भारत के संविधान में सरकार नाम की कोई संस्था नहीं है . कार्यपालिका नाम की भी संस्था नहीं है . कार्यपालिका में मंत्रिमंडल भर ही नहीं आता है . वे सभी लोग , कर्मचारी एवं अधिकारी , जो शासन कका कोई भी कार्य करते हैं कार्यपालिका का हिस्सा हैं . इसलिए जब भी किसी विभाग के कर्मचारी द्वारा किसी व्यक्ति की संतुष्टि के विरुद्ध कोई कार्य किया जाता है , वह न्यायालय चला जाता है और राज्य या केंद्र को पार्टी बनता है . न्यायालय को उसका उत्तर वह कर्मचारी या अधिकारी नहीं देता बल्कि उस विभाग का सचिव या आयुक्त देता है क्योंकि वे लोग कार्यकारिणी के स्थायी सदस्य हैं . मंत्री गण जो अपने और केवल अपने को ही सरकार मानते हैं , सरकार के विरुद्ध किये गए मुकदमें का उत्तर देने कभी कोर्ट नहीं जाते ,क्यों ? क्योंकि मंत्री लोग कार्यकारिणी के अस्थायी सदस्य होते हैं ,आज एक विभाग के मंत्री हैं , कल किसी और विभाग के हो सकते हैं या सड़क पर भी आ सकते हैं . उन्हें विभाग के बारे में उतना ही पता होता है जितना अधिकारी उन्हें समझा देते हैं .परन्तु मंत्री मंडल को शासन की योजनाओं को बनाने , उनकी प्राथमिकताएँ तय करने , धन स्वीकृत करने तथा उन्हें क्रियान्वित करने का आदेश देने की शक्ति होती है .एक बार मंत्रिमंडल बन गया तो वह कितना भी अस्थिर एवं कमजोर क्यों न हो , वह छोटे से बड़े अधिकारियों को अपने आदेश से कहीं भी स्थान्तरित कर सकता है .देश -विदेश में शासन के कार्य सम्बन्धी निर्णय ले सकता है और उसकी घोषणा कर सकता है कियह कार्य उसने किया है ,जबकि स्थायी कोई भी अधिकारी , वह चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो , कर्ता के रूप में अपने नाम की घोषणा नहीं कर सकता . अर्थात प्रत्यक्ष रूप से शासन के काम करते मंत्री ही दिखते हैं , और जब तक उन कार्यों को अदालत में चुनौती न मिले , वे सरकार के काम के रूप में ही जाने जाते हैं .अतः मंत्री लोग अपने को 'सरकार' तथा सभी छोटे से बड़े अधिकारियों को नौकर मानते हैं और अन्य लोग भी ऐसा ही मानने लगते हैं . परिणाम स्वरूप मंत्री स्वयं को सब काम करने -करवाने वाला कहते हैं और लोग भी यह समझ लेते हैं कि यही सरकार है और उनके सभी काम चुटकी बजाते ही कर देंगे. जब वे अपनी सीमाओं के कारण कार्य नहीं कर पाते तो लोगो को बड़ी निराशा होती है .
मंत्रियों के स्वयं को सरकार या दूसरे शब्दों में 'राजा ' तुल्य मानने का प्रभाव उन पर यह पड़ता है कि वे प्राचीन काल के राजाओं कि भांति जनता से वसूले गए कर को अपनी निजी संपत्ति समझने लगते हैं और किसी शर्म के बिना वैसे ही उस जनता- धनको अपने खाते में जमा करने लगते हैं जैसे पहले के राजा करते थे . कोई उसे भ्रष्टाचार कहता है तो कहता रहे . पुराने राजा तो स्थायी होते थे . इन मंत्रियों का कार्यकाल कितने भी कम दिनों का हो सकता है . अतः जब किसी को मंत्री पद प्राप्त हो जाता है तो वह अपनी नौकरