एक समाचार के अनुसार तिरुअनंतपुर के मंदिर में ५०हजार करोड़ की संपत्ति प्राप्त हुई . इतनी संपत्ति कहाँ से आई ? भक्तों ने दान में क्यों दी ?मुस्लिम बहुल देश धर्म निरपेक्ष नहीं ,इस्लामिक होते हैं ? अधिकांश खोजें पश्चिमी देशों में ही क्यों होती है ?भारत के लोग देश को लूटकर विदेशों में लाखों करोड़ रुपये क्यों जमा करते हैं ? भारत में ढाई करोड़ से अधिक मुकदमें अदालतों में क्यों अटके पड़े हैं ? आज भ्रष्ट और चरित्रहीन लोग क्यों प्रतिष्ठा पा रहे हैं ? ऐसे अनेक प्रश्न व्यक्ति के मन में उठते रहते हैं . लोग इनकी व्याख्या अलग- अलग ढंग से करेंगे और अपने विचार को ही सही मानेंगे या आँख बंद करके दूसरे के विचार के अनुसार बोलेंगे . परन्तु व्यक्ति यदि कर्म की दिशा को समझ ले तो उसे सब प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे और तभी समस्याओं का समाधान भी निकाला जा सकता है .
कर्म की दिशा की पूर्ण व्याख्या एक छोटे से लेख में करना संभव नहीं है परन्तु उस पर प्रारंभिक दृष्टि तो डाली जा सकती है .हमारे देश में गीता और अमेरिका के प्रसिद्ध समाजशास्त्री टालकाट पारसन्स , जिन्हें आधुनिक समाजशास्त्र का पिता कहा जाता है , के कर्म सम्बन्धी विचारों में बहुत समानता है . अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'सामाजिक क्रिया की संरचना 'में पारसन्स ने कर्म के चार तत्वों का उल्लेख किया है :
१ . वन्शानुसंक्रमण तथा पर्यावरण (heredity & environment ) २. साधन और साध्य (means & ends) ३. अंतिम मूल्य (ultimate values ) तथा ४. प्रयत्न (efforts).
मनुष्य क्रिया का कर्ता होता है . वह जो भी कार्य करता है , उक्त चारों तत्व उसे प्रभावित करते हैं .कुछ सरल उदाहरणों के साथ इन्हें आसानी से समझा जा सकता है .
१.वन्शानुसंक्रमण तथा पर्यावरण (heredity & environment ):प्रथम तत्व के दो पक्ष है --एक वन्शानुसंक्रमण अर्थात जिस परिवार से वह कर्त्ता है तथा दूसरा पर्यावरण या परिस्थितियां जिसमें उसकी भौगोलिक परिस्थितियां जिनमें वह रहता है तथा उसके चारों ओर के लोग ,जिनके मध्य वह रहता है, सभी कुछ आ जाता है . व्यक्ति के विचार उसकी पारिवारिक पृष्ठ भूमि से बहुत प्रभावित होते हैं .एक राजनीतिज्ञ के घर जन्म लेने वाला अपने परिवार के प्रभाव के अनुरूप अपना विचार करता है .इसलिए नेता पुत्र राजनीति में जमने लगते हैं ,इसमें किसी के चाहने या न चाहने से कोई प्रभाव नहीं पड़ता है . उनमें विधायक, सांसद , मंत्री बनने की प्रवृत्ति स्वतः होती है . अभिनेता के बच्चे फिल्मों में ही रहना चाहते हैं . व्यवसायी के पुत्र अपने पिता के व्यवसाय को ही अपनाने लगते हैं . एक सामान्य परिवार में जन्म लेने वाले बालक के माता-पिता चाहते हैं कि वह पढ़ लिख कर कोई अच्छी सी नौकरी कर ले . वह अपनी क्षमता के अनुसार अध्ययन करता है और तत्समय जो नौकरियां उपलब्ध होती हैं , उन्हें पाने का प्रयास करता है . पहले लोग सेना एवं प्रशासनिक अधिकारी बनना अधिक पसंद करते थे , अब वे बहु राष्ट्रीय कंपनियों में या विदेशों में कार्य करना अधिक पसंद करने लगे हैं . कचरा बीनने वालों के बच्चे प्रातः काल से अपने माता-पिता के साथ उसी कार्य के लिए चले जाते हैं .
२.साधन और साध्य (means & ends): व्यक्ति अपने कार्य का क्षेत्र तथा लक्ष्य वंशानुसंक्रमण तथा पर्यावरण के आधार पर तय करता है . उसमें वह उन्हीं साधनों का प्रयोग करते हुए कार्य करता है जो उस समय उपलब्ध होते हैं तथा उसके साध्य या लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उपयुक्त प्रतीत होते हैं . पूर्व काल में राजा अपने राज्य का विस्तार करने के लिए सेना एवं आयुधों का प्रयोग करते थे . वर्तमान में पार्षद , विधायक, सांसद , मंत्री, मुख्य मंत्री जैसे उत्तरोत्तर बड़े पद प्राप्त करने के लिए नेता जाति, धर्म , पार्टी , नेता आदि के के नाम पर वोट मांगते हैं , वोट धन, शराब या अन्य वस्तुओं से खरीदते भी हैं , झूठ बोलकर वोट ठगते भी हैं तथा धमकाकर छीनते भी हैं क्योंकि चुनाव जीतने के यही साधन उपलब्ध हैं . विद्यार्थी आई आई टी , आई आई एम् या किसी अन्य प्रतिष्ठित परीक्षा को उत्तीर्ण करने के लिए छोटी कक्षाओं से ही अच्छी कोचिंग लेने लगते हैं .क्योंकि उन्हें उत्तीर्ण करने के यही साधन हैं .लोग अपने पारिवारिक व्यवसायों को करने में इसलिए सुविधा का अनुभव करते हैं कि उसके लिए वांछित साधन घर में ही मिल जाते हैं . सरकारी कार्यालयों से कोई काम करवाने में साधन के रूप में घूंस देने से काम आसानी से हो जाता है , अतः लोग प्रेमपूर्वक घूंस देते हैं भले ही पीछे उसकी आलोचना करते रहें . फिल्मों में जमने तथा ख्याति के लिए अभिनेत्रियाँ सामान्य रूप से अधिक से अधिक अंग प्रदर्शन का सहारा लेती हैं .
३.अंतिम मूल्य (ultimate values) :अन्तिम मूल्य मनुष्य की पारिवारिक परम्पराओं तथा परिस्थितियों से निर्धारित होते हैं जो उसे किसी कार्य को करने कि प्रेरणा देते हैं . आजादी के पूर्व युवकों में देश के लिए संघर्ष करने की प्रवृति होती थी ,वर्तमान में अधिकतम धन कमाने की प्रवृत्ति है. क्रिकेट के शिरोमणि धोनी और हरभजन सिंह को भारत के राष्ट्रपति द्वारा पद्मश्री दी जानी थी . वे माडलिंग करके धन कमाते रहे उन्होंने राष्ट्रपति को न आ पाने की सूचना देना भी उचित नहीं समझा क्योंकि उनकी दृष्टि में पद्मश्री के मेडल की अपेक्षा माडलिंग से मिलने वाले धन का महत्त्व अधिक है. अन्नाहजारे पुराने सैनिक हैं .उन्होंने अपनी सारी संपत्ति लोक सेवा में लगा दी . लोग जिस प्रकार देश को लूट रहे हैं यह उन्हें कचोट रहा है इसलिए वे भ्रष्टाचारियों को दण्डित करने के लिए एक शक्तिशाली लोकपाल की नियुक्ति चाहते हैं परन्तु नेताओं का लक्ष्य देश के धन को निरंतर लूटते जाना है अतः वे ऐसी कोई व्यवस्था नहीं चाहते . बफेट और बिलगेट्स ने पहले अपना अंतिम लक्ष्य धन कमाना तथा दुनिया में नाम ऊंचा रखना तय किया था , अब उनका लक्ष्य दुनिया के अरब पतियों को अपना धन गरीबों की सहायता के लिए दान देने के लिए प्रेरित करना हैऔर इसके लिए वे दुनिया के देशों का भ्रमण कर रहे हैं .भिखारी के पास लाखों रुपये जमा हों तो भी वह भीख मांग कर धन बटोरता रहता है परन्तु अच्छे कुल का व्यक्ति किसी भी स्थिति में भीख नहीं मांगेगा भले हे वह मजदूरी कर ले . जापान में सुनामी और ज्वालामुखी फटने से परमाणु संयंत्रों में विस्फोट से जान-माल की भारी क्षति हुई परन्तु वहां की सरकार और लोगो ने धैर्य पूर्वक उसका सामना किया . किसी के आगे हाथ नहीं फैलाये जैसा अनेक विकासशील देशों में होता है . भारत में बिहार में कोसी नदी का बाँध टूटने से भारी तबाही हुई थी . कोई संस्था सहायता के लिए समान भेजती थी तो लोग उसे लूटने की कोशिश करते थे .इस प्रकार अन्तिम मूल्यों से व्यक्ति के कार्य करने का व्यवहार,स्तर एवं ढंग निश्चित होता है .मुस्लिम लोग कुरान और उसकी हिदायतों को सर्वोपरि मानते हैं . उनके लिए इस्लाम ही सब कुछ है ,अन्य सब कुछ व्यर्थ है ,अर्थात वही उनके अंतिम मूल्य हैं .अतः जहाँ मुस्लिम लोग सत्ता में होते हैं वे अपना शासन इस्लाम धर्म के अनुसार ही चलाते हैं तथा अन्य सभी धर्मों को हेय दृष्टि से देखा जाता है .भारत में जजों के लिए कानूनके शब्द , वकीलों द्वारा की गयी उनकी व्याख्या तथा कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करना अंतिम मूल्य हैं ,इसमें चाहे जितना समय लग जाये .इसलिए वर्षों तक मुकदमें चलते रहते हैं और प्रतिदिन उनकी संख्या बढ़ती जाती है . भारत में अपराध तो बहुत होते हैं परन्तु अपराधी नहीं होते.
