बुधवार, 24 अगस्त 2011

लोकपाल बिल की दुविधा

लोकपाल का संकट
भ्रष्टाचारी
हर भ्रष्टाचारी है चाहता ,घूंस न खाए कोय ,
मुझको धन मिलता रहे, उस पर रोक न होय.
उस पर रोक न होय,ऐसा कानून बनायें ,
दूसरा कोई रूपये खाए , उसे जेल पहुंचाएं.
किया यही विचार, कि मिलकर मुफ्त का माल उडाएँगे ,
कोई टांग अड़ाएगा , तो मिलकर उसे सतायेंगे .
एकमत
अलग-अलग शरीर हैं,आत्मा सबकी एक,
नूरा कुश्ती लड़ रहे ,जनता रही है देख.
जनता रही है देख,एकमत हैं सब नेता,
भ्रष्टाचार रहेगा जिन्दा,कोई हँसे,रहे या रोता .
वेतन,भत्ते,सुख ,सुविधाएँ,सबकी राय एक है रहती ,
लोकपाल की बात करें तो,उसमें किसी की राय न मिलती .
दुविधा
हमारी दुविधा एक है ,कैसे करें बखान,
हाँ,कैसे कह दें इस बिल को ,आफत में है जान ,
आफत में है जान,लोक बिल पास करेंगे ,
जेल में होंगे बंद , मुकदमें रोज चलेंगे .
जीने का अधिकार हमें भी, भले रहें हम भ्रष्टाचारी ,
अपने हाथों हम,फंदा टाँगें?कैसे माने बात तुम्हारी ?

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