्र के लिए शिवाला  जैसी रचनाएँ लिखीं  आजादी और राष्ट्रीयता से ओतप्रोत कविताएँ लिखीं , गरीबों से सहानुभूति  और बच्चों को प्रेरित करने के लिए रचनाएँ प्रस्तुत कीं और कट्टरता तथा आधुनिक शिक्षा के विरोध में भी स्वर मुखरित किये . यहाँ उनकी शायरी के  कुछ बंद   प्रस्तुत हैं  :
.बच्चों के लिए ( गुलामी का दर्द )
("परिंदे की फ़रियाद " )
आता है याद मुझको गुजरा हुआ जमाना
वह बाग की बहारें , वह सबका चहचहाना .
आजादियाँ कहाँ वे अब अपने घोंसले  की ,
अपनी ख़ुशी से आना , अपनी ख़ुशी से जाना .
२.पहाड़ को गिलाहरी का उत्तर ( समानता, स्वाभिमान )
("एक पहाड़ और एक गिलहरी " से )
कदम उठाने की ताकत ,जरा नहीं है तुझमें
निरी बड़ाई है , खूबी और क्या है तुझमे  ,
जो तू बड़ा है , तो हुनर दिखा मुझको
यह छालियाँ ही तोड़ कर दिखा मुझको .
३.  भारत का गौरव 
(हिन्दुस्तानी बच्चों का कौमी गीत )
चिश्ती ने जिस जमी पर पैगामे हक सुनाया ,
नानक ने जिस चमन में वहदत का गीत गया.
तातारियों ने जिसको अपना वतन बनाया ,
मेरा वतन वही है , मेरा वतन वही है .
४. धार्मिक एक्य ( नया शिवाला )
आ गैरियत  के के परदे इक बार फिर उठा दें ,
बिछड़ों को फिर मिला दें ,नक़्शे दुई मिटा दें .
सूनी पै हुई है मुद्दत से दिल कि बस्ती ,
आ इक नया शिवाल इस देश में बना दें .
५. राष्ट्रीय एकता ( तराना - ए हिंदी )
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा ,
 हम बुलबुले हैं इसकी , यह गुलिस्ताँ हमारा
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना
हिंदी हैं हम ,वतन है हिन्दोस्तां  हमारा .
.धार्मिक कट्टरता (तराना -ए- मिल्ली )
चीनो अरब हमारा , हिन्दोस्तां हमारा
मुस्लिम हैं हम वतन के , सारा जहाँ हमारा .
तोहीद की अमानत , सीनों में है हमारे  ,
आसां नहीं मितान , नामों - निशान हमारा .
७. अन्य धर्मों का भी आदर ( राम)
इस देश में हुए हैं हजारों मलक - सरिश्त(१)१. देवता -स्वभाव
मशहूर जिनके दम से है दुनिया में नामे हिंद .
है राम के वजूद पे हिन्दोस्तान को नाज ,
अहले नज़र समझते हैं उसको इमामे हिंद .
.परोपकार भावना (साक़ी)
नशा पिलाके गिरना तो सबको आता है
मज़ा तो जब है कि गिरतों को थम ले साक़ी.
जो बदकाश थे पुराने , वह उठते जाते हैं ,
कहीं से आबे - बक़ा-ए-दवाम ला साक़ी.
कटी है रात तो हंगामा-गुस्तरी में तिरी ,
सहर करीब है अल्लाह का नाम ले साक़ी .
९. दकियानूसी - शिक्षा से नास्तिकता का भय 
( तालीम और उसके नताइज़ )
खुश तो हम भी हैं जवानों की तरक्क़ी  से मगर ,
लबे - खदां (1) से  निकल जाती है फरियाद भी साथ.
हम समझता थे कि फरागत, तालीम ,
क्या ख़बर थी कि चला आएगा इल्हाद (२) भी साथ .
घर में परवेज के शीरीं  तो हुई जलवा नुमा
लेके आई  मगर तेष- ए- फ़रहाद  भी  साथ .
तुख्में- दीगर बकफ़ आरएम व बकारेम जनौ
के आंचे कश्तेम जख्जलत नातवां क़र्द दरौ(३)
-------------------------------------------------
१. स्मित होंठ २. नास्तिकता ३. जब दूसरों का बीज लेकर बोते हैं
 तो उससे लज्जा के अतिरिक्त और कुछ नहीं उग सकता .
---------------------------------------------------------------------
१०. आत्मबल बढ़ाना 
 ख़ुदी को कर बुलंद इतना ,कि हर तक़दीर से पहले ,
ख़ुदा बन्दे से ख़ुद पूछे , बता तेरी रज़ा क्या है .
टीप: ये अंतिम पंक्तियाँ  मनुष्य को आत्मबल-स्वप्रयास से भाग्य बनाने की प्रेरणा देती हैं . इस पर हिन्दू दर्शन का पूरा असर है जिसमें व्यक्ति ख़ुदा के सामने है और ख़ुदा व्यक्ति से पूछ कर उसका  भाग्य लिखने की बात कहता है  . जबकि इस्लाम में ख़ुदा सर्वत्र उपस्थित एक अदृश्य शक्ति है और उसने  लोगों को जो भी सन्देश दिया है  , वह पैगम्बर के माध्यम से दिया है जो कि व्यक्ति के रूप में पृथ्वी पर आये थे . 


























          
      

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें