मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

लोहड़ी - गीत


प्रायः सभी लोग जानते हैं कि प्रत्येक वर्ष १३ जनवरी को पंजाबी लोग लोहड़ी मनाते हैं . रात्रि में आग जलाने के साथ मक्के- मूंगफली ,रेवड़ी बांटने कि परम्परा रही है . इस अवसर पर 'सुन्दर-मुंदरीए हो ....' गीत कभी- कभी गया जाता है जो अकबर द्वारा एक लड़की से विवाह कि जिद करने पर दुल्ला-भट्टीवाला ने उसका सजातीय विवाह करवा दिया था ,की याद का प्रतीक है . लोहड़ी का अवसर विशेष होता है यदि घर में लड़के कि शादी हुई हो या लड़का हुआ हो . सभी धर्म और जातियों में इन्हें सर्वाधिक खुशी का अवसर माना जाता है . अतः यह खुशियों और शुभकामनाओं तथा बधाइयों का त्यौहार है .जहां तक मुझे ज्ञात है कि लोहड़ी के लिए ऐसा कोई गीत नहीं है . अतः यह पहला लोहड़ी-गीत होगा जिसमें खुशिया और बधाइयां व्यक्त की गई हैं .
पहले घर में अनेक बच्चे होते थे , बेटा घर का चिराग माना जाता था .इसलिए उसके जन्म या शादी की ही खुशियाँ मनाई जाती थीं . वर्तमान में एक या दो बच्चे ही होते हैं.
आज तो बेटी को माता - पिता का अधिक शुभ चिन्तक माना जाता है . अतः इस गीत में बेटी के होने या उसकी शादी की खुशियाँ भी व्यक्त की गई हैं तथा सभी रिश्तों को बधाई दी गई है जो निकट और दूर के रिश्तों के रूप में विद्यमान होते हैं .
लोहड़ी गीत

आया लोहड़ी दा त्यौहार , हो आया ......

खुशियाँ खूब मनाओ यार ,

नच्चो -गावो वंडो प्यार ,

मुड़ -मुड़ आवे ऐसा वार ,

कि आया लोहड़ी दा त्यौहार . हो आया ....


मुंडा वोटी लैके आया ,

सोणी वोटी लैके आया ,

खुशियाँ खूब मनाओ यार ,

नच्चो - गावो वंडो प्यार ,

कि आया लोहड़ी दा त्यौहार , हो आया ......


कुड़ी नूँ मस्त दूल्हा मिलया ,

सोणा -सोणा दूल्हा मिलया ,

खुशियाँ खूब मनाओ यार ,

नच्चो गावो वंडो प्यार ,

कि आया लोहड़ी दा त्यौहार ,हो आया ...


मुंडा - कुड़ी सदा सुख पावन ,

तरक्की करन ते वधते जावन ,

जल्दी सोणा पुत्तर आवे ,

(जल्दी सोणी सी धी आवे ,

खुशियाँ घर विच होन अपार) ,

कि आया लोहड़ी दा त्यौहार , हो आया ....


घर विच प्यारा मुंडा आया ,

किलकारियां मारदा सोणा आया ,

(घर विच प्यारी बच्ची आई ,

किलारियां मारदी सोणी आई )

रौशन कीता अन्दर - बार ,

कि आया .......


माता - पिता नूँ ढेर वधाईयां ,

दादी - दादा नूँ अनत वधाईयां ,

नानी - नाना नूँ लख वधाईयां ,

खुशियाँ वद्धन लख -हजार

कि आया ........


भाई - भैंणा नूँ वधाईयां ,

भैया - भाभी नूँ वधाईयां ,

भुआ - फुफ्फड़ नूँ वधाईयां ,

चाची -चाचा नूँ वधाईयां ,

मामी -मामा नूँ वधाईयां ,

मासी - मासड़ नूँ वधाईयां ,

सारे रिश्तां नूँ वधाईयां ,

डाक्टर खत्री दी वधाईयां ,

बचिआं नूँ देवो आशीर्वाद ,

सारी जिन्दगी रहन आबाद ,

खुशियाँ होवन अपरम्पार ,

कि आया .....


सारे मिलके भंगड़ा पावो ,

हस्सो - गावो धूम मचाओ ,

मक्के - रेवड़ी खांदे जाओ ,

मूंगफली , गजक वी मुंह विच पाओ ,

मुड़ - मुड़ आवे ऐसा वार ,

खुशियाँ खूब मनाओ यार ,

कि आया लोहड़ी दा त्यौहार

हो आया ......

डा. . डी. खत्री , भोपाल , .प्र . इंडिया

(वंडो = बांटो , मुड़-मुड़ = बार-बार , वोटी = दुल्हन , सोणी = सुन्दर , वधते = बढ़ते , वद्धन = बढ़ें , धी = बेटी , विच = में , भैंणा = बहन , नूं = को , बार = बाहर , बचिआं = बच्चों , खांदे = खाते , मूँ = मुंह , वी = भी )

सोमवार, 19 सितंबर 2011

अन्ना हजारे , लोकतंत्र और मीडिया

अन्ना हजारे , लोकतंत्र और मीडिया

पद्मभूषण अन्ना हजारे वर्तमान में सर्वधिक चर्चित व्यक्ति हैं . उनका व्यक्तित्व व्यापक तो है ही ,परन्तु उन्हें यह लोकप्रियता मीडिया के सहयोग से ही प्राप्त हुई है . अन्ना हजारे ने लोकतंत्र के जिस प्रमुख विन्दु को उठाने का प्रयास किया , मीडिया ने उस पर ध्यान नहीं दिया . अन्ना हजारे ने कहा कि लोकतंत्र में जनता राजा है . संविधान की प्रस्तावना , ''हम भारत के लोग .....''से प्रारंभ होती है . संविधान , किसी नेता ने नहीं ,भारत के लोगों ने स्वीकृत किया है , अतः जनता सर्वोपरि है और उसकी आवाज सरकार को माननी ही होगी . इस विचार की प्रारंभ से ही उपेक्षा की गई है इसलिए नेता मनमानी करने लगते हैं .. इस सम्बन्ध में प्रधान मंत्री डा. मनमोहन सिंह का बयान भी बहुत विचित्र था . अन्ना के अनशन की समाप्ति पर उनका वक्तव्य ,' पार्लियामेंट की इच्छा ही लोगों की इच्छा है ',पूर्णतयः लोकतंत्र विरोधी है . इसका अर्थ हुआ कि यदि संसद में मंहगाई पर चर्चा के समय अधिकांश सदस्य संसद से गायब थे क्योंकि उनकी दृष्टि में मंहगाई कोई मुद्दा ही नहीं है , का अर्थ हुआ जनता के लिए भी मंहगाई कोई मुद्दा नहीं है . कुछ पत्रों ने उनके वक्तव्य की प्रशंसा भी की . एक अन्य वक्तव्य जिसे मीडिया ने बहुत तूल दिया ,राहुल गाँधी का था कि लोकपाल को संविधान में सम्मिलित किया जाना चाहिए . यह एक सामान्य वक्तव्य है , परन्तु इस पर न्याय मूर्ती संतोष हेगड़े का वक्तव्य भी विचित्र था कि वे राहुल गाँधी से सहमत हैं . आश्चर्य इस बात का है कि न्यायमूर्ति हेगड़े क्या यह बात पहले नहीं जानते थे कि संविधान में न्यायालयों को जो अधिकार दिए गए हैं , यदि किसी संस्था को उसके कार्य क्षेत्र में हस्तक्षेप करने या उससे भी अधिक अधिकार दिए जाते हैं तो यह अधिकार संविधान संशोधन करके ही दिए जा सकते हैं अन्यथा सुप्रीम कोर्ट उस क़ानून को , उस संस्था को अमान्य कर देगा .यदि वे यह सब पहले जानते थे तो उन्होंने अन्ना हजारे को इसके लिए मानसिक रूप से पहले ही क्यों नहीं तैयार किया ? इससे यह स्पष्ट होता है कि मीडिया ने कभी भी लोकतंत्र - संविधान के मुद्दों को गंभीरता से नहीं लिया . इससे ऐसा भी प्रतीत होता है कि मीडिया का कार्य उन सनसनी खेज समाचारों को छापना या दूरदर्शन के चैनलों से प्रसारित करना है जिनसे उन्हें अधिक से अधिक लोकप्रियता मिले .

रविवार, 18 सितंबर 2011

मीडिया और लोकतंत्र

लोकतंत्र और मीडिया
मीडिया स्वयं को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहता है . इसलिए उसे अपना स्वरूप दिखाई ही नहीं पड़ता है .जबकि मीडिया कोई खम्भा नहीं है , वह तो समाज का स्वरूप है और अपने रूप को संवारने का दायित्व भी उसी का है . वास्तविकता यह है कि समाज के सामने लोकतंत्र कि भावना ही स्पष्ट नहीं है . यदि यह हमारी व्यवस्था है तो हम हड़तालें किसके विरुद्ध करते हैं ? यदि यह वास्तव में लोकतंत्र है तो मीडिया किसी नेता पुत्र जैसे राहुल,प्रियंका को देश के एक योग्य नेता के स्थान पर , एक राजकुमार या राजकुमारी और भावी शासक के रूप में किस आधार पर प्रस्तुत करता है ? हमारे पूर्व प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री और अटल बिहारी बाजपेई सामान्य परिवार से थे और आज के अनेक मुख्यमंत्री जैसे शिवराज सिंह चौहान , नरेन्द्र मोदी , मायावती , ममता बनर्जी आदि भी सामान्य परिवारों से हैं . अतः सर्वप्रथम लोकतंत्र की अवधारणा और प्रजातंत्र से उसके अंतर को भी को स्पष्ट रूप से समझना आवश्यक है जो अभी तक केवल 'रजतपथ' पत्रिका में ही दिया गया है .
प्राचीन काल में राजा तलवार की नोक पर बनते थे ,मध्य काल में तोपों और बंदूकों से बनने लगे और प्रजातंत्र में , अब लोगों के वोटों से बन रहे हैं . इसलिए जैसे उन कालों में राजा जनता से प्राप्त टैक्स को अपना समझते थे ,आज भी समझते हैं और उसे बिना किसी शर्म के अपने देशी-विदेशी खातों में जमा कर रहे हैं . फिर इसे भ्रष्टाचार क्यों कहना चाहिए ?
लोकतंत्र के परीक्षण का प्रमुख विन्दु है कि राज्य के कितने लोग देश हित में कार्य कर रहे हैं . एक शिक्षक यदि भावी नागरिक का निर्माण कर रहा है तो वह देश को समर्पित है , यदि वह उदरपूर्ति के लिए अध्यापन कर रहा है तो वह देश को अपना नहीं मानता है .जबकि दोनों स्थितियों में उसे वेतन उतना ही मिल रहा है . यदि भारत में १% लोकतंत्र माने तो क्या देश में १२ करोड़ लोग देश के लिए समर्पित हैं ?क्या ०.१% अर्थात १२ लाख लोग भी देश के लिए समर्पण भाव से कार्य कर रहे हैं ?
लोकतंत्र में मंत्री ,अधिकारी-कर्मचारी तथा जनता एक पंखे के तीन पंखों के सामान होते हैं ,जो कानून रुपी मोटर से जुड़े हों और व्यवस्थापिका रुपी विद्युत् से चल रहे हों .जिस प्रकार पंखे के तीव्र गति से चलने पर तीनों पंख ,मोटर तथा उसमें प्रवाहित होने वाली विद्युत् एकाकार हो जाते हैं , उसी प्रकार जब व्यवस्थापिका,कार्य पालिका और न्याय व्यवस्था का जनता के साथ पूर्ण रूपेण सामंजस्य हो जाये , जब शासन जनता कि इच्छा के अनुसार चले और उन्हें लगे कि सरकार उनकी और उनकी अपनी ही सरकार है , तब उसे लोकतंत्र कहा जायगा .

बुधवार, 14 सितंबर 2011

लिव-इन सम्बन्ध

लिव इन सम्बन्ध : दोषी कौन ?
भोपाल के अमित गुप्ता - अंजली गुप्ता प्रकरण को अत्यंत गंभीरता से लेना चाहिए . भविष्य में इस प्रकार के अन्य प्रकरण न हों ,इसके लिए न्यायालय को बहुत सोच समझ कर निर्णय देना होगा . अमित गुप्ता वायु सेना में ग्रुप कैप्टन है और विवाहित है . अंजली गुप्ता पहले फ्लाईट लेफ्टिनेंट थी और दोनों एक साथ पदस्थ थे . दोनों में लिव इन सम्बन्ध थे . अंजली गुप्ता ने अपने सेवा काल में अपने वरिष्ठ अधिकारियों पर सेक्स शोषण के आरोप लगाए थे . उसका कोर्ट मार्शल हुआ और उसकी सेवा समाप्त कर दी गयी . परन्तु उसके अमित गुप्ता से सम्बन्ध बने रहे . अमित गुप्ता भोपाल निवासी है , उसके लड़के की सगाई थी . इसी समय अंजली भोपाल उसके पास आई . अमित ने उसे पृथक मकान में रुकवा दिया और स्वयं बेटे की सगाई में बाहर चला गया . पीछे अंजली ने फांसी लगाकर आत्म हत्या कर ली . अमित को अंजली को आत्म हत्या के लिए उकसाने के आरोप में जेल में बंद कर दिया गया है . अंजली के घर वालों का आरोप है कि अमित ने अपनी पत्नी से तलाक लेकर उससे शादी का वायदा किया था और धोखा दिया जिससे दुखी होकर अंजली ने आत्म हत्या कर ली .
अंजली के घर वालों ने यह रहस्योद्घाटन भी किया है कि अमित के कहने से अंजली ने वरिष्ठ अधिकारियों के विरुद्ध आरोप लगाये थे . यदि आरोप झूठे थे तो सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी का यह कृत्य अत्यंत आपत्तिजनक एवं निंदनीय है . यदि आरोप सही थे और अमित के कहने पर लगाये गाये थे ,अपनी इच्छा से नहीं तो इसका अर्थ हुआ अंजली को संबंधों में कोई आपत्ति नहीं थी और उसने अमित को खुश करने के लिए ऐसा किया . कुछ भी हो अंजली ने एक बड़ा अपराध किया था जिससे उसकी नौकरी चली गई . जहाँ तक अमित - अंजली के विवाह का प्रश्न है तो अमित विवाहित है , हिन्दू है . हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार न तो वह दूसरी शादी कर सकता है और न आसानी से उसे तलाक मिल सकता है . क्या अंजली के घर के लोग यह नहीं जानते ? स्त्री हो या पुरुष , किसी के परिवार को तोड़ना , पति को पत्नी के विरुद्ध भड़काना एक गंभीर अपराध है क्योंकि इससे व्यक्ति पत्नी से छुटकारा पाने के लिए उसे मारने -पीटने से लेकर उसकी हत्या तक कर सकता है अथवा धर्म बदल कर पारिवारिक कलह उत्पन्न कर सकता है जैसा हरयाणा के पूर्व उप मुख्यमंत्री चन्द्र मोहन ने किया था . क्या हमारा कानून इसकी इजाजत देता है ?अंजली- अमित वयस्क होने के कारण लिव इन संबंधों के लिए स्वेच्छा से तैयार थे . अतः विवाह का वायदा होना या न होना क्या अर्थ रखता है ?
संसद और न्यायालय लिव इन संबंधों के लिए स्पष्ट कानून बनायें . यदि यह स्वच्छंदता और मस्ती है तो इसमें दोनों समान भागीदार हैं . कोई लेनदार - देनदार नहीं है . यदि यह विवाह के तुल्य मान्य है तो हिन्दू क़ानून में विवाहित स्त्री- पुरुष के सम्बन्ध में इसे किस रूप में लागू किया जायगा -- स्त्री या पुरुष को एक से अधिक विवाह करने की सुविधा होगी या प्रेमी- प्रेमिका से विवाह केलिए उसे तत्काल तलाक मिल जायगा या दोनों को अवैध सम्बन्ध बनाने का दोषी मानकर दण्डित किया जायगा ? यदि लम्बे समय तक कोई बिना विवाह के रहता है तो संतान का भार किस पर होगा ,
एक का निधन होने पर उसकी संपत्ति का हक़दार उसका लिव इन साथी होगा या स्त्री- पुरुष के परिवार के लोग होंगे ? यदि लिव इन वाले स्त्री-पुरुष अन्यत्र सम्बन्ध बनाते हैं तो उन्हें पूरी छूट होगी अथवा उन्हें कोई सजा मिलेगी ?
दूसरा यह प्रश्न भी महत्त्व पूर्ण है कि यदि सेना में स्त्री अपने देश के सैनिकों के मध्य असुरक्षित है तो विदेशियों के हाथ पड़ने कि स्थिति में उसकी क्या दशा होगी ? इसलिए स्त्रियाँ किस सीमा तक और किन कार्यों के लिए सेना में भरती हों ,इसपर भी समुचित विचार- विमर्श होना चाहिए . प्रत्येक मामले में स्त्री -अधिकारों कि बात करना ही पर्याप्त नहीं है .


बुधवार, 7 सितंबर 2011

इ -पत्रिका 'हस्तक्षेप' के संपादक का अन्ना को सांप्रदायिक मानना

प्रिय अमलेंदु जी,
अन्ना हजारे पर आपके विचार समझे . आपके अनुसार कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पूरा अधिकार है क्योंकि उसे आप जैसे लोगों का भरपूर समर्थन प्राप्त है . आर.एस.एस. सांप्रदायिक है , उसे तो मुंह खोलने का अधिकार भी नहीं है , कांग्रेस का भ्रष्टाचार रोकने वाले वे कौन होते हैं ? जो भी कांग्रेस के भ्रष्टाचार को रोकने का प्रयास करेगा उसे साम्प्रदायिक कहा जायेगा . काश ! आपने अन्ना हजारे को यह बात पहले समझा दी होती तो वे सांप्रदायिक होने से बच जाते . अब तो आपने उन्हें सांप्रदायिक होने का प्रमाण पत्र दे ही दिया है , वे पीछे हटेंगे तो भी आप और आप जैसे भ्रष्टाचार समर्थ कांग्रेसी उनके पीछे पड़े ही रहेंगे . आपने तो अन्ना जी के सामने कोई विकल्प ही नहीं छोड़ा .अच्छा होगा आप दिल्ली में एक तम्बू लगाकर भ्रष्टाचार के समर्थन में खा-पीकर आन्दोलन करें . आपकी महफ़िल में में इतने सारे भ्रष्टाचारी ,अपने दल-बल और धन दौलत के साथ आ जायेंगे की लोग अन्ना का नाम ही भूल जायेंगे .

रविवार, 28 अगस्त 2011

परीक्षा में विलम्ब के लिए विश्वविद्यालय उत्तरदायी

परीक्षा में विलम्ब के लिए विश्वविद्यालय उत्तरदायी
परीक्षा में विलम्ब और लाख से अधिक छात्रों का वर्ष बर्बाद करने के लिए विश्विद्यालय उत्तरदायी हैं .छात्रों को इसकी क्षति पूर्ति करने के स्थान पर प्राध्यापकों के सर पर इसका दोष मढ़ना अति निंदनीय है . वास्तविक तथ्यों की जानकारी ज्ञात किये बिना सरकार द्वारा सेमेस्टर परीक्षाओं को अत्यावश्यक सेवा घोषित करने से क्या लाभ होगा ?परीक्षा कार्य में पेपर सेटिंग और मूल्यांकन भ्रष्टाचार और कमाई के बड़े स्रोत हैं और अनेक वर्षों से उस पर काकस का कब्ज़ा बना हुआ है . परीक्षा कार्यों से सम्बद्ध अधिकारी अपने चहेतों को अच्छे पेपर देते हैं . अच्छे अर्थात जिसमें छात्र संख्या अधिक हो . ईमानदार वरिष्ठ प्राध्यापकों को ऐसे पेपर देंगे जिनमे छात्र कम हों या स्नातकोत्तर के वे प्रश्नपत्र जो उन्होंने पढ़ाये ही न हों . इसमें पहचान और तिकड़म का अधिक जोर चलता है . जिनकी बार- बार उपेक्षा की जाएगी , वे चुप रह जाने के अतिरिक्त क्या करें ? किससे शिकायत करें ? कौन सुनने वाला है ? क्या सरकार ने कभी किसी प्राध्यापक से पूछा है कि उसने ऐसा क्यों किया ? विश्विद्यालय ने चुगली की और शासन ने मान ली .ऐसे सरकारी अफसरों को क्या कहेंगे ?
जहाँ तक कापियों के मूल्यांकन का प्रश्न है , उन्ही को बुलाया जाता है जो गैंग की इच्छानुसार कापियां जांचें . मैंने अंतिम बार दो दिन मूल्यांकन शायद २००३ या २००४ में किया था . उस समय मैं भोपाल के उत्कृष्टता संस्थान में रसायन शास्त्र का विभागाध्यक्ष था .मैं अपनी कक्षाएं लेने के बाद कापी जांचने पहुंचा या शायद वह छुट्टी का दिन था . मुझे कहा गया कि मैं अपनी संस्थान की संचालक से लिखित में अनुमति लेकर आऊँ . जब मैंने संचालक से अनुमति की बात की तो उनका कहना था की चूंकि मै अपना कार्य पूरा करके जा रहा हूँ तो अनुमति की आवश्यकता नहीं है . जिस ने मुझे आदेश लाने के लिए कहा था, वह मुझे अच्छी तरह जनता है . शायद मैं अच्छा परीक्षक नहीं माना जाता था . उसके कुछ वर्ष पूर्व जब मुझे केन्द्रीय मूल्यांकन में कापियां दी गईं तो उसमें कुछ कापियों के पन्ने मुड़े हुए थे और कहा गया था की उन को उत्कृष्ट नंबर देने हैं. पास होने तक नंबर देना तो समझ में आता है परन्तु मनमाने ढंग से नंबर देना मेरे बस की बात नहीं थी . ऐसे शिक्षक वहां नहीं चाहिए जो वहां के क्लर्कों की आज्ञा का उल्लंघन करें .विश्विद्यालय में एक बार मूल्यांकन कार्य का प्रभारी एक रीडर को बनाया गया . वह बड़ी ईमानदारी से काम कर रहे थे . एक अपिरिचित शिक्षक को देख कर उससे पूछा तो उसने बताया उरई (उ. प्र.) से आया है . उम्र देख कर उससे कुछ और नहीं पूछा . अगले दिन देखा दो सुन्दर युवा लड़कियां कापी जांच रही हैं . उनसे पूछा कि कहाँ से आई हो . उन्होंने कहा कि उरई से . बिना अनुमति के मजे से कापिया जाँच रही हैं . रीडर ने उन्हें निकाल दिया . अगले साल किसी रीडर- प्रोफ़ेसर को मूल्यांकन का प्रमुख नहीं बनाया गया .जिस शिक्षक का पेपर होता है , कापी जांचने में उसे भनक भी नहीं लगने दी जाती है यदि वह अच्छा और स्वाभिमानी हो . परीक्षा -माफिया ने वरिष्ठ और अच्छे शिक्षकों को अपमानित करके परीक्षा से दूर किया है . कितने किस्से कहूं ? आज ये विश्विद्यालय के अधिकारी शिक्षकों को बदनाम कर रहे हैं और शासन उनकी बात सुन भी रहा है , यही म. प्र. का दुर्भाग्य है . अपने सगे अधिकारियों का इतना अपमान शायद ही कोई अन्य विभाग करने की बात भी सोचता हो .
रही बात कम मूल्यांकन की दर की . केन्द्रीय मूल्यांकन में तो अंतिम दिन भुगतान कर दिया जाता है .परन्तु घर से कापिया जाँच कर भेजने या अन्य कार्यों के लिए बिना जुगाड़ के विश्विद्यालय कम दर वाले पैसे भी नहीं देता है . आठ वर्ष पूर्व तक का मेरा अपना यह अनुभव रहा है कि परीक्षा विभाग से बिल पर हस्ताक्षर करवाकर , उसे अपने सामने एकाउंट सेक्शन में रजिस्टर पर चढ़वाकर , उस रजिस्टर को वित्त अधिकारी के पास ले जाकर उससे हस्ताक्षर करवाकर ,उप कुलसचिव/सहायक कुलसचिव के सामने बैठकर चेक पर हस्ताक्षर करवाकर तो राशि प्राप्त कि जा सकती है या फिर आपके लिए यह कार्य कोई दूसरा व्यक्ति करदे या फिर कोई जुगाड़ हो अन्यथा आपकी किस्मत है की पैसे मिल जाएँ . विश्विद्यालय के स्थान के बाहर के लोग यह सब कैसे कर सकते हैं ? कापियां किसके लिए जांचें? मैंने अप्रेल २००९ में बरकतुल्लाह विश्विद्यालय में पाठ्यक्रम समिति की बैठक में भाग लिया था . आज तक यात्रा भत्ता नहीं मिला जो शायद ५० रूपये था .प्रश्न पत्र बनाने से लेकर मूल्यांकन कार्यों तक अधिकांश समय वरिष्ठों की जम कर उपेक्षा की गई है . प्रायोगिक परीक्षाओं में तो मुफ्त में खूब नंबर देने की पृथा बना दी गई है . निजी महाविद्यालयों में तो ऐसे शिक्षक चाहिए जो लैब के बाहर ही नंबर दे कर चले जांयें . निजी महा विद्यालयों में लिखित परीक्षा केंद्र रखे ही नहीं जाते हैं . सरकारी कालेज अतिथियों के भरोसे चल रहे हैं . कम स्टाफ , सेमेस्टर की परीक्षाएं और परीक्षाएं , यह प्राचार्य ही जानते हैं कि वे कैसे काम कर पा रहे हैं .विश्विद्यालय के ढेर सारे पेपर ,उनके मन पसंद थोड़े से शिक्षक , जो अपना वार्षिक मूल्यांकन राशि का कोटा शीघ्र पूरा कर लेते हैं , उससे अधिक मूल्यांकन कार्य उन्हें मुफ्त में करना होगा . ऐसा कौन करेगा ?
म.प्र. उच्च शिक्षा विभाग के नए आयुक्त और प्रमुख सचिव अपने विभाग के बारे में क्या जानते हैं ? किसी से मिलना उन्हें पसंद नहीं है . यथार्थ जाने बिना यदि कुछ निर्णय लेंगे तो उससे व्यवस्था और बर्बाद ही होगी .

बुधवार, 24 अगस्त 2011

लोकपाल बिल की दुविधा

लोकपाल का संकट
भ्रष्टाचारी
हर भ्रष्टाचारी है चाहता ,घूंस न खाए कोय ,
मुझको धन मिलता रहे, उस पर रोक न होय.
उस पर रोक न होय,ऐसा कानून बनायें ,
दूसरा कोई रूपये खाए , उसे जेल पहुंचाएं.
किया यही विचार, कि मिलकर मुफ्त का माल उडाएँगे ,
कोई टांग अड़ाएगा , तो मिलकर उसे सतायेंगे .
एकमत
अलग-अलग शरीर हैं,आत्मा सबकी एक,
नूरा कुश्ती लड़ रहे ,जनता रही है देख.
जनता रही है देख,एकमत हैं सब नेता,
भ्रष्टाचार रहेगा जिन्दा,कोई हँसे,रहे या रोता .
वेतन,भत्ते,सुख ,सुविधाएँ,सबकी राय एक है रहती ,
लोकपाल की बात करें तो,उसमें किसी की राय न मिलती .
दुविधा
हमारी दुविधा एक है ,कैसे करें बखान,
हाँ,कैसे कह दें इस बिल को ,आफत में है जान ,
आफत में है जान,लोक बिल पास करेंगे ,
जेल में होंगे बंद , मुकदमें रोज चलेंगे .
जीने का अधिकार हमें भी, भले रहें हम भ्रष्टाचारी ,
अपने हाथों हम,फंदा टाँगें?कैसे माने बात तुम्हारी ?

बुधवार, 17 अगस्त 2011

अन्ना हजारे

गृहमंत्री
चिदंबरम नहीं जानते अन्ना का स्थान ,
ऐसे गृहमंत्री मिले , भारत देश महान .
भारत देश महान ,निकम्मे नेता पाए,
शांति का सच्चा दूत,देश में गुम हो जाए.
कहे चिदंबरम पुलस नहीं है बस में मेरे,
बढ़ता भ्रष्टाचार ,देश में सांझ - सबेरे. १ .
अन्ना की हुंकार भ्रष्टाचार की प्रेरणा, यह मनमोहन सरकार,
राष्ट्र जागृत हो गया सुन अन्ना की हुंकार.
सुन अन्ना की हुंकार,मंत्रीजी डर-डर जाएं ,
जेल में कर दो बंद, धड़कन कहीं रुक न जाए .
जेल में बैठा चुप , न जाने क्या है ठानी ,
आएगा भूचाल, करोगे यदि मनमानी . २ .
सत्याग्रह
अन्ना आप महान हैं,धन्य आपका त्याग ,
आपकी इक ललकार से ,भ्रष्ट रहे हैं भाग.
भ्रष्ट रहे हैं भाग, जेल में बंद कराया,
सत्याग्रह की शक्ति,सैलाब उमड़ कर आया
तानाशाहों की नींद उड़ी,अब थर-थर कांपें ,
नहीं मिल रहा मार्ग, अब किसकी माला जापें .३.
वन्दे-मातरम्
कहते वन्दे मातरम,भारत माता की जय ,
बाल,युवा और वृद्धों के,एक हुए सुर लय .
एक हुए सुर लय , है भ्रष्टाचार मिटाना,
चाहे कुछ भी हो , अन्ना के साथ है रहना .
मची है अंधी लूट, देश के प्यारों जागो,
अन्ना का दो साथ, अब पीछे मत भागो.४.
राह
मत बन रावण बावरे,समय को तू पहचान,
अहम् का चोला छोड़ दे,बन जा तू इंसान.
बन जा तू इंसान,ह्रदय में प्रीति जगा ले ,
छोड़ दे भ्रष्टा चार,अन्ना को शीघ्र मना ले.
अहिंसा का यह दूत,तुम्हे है राह दिखाता ,
देश को कर ले प्यार,जोड़ अन्ना से नाता

रविवार, 17 जुलाई 2011

lokpal bill

Respected Anna ji,

I don’t agree with your plan to go on indefinite strike from 16th august .On 18th may 2011 I sent a request to BaBa ramdev for not going on unshion for indefinite period rather he should have a token satyagrah for 3to7 days with taking all the meals because nobody will care for him & police action will be taken against him and it will be a big setback to not only for him but for the whole people of India. In that letter I also wrote that the time of election before the Sonia Gandhi had gone and now they will not care even for Anna hazare . now all can see the same is happening .

In second letter I question all of you that who will sign his own death-warrant . you want severe punishment for corrupt people. As all knows most of the leaders who have to pass the bill are themselves corrupt . One should not expect a person will pass a bill for his own punishment . Your team is demanding the punishment not for the members & ministers but for their boss Mr prime minister . now they all have a good escape . second thing is that supreme court will not allow an Act which will diminish its supreme power without a proper amendment in constitution which is not possible in a day . Even if you form a majority Govt at centre You cannot pass the bill as per your draft . How your team is insisting on Act which is not feasible at all ! and for that to go on indefinite strike is not justified .

As for as inclusion of PM is concerned , if the prima facie case appears against him he can be forced to leave the post or he has to loose the next election and then to face the charges as had happened in case of Rajeev Gandhi . On the other hand Indira Gandhi imposed emergency when she found that her election to the parliament has been found illegal and jailed all those who opposed her . Therefore I request you to think twice not only with close members but with other legal experts & thinkers .

I was principal in a Govt college of MP . I took VRS because I could not dare to spoil the future of my students . now I am publishing a magazine ‘Rajatpath’ from Bhopal . My aim is to make the clear concept of political & legal terms . As, there is no term ‘GOVERNMENT’ in the constitution , NO term of Executive in the constitution but everybody is calling as govt to the ministry. When a case is under consideration in a court against govt ,not a minister but administrative has to face the trial and if the case is lost the penalty is imposed on public fund which has nothing to do with the matter . please think over the real picture of the country .

I have a full plan in a system named ‘janshakti’ (rajatpath , Dec-Jan’2010) if applied ,will lead to a society almost free of crimes where people will work honestly with a feeling of brotherhood.

I would again request you humbly to reconsider about satyagrah and utilize your huge energy in future . please let the bill pass as ministry wants.

With regards,

Pro.A.D.Khatri , bhopal

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

aatanki hamle

देसी राजा
रामदेव परिवार पर ,रात्रि में किया प्रहार
ताल ठोंक के नेता बोले , जीत लिया संसार .
जीत लिया संसार , देश में राज हमारा ,
अन्ना गर तम्बू तानेगा,इसी तरह जायेगा मारा .
आतंकी या डान के हमले , नहीं हमारी जिम्मेदारी ,
हम तो हैं बस देसी राजा, निंदा करना शान हमारी ..
मानो उनका एहसान
निन्यानबे के फेर में , हैं राहुल महाराज,
सौवां हमला कर गए ,आतंकी धनराज .
आतंकी धनराज , सभी सरकार के चेले ,
बचपन बीता यहीं,लगाए निसी दिन मेले .
बोले दिग्गी, पाक में होते रोज हैं हमले,
मानों उनका एहसान,बैठे हो अभी भी संभले.

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

face of corruption

Face of corruption
There are many faces of corruption . The common most of them is construction corruption because it can be seen everywhere you go .The whole episode of common wealth games is devoted to it which was done with the consent of our honest prime minister Dr. manmohan singh . In madhya pradesh there happened a minor incident of negligence rather than corruption for which a high profile enquiry has been set up. It is not for being an honest govt working in M.P. but for a specially high dignitary , Governor of madhy pradesh. the govt. of M.P. organizes many nautankies, to impress poor people so that they may realize that it is a great govt ,doing lot of work for their welfare. The program was ,'school chalen ham' to show govts' devotion to RTE. On the first opening day of schools , teachers welcomed students by garlanding ,tilak etc & distributing sweats , toffees to them . but no care was taken for the poor roofs allowing rain water inside classrooms . There was no cleanliness and boundary wall for the security of the schools , no proper teaching materials & qualified staff.
A new temporary helipad was constructed to land the helicopter of Mahamahim Rajypal . Without O.K. report , as PWD department of M.P. usually avoids in most of the cases to bear the responsibility of its poor construction , Governor's helicopter was sent to the school . As soon as it tried to touch the land the poor helipad could not bear the burden & its wheels kracking the pad entered the soil . the expert pilot by trial & error method any how landed it without much pressure on the surface and Governor came down with the help of a stair safely and attended the function .They were back by road .
Now the first question is, along with 'The Hitvada', many leading news papers are picturing the pit holes & damaged road all over the Bhopal city ,what to say about villages .No body takes care of that . Every body knows it is a routine corruption phenomenon . Roads even disappear , bridge collapse ,buildings drip , who cares for that . the only thing is observed that from top to bottom every body has received his proper share in corruption . It was very small construction work that too in a rainy season on a black soil . Certainly no body will think of corruption or doing it knowingly .
As it was for the head of the state. therefore first responsibility lies on the person who planned to take him there and secondly on the authority who landed over the helicopter on the poor helipad without O.K. report. when Roads made with huge expenditure are unable to take the loads of small & light vehicles and common man then what to talk about a helicopter' load .
Second question is that the whole people of state have no weightage and are accursed to face the ruined roads through out the year because no body have ever heard any enquiry concerned
with the construction work. How one can say, all are equal before the constitution ? Had governor even once asked about the ruined roads , such incident would never have occurred.

Dr.A.D.Khatri , Bhopal















of ,

PRAVESH TITHI

राज्यपाल प्रवेश तिथि न बढाएं
म. प्र. के महाविद्यालयों में प्रवेश की अंतिम तिथि ३० जून थी . अनेक सीटें खाली रह गईं हैं . छात्रों के हो- हल्ले के बाद प्रवेश तिथि बढ़ाने के लिए उच्च शिक्षा विभाग कुलाधिपति ( महामहिम राज्यपाल )को फ़ाइल भेज कर तिथि बढवाने का नाटक कर रहा है . स्नातक पांचवें सेमेस्टर के पूरे परिणाम भी अभी तक नहीं आये हैं . अभी उनकी पूरक परीक्षा भी होनी होगी उसके परिणाम कब आयेंगे कौन जाने . छठे सेमेस्टर कि परीक्षा तिथि घोषित हो गई है . १६ मई से कालेजों में ग्रीष्मावकाश था . छठे सेमेस्टर कि पढ़ाई कब हो गई ? जब बिना कालेज गए, छात्र छात्रवृत्ति ले सकते हैं , परीक्षा में बैठ सकते हैं और अच्छे अंकों से पास हो सकते हैं तो प्रवेश तिथि का नाटक क्यों ? यदि १५ दिन तिथि बढ़ा भी दी गई तो स्नातकोत्तर और विधि कक्षाओं के लिए छात्र कहाँ से आयेंगे ? प्रवेश तिथि के चलते प्राचार्यों को अनावश्यक परेशानी का सामना करना पड़ता है . अनावश्यक रूप से छात्रों को आन्दोलन करने पड़ते हैं . जब नियमित परीक्षाएं होती थी , कालेज में सीटें भर जाती थी , उच्च शिक्षा आयुक्त नवम्बर -दिसंबर तक छात्रों को विशेष अनुमति देकर प्रवेश देने का आदेश देते रहें हैं . आज तो कुछ इने -गिने कालेजों को छोड़ दें तो सामान्य स्थिति में अधिकांश कालेजों में स्नातकोत्तर कि अनेक सीटें खाली रह जाती हैं . इस बार तो प्रवेश ही शून्य हैं . १५ दिन तिथि बढ़ाने से क्या फर्क पड़ेगा ? राज्यपाल के पास फ़ाइल भेजने का सीधा अर्थ छात्रों ,उनके अभिभावकों और जन सामान्य को यह सन्देश देना है कि शिक्षा व्यवस्था की सारी गड़बड़ी कुलाधिपति अर्थात राज्यपाल ही कर रहें हैं . यह दुःख की बात है कि राज्यपाल क्लर्कों -आयुक्तों द्वारा नोट लगाकर भेजी गई फ़ाइल पर अपने हस्ताक्षर करके शिक्षा व्यवस्था को चौपट करने का दायित्व स्वयं ले रहें हैं . यदि दायित्व ही लेना है तो परीक्षा कि लेट लतीफी से छात्रों का वर्ष बर्बाद होने का दायित्व लें और उन्हें क्षतिपूर्ति दिलवाएं क्योंकि विश्विद्यालय का कोई भी फार्म , वह परीक्षा के लिए हो , नामांकन के लिए हो या कोई अन्य फार्म हो , छात्रों से जम कर विलम्ब शुल्क वसूला जाता है . प्राकृतिक न्याय के अनुसार परीक्षा परिणाम विलम्ब से ही नहीं घोषित किये गए , उनका साल बर्बाद कर दिया गया है . उन्हें निश्चित रूप से हर्जाना मिलना चाहिए और यह न्यूनतम एक चतुर्थ श्रेणी कर्म चारी के वेतन के बराबर और विलंबित समय तक के लिए दिया जाना चाहिए . एक बार ऐसा करने पर दुबारा कोई विश्विद्यालय परीक्षा कि लेट लतीफी नहीं करेगा .जहाँ तक प्रवेश तिथि बढ़ाने का सवाल है , इसका अधिकार प्राचार्यों को दे दिया जाय कि वे अपने विवेकाधिकार से छात्र हित में उसका उपयोग करें . क्योंकि विश्विद्यालय से दूर के स्थानों के छात्र-छात्राओं को विश्विद्यालय या भोपाल आयुक्त कार्यालय आने में समय एवं धन कि अधिक हानि होती है , साथ ही इन स्थानों पर दलालों -घून्सखोरों के चंगुल में फंसने का भी भय रहता है .और यदि छात्र के मन में यह विचार बैठ गया किअब आगे प्रवेश नहीं मिल सकता तो वह उच्च शिक्षा से विमुख भी हो सकता है . आज कि तारीख में जो छात्र प्रवेश आयु की उच्च सीमा पर होंगे , अगले वर्ष वे प्रवेश , छात्र वृत्ति , उच्च डिग्री आदि से भी वंचित हो जायेंगे . यह प्रदेश के युवाओं के प्रति बड़ा अन्याय होगा . महामहिम राज्यपाल , कुलाधिपति जी से अनुरोध है कि अपने कुल की रक्षा के लिए कुछ तो करें .
महाविद्यालयीन शिक्षा में युवाओं की अरुचि उत्पन्न करने का एक कारण तो कम छात्र आने पर अनेक महाविद्यालय बंद करके पैसे बचाने का अवसर इस सरकार के हाथ लगेगा. दूसरा प्रमुख कारण छात्र-संघ के चुनाव के सम्बन्ध में म.प्र. उच्च न्यायलय का वह आदेश है , जिसके अनुसार इस बार छात्र संघ के चुनाव सीधे होने हैं . वे अब सीधे -टेढ़े कैसे भी नहीं हो पाएंगे . जब प्रवेश ही नहीं होंगे ,चुनाव कौन लड़ेगा ? जब सितम्बर तक परीक्षा चलेंगी तो कौन से छात्र और प्राध्यापक चुनाव के लिए उपलब्ध होंगे ? न्यायलय का आदेश कागजों पर रहेगा , चुनाव नहीं करवाए जांएगे और कोई अवमानना भी नहीं होगी .इसके विपरीत यदि कोई चुनाव करवाना भी चाहेगा तो किसी ऐसे छात्र को पकड़ कर , जिसका परीक्षा फल घोषित न होने के कारण अगली कक्षा में प्रवेश न हो सका हो , स्टे ले लिया जायगा और वह मिल भी जायेगा जिससे पुनः वर्षों तक छात्रों को चुनाव से दूर रखा जा सकेगा .
डा.ए. डी.खत्री

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

राक्षस राज रावण (धारावाहिक)

सरकार क्या होती है ?

सरकार क्या होती है ?

राजनीतिशास्त्रियों द्वारा स्वीकृत राज्य के चार तत्वों में से एक तत्व ' सरकार ' है . सरकार राज्य व्यवस्था चलाती है . अपने राज्य में निवास कर रहे लोगों पर प्रेम पूर्वक अथवा बल प्रयोग से जो अपने आदेश का पालन करवा सकती है, उसे सरकार कहते हैं . बाबा रामदेव को बहुत समझाया , चिरौरी की , नहीं माने तो आधी रात में पुलिस के द्वारा खदेड़ कर अपना आदेश मनवाया . इसी को सरकार कहते हैं . सरकार एक व्यक्ति भी हो सकता है , एक संस्था भी हो सकती है . सरकार के तीन कार्य होते हैं --१. कानून बनाना , २. उनके अनुसार प्रशासन चलाना तथा ३. न्याय -व्यवस्था बनाए रखना . जब तीनो शाक्तियां एक व्यक्ति में केन्द्रित होती हैं (जैसे पहले राजा होते थे ) तो वह व्यक्ति तानाशाह हो जाता है . वही कानून बनता है , वही राज्य के कार्य करता है और न्याय भी वही करता है .दूसरे शब्दों में ये तीनों कार्य उसी के नाम से अर्थात राजा के नाम से ही होते हैं . सर्व प्रथम राजनीतिशास्त्री मान्टेस्क्यू ने इसकी विषद रूप से विवेचन की . उसने कहा कि राज्य में तीनों शक्तियां पृथक होनी चाहिए तथा उनमें शक्ति संतुलन होना चाहिए कि कोई किसी पर हावी न हो सके . वर्तमान में प्रजातान्त्रिक राज्यों कि अधिकता है . उनमें यह प्रयास किया जाता है कि तीनों शक्तियां पृथक रहें . भारत में कानून बनाने का काम सांसद या विधायक करते हैं , कार्यपालिका उसके अनुसार कार्य करती है .विवाद होने पर न्यायालय उसका फैसला देते हैं . ये तीनों शक्तिया संयुक्त रूप से 'सरकार ' कहलाते हैं . भारत में यह विवाद प्रायः उठता रहता है कि तीनों में से बड़ा कौन है ! सांसद कहते हैं संसद सर्वोपरि है , मंत्री कहते हैं कि न्यायालय उनके कामों में हसक्षेप न करें परन्तु वह न्यायालय ही क्या जो गलत को गलत न कह सके . इनका विवाद उसी प्रकार का है जिस प्रकार शरीर का एक अंग स्वयं को अन्य अंगों से श्रेष्ठ घोषित करने लगे .
भारत के संविधान में सरकार नाम की कोई संस्था नहीं है . कार्यपालिका नाम की भी संस्था नहीं है . कार्यपालिका में मंत्रिमंडल भर ही नहीं आता है . वे सभी लोग , कर्मचारी एवं अधिकारी , जो शासन कका कोई भी कार्य करते हैं कार्यपालिका का हिस्सा हैं . इसलिए जब भी किसी विभाग के कर्मचारी द्वारा किसी व्यक्ति की संतुष्टि के विरुद्ध कोई कार्य किया जाता है , वह न्यायालय चला जाता है और राज्य या केंद्र को पार्टी बनता है . न्यायालय को उसका उत्तर वह कर्मचारी या अधिकारी नहीं देता बल्कि उस विभाग का सचिव या आयुक्त देता है क्योंकि वे लोग कार्यकारिणी के स्थायी सदस्य हैं . मंत्री गण जो अपने और केवल अपने को ही सरकार मानते हैं , सरकार के विरुद्ध किये गए मुकदमें का उत्तर देने कभी कोर्ट नहीं जाते ,क्यों ? क्योंकि मंत्री लोग कार्यकारिणी के अस्थायी सदस्य होते हैं ,आज एक विभाग के मंत्री हैं , कल किसी और विभाग के हो सकते हैं या सड़क पर भी आ सकते हैं . उन्हें विभाग के बारे में उतना ही पता होता है जितना अधिकारी उन्हें समझा देते हैं .परन्तु मंत्री मंडल को शासन की योजनाओं को बनाने , उनकी प्राथमिकताएँ तय करने , धन स्वीकृत करने तथा उन्हें क्रियान्वित करने का आदेश देने की शक्ति होती है .एक बार मंत्रिमंडल बन गया तो वह कितना भी अस्थिर एवं कमजोर क्यों न हो , वह छोटे से बड़े अधिकारियों को अपने आदेश से कहीं भी स्थान्तरित कर सकता है .देश -विदेश में शासन के कार्य सम्बन्धी निर्णय ले सकता है और उसकी घोषणा कर सकता है कियह कार्य उसने किया है ,जबकि स्थायी कोई भी अधिकारी , वह चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो , कर्ता के रूप में अपने नाम की घोषणा नहीं कर सकता . अर्थात प्रत्यक्ष रूप से शासन के काम करते मंत्री ही दिखते हैं , और जब तक उन कार्यों को अदालत में चुनौती न मिले , वे सरकार के काम के रूप में ही जाने जाते हैं .अतः मंत्री लोग अपने को 'सरकार' तथा सभी छोटे से बड़े अधिकारियों को नौकर मानते हैं और अन्य लोग भी ऐसा ही मानने लगते हैं . परिणाम स्वरूप मंत्री स्वयं को सब काम करने -करवाने वाला कहते हैं और लोग भी यह समझ लेते हैं कि यही सरकार है और उनके सभी काम चुटकी बजाते ही कर देंगे. जब वे अपनी सीमाओं के कारण कार्य नहीं कर पाते तो लोगो को बड़ी निराशा होती है .
मंत्रियों के स्वयं को सरकार या दूसरे शब्दों में 'राजा ' तुल्य मानने का प्रभाव उन पर यह पड़ता है कि वे प्राचीन काल के राजाओं कि भांति जनता से वसूले गए कर को अपनी निजी संपत्ति समझने लगते हैं और किसी शर्म के बिना वैसे ही उस जनता- धनको अपने खाते में जमा करने लगते हैं जैसे पहले के राजा करते थे . कोई उसे भ्रष्टाचार कहता है तो कहता रहे . पुराने राजा तो स्थायी होते थे . इन मंत्रियों का कार्यकाल कितने भी कम दिनों का हो सकता है . अतः जब किसी को मंत्री पद प्राप्त हो जाता है तो वह अपनी नौकरी की चिंता में पड़ जाता है , बहुत असुरक्षित मसूस करने लगता है और जितना लाभ कमा सकता है बिना किसी कंजूसी के कमाने लगता है .यह सामान्य प्रक्रिया है . यदि उसे किसी कानून के कारण कोई असुविधा होती है ती वह उसे बदलने में भी देर नहीं लगाता है क्योंक क़ानून बनाने वाली संस्था संसद या विधानसभा भी उसी की पार्टी की होती है .कानून बन जाने के बाद न्यायालय भी उन्हें रोक नहीं सकता क्योंकि तब वे नए क़ानून के अनुसार ही काम कर रहे होते हैं .