रविवार, 26 अगस्त 2012

क्रांतिकारियों के साथ छल ?

                                                       क्रांतिकारियों के साथ छल ?
भारतीय इतिहास लेखन में क्रांतिकारियों के साथ भारी छल किया गया है .जिन क्रांति वीरों ने देश की आजादी के लिए अपने प्राणों को न्योछावर किया , इतिहास में उन्हें आतकवादी , जुरमी कहा गया , षड्यंत्रकारी कहा गया , जो भूमिगत होकर कार्य करते, उन्हें भगोड़ा माना गया और स्वतंत्रता का ऐसा इतिहास इंदिरा गाँधी से लेकर राजीव गाँधी तक की  कांग्रेस सरकार ने जनता के पैसों से लिखवाया या प्रकाशित करवाया है  . इन्ही किताबों को पढ़कर लोग आई.ए. एस. , आई. पी. एस बनते रहे जिससे अधिकारियों और नेताओं में राष्ट्र प्रेम जैसी भावनाएं तो दूर , देश को अधिकतम लूटने और निजी स्वार्थ कि भावनाएं प्रबल हो गईं .इसी से भ्रष्टाचार और अराजकता बढ़ती जा रही है .
                      इन इतिहासकारों ने स्वतंत्रता सेनानिनियों के संघर्ष और क्रांति -कार्यों को विद्रोह कहा क्योंकि इनका मानना है कि अंग्रेजों की सरकार एक वैधानिक सरकार थी और वैधानिक सरकार के विरुद्ध संघर्ष विद्रोह होता है .जो विद्रोही है , आतंकवादी है , आतंक वादी जुर्म कर रहा है उसे फांसी नहीं मिलेगी तो और क्या मिलेगा ?और उनके आतंकवादी जुर्म क्या थे --भारतीयों पर जुर्म करने वाले अफसरों तथा उनके भारतीय सहयोगियों को मारना . जिसे अंग्रेजों ने आतंक वादी कहा ,जुरमी कहा, इन्होने भी उनको वैसा ही कहा और देश के युवकों को पढ़ाया . कांग्रेस को इसका लाभ यह मिला कि वह लोगों को यह रटवाने   में सफल हो गई कि आजादी का सारा काम उन्होंने किया है इसलिए केवल उन्हें ही सत्ता में रहने का अधिकार है .यहाँ  पर  उन पुस्तकों से उद्धृत करके कुछ पंक्तियाँ दी जा रही हैं .
१.स्वतंत्रता का इतिहास  लेखक --बिपन चन्द्र ,अमलेश त्रिपाठी , बरुण दे (१९७२), हिंदी अनुवाद , नॅशनल बुक ट्रस्ट ऑफ़ इण्डिया 
 (पृष्ठ ७२)...  उग्रपंथी गुट के नेता तिलक ने बहुत पहले ( बंग भंग आन्दोलन से भी पहले ) अपने युवक अनुयायियों के मन को इतना उत्तेजित कर दिया था जो उनसे निजी तौर पर आतंकवादी कार्य करवाने के लिए काफी था ..
१८९७ में पूना के दामोदर और बालकृष्ण चिपलूणकर बंधुओं ने दो बदनाम अंग्रेज अफसरों की हत्या कर दी  थी .  
(पृष्ठ ७३).... उन्होंने आयरी आतंकवादियों और रूसी निषेध वादियों के चरण चिन्हों पर चलना और उन अधिकारियों की हत्या करना बेहतर समझा जो अपने भारत विरोधी रवैये  या अपने दमनकारी कामों की वजह से काफी बदनाम हो गए थे .
  .....विचार यह था कि शासकों के दिल में आतंक पैदा कर  दिया जाय , जनता को राजनीतिक दृष्टि से उभारा  जाय और अंततः  अंग्रेजों को भारत से खदेड़ दिया जाय .
.....क्रांति कारी आतंकवाद कि तरफ़ जनता का ध्यान गंभीरतापूर्वक तब गया जब खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी  नामक दो युवकों ने मुजफ्फरपुर के जिला जज की हत्या का प्रयत्न किया . बहरहाल  बम से दो निर्दोष महिलाओं की जानें  गई . 
