शनिवार, 14 जुलाई 2012

न्यायालय , सरकार और संसद का द्वंद्व

                                                          न्यायालय , सरकार और संसद का द्वंद्व 

  पाकिस्तान में संविधान  का गहरा संकट उत्पन्न हो गया है . पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी के विरुद्ध पुराने भ्रष्टाचार के आरोप हैं जिन्हें पूर्व राष्ट्रपति मुशर्रफ ने माफ़ कर दिया था . जिसके कारण वे चुनाव लड़ सके और राष्ट्रपति बन गए . पाकिस्तान न्यायालय के वर्तमान  मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी इससे सहमत नहीं हैं . उनका मानना है कि  अपराधी छोटा हो या बड़ा , वह क़ानून के दायरे में आता है . यदि उसने अपराध किया है तो उसे  सजा दी जाएगी . उन्होंने पाकिस्तान के पूर्व प्रधान मंत्री युसूफ रजा गिलानी को आदेश दिया की वे राष्ट्रपति के विरुद्ध कार्यवाही करें , परन्तु गिलानी ने कोई कार्यवाही करने से इस आधार पर इनकार कर दिया कि संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है . इसके लिए उन्हें न्यायालय की अवमानना का दोषी करार दिया गया , उन्हें ३० सेकंड कि सजा हुई और अपना पद छोड़ना पड़ा . अब वहां पर रजा परवेज़ अशरफ प्रधान मंत्री हैं . उन्हें भी कोर्ट ने वही आदेश दिया है कि राष्ट्रपति के विरुद्ध कार्यवाही करो . हालाँकि पाकिस्तान कि संसद ने संविधान संशोधन करके उन्हें कोर्ट कि कार्यवाही से बचाने का  प्रयास किया है , परन्तु जज चौधरी साहब इसे मानेंगे या नहीं अभी संदिग्ध है .प्रश्न उठना  स्वाभाविक है कि संसद , सरकार और न्यायालय में से कौन बड़ा है और कौन  छोटा है .
         इस प्रकार के विवाद भारत में भी उठते रहे हैं . जब कभी न्यायालय सरकार के तौर -तरीकों पर रोक लगाते  हैं या टिपण्णी करते हैं तो हल्ला होने लगता है कि संसद बड़ी है , सरकार बड़ी है , कोर्ट को उसमें हस्तक्षेप नहीं  करना  चाहिये .न्यायाधीशों की  सीमाएं हैं .वे खुल्लम खुल्ला नहीं कह सकते हैं कि वे सरकार  और  संसद  से  बड़े  हैं . कौन छोटा होगा , कौन बड़ा होगा , इसके लिए किसी संविधान या क़ानून में कोई प्रावधान नहीं हैं . फिर कैसे मानें कि कौन किसके आदेश का पालन करेगा .भारत के संविधान में तो 'सरकार ' और कार्य कारिणी के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा गया है . जब कुछ लोग स्वयं को 'सरकार' मान कर काम करने लगते हैं तो मनमानी करना उनका अधिकार हो जाता है . 
      इस  द्वंद्व  की विवेचना करने के लिए राजनीति शास्त्र के मूल सिद्धांतों को समझना होगा , सरकार शब्द का अभिप्राय उस संस्था से है जो किसी देश में राजा की  ओर से राज्य व्यवस्था का सञ्चालन करती है . राज्य व्यवस्था में आते हैं -- १. क़ानून बनाना (व्यवस्थापिका ) २. शासन के समस्त कार्य करना ( कार्यपालिका ) तथा ३. न्याय व्यवस्था (न्यायालय ) . राजशाही में सभी कार्य राजा स्वयं करता था या वह जिसे चाहता था कोई भी काम सौंप देता था . सरकार जो भी काम करती  है राजा के हित के लिए करती है . कानून राजा कि इच्छा के अनुसार बनते है , सारे काम भी उसकी इच्छानुसार किये जाते हैं और विवाद होने पर न्याय भी राजा की  इच्छानुसार किया जाता है . राजा के किसी काम पर प्रश्न नहीं किया जा सकता . राजतन्त्र में राजा अपनी ताकत से बनते थे और मनमाने ढंग से काम करते थे . उनकी तानाशाही के विरुद्ध राजनीति शास्त्री मोंतेस्क्यु ने सिद्धांत दिया  कि राज्य में व्यवस्थापिका , कार्यपालिका तथा  न्यायालय की शक्तियों का पृथक्करण होना चाहिए . जब प्रजातंत्र की व्यवस्थाएं लागू की गयीं तो उसके सिद्धांत का पालन किया गया . प्रजातंत्र में चूंकि राजा जनता होती है जिसकी ओर से ये व्यवस्थाएं लागू की जाती हैं , अतः यह प्रयास किया जाता है कि सरकार का कोई एक भाग दूसरों पर हावी न हो सके .   इसलिए तीनों में से न कोई बड़ा है न कोई छोटा . इनमें से न्यायालय  की भूमिका इसलिए विशिष्ट हो जाती है कि उसे सामान्य लोगों के साथ उन सत्ताधारियों  पर भी नियंत्रण करना होता है जो अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते हुए धन और संपत्ति लूटने को आतुर होते हैं . अधिकांश क्षेत्रों में तो न्यायालय अपराधियों और भ्रष्टाचारियों का साथ देने वाले होते हैं क्योंकि न्यायाधीशों को जो पैसे देता है या बहुत अच्छा वकील कर सकता है  सामान्य रूप से न्याय उसी के पक्ष में जाता है . भारत को ही लीजिये यहाँ अपराध तो खूब होते हैं परन्तु अपराधी  नहीं होते . अपराधी पकड़ में नहीं आते हैं इसीलिए तो तीन करोड़ से अधिक मुकदमें चल रहे हैं .अपराधी सोचता है पहले से मुकदमें चल रहे है ,उससे क्या होता है जो मर्जी हो करते जाओ ,एक- दो मुकदमें और हो जायेंगे तो क्या फर्क पड़ता है . पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी प्रशंसा के पात्र है जिन्होंने मुहिम चला रखी है कि अपराधी राष्ट्र पति भी होगा तो उसे नहीं छोड़ेंगे . यदि वहां के नेता सोचते हैं कि यह टकराव अच्छा नहीं है तो उन्हें प्रारंभिक जाँच करनी चाहिए और यदि ज़रदारी प्रथम दृष्टया दोषी पाए जाते हैं तो उन पर महा अभियोग लगाकर उन्हें सत्ता से हटा देना चाहिए और न्यायालय के हवाले कर देना चाहिए जैसा लोकतान्त्रिक देश अमरीका में होता है . यदि न्याय व्यवस्था का उद्देश्य बड़े लोगों को मनमानी करने देने का है , उन्हें बचाने का है , तो लोकतंत्र का ढोंग करने की आवश्यकता नहीं है .








         

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