इंदिरा गाँधी ने १९७१ में बैंकों का राष्ट्रीय करण किया , राजाओं के प्रिवी पर्स समाप्त किये . . सुप्रीम कोर्ट ने इसे गैर संवैधानिक करार देकर निरस्त करवा दिया . इंदिरा गाँधी ने शीघ्र ही संविधान संशोधन किया और पुनः कानून बनवा दिया ,जिससे प्रिवीपर्स बंद हो गए तथा बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो गया . भारत के अन्य नागरिकों की भांति शाहबानो को जब सुप्रीम कोर्ट ने तलाक के बाद गुजारा - भत्ता देने का निर्णय दिया तो मुस्लिम नाराज हो गए . प्रधान मंत्री राजीव गाँधी ने संविधान संशोधन करके सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को प्रभाव हीन कर दिया . लेकिन जब भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे सी वी सी थामस की प्रधान मंत्री ने नियुक्ति की तो न्यायालय ने उसे अमान्य कर दिया और थामस को हटना पड़ा . प्रधान मंत्री को सांसदों का भी समर्थन रहता है . अतः वह न्यायालय पर भारी पड़ जाते हैं .मंत्रिमंडल को सरकार मानने का जनता पर यह प्रभाव पड़ता है कि वह मान लेती है कि सरकार उसके सारे कष्टों का निवारण करेगी . लोग अपनी-अपनी मांगें मंत्रियों के समक्ष इस प्रकार रखते हैं कि वे राजा हैं और उनकी मांग तुरंत पूरी कर देंगे . परन्तु ये सारी मांगे पूरी नहीं कर सकते . प्रधान मंत्री ने अन्नाहजारे कि सिविल सोसायटी को स्वयं को राजा मानकर ही स्वीकृति दी थी और मंत्री समूह उनसे बात कर रहा था . जब मंत्रियों को लगा कि इस क़ानून में वे ही फंस जायेंगे तो उन्होंने संसद और संविधान कि रट शुरू कर दी . अब वे अपने को सरकार या राजा नहीं मान रहे हैं , सिर्फ मंत्री मान रहें हैं कि कानून संसद ही पास करेगा ,वे तो केवल बिल प्रस्तुत ही कर सकते हैं . नेताओं की यह चालाकी तभी तक चल सकती है जब तक सरकार, मंत्री और न्यायालयों के अर्थ , कर्तव्य और अधिकार अच्छी प्रकार नहीं समझ लिए जाते.
इसका सबसे दुखद पहलू यह है कि न्यायालय भी मंत्रियों को सरकार कहते और मानते हैं.मंत्रियों , अधिकारियों तथा कर्मचारियों द्वारा किये गए काम को वे सरकार के काम कहकर संबोधित करते हैं . उन्हें इस बात का कोई ध्यान नहीं है कि कि वे भी सरकार के एक तिहाई भागीदार हैं और जब तक किसी काम को न्यायालय कि स्वीकृति प्राप्त न हो वे काम सरकार के न होकर किसी मंत्री या अफसर के कार्य होते हैं . इसलिए जब गलत कार्यों के लिए न्यायालय सम्बंधित मंत्री या अधिकारी को दोषी न मान कर सरकार को दोषी मानते हुए सरकार को पीड़ित की क्षति पूर्ति का आदेश देते हैं और उसका भुगतान सरकारी खजाने से किया जाता है अर्थात जनता के पैसे से किया जाता है तो यह इस अवधारणा की पुष्टि करता है जनता का पैसा मंत्रियों और अफसरों का ही पैसा है जैसा पहले राजाओं और जमीदारों का होता था . और जब इस अवधारणा का पूरा लाभ उठाते हुए मंत्री- अफसर सरकारी पैसे को अपना माल समझ कर अपने देश - विदेश के बैंकों में जमा करते हैं तो भ्रष्टाचार का हो हल्ला क्यों होता है ? मंत्रियों - अधिकारियों के जानबूझ कर किये गए गलत कार्यों की सजा उन्हें व्यक्तिगत रूप से क्यों नहीं मिलनी चाहिए ? उन्हें इसके लिए ढेर सारा वेतन और भत्ते तथा सुविधाएँ जनता के कर के पैसों से किस लिए दी जाती हैं ? वे उत्तर दाई क्यों नहीं ठहराए जाने चाहिए ?
देश में कार्यकारिणी के लोग अपने अधिकारों का प्रयोग करना बखूबी जानते हैं , सांसद , विधायक भी जानते हैं । परन्तु न्यायालयों को नहीं मालूम की भारत के संविधान ने उन्हें न्याय देने के लिए बनाया है । उन्हें पूरा अधिकार है कि कानून या व्यवहार में जहाँ भी गड़बड़ी हो वे स्वतः हस्तक्षेप करें न कि केवल उस समय जब कोई अन्य व्यक्ति पैसे खर्च करके उनके दरबार में पहुंचे । सोचने कि बात है कि जब भारत के राष्ट्रपति व्यवस्थापिका ,कार्यपालिका और न्यायपालिका, तीनों के प्रमुख हैं तो न्याय सम्बन्धी मामलों में (जैसे दया याचिका ) राष्ट्रपति को न्यायालय से सलाह लेनी चाहिए या मंत्री मंडल से ? यह मंत्रियों को सरकार मानने कि गलती करने तथा न्यायलयों का अपने अधिकारों को न समझने का ही परिणाम है कि न्यायालय के कार्यों पर भी मंत्री हावी हैं . उन्हें इतनी सी बात भी समझ में नहीं आई कि राष्ट्रपति को शपथ दिलाने का कार्य उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को इसलिए सौंपा गया है वह संविधान को समझने और उसका सम्मान करने वाला देश का सर्वाधिक गरिमा युक्त व्यक्ति है . न्यायालय कि इसी नासमझी का लाभ उठाते हुए इंदिरा गाँधी ने १९७५ में , जब भ्रष्टाचार के कारण उनका चुनाव निरस्त हो गया था , प्रधान मंत्री तो दूर उन्हें सांसद का पड़ भी छोड़ना था , स्वयं को सरकार (राजा ) मानते हुए आपात काल लगा दिया , सभी विरोधियों को जेलों में ठूंस दिया तथा न्यायालयों में अपने मन पसंद न्यायाधीश नियुक्त कर दिए और स्वयं क़ानून के बहुत ऊपर विराजमान हो गयीं . तब उच्चतम न्यायालय के अवकाश प्राप्त अनेक न्यायाधीशों समेत अनेक क़ानून वेशेषज्ञों ने इसकी भारी आलोचना की कि असंवैधानिक कार्य किये जा रहे हैं ,परन्तु उससे इंदिरा जी पर क्या असर पड़ा . जब आप उन्हें सरकार मानते हो तो उन्हें अपनी मनमानी पूरी करने का अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाता है . अतः आपात काल के लिए दोषी न्यायालय थे , जो इंदिरा गाँधी को असंवैधानिक कार्य करने से नहीं रोक पाए , जो कि उनका ही दायित्व था . आज भी न्यायालय उसी पुरानी तर्ज पर चल रहें हैं कि हमें किसी बात से कुछ लेना -देना नहीं हैं , जब कोई फरियाद करेगा , देखा जायगा . इसलिए आज लोकपाल की बात हो रही है और यदि वह भी धृतराष्ट्र निकला जिसे स्वयम कुछ भी दिखाई नहीं देता और उसे विदुर या कृष्ण की नहीं, केवल दुर्योधन की बात ही समझ आती है तो इस देश को अत्याचार, भ्रष्टाचार , आतंकवाद , मंहगाई , गरीबी आदि समस्याओं से कोई नहीं बचा सकता .