   .... अलीपुर में अरविन्द घोष  , उनके भाई बारीन घोष तथा अन्य लोगों पर षड्यंत्र के आरोप में मुकदमा चला . लेकिन जेल के अहाते में ही क्रांतिकारी आतंकवादियों द्वारा मुखबिर की हत्या कर कर दिए जाने से मुकदमें की सुनवाई में बाधा पैदा हो गई . खुदीराम को फांसी दी गई . मुखबिर के हत्या करने वाले सत्येन  बसु और कन्हाई   दत्त को फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया .
(पृष्ठ ८८ ) ...बहुत से षड्यंत्रकारियों को या तो फांसी पर लटका दिया गया कालापानी की सजा देकर अंडमान भेज  दिया गया.
........रासबिहारी बोस जापान भाग गए .
(पृष्ठ १२३  )  स्वतंत्रता आन्दोलन चलाने के लिए सुभाष चन्द्र बोस  तथा अन्य नेताओं ने छोटे - छोटे गिरोहों की स्थापना की.
(पृष्ठ १३6 )  २९ मार्च १९३१ को करांची में कांग्रेस अधिवेशन में भगत सिंह की शहादत के सम्बन्ध में प्रस्ताव था . गाँधी जी ने बहुत मुश्किल से यह प्रस्ताव स्वीकार किया , "किसी भी तरह की राजनीतिक हिंसा से अपने को अलग रखते हुए और उसे अमान्य करते हुए , कांग्रेस उनकी वीरता और बलिदान के प्रति अपनी प्रशंसा को लिखित  ढंग से व्यक्त कर रही  है . ''
   इस पुस्तक में तिलक को आतंकवादी कार्यों के लिए उकसाने वाला कहा गया है , क्रांतिकारियों को षड्यंत्रकारी कहा  है, सुभाष चन्द्र बोस जैसे नेताओं के संगठन को 'गिरोह बनाना कहा है ' .
   २. आधुनिक भारत का इतिहास , हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय , दिल्ली विश्वविद्यालय (१९८७)संशोधित संस्करण (१९९८) .( हिंदी अनुवाद ) राजीव गाँधी के शासन कल में लिखवाई गई पुस्तक .
(पृष्ठ 528 ) ...१९०७--१९०९ के बीच बंगाली क्रांतिकारियों ने काफी आतंकपूर्ण जुर्म किये . १६ दिसंबर १९०७ को मिदना-   पुर के पास लेफ्टिनेंट गवर्नर की  गाड़ियों  को बम से उड़ाने की कोशिश की गई . इसी तरह ढाका के पहले मजिस्ट्रेट एलन को भी क़त्ल करने का प्रयत्न किया गया जो असफल रहा . क्रांतिकारियों ने इसके बाद प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट किंग फोर्ड को मरने का फैसला किया जिन्होंने कई युवकों को छोटे--छोटे अपराधों के लिए कोड़े लगवाये थे .खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी  ने ३० अप्रेल १९०८ को मुजफ्फरपुर में उनकी गाड़ी से मिलतीजुलती  गाडी पर बम फेंका , मगर उस गाड़ी में  दो महिलाएं , श्रीमती केनेडी और उनकी पुत्री थीं , जो मारी  गईं . जब क्रांति कारी प्रफुल्ल को कैद किया गया तो उन्होंने गोली मारकर आत्महत्या कर ली . खुदीराम बोस  पर मुकदमा चलाकर  उन्हें फांसी पर लटका दिया . खुदीराम बोस  शहीद  हुए  और बंगाल के युवकों  की नजर में वे एक बहादुर वीर थे . उनके चित्र घर- घर में लगाये गए और युवकों ने अपनी धोतियों और पोषक के बार्डर  पर खुदीराम बोस  का नाम छपवाया .
 भारत  सरकार अंग्रेज अफसरों की जान पर प्रहार से बहुत भयभीत हो गयी थी और उसने इन आतंक वादी संस्थाओं को ख़त्म करने की ठान ली . मुजफ्फरपुर के हत्याकांड के कुछ दिन  बाद   मानिकतला में क्रांति कारियों के निवासस्थान मुरारी पुकुर पर पुलिस ने छापा मारा और वहां से बम , बारूद इत्यादि चीजें बरामद कीं . अरविन्द घोष और उनके भाई बारीन्द्र घोष सहित ३४ लोग गिरफ्तार कर लिए गए . मगर जब मुकदमा चाल रहा था तो कचहरी में गोली मारकर सरकारी वकील और पुलिस के डिप्टी सुपरिंटेंडेंट  की हत्या कर दी गई . १५ आतंकवादियों को सजा हुई और उनमें से कुछ ( जिनमे  बारीन्द्र घोष भी शामिल थे ) को आजीवन कारावास देकर काला पानी भेज दिया गया . अरविन्द घोष को रिहा कर दिया गया . नरेंद्र   गोसाईं की , जो सरकारी गवाह बन गए थे , कन्हाई लाल दत्त और सात्येंद्र बोसे ने गोली मारकर हत्या कर दी . दोनों पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें फांसी की सजा हुई . मगर बंगाली युवकों  की दृष्टि  में ये वीर शहीद हुए थे  और हजारों लोगों ने उनके शव के जुलूस में हिस्सा लिया .
