रविवार, 18 सितंबर 2011

मीडिया और लोकतंत्र

लोकतंत्र और मीडिया
मीडिया स्वयं को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहता है . इसलिए उसे अपना स्वरूप दिखाई ही नहीं पड़ता है .जबकि मीडिया कोई खम्भा नहीं है , वह तो समाज का स्वरूप है और अपने रूप को संवारने का दायित्व भी उसी का है . वास्तविकता यह है कि समाज के सामने लोकतंत्र कि भावना ही स्पष्ट नहीं है . यदि यह हमारी व्यवस्था है तो हम हड़तालें किसके विरुद्ध करते हैं ? यदि यह वास्तव में लोकतंत्र है तो मीडिया किसी नेता पुत्र जैसे राहुल,प्रियंका को देश के एक योग्य नेता के स्थान पर , एक राजकुमार या राजकुमारी और भावी शासक के रूप में किस आधार पर प्रस्तुत करता है ? हमारे पूर्व प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री और अटल बिहारी बाजपेई सामान्य परिवार से थे और आज के अनेक मुख्यमंत्री जैसे शिवराज सिंह चौहान , नरेन्द्र मोदी , मायावती , ममता बनर्जी आदि भी सामान्य परिवारों से हैं . अतः सर्वप्रथम लोकतंत्र की अवधारणा और प्रजातंत्र से उसके अंतर को भी को स्पष्ट रूप से समझना आवश्यक है जो अभी तक केवल 'रजतपथ' पत्रिका में ही दिया गया है .
प्राचीन काल में राजा तलवार की नोक पर बनते थे ,मध्य काल में तोपों और बंदूकों से बनने लगे और प्रजातंत्र में , अब लोगों के वोटों से बन रहे हैं . इसलिए जैसे उन कालों में राजा जनता से प्राप्त टैक्स को अपना समझते थे ,आज भी समझते हैं और उसे बिना किसी शर्म के अपने देशी-विदेशी खातों में जमा कर रहे हैं . फिर इसे भ्रष्टाचार क्यों कहना चाहिए ?
लोकतंत्र के परीक्षण का प्रमुख विन्दु है कि राज्य के कितने लोग देश हित में कार्य कर रहे हैं . एक शिक्षक यदि भावी नागरिक का निर्माण कर रहा है तो वह देश को समर्पित है , यदि वह उदरपूर्ति के लिए अध्यापन कर रहा है तो वह देश को अपना नहीं मानता है .जबकि दोनों स्थितियों में उसे वेतन उतना ही मिल रहा है . यदि भारत में १% लोकतंत्र माने तो क्या देश में १२ करोड़ लोग देश के लिए समर्पित हैं ?क्या ०.१% अर्थात १२ लाख लोग भी देश के लिए समर्पण भाव से कार्य कर रहे हैं ?
लोकतंत्र में मंत्री ,अधिकारी-कर्मचारी तथा जनता एक पंखे के तीन पंखों के सामान होते हैं ,जो कानून रुपी मोटर से जुड़े हों और व्यवस्थापिका रुपी विद्युत् से चल रहे हों .जिस प्रकार पंखे के तीव्र गति से चलने पर तीनों पंख ,मोटर तथा उसमें प्रवाहित होने वाली विद्युत् एकाकार हो जाते हैं , उसी प्रकार जब व्यवस्थापिका,कार्य पालिका और न्याय व्यवस्था का जनता के साथ पूर्ण रूपेण सामंजस्य हो जाये , जब शासन जनता कि इच्छा के अनुसार चले और उन्हें लगे कि सरकार उनकी और उनकी अपनी ही सरकार है , तब उसे लोकतंत्र कहा जायगा .

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