सोमवार, 4 जुलाई 2011

कर्म की दिशा

कर्म की दिशा
एक समाचार के अनुसार तिरुअनंतपुर के मंदिर में ५०हजार करोड़ की संपत्ति प्राप्त हुई . इतनी संपत्ति कहाँ से आई ? भक्तों ने दान में क्यों दी ?मुस्लिम बहुल देश धर्म निरपेक्ष नहीं ,इस्लामिक होते हैं ? अधिकांश खोजें पश्चिमी देशों में ही क्यों होती है ?भारत के लोग देश को लूटकर विदेशों में लाखों करोड़ रुपये क्यों जमा करते हैं ? भारत में ढाई करोड़ से अधिक मुकदमें अदालतों में क्यों अटके पड़े हैं ? आज भ्रष्ट और चरित्रहीन लोग क्यों प्रतिष्ठा पा रहे हैं ? ऐसे अनेक प्रश्न व्यक्ति के मन में उठते रहते हैं . लोग इनकी व्याख्या अलग- अलग ढंग से करेंगे और अपने विचार को ही सही मानेंगे या आँख बंद करके दूसरे के विचार के अनुसार बोलेंगे . परन्तु व्यक्ति यदि कर्म की दिशा को समझ ले तो उसे सब प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे और तभी समस्याओं का समाधान भी निकाला जा सकता है .
कर्म की दिशा की पूर्ण व्याख्या एक छोटे से लेख में करना संभव नहीं है परन्तु उस पर प्रारंभिक दृष्टि तो डाली जा सकती है .हमारे देश में गीता और अमेरिका के प्रसिद्ध समाजशास्त्री टालकाट पारसन्स , जिन्हें आधुनिक समाजशास्त्र का पिता कहा जाता है , के कर्म सम्बन्धी विचारों में बहुत समानता है . अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'सामाजिक क्रिया की संरचना 'में पारसन्स ने कर्म के चार तत्वों का उल्लेख किया है :
१ . वन्शानुसंक्रमण तथा पर्यावरण (heredity & environment ) २. साधन और साध्य (means & ends) ३. अंतिम मूल्य (ultimate values ) तथा ४. प्रयत्न (efforts).
मनुष्य क्रिया का कर्ता होता है . वह जो भी कार्य करता है , उक्त चारों तत्व उसे प्रभावित करते हैं .कुछ सरल उदाहरणों के साथ इन्हें आसानी से समझा जा सकता है .
१.वन्शानुसंक्रमण तथा पर्यावरण (heredity & environment ):प्रथम तत्व के दो पक्ष है --एक वन्शानुसंक्रमण अर्थात जिस परिवार से वह कर्त्ता है तथा दूसरा पर्यावरण या परिस्थितियां जिसमें उसकी भौगोलिक परिस्थितियां जिनमें वह रहता है तथा उसके चारों ओर के लोग ,जिनके मध्य वह रहता है, सभी कुछ आ जाता है . व्यक्ति के विचार उसकी पारिवारिक पृष्ठ भूमि से बहुत प्रभावित होते हैं .एक राजनीतिज्ञ के घर जन्म लेने वाला अपने परिवार के प्रभाव के अनुरूप अपना विचार करता है .इसलिए नेता पुत्र राजनीति में जमने लगते हैं ,इसमें किसी के चाहने या न चाहने से कोई प्रभाव नहीं पड़ता है . उनमें विधायक, सांसद , मंत्री बनने की प्रवृत्ति स्वतः होती है . अभिनेता के बच्चे फिल्मों में ही रहना चाहते हैं . व्यवसायी के पुत्र अपने पिता के व्यवसाय को ही अपनाने लगते हैं . एक सामान्य परिवार में जन्म लेने वाले बालक के माता-पिता चाहते हैं कि वह पढ़ लिख कर कोई अच्छी सी नौकरी कर ले . वह अपनी क्षमता के अनुसार अध्ययन करता है और तत्समय जो नौकरियां उपलब्ध होती हैं , उन्हें पाने का प्रयास करता है . पहले लोग सेना एवं प्रशासनिक अधिकारी बनना अधिक पसंद करते थे , अब वे बहु राष्ट्रीय कंपनियों में या विदेशों में कार्य करना अधिक पसंद करने लगे हैं . कचरा बीनने वालों के बच्चे प्रातः काल से अपने माता-पिता के साथ उसी कार्य के लिए चले जाते हैं .
२.साधन और साध्य (means & ends): व्यक्ति अपने कार्य का क्षेत्र तथा लक्ष्य वंशानुसंक्रमण तथा पर्यावरण के आधार पर तय करता है . उसमें वह उन्हीं साधनों का प्रयोग करते हुए कार्य करता है जो उस समय उपलब्ध होते हैं तथा उसके साध्य या लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उपयुक्त प्रतीत होते हैं . पूर्व काल में राजा अपने राज्य का विस्तार करने के लिए सेना एवं आयुधों का प्रयोग करते थे . वर्तमान में पार्षद , विधायक, सांसद , मंत्री, मुख्य मंत्री जैसे उत्तरोत्तर बड़े पद प्राप्त करने के लिए नेता जाति, धर्म , पार्टी , नेता आदि के के नाम पर वोट मांगते हैं , वोट धन, शराब या अन्य वस्तुओं से खरीदते भी हैं , झूठ बोलकर वोट ठगते भी हैं तथा धमकाकर छीनते भी हैं क्योंकि चुनाव जीतने के यही साधन उपलब्ध हैं . विद्यार्थी आई आई टी , आई आई एम् या किसी अन्य प्रतिष्ठित परीक्षा को उत्तीर्ण करने के लिए छोटी कक्षाओं से ही अच्छी कोचिंग लेने लगते हैं .क्योंकि उन्हें उत्तीर्ण करने के यही साधन हैं .लोग अपने पारिवारिक व्यवसायों को करने में इसलिए सुविधा का अनुभव करते हैं कि उसके लिए वांछित साधन घर में ही मिल जाते हैं . सरकारी कार्यालयों से कोई काम करवाने में साधन के रूप में घूंस देने से काम आसानी से हो जाता है , अतः लोग प्रेमपूर्वक घूंस देते हैं भले ही पीछे उसकी आलोचना करते रहें . फिल्मों में जमने तथा ख्याति के लिए अभिनेत्रियाँ सामान्य रूप से अधिक से अधिक अंग प्रदर्शन का सहारा लेती हैं .
३.अंतिम मूल्य (ultimate values) :अन्तिम मूल्य मनुष्य की पारिवारिक परम्पराओं तथा परिस्थितियों से निर्धारित होते हैं जो उसे किसी कार्य को करने कि प्रेरणा देते हैं . आजादी के पूर्व युवकों में देश के लिए संघर्ष करने की प्रवृति होती थी ,वर्तमान में अधिकतम धन कमाने की प्रवृत्ति है. क्रिकेट के शिरोमणि धोनी और हरभजन सिंह को भारत के राष्ट्रपति द्वारा पद्मश्री दी जानी थी . वे माडलिंग करके धन कमाते रहे उन्होंने राष्ट्रपति को न आ पाने की सूचना देना भी उचित नहीं समझा क्योंकि उनकी दृष्टि में पद्मश्री के मेडल की अपेक्षा माडलिंग से मिलने वाले धन का महत्त्व अधिक है. अन्नाहजारे पुराने सैनिक हैं .उन्होंने अपनी सारी संपत्ति लोक सेवा में लगा दी . लोग जिस प्रकार देश को लूट रहे हैं यह उन्हें कचोट रहा है इसलिए वे भ्रष्टाचारियों को दण्डित करने के लिए एक शक्तिशाली लोकपाल की नियुक्ति चाहते हैं परन्तु नेताओं का लक्ष्य देश के धन को निरंतर लूटते जाना है अतः वे ऐसी कोई व्यवस्था नहीं चाहते . बफेट और बिलगेट्स ने पहले अपना अंतिम लक्ष्य धन कमाना तथा दुनिया में नाम ऊंचा रखना तय किया था , अब उनका लक्ष्य दुनिया के अरब पतियों को अपना धन गरीबों की सहायता के लिए दान देने के लिए प्रेरित करना हैऔर इसके लिए वे दुनिया के देशों का भ्रमण कर रहे हैं .भिखारी के पास लाखों रुपये जमा हों तो भी वह भीख मांग कर धन बटोरता रहता है परन्तु अच्छे कुल का व्यक्ति किसी भी स्थिति में भीख नहीं मांगेगा भले हे वह मजदूरी कर ले . जापान में सुनामी और ज्वालामुखी फटने से परमाणु संयंत्रों में विस्फोट से जान-माल की भारी क्षति हुई परन्तु वहां की सरकार और लोगो ने धैर्य पूर्वक उसका सामना किया . किसी के आगे हाथ नहीं फैलाये जैसा अनेक विकासशील देशों में होता है . भारत में बिहार में कोसी नदी का बाँध टूटने से भारी तबाही हुई थी . कोई संस्था सहायता के लिए समान भेजती थी तो लोग उसे लूटने की कोशिश करते थे .इस प्रकार अन्तिम मूल्यों से व्यक्ति के कार्य करने का व्यवहार,स्तर एवं ढंग निश्चित होता है .मुस्लिम लोग कुरान और उसकी हिदायतों को सर्वोपरि मानते हैं . उनके लिए इस्लाम ही सब कुछ है ,अन्य सब कुछ व्यर्थ है ,अर्थात वही उनके अंतिम मूल्य हैं .अतः जहाँ मुस्लिम लोग सत्ता में होते हैं वे अपना शासन इस्लाम धर्म के अनुसार ही चलाते हैं तथा अन्य सभी धर्मों को हेय दृष्टि से देखा जाता है .भारत में जजों के लिए कानूनके शब्द , वकीलों द्वारा की गयी उनकी व्याख्या तथा कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करना अंतिम मूल्य हैं ,इसमें चाहे जितना समय लग जाये .इसलिए वर्षों तक मुकदमें चलते रहते हैं और प्रतिदिन उनकी संख्या बढ़ती जाती है . भारत में अपराध तो बहुत होते हैं परन्तु अपराधी नहीं होते.
४. प्रयत्न (efforts): लक्ष्य निर्धारित होने और साधन जुटा लेने मात्र से कोई कार्य संपन्न नहीं हो जाता है . पलासी की लड़ाई में क्लाइव के पास ३००० सैनिक और बहुत काम आयुध थे जबकि सिराजुद्द्दौला के पास ५००००सैनिक और उससे कई गुना अधिक सैन्य सामग्री थी . कोई प्रयास न करने के कारण सिराजुद्द्दौला हार गया और मारा गया . सिर्फ कोचिंग जाने और पुस्तकें एकत्र करने से कोई परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर सकता जब तक वह स्वयं निरंतर अध्ययन न करे तथा उचित तकनीक का सहारा न ले . प्रयत्न करने पर साधन कम होने पर भी सफलता प्राप्त हो सकती है जबकि प्रयत्न न करने पर कार्य हो ही नहीं सकता .
टालकाट पारसन्स ने कहा है कि उक्त चार तत्वों के अंतर्गत ही व्यक्ति कार्य करता है जिससे नवीन परिस्थितियों का निर्माण होता है . फिर ये नई परिस्थितियां मनुष्य के कार्य को प्रभावित करती हैं क्योंकि अब ये उस व्यक्ति के लिए पर्यावरण बन जाती हैं जो मनुष्य में विचार उत्पन्न करने कि प्रथम शर्त है . पारसन्स ने अपनी दूसरी पुस्तक 'द सोशल सिस्टम' में सामाजिक क्रिया को और अधिक स्पष्ट करने के लिए सामाजिक क्रिया के तीन आधार दिए है --१.कर्त्ता(actor) २.परिस्थिति (situation) ३. प्रेरणा (motive) . कर्त्ता द्वारा अपनी पारिस्थिति के अनुसार वही सामाजिक कार्य किये जाते हैं जिनका कोई प्रेरणात्मक महत्त्व होता है अर्थात जिन कार्यों को करने से किसी अच्छे फल की प्राप्ति की सम्भावना होती है.
गीता की कर्म की व्याख्या :गीता में भगवान् कृष्ण ने अट्ठारहवें अध्याय के श्लोक (१४),(१५) तथा (१८) में कहा है :
अधिष्ठानं तथा कर्त्ता करणं च पृथग्विधम .विविधाश्च पृथक चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमं .१४.
(कर्मों कि सिद्धि में ये तत्व कार्य करते हैं ) :क्षेत्र (अधिष्ठान), कर्त्ता ,करण (साधन ), भिन्न-भिन्न चेष्टाएँ (प्रयत्न)और पांचवां दैव (भाग्य ).
शारीर वांग्म नोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः . न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः .१५ .
मनुष्य मन, वाणी और शारीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत ,जो कुछ भी कार्य करता है -उसके ये पाँच कारण हैं .
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना .करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्म संग्रहः .१८.
ज्ञाता,ज्ञान और ज्ञेय (लक्ष्य ) यह तीन प्रकार की कर्म प्रेरणा है और कर्त्ता ,करण (साधन )तथा क्रिया (जिससे कार्य किये जाते हैं )-यह तीन प्रकार का कर्म संचय है .ज्ञाता या कर्ता के पास जो ज्ञान होता है उसी के अनुसार वह कर्म में प्रवृत्त होता है तथा अपना लक्ष्य निर्धारित करता है . सामान्य परिस्थितियों में खेती करने वाला व्यक्ति अपना लक्ष्य किसी उद्योग को स्थापित करना नहीं ,अपनी कृषि को उन्नत बनाना रखेगा क्योंकि उसे उसका ही ज्ञान है. सेनापति अपना लक्ष्य सेना को मजबूत करना तथा युद्ध में विजय प्राप्त करना रखेगा. वैज्ञानिक है तो नए अनुसन्धान का और राजनीतिज्ञ है तो सरकार में उच्च पद पाने का लक्ष्य निर्धारित करेगा .यह तीन प्रकार की कर्म प्रेरणा कही गयी हैं अर्थात ये मनुष्य को कर्म में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देते हैं . कर्त्ता उपलब्ध साधनों से जो भी कार्य करता है उनका प्रभाव संचित होता जाता है जैसे बैंक खाते में धन जमा होता है . जब उसका पुनर्जन्म होता है तो इन कार्यों में से कुछ का प्रभाव उसके भाग्य के रूप में अंकित हो जाता है . जैसे व्यक्ति किसी कार्य के लिए बैंक से अपनी जमा पूँजी से कुछ राशि निकल लेता है . शेष कर्म उसके भाग्य में संचित रूप में रहते हैं और पुनः किसी जन्म में काम में आते हैं . यह भाग्य व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है . विश्व में पुनर्जन्म की अनेक घटनाएं ज्ञात हैं परन्तु पूर्व एवं वर्तमान जन्म में सम्बन्ध ज्ञात करने की कोई वैज्ञानिक विधि न होने के कारण लोग इसे महत्त्व नहीं देते हैं .पारसन्स ने जिसे वन्शानुसंक्रमण (इसमें कर्त्ता का भाव भी निहित है.उसने बाद में कर्त्ता को भी पृथक से मुख्य तत्व कहा है. ) कहा है , गीता में उसे दैव कहा गया है, वहां कर्त्ता पृथक से माना गया है .वंशानुसंक्रमण एवं परिस्थितियों से बहुत से लोगों के कर्म की दिशा समझी जा सकती है परन्तु उस से हम जीवन की सभी व्याख्याएं नहीं कर सकते है. युवराज सिद्धार्थ का राज्य त्याग कर सन्यासी हो जाना और पुनः भगवान् तुल्य प्रतिष्ठा प्राप्त करना , महात्मा गाँधी का एक छोटी सी धोती पहन कर विशाल अंग्रेजी राज्य से टक्कर लेना और विश्व में अपूर्व प्रतिष्ठा प्राप्त करना , चर्मकार रैदास का महान संत हो जाना ,बाबा साहेब आंबेडकर का वंशानुसंक्रमण में 'अछूत ' स्तर से ऊपर उठकर राष्ट्र निर्माता की अगली श्रेणी में आना और ईश्वर तुल्य व्यक्तित्व प्राप्त करना ,बिल गेट्स का असाधारण तीव्र गति से दुनिया का सर्वाधिक धनि व्यक्ति बन जाना जैसे अनेक उदाहरण विश्व में दृष्टिगोचर होते हैं जिन्हें केवल भाग्य या दैव के आधार पर ही समझा जा सकता है . कुछ लोग बचपन से ही अद्भुत प्रतिभा के धनी होते हैं यह उनके पूर्व जन्म के संस्कारों एवं कर्मों के कारण ही होता है उनके परिवार या परिस्थितियों के कारण नहीं .
टालकाट पारसन्स ने भी कर्त्ता(कार्य करने वाला व्यक्ति) का पृथक से उल्लेख बाद में किया है . गीता में कर्त्ता सर्वाधिक महत्वपूर्ण है . कर्त्ता का अभिप्राय दिखने वाले मनुष्य से न होकर शरीर में स्थित उस चेतन शक्ति से है जिससे यह शरीर चलायमान होता है . क्योंकि देखने में तो सभी व्यक्ति एक जैसे अंगों वाले होते हैं परन्तु उनमें सोचने और कार्य करने की प्रवृत्ति और क्षमता भिन्न -भिन्न होती है और वही उन्हें अपना लक्ष्य निर्धारित करने के लिए प्रेरित करती है .
इस प्रकार पारसन्स और गीता के सिद्धांतों में पर्याप्त समानता है --
१. वन्शानुसंक्रमण तथा पर्यावरण (heredity & environment ) =(कर्त्ता + दैव) तथा अधिष्ठान (आधार या स्थान ).
२. साधन और साध्य (means & ends ) = करण तथा ज्ञेय
३. अंतिम मूल्य (ultimate values ) = ज्ञाता एवं ज्ञान (इनसे व्यक्ति अपनी एक निश्चित सोच रखता है और उसी के आधार पर जीवन के लक्ष्य निर्धारित करता है ).
तथा ४. प्रयत्न (efforts). = भिन्न-भिन्न चेष्टाएँ .
गीता में कर्त्ता अपने ज्ञान से जो ज्ञेय या लक्ष्य निर्धारित करता है ,उसे प्रेरणा कहा गया है . यह प्रेरणा ही मनुष्य को कर्म में प्रवृत करती है .प्रेरणा किसी फल को पाने की जितनी तीव्र इच्छा उत्पन्न करेगी , व्यक्ति उतने ही उत्साह से लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर होगा अर्थात फल की प्राप्ति ही कर्म की प्रेरणा है , कोई फल नहीं मिलेगा तो मनुष्य काम ही क्यों करेगा ? इसलिए जो लोग गीता के श्लोक , 'कर्मण्ये वा अधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन' की यह व्याख्या करते हैं कि फल की इच्छा के बिना कर्म करना चाहिए , उचित नहीं है . इसमें कहा गया है कि कर्म पर तेरा अधिकार है , फल पर नहीं.अर्थात व्यक्ति को अपने लक्ष्य निर्धारित करने , फल कि इच्छा करने और कर्म करने का तो पूरा अधिकार है ,परन्तु उसे सफलता मिलेगी या नहीं यह निश्चित नहीं है क्योंकि फल उक्त विभिन्न तत्वों के तुलनात्मक मूल्यों पर निर्भर करेगा . जैसे किसी नौकरी के लिए आवेदन तो अनेक लोग कर सकते हैं , उसे प्राप्त करने का प्रयास भी कर सकते हैं परन्तु यह नौकरी किसे मिलेगी यह उनके जाति तथा धर्म (यह केवल भारत में है ), घूंस , भाई-भतीजा वाद , योग्यता , उपलब्ध पद एवं आवेदकों कि संख्या आदि के परिणामी बल पर निर्भर करेगा . जिसे वह नौकरी नहीं करनी है या नहीं मिल सकती , वह आवेदन ही नहीं करेगा अर्थात बिना कर्म फल कि आशा के कोई काम प्रारंभ ही नहीं करेगा . गीता में कर्म के अन्य अनेक पहलुओं पर भी विस्तार से विचार किया गया है .
टालकाट पारसन्स ने गीता का अध्ययन नहीं किया था ,. उसने अपने निष्कर्ष मैक्स वेबर , दुर्खीम , परेटो जैसे पाश्चात्य समाजशास्त्रियों के विचारों का मंथन करके निकाले थे . पश्चिमी देशों में विद्वानों का बहुत आदर होता है , उनके विचारों को व्यवहार में लाया जाता है . वहां नियुक्तियां योग्यता के आधार पर होती हैं , उन्हें श्रेष्ठ वातावरण तथा उपकरण एवं अन्य साधन उपलब्ध कराये जाते हैं , लोग भी अच्छे लक्ष्य निर्धारित करके समर्पण भाव से कार्य एवं शोध करते हैं , इसलिए वहां श्रेष्ठ कार्य होता है ,अनेक लोगो को नोबेल पुरस्कार प्राप्त होते हैं . भारत में कर्म और धर्म कि सारी व्याख्याएं आत्मा- परमात्मा के सन्दर्भ में होती हैं . समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र , अर्थ शास्त्र आदि के व्यावहारिक सिद्धांतों के सन्दर्भ में नहीं होती .इसलिए भारत में अच्छे शोध कार्य नहीं होते जब कि भारत के ही लोग पश्चिमी देशों में जाकर उत्कृष्ट कार्य करते हैं . भारत में भी परमाणु ऊर्जा तथा अन्तरिक्ष के क्षेत्र में जहाँ योग्यता भी देखी जाती है और साधन भी दिए जाते हैं अच्छा कार्य हो रहा है . तिलक, महात्मागांधी राजगोपालाचारी , विनोबा भावे जैसे अनेक महापुरुषों ने गीता के कर्म के सिद्धांत को समझा और देश को स्वतन्त्र कराया .जिससे सामाजिक , राजनीतिक ,आर्थिक आदि क्षेत्रों में वृहद् रूप से परिवर्तन हुए . अतः आज इस बात की महती आवश्यकता है कि धार्मिक आख्यानों को व्यावहारिक दृष्टि से देखा और समझा जाय तथा उनका अनुकरण भी किया जाय तो हम समाज की वर्तमान विद्रूपताओं से मुक्त होकर उत्कृष्ट जीवन जी सकते हैं .
डा.ए. डी.खत्री