 इन क्रांतिकारियों के लिए सारे देश में सहानुभूति थी. उनके त्याग और मौत से जूझने के साहस ने भारत के युवकों को देश प्रेम की भावनाओं से उत्साहित किया . आर सी मजूमदार ने लिखा है "यद्यपि बारीन्द्र घोष को कोई स्पष्ट सफलता नहीं मिल सकी , पर बंगाल में क्रांतिकारी आन्दोलन की एक सुदृढ़ नींव डालने और और उसको एक निश्चित रूप तथा  दिशा  प्रदान करने का श्रेय उन्हीं को है . आन्दोलन का यह रूप और दिशा अंत तक कायम रहे  ." 
( पृष्ठ ५३२ )   ....  अमृतसर से आए इंजीनियरिंग के एक विद्यार्थी श्री मदन लाल धींगरा ने १ जुलाई १९०९ को उसे ( कर्जन विली ) अपनी गोली से मार गिराया .......१७ अगस्त १९०९ को धींगरा का अंतिम संस्कार कर दिया गया ( यह अंग्रेजों  ने चुपके से कर दिया था ) . भारत के कई नेताओं ----बीसी पाल , सुरेन्द्र नाथ बनर्जी , गोखले इत्यादि ने शहीद मदन लाल धींगरा की कड़े शब्दों में निंदा की , मगर कई  अंग्रेज राजनीतिज्ञों ने उनकी प्रशंसा की और आयरलैंड के अखबारों ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए लिखा , " मदन लाल धींगरा को , जिन्होंने अपने देश की खातिर अपना जीवन न्योछावर कर दिया , आयरलैंड अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है . " 
 इसमें कहा  गया है " बंगाली क्रांतिकारियों ने 'काफी आतंकवादी जुर्म किये ",जैसा अंग्रेजों ने लिखा इन्होने उसकी नक़ल करके लिखा कि वे बंगाल युवकों की नज़र में एक बहादुर देश भक्त थे और अंग्रेजों ने आतंकवादी संस्थाओं को ख़त्म करने की थान ली परन्तु सरकारी इतिहास लेखक स्वयं उन्हें ऐसा नहीं समझते जबकि अंग्रेज लेखकों ने भी उनके बलिदान की प्रशंसा की है .
३. आधुनिक भारत का इतिहास , विद्याधर महाजन ,(२००४ )
  पृष्ठ (५४५) : १९ सवीं  सदी के अंत और बीसवीं सदी के के शुरू में भारत में आतंकवादी आन्दोलन चला . आतंकवाद उग्र राष्ट्रवाद की  एक अवस्था थी पर यह तिलक पक्षीय राजनैतिक उग्र वाद से बिलकुल भिन्न थी .क्रन्तिकारी लोग अपीलों प्रेरणाओं  और शांति पूर्ण संघर्षों को नहीं मानते थे . उन्हें यह निश्चय था  कि पशुबल से स्थापित किये गए साम्राज्यवाद  को  हिंसा के बिना  उखाड़ फेंकना संभव  नहीं . वे अपने आन्दोलन को चलाने के लिए सशस्त्र हमले करने और डकैतियां डालने को कोई बुरी बात नहीं मानते  थे . स पुस्तक में 
 १८९९ में जनता की घृणा के पात्र श्री रैंड  और रिहर्स्ट की हत्या की गई . प्रतीत होता है कि श्याम कृष्ण वर्मा का रैंड  की हत्या से  कुछ सम्बन्ध था  पर वह भाग कर लन्दन पहुंचा . वह १९०५ तक चुपचाप रहा और इसके बाद उसने लन्दन की इंडियन होम रुल सोसायटी को जन्म दिया . उसने इन्डियन सोशिओलोजिस्ट  नाम का एक मासिक पत्र भी शुरू किया . पेरिस के एस आर राणा की मदद से एक हजार रुपये की छ: लेक्चररशिप और दो हजार रूपये  प्रत्येक की  तीन घूमने - फिरने की छात्रवृत्तियां भारतीय छात्रों के लिए पेश की गईं .जिनसे वे बाहर जाकर राष्ट्र सेवा के कार्य  में अपने आप को शिक्षित करें . इस प्रकार लन्दन पहुंचे विद्यार्थियों में एक विनायक दामोदर सावरकर भी थे . श्याम जी कृष्ण  वर्मा के   लन्दन से बच भागने के बाद विनायक सावरकर इण्डिया हाउस में क्रन्तिकारी दल के नेता  हो गए . 
