रविवार, 15 अप्रैल 2012

बाल-साहित्य


                                                             बाल-साहित्य 

     समाज में बच्चों का जितना महत्त्व है, ज्ञान की दुनिया में बाल साहित्य का भी उतना ही महत्व है . बाल साहित्य में क्या- क्या सम्मिलित किया जाना चाहिए ? तीन वर्ष से लेकर १६ वर्ष की आयु  के बच्चों तक, सभी को प्रायः मनोरंजन युक्त कहानियां अच्छी लगती हैं . कहानी केवल कहानी है या उसमें ज्ञान और नीति की बात भी है , यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह कि कहानी या कविता उन्हें कितनी अच्छी लगती है . यदि उस से बच्चे का मन प्रसन्न हो जाता है , मस्तिस्क तरो- ताजा हो जाता है ,तो कहानी का उद्देश्य पूरा हो जाता है क्योंकि प्रसन्नचित्त होने पर बच्चे तनाव मुक्त होंगे और उस स्थिति में उन्हें जिन बातों को समझाया   जायगा वे अच्छी प्रकार  ग्रहण करेंगे. लोक कथाएँ इसी श्रेणी में आती हैं .. उन्हें पढ़कर मन को अच्छा लगता है व्यक्ति चाहे छोटा हो या बड़ा .   पांच वर्ष से अधिक आयु के बच्चों को वीरों, खिलाडियों  या वैज्ञानिकों की कहानियां  अथवा पौराणिक कथाएँ , जिनमें भगवान या संतो  -महात्माओं के जीवन चरित्र भी हों , अच्छे  तो लगते ही हैं , उसे प्रेरणा भी देते हैं कि उसे भी अच्छे काम करने चाहिए . माध्यमिक विद्यालय तक वे कहानियों कविताओं के विश्लेष्णात्मक पक्ष को भी समझने लगते हैं बशर्ते कोई उन्हें ऐसा समझाने वाला हो . हाई स्कूल और उसके ऊपर के युवक कथा कहानियों से स्वयं भी अर्थ और महत्त्व निकाल लेते हैं . 
        अच्छा साहित्य मनुष्यता का विकास  करता है . मनुष्यता से रहित व्यक्ति धनवान हो सकता है , राजा -महाराजा हो सकता है परन्तु उसका जीवन पशुवत होता है . वह पशु के समान लालची , स्वार्थी , कायर , क्रूर सबकुछ हो सकता है .जैसे पशु अपना उदर भरने के लिए दूसरे की क्रूरता से हत्या करके उसे खा जाता है वैसे ही मनुष्य भी संस्कार के बिना अपने लाभ के लिए लूट सकता है ,किसी की जान ले सकता है , पूरे समाज और देश को हानि पहुंचा सकता है . पशु और व्यक्ति की क्रूरता में इतना  ही  अंतर होता है कि  पशु सभी कार्य अपनी प्रकृति के अनुसार करता है . सिंह जानवर मारकर नहीं खायेगा तो स्वयं भूखा मर जायगा . वह जानवर तभी मारता  है जब उसे भूख लगी हो या किसी पर आक्रमण तभी करता है जब उसे जान का खतरा हो .परन्तु मनुष्य के पास बुद्धि भी है . वह द्वेष , ईर्ष्या , लालच , आदि के अलावा कभी - कभी अपने आनंद और मन की मौज के लिए भी क्रूरता करता है , इन्सान की हत्या भी कर देता है . भारत समेत अनेक देशों के लोग इसी रोग से ग्रस्त हैं . भ्रष्टाचार, हत्याएं , आतंकवाद तक सभी सामाजिक विकृतियाँ इसी कारण हो रही हैं . इसके साथ यह भी सत्य है कि व्यक्ति में किसी भी अवस्था में मानवीय गुण विकसित किये जा सकते हैं , डाकू- लुटेरों  को भी संत बनाया जा सकता है .