४. प्रयत्न (efforts): लक्ष्य निर्धारित होने और साधन जुटा लेने मात्र से कोई कार्य संपन्न नहीं हो जाता है . पलासी की लड़ाई में क्लाइव के पास ३००० सैनिक और बहुत काम आयुध थे जबकि सिराजुद्द्दौला के पास ५००००सैनिक और उससे कई गुना अधिक सैन्य सामग्री थी . कोई प्रयास न करने के कारण सिराजुद्द्दौला हार गया और मारा गया . सिर्फ कोचिंग जाने और पुस्तकें एकत्र करने से कोई परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर सकता जब तक वह स्वयं निरंतर अध्ययन न करे तथा उचित तकनीक का सहारा न ले . प्रयत्न करने पर साधन कम होने पर भी सफलता प्राप्त हो सकती है जबकि प्रयत्न न करने पर कार्य हो ही नहीं सकता .
टालकाट पारसन्स ने कहा है कि उक्त चार तत्वों के अंतर्गत ही व्यक्ति कार्य करता है जिससे नवीन परिस्थितियों का निर्माण होता है . फिर ये नई परिस्थितियां मनुष्य के कार्य को प्रभावित करती हैं क्योंकि अब ये उस व्यक्ति के लिए पर्यावरण बन जाती हैं जो मनुष्य में विचार उत्पन्न करने कि प्रथम शर्त है . पारसन्स ने अपनी दूसरी पुस्तक 'द सोशल सिस्टम' में सामाजिक क्रिया को और अधिक स्पष्ट करने के लिए सामाजिक क्रिया के तीन आधार दिए है --१.कर्त्ता(actor) २.परिस्थिति (situation) ३. प्रेरणा (motive) . कर्त्ता द्वारा अपनी पारिस्थिति के अनुसार वही सामाजिक कार्य किये जाते हैं जिनका कोई प्रेरणात्मक महत्त्व होता है अर्थात जिन कार्यों को करने से किसी अच्छे फल की प्राप्ति की सम्भावना होती है.
गीता की कर्म की व्याख्या :गीता में भगवान् कृष्ण ने अट्ठारहवें अध्याय के श्लोक (१४),(१५) तथा (१८) में कहा है :
अधिष्ठानं तथा कर्त्ता करणं च पृथग्विधम .विविधाश्च पृथक चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमं .१४.
(कर्मों कि सिद्धि में ये तत्व कार्य करते हैं ) :क्षेत्र (अधिष्ठान), कर्त्ता ,करण (साधन ), भिन्न-भिन्न चेष्टाएँ (प्रयत्न)और पांचवां दैव (भाग्य ).
शारीर वांग्म नोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः . न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः .१५ .
मनुष्य मन, वाणी और शारीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत ,जो कुछ भी कार्य करता है -उसके ये पाँच कारण हैं .
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना .करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्म संग्रहः .१८.