(पृष्ठ ५४७) : खुदीराम बोस  के शहीद होने पर शिरोल ने लिखा है ," बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिए वह शहीद और अनुकरणीय हो गया. विद्यार्थियों ने और अन्य बहुत से लोगों ने उसके लिए शोक मनाया और उसकी स्मृति में स्कूल दो-तीन दिन बंद रहे . उसके चित्र बहुत  अधिक बिके और धीरे - धीरे नौजवान लोग ऐसी धोतियाँ पहनने लगे ,जिनकी किनारी में खुदीराम बोस  का नाम खुदा  होता था ."
(पृष्ठ 548) : ...बंगाल के आतंकवादियों ने पुलिस अफसरों , मजिस्ट्रेटों , सरकारी वकीलों, विरोधी गवाहों , गद्दारों , देश द्रोहियों ,इकबाली गवाहों ---किसी को भी नहीं छोड़ा . एक-एक करके सबको गोली से उड़ा दिया गया . आतंवादियों के लिए इसका परिणाम महत्वहीन था . 
(पृष्ठ 549) : उच्च मध्य वर्ग के नेता इस आन्दोलन से सहानुभूति नहीं रखते थे . सर आशुतोष मुखर्जी और एस एन बनर्जी जैसे नेताओं ने सरकार से आतंकवादियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही   करने के लिए कहा . भारतीय राष्ट्रवादी आन्दोलन का नेतृत्व गांधीजी के हाथ में आने पर क्रांतिकारी आन्दोलन धीरे- धीरे ख़त्म हो गया  .......  आतंकवादियों ने १९४२ के विद्रोह , भारतीय नौसैनिक विद्रोह और सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फ़ौज में भी काम किया . 
  . विद्याधर महाजन ने भी लिखा कि भारत में आतंकवादी आन्दोलन चला . महान क्रन्तिकारी जिन्होंने इंग्लॅण्ड और अन्य देशों में जाकर क्रांतिका बिगुल बजने वाले श्याम कृष्ण वर्मा के लिए लिखा कि वह भागकर लन्दन पहुंचा तथा " लन्दन से बच भागने के बाद ..."अर्थात वे कायर थे भगोड़े थे .
आतंकवादियों ने १९४२ के विद्रोह में भारतीय नौसेना के विद्रोह में और सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फ़ौज में भी काम किया .अर्थात आजाद हिंद  फ़ौज आतंकवादी थी .
    ये यह भी लिखते हैं कि भारतीय राष्ट्रवादी आन्दोलन का नेतृत्त्व गाँधी जी के हाथ में आने पर क्रन्तिकारी आन्दोलन धीरे- धीरे ख़त्म हो गया . गाँधी जी के हाथ में नेतृत्त्व १९२०-२१ में आ गया था .इसका अर्थ हुआ कि भगत सिंह , सुखदेव , राजगुरु , चंद्रशेखर आजाद , राम प्रसाद बिस्मिल और अश्फाकुला खान   जैसे क्रांतिकारियों के बलिदान और नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के कार्य कुछ थे ही नहीं . १९४२ के भारत छोड़ो आन्दोलन में भी  कांग्रेसी नेताओं और गांधीजी के गिरफ्तार होने पर क्रांतिकारियों ने देश भर में हिंसक प्रदर्शन भी किये थे . क्रांतिकारियों के प्रति कांग्रेस के नेताओं का क्या रवैया था उसके भी कुछ उदाहरण यहाँ दिए गए हैं . आश्चर्य है कि इतिहास के प्राध्यापकों ने कभी इस पर विचार और चर्चा नहीं की और वही पढ़ाते आ रहे  हैं जो इतिहास विदेशियों या उनके अनुयायियों ने लिखा है .
         










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