              आज के बच्चे बचपन से ही टी वी देखने लगते हैं , दृश्यों का सीधा प्रभाव उनके मन पर पड़ता है , उनकी मनोभावनाओं पर पड़ता है उनकी बुद्धि पर नहीं पड़ता या बहुत कम पड़ता है . अतः उनकी बुद्धि  का समुचित विकास नहीं हो पाता है . यदि माता- पिता उसे बचपन से आवश्यक पौष्टिक आहार न देकर फास्ट फ़ूड , कोल्ड ड्रिंक देने लगते हैं तो उनकी बुद्धि अपेक्षाकृत और कमजोर रह जाती है . बड़े होने पर इनकी विचार शक्ति अपने स्वार्थ के इर्द-गिर्द ही भटकती रहती है . वे शिक्षा प्राप्त करके उच्च पद और धन चाहे जितना कमा लें , उनकी मूल प्रवृत्ति पशुवत या आसुरी हो जाती है . दूसरों के कष्टों से उन्हें कुछ लेना- देना नहीं रहता , सिर्फ अपना सुख और लाभ ही दिखाई देता है . 
 इसलिए कथाओं के माध्यम   से बच्चों को व्यक्ति के व्यवहार नैतिकता , धर्म ,अर्थ , राजनीति ,  समाज और देश के प्रति जागरूकता आदि का बहुत अच्छा ज्ञान दिया जा सकता  है .
       ' शिक्षा का उद्द्येश्य धन कमाना भी है, के स्थान पर शिक्षा का उद्देश्य धन कमाना ही है ' मानने वाले आज के शिक्षा विदों और दार्शनिकों ने देश का सारा कुचक्र धन के चारों ओर ही घुमा रखा है . इसलिए शिक्षा   में मानवीय दृष्टिकोण लुप्त सा हो गया है और लोग अधिकार पूर्वक सभी प्रकार के अनैतिक और असामाजिक तथा समाज एवं राष्ट्र विरोधी कार्य गर्व के साथ  खुले आम कर रहे हैं और इस व्यवस्था से उत्पन्न हुई हमारी सरकार और   न्याय व्यवस्था प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसका समर्थन एवं संवर्धन कर रही है .
 समाज में पहले संयुक्त  परिवारों में बुजुर्ग लोग बच्चों को कहानी - किससे सुनाते   रहते थे . अब या तो बुजुर्ग साथ नहीं रहते , रहते हैं तो स्वयं टी वी देखकर समय पार करते रहते हैं . वे स्वयं कुछ पढ़ते नहीं हैं तो उन्हें भी ज्ञान नहीं होता कि बच्चे को किस अवस्था में कैसी कहानी सुनानी है जबकि दूसरी ओर बच्चों को टी वी के कार्टून , गेम्स , उनके मित्र और आजकल गर्लफ्रेंड- ब्वाय फ्रेंड  आकर्षित कर रहे होते हैं . अतः कुल मिलाकर समाज दयनीय स्थिति से गुजर रहा है . प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान और धन में वृद्धि दिखाई दे रही है . परन्तु मशीनें और मशीनों जैसे काम  करने वाले लोग किसी समाज का निर्माण नहीं कर सकते .
       यदि अच्छे बाल साहित्य का सृजन किया जाय और प्रारंभ से ही उसमें बच्चों की  रूचि उत्पन्न की जा  सके तो ज्ञान और धन समाज  को  समृद्ध करेंगे अन्यथा विश्व के चालाक  लोग हमारे ज्ञान और धन को लूट लेंगे . हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि भारत के धन और समृद्धि को लूटने के लिए ही हम पर सदियों पूर्व से आक्रमण होते आ रहे हैं और विदेशियों ने  हमारी सम्पदा को लूटने के साथ हमारी संस्कृति को भी नष्ट करने के पूरे प्रयास किये . एक बात और भी महत्वपूर्ण है कि अच्छा साहित्य अपनी मातृभाषा में ही रचा जा सकता है जिसे बच्चे आत्मसात कर सकें .तभी बच्चे  और समाज  आधुनिकता के ऋणात्मक और अनैतिक कार्यों और विचारों से मुक्त हो सकेंगे और वे वही ग्रहण  करेंगे जो सबके हित में हो . यह कार्य किसी कानून से संभव नहीं है  , केवल अच्छे साहित्य और मुख्य रूप से बाल साहित्य से ही संभव हो सकेगा .
                                                                       

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