ज्ञाता,ज्ञान और ज्ञेय (लक्ष्य ) यह तीन प्रकार की कर्म प्रेरणा है और कर्त्ता ,करण (साधन )तथा क्रिया (जिससे कार्य किये जाते हैं )-यह तीन प्रकार का कर्म संचय है .ज्ञाता या कर्ता के पास जो ज्ञान होता है उसी के अनुसार वह कर्म में प्रवृत्त होता है तथा अपना लक्ष्य निर्धारित करता है . सामान्य परिस्थितियों में खेती करने वाला व्यक्ति अपना लक्ष्य किसी उद्योग को स्थापित करना नहीं ,अपनी कृषि को उन्नत बनाना रखेगा क्योंकि उसे उसका ही ज्ञान है. सेनापति अपना लक्ष्य सेना को मजबूत करना तथा युद्ध में विजय प्राप्त करना रखेगा. वैज्ञानिक है तो नए अनुसन्धान का और राजनीतिज्ञ है तो सरकार में उच्च पद पाने का लक्ष्य निर्धारित करेगा .यह तीन प्रकार की कर्म प्रेरणा कही गयी हैं अर्थात ये मनुष्य को कर्म में प्रवृत्त होने की प्रेरणा देते हैं . कर्त्ता उपलब्ध साधनों से जो भी कार्य करता है उनका प्रभाव संचित होता जाता है जैसे बैंक खाते में धन जमा होता है . जब उसका पुनर्जन्म होता है तो इन कार्यों में से कुछ का प्रभाव उसके भाग्य के रूप में अंकित हो जाता है . जैसे व्यक्ति किसी कार्य के लिए बैंक से अपनी जमा पूँजी से कुछ राशि निकल लेता है . शेष कर्म उसके भाग्य में संचित रूप में रहते हैं और पुनः किसी जन्म में काम में आते हैं . यह भाग्य व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है . विश्व में पुनर्जन्म की अनेक घटनाएं ज्ञात हैं परन्तु पूर्व एवं वर्तमान जन्म में सम्बन्ध ज्ञात करने की कोई वैज्ञानिक विधि न होने के कारण लोग इसे महत्त्व नहीं देते हैं .पारसन्स ने जिसे वन्शानुसंक्रमण (इसमें कर्त्ता का भाव भी निहित है.उसने बाद में कर्त्ता को भी पृथक से मुख्य तत्व कहा है. ) कहा है , गीता में उसे दैव कहा गया है, वहां कर्त्ता पृथक से माना गया है .वंशानुसंक्रमण एवं परिस्थितियों से बहुत से लोगों के कर्म की दिशा समझी जा सकती है परन्तु उस से हम जीवन की सभी व्याख्याएं नहीं कर सकते है. युवराज सिद्धार्थ का राज्य त्याग कर सन्यासी हो जाना और पुनः भगवान् तुल्य प्रतिष्ठा प्राप्त करना , महात्मा गाँधी का एक छोटी सी धोती पहन कर विशाल अंग्रेजी राज्य से टक्कर लेना और विश्व में अपूर्व प्रतिष्ठा प्राप्त करना , चर्मकार रैदास का महान संत हो जाना ,बाबा साहेब आंबेडकर का वंशानुसंक्रमण में 'अछूत ' स्तर से ऊपर उठकर राष्ट्र निर्माता की अगली श्रेणी में आना और ईश्वर तुल्य व्यक्तित्व प्राप्त करना ,बिल गेट्स का असाधारण तीव्र गति से दुनिया का सर्वाधिक धनि व्यक्ति बन जाना जैसे अनेक उदाहरण विश्व में दृष्टिगोचर होते हैं जिन्हें केवल भाग्य या दैव के आधार पर ही समझा जा सकता है . कुछ लोग बचपन से ही अद्भुत प्रतिभा के धनी होते हैं यह उनके पूर्व जन्म के संस्कारों एवं कर्मों के कारण ही होता है उनके परिवार या परिस्थितियों के कारण नहीं .
टालकाट पारसन्स ने भी कर्त्ता(कार्य करने वाला व्यक्ति) का पृथक से उल्लेख बाद में किया है . गीता में कर्त्ता सर्वाधिक महत्वपूर्ण है . कर्त्ता का अभिप्राय दिखने वाले मनुष्य से न होकर शरीर में स्थित उस चेतन शक्ति से है जिससे यह शरीर चलायमान होता है . क्योंकि देखने में तो सभी व्यक्ति एक जैसे अंगों वाले होते हैं परन्तु उनमें सोचने और कार्य करने की प्रवृत्ति और क्षमता भिन्न -भिन्न होती है और वही उन्हें अपना लक्ष्य निर्धारित करने के लिए प्रेरित करती है .
इस प्रकार पारसन्स और गीता के सिद्धांतों में पर्याप्त समानता है --
१. वन्शानुसंक्रमण तथा पर्यावरण (heredity & environment ) =(कर्त्ता + दैव) तथा अधिष्ठान (आधार या स्थान ).
२. साधन और साध्य (means & ends ) = करण तथा ज्ञेय
३. अंतिम मूल्य (ultimate values ) = ज्ञाता एवं ज्ञान (इनसे व्यक्ति अपनी एक निश्चित सोच रखता है और उसी के आधार पर जीवन के लक्ष्य निर्धारित करता है ).
तथा ४. प्रयत्न (efforts). = भिन्न-भिन्न चेष्टाएँ .
गीता में कर्त्ता अपने ज्ञान से जो ज्ञेय या लक्ष्य निर्धारित करता है ,उसे प्रेरणा कहा गया है . यह प्रेरणा ही मनुष्य को कर्म में प्रवृत करती है .प्रेरणा किसी फल को पाने की जितनी तीव्र इच्छा उत्पन्न करेगी , व्यक्ति उतने ही उत्साह से लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर होगा अर्थात फल की प्राप्ति ही कर्म की प्रेरणा है , कोई फल नहीं मिलेगा तो मनुष्य काम ही क्यों करेगा ? इसलिए जो लोग गीता के श्लोक , 'कर्मण्ये वा अधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन' की यह व्याख्या करते हैं कि फल की इच्छा के बिना कर्म करना चाहिए , उचित नहीं है . इसमें कहा गया है कि कर्म पर तेरा अधिकार है , फल पर नहीं.अर्थात व्यक्ति को अपने लक्ष्य निर्धारित करने , फल कि इच्छा करने और कर्म करने का तो पूरा अधिकार है ,परन्तु उसे सफलता मिलेगी या नहीं यह निश्चित नहीं है क्योंकि फल उक्त विभिन्न तत्वों के तुलनात्मक मूल्यों पर निर्भर करेगा . जैसे किसी नौकरी के लिए आवेदन तो अनेक लोग कर सकते हैं , उसे प्राप्त करने का प्रयास भी कर सकते हैं परन्तु यह नौकरी किसे मिलेगी यह उनके जाति तथा धर्म (यह केवल भारत में है ), घूंस , भाई-भतीजा वाद , योग्यता , उपलब्ध पद एवं आवेदकों कि संख्या आदि के परिणामी बल पर निर्भर करेगा . जिसे वह नौकरी नहीं करनी है या नहीं मिल सकती , वह आवेदन ही नहीं करेगा अर्थात बिना कर्म फल कि आशा के कोई काम प्रारंभ ही नहीं करेगा . गीता में कर्म के अन्य अनेक पहलुओं पर भी विस्तार से विचार किया गया है .
टालकाट पारसन्स ने गीता का अध्ययन नहीं किया था ,. उसने अपने निष्कर्ष मैक्स वेबर , दुर्खीम , परेटो जैसे पाश्चात्य समाजशास्त्रियों के विचारों का मंथन करके निकाले थे . पश्चिमी देशों में विद्वानों का बहुत आदर होता है , उनके विचारों को व्यवहार में लाया जाता है . वहां नियुक्तियां योग्यता के आधार पर होती हैं , उन्हें श्रेष्ठ वातावरण तथा उपकरण एवं अन्य साधन उपलब्ध कराये जाते हैं , लोग भी अच्छे लक्ष्य निर्धारित करके समर्पण भाव से कार्य एवं शोध करते हैं , इसलिए वहां श्रेष्ठ कार्य होता है ,अनेक लोगो को नोबेल पुरस्कार प्राप्त होते हैं . भारत में कर्म और धर्म कि सारी व्याख्याएं आत्मा- परमात्मा के सन्दर्भ में होती हैं . समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र , अर्थ शास्त्र आदि के व्यावहारिक सिद्धांतों के सन्दर्भ में नहीं होती .इसलिए भारत में अच्छे शोध कार्य नहीं होते जब कि भारत के ही लोग पश्चिमी देशों में जाकर उत्कृष्ट कार्य करते हैं . भारत में भी परमाणु ऊर्जा तथा अन्तरिक्ष के क्षेत्र में जहाँ योग्यता भी देखी जाती है और साधन भी दिए जाते हैं अच्छा कार्य हो रहा है . तिलक, महात्मागांधी राजगोपालाचारी , विनोबा भावे जैसे अनेक महापुरुषों ने गीता के कर्म के सिद्धांत को समझा और देश को स्वतन्त्र कराया .जिससे सामाजिक , राजनीतिक ,आर्थिक आदि क्षेत्रों में वृहद् रूप से परिवर्तन हुए . अतः आज इस बात की महती आवश्यकता है कि धार्मिक आख्यानों को व्यावहारिक दृष्टि से देखा और समझा जाय तथा उनका अनुकरण भी किया जाय तो हम समाज की वर्तमान विद्रूपताओं से मुक्त होकर उत्कृष्ट जीवन जी सकते हैं .
डा.ए. डी.खत्री
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें