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अरविन्द का दर्शन
महर्षि अरविन्द घोष ने युवावस्था तक इंग्लॅण्ड में रहकर पाश्चात्य साहित्य तथा दर्शन का गंभीर अध्ययन किया था .भारत आकर उन्होंने संस्कृत सीखी और वेद , उपनिषद गीता , सांख्य योग आदि ग्रंथों का विषद अध्ययन एवं चिंतन किया .वह भारतीय संत - महात्माओं की इस बात से सहमत नहीं थे कि माया दुःख देने वाली है और मनुष्य समस्त माया का त्याग करके केवल आत्म चिंतन करे , ब्रह्म चिंतन करे ,तप करे और मोक्ष प्राप्त हेतु निरंतर तत्पर रहे . वे पश्चिम के भौतिक वाद को भी अपूर्ण मानते थे .अपने चिंतन में उन्होंने पूर्व और पश्चिम की विचारधाराओं का अपूर्व समन्वय किया है .
वेदांत के दो सूत्रों ---एकम सत-नेह नानास्ति किंचन (सत्य एक है , दूसरा नहीं ) तथा सर्व खल्विदं ब्रह्म (यह सब कुछ ब्रह्म है ) की पुनर्व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि ब्रह्म एक है तथा यह सब कुछ( माया ,प्रकृति ,भौतिक वस्तुएं भी) ब्रह्म ही हैं .यह सब उस ब्रह्म का विस्तार ही है . भौतिकता से दूर भागना उचित नहीं है .आवश्यकता है कि अध्यात्म और भौतिकता का उचित समन्वय किया जाय . ये दोनों एक ही हैं तथा एक से अनेक और अनेक से एक तत्व की अद्भुत अभिव्यक्ति है . इनको समझ कर ही परम तत्वव की ओर मनुष्य बढ़ता जाये .
अरविन्द पुनर्जन्म के सम्बन्ध में भारतीय दृष्टिकोण को स्वीकार करते हैं कि कर्म फल के अनुसार पुनर्जन्म होता है . वे सृष्टि के सभी तत्वों में परम ब्रह्म की सत्ता एवं चेतना का निवास मानते हैं . वे अवतार में विश्वास करते हैं . वे कहते हैं कि परम सत्ता लीलाएं करती है और यह सृष्टि उसकी लीलाएं ही हैं .
अरविन्द ने योग को व्यक्ति की अन्तर्निहित एवं छुपी हुई शक्तियों को विकसित करने का मध्यम कहा है उनके अनुसार समस्त मानव जीवन ही योग है .मनुष्य और विश्व दोनों सत्य हैं एवं वास्तविक हैं .योग व्यक्ति को भौतिकता से ऊपर उठाता है जिससे वह अपना लक्ष्य पूरा करते हुए उत्तम पुरुष बन जाता है .योग साधना द्वारा बाह्य जीवन को संयमित एवं नियंत्रित करके मनुष्य को सर्व प्रथम परम सत्ता की अनुभूति प्राप्त करनी चाहिए .फिर साधना द्वारा आत्मा को शुद्ध करते हुए ऊपर उठाना होता है . इस हेतु आत्म्सपर्पण , चेतना , विवेक , प्रेम , भक्ति ,कर्म आदि आवश्यक हैं .
व्यक्ति अपने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में चाहे-अनचाहे पाप-पुण्य करता रहता है .वे संसार को पापमय न मानकर पुण्य का साम्राज्य मानते हैं .संसार में पाप भी है परन्तु विषय वासनाओं को दूर करके सदवृत्तियों को अपनाकर , योग पद्धति के मार्ग से , उस परम तत्व में पूर्ण विश्वास रखते हुए , मनुष्य पाप से मुक्त हो जाता है . गीता में जिसे पुरुषोत्तम कहा गया है , अरविन्द उसे अत्युत्तम मानव ( सुपर मैन ) कहते हैं .उसमें एक अत्युत्तम मन एवं अत्युत्तम चेतना होती है इस अत्युत्तम मानव के एश्वर्य की अभिव्यक्ति ही यह संसार है .इस अत्युत्तम मानव में सत,चित , आनंद --तीनों एकीभूत रूप में होते हैं .इसकी शाश्वत शक्ति से ही संसार की समस्त शक्तिया उत्पन्न होती हैं . इसी से ब्रह्माण्ड की सभी क्रियाएं नियंत्रित होती हैं . मानव का उद्देश्य इस उत्तम मानव तक पहुंचना है . जब मनुष्य प्राण , मन , आत्मा देह के एकाकार रूप को समझ लेता है , उसे सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है तो वह सत-चित-आनंद ( सच्चिदानंद ) के अत्युत्तम स्तर को प्राप्त कर लेता है अर्थात ब्रह्ममय हो जाता है . यही मोक्ष है .
संसार में अनेक मनुष्य हैं जिनमें अमर आत्माएं स्थित हैं . ये आत्माएं उस अत्युत्तम आत्मा से सम्बंधित हैं . इससे अपनी आत्मा का एकात्म प्राप्त करना ही मनुष्य के जीवन का अंतिम लक्ष्य है . सांख्य योग दर्शन के अनुसार इस उत्तम आत्मा को हम तर्क द्वारा जान सकते हैं परन्तु अरविन्द आत्मसमर्पण को इसकी प्रथम शर्त मानते हैं .
अरविन्द सती सावित्री की शक्ति से बहुत प्रभावित थे . उसने अपनी शक्ति से अपने मृत पति सत्यवान को जीवित कर दिया था . सावित्री को अवतार नहीं माना जाता है .अतः अरविन्द का दृढ विचार था कि मनुष्य साधना द्वारा उस शक्ति को प्राप्त कर सकता है जिससे व्यक्ति जन्म - मरण से परे, अमर हो जाये . अरविन्द जीवन पर्यंत उसी अमरत्व की खोज में लगे रहे . वे अमरत्व तो नहीं प्राप्त कर सके परन्तु मृत्यु के चार दिन बाद तक उनके चेहरे पर कांति विद्यमान थी .उसके बाद ही उनका अंतिम संस्कार किया गया था .
मनुष्य का जीवन स्तर उठाने के लिए उन्होंने अपने आश्रम पांडिचेरी में एक शिक्षा संस्थान प्रारंभ किया . उसमें उनके दर्शन के अनुसार अध्यात्म , योग एवं आधुनिक भौतिक विषयों की शिक्षा दी जाती है . बचपन में अंग्रेजियत में रंगे अरविन्द , युवावस्था में क्रन्तिकारी और बाद में एक सिद्ध पुरुष बन गए थे .
अरविन्द का दर्शन
महर्षि अरविन्द घोष ने युवावस्था तक इंग्लॅण्ड में रहकर पाश्चात्य साहित्य तथा दर्शन का गंभीर अध्ययन किया था .भारत आकर उन्होंने संस्कृत सीखी और वेद , उपनिषद गीता , सांख्य योग आदि ग्रंथों का विषद अध्ययन एवं चिंतन किया .वह भारतीय संत - महात्माओं की इस बात से सहमत नहीं थे कि माया दुःख देने वाली है और मनुष्य समस्त माया का त्याग करके केवल आत्म चिंतन करे , ब्रह्म चिंतन करे ,तप करे और मोक्ष प्राप्त हेतु निरंतर तत्पर रहे . वे पश्चिम के भौतिक वाद को भी अपूर्ण मानते थे .अपने चिंतन में उन्होंने पूर्व और पश्चिम की विचारधाराओं का अपूर्व समन्वय किया है .
वेदांत के दो सूत्रों ---एकम सत-नेह नानास्ति किंचन (सत्य एक है , दूसरा नहीं ) तथा सर्व खल्विदं ब्रह्म (यह सब कुछ ब्रह्म है ) की पुनर्व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि ब्रह्म एक है तथा यह सब कुछ( माया ,प्रकृति ,भौतिक वस्तुएं भी) ब्रह्म ही हैं .यह सब उस ब्रह्म का विस्तार ही है . भौतिकता से दूर भागना उचित नहीं है .आवश्यकता है कि अध्यात्म और भौतिकता का उचित समन्वय किया जाय . ये दोनों एक ही हैं तथा एक से अनेक और अनेक से एक तत्व की अद्भुत अभिव्यक्ति है . इनको समझ कर ही परम तत्वव की ओर मनुष्य बढ़ता जाये .
अरविन्द पुनर्जन्म के सम्बन्ध में भारतीय दृष्टिकोण को स्वीकार करते हैं कि कर्म फल के अनुसार पुनर्जन्म होता है . वे सृष्टि के सभी तत्वों में परम ब्रह्म की सत्ता एवं चेतना का निवास मानते हैं . वे अवतार में विश्वास करते हैं . वे कहते हैं कि परम सत्ता लीलाएं करती है और यह सृष्टि उसकी लीलाएं ही हैं .
अरविन्द ने योग को व्यक्ति की अन्तर्निहित एवं छुपी हुई शक्तियों को विकसित करने का मध्यम कहा है उनके अनुसार समस्त मानव जीवन ही योग है .मनुष्य और विश्व दोनों सत्य हैं एवं वास्तविक हैं .योग व्यक्ति को भौतिकता से ऊपर उठाता है जिससे वह अपना लक्ष्य पूरा करते हुए उत्तम पुरुष बन जाता है .योग साधना द्वारा बाह्य जीवन को संयमित एवं नियंत्रित करके मनुष्य को सर्व प्रथम परम सत्ता की अनुभूति प्राप्त करनी चाहिए .फिर साधना द्वारा आत्मा को शुद्ध करते हुए ऊपर उठाना होता है . इस हेतु आत्म्सपर्पण , चेतना , विवेक , प्रेम , भक्ति ,कर्म आदि आवश्यक हैं .
व्यक्ति अपने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में चाहे-अनचाहे पाप-पुण्य करता रहता है .वे संसार को पापमय न मानकर पुण्य का साम्राज्य मानते हैं .संसार में पाप भी है परन्तु विषय वासनाओं को दूर करके सदवृत्तियों को अपनाकर , योग पद्धति के मार्ग से , उस परम तत्व में पूर्ण विश्वास रखते हुए , मनुष्य पाप से मुक्त हो जाता है . गीता में जिसे पुरुषोत्तम कहा गया है , अरविन्द उसे अत्युत्तम मानव ( सुपर मैन ) कहते हैं .उसमें एक अत्युत्तम मन एवं अत्युत्तम चेतना होती है इस अत्युत्तम मानव के एश्वर्य की अभिव्यक्ति ही यह संसार है .इस अत्युत्तम मानव में सत,चित , आनंद --तीनों एकीभूत रूप में होते हैं .इसकी शाश्वत शक्ति से ही संसार की समस्त शक्तिया उत्पन्न होती हैं . इसी से ब्रह्माण्ड की सभी क्रियाएं नियंत्रित होती हैं . मानव का उद्देश्य इस उत्तम मानव तक पहुंचना है . जब मनुष्य प्राण , मन , आत्मा देह के एकाकार रूप को समझ लेता है , उसे सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है तो वह सत-चित-आनंद ( सच्चिदानंद ) के अत्युत्तम स्तर को प्राप्त कर लेता है अर्थात ब्रह्ममय हो जाता है . यही मोक्ष है .
संसार में अनेक मनुष्य हैं जिनमें अमर आत्माएं स्थित हैं . ये आत्माएं उस अत्युत्तम आत्मा से सम्बंधित हैं . इससे अपनी आत्मा का एकात्म प्राप्त करना ही मनुष्य के जीवन का अंतिम लक्ष्य है . सांख्य योग दर्शन के अनुसार इस उत्तम आत्मा को हम तर्क द्वारा जान सकते हैं परन्तु अरविन्द आत्मसमर्पण को इसकी प्रथम शर्त मानते हैं .
अरविन्द सती सावित्री की शक्ति से बहुत प्रभावित थे . उसने अपनी शक्ति से अपने मृत पति सत्यवान को जीवित कर दिया था . सावित्री को अवतार नहीं माना जाता है .अतः अरविन्द का दृढ विचार था कि मनुष्य साधना द्वारा उस शक्ति को प्राप्त कर सकता है जिससे व्यक्ति जन्म - मरण से परे, अमर हो जाये . अरविन्द जीवन पर्यंत उसी अमरत्व की खोज में लगे रहे . वे अमरत्व तो नहीं प्राप्त कर सके परन्तु मृत्यु के चार दिन बाद तक उनके चेहरे पर कांति विद्यमान थी .उसके बाद ही उनका अंतिम संस्कार किया गया था .
मनुष्य का जीवन स्तर उठाने के लिए उन्होंने अपने आश्रम पांडिचेरी में एक शिक्षा संस्थान प्रारंभ किया . उसमें उनके दर्शन के अनुसार अध्यात्म , योग एवं आधुनिक भौतिक विषयों की शिक्षा दी जाती है . बचपन में अंग्रेजियत में रंगे अरविन्द , युवावस्था में क्रन्तिकारी और बाद में एक सिद्ध पुरुष बन गए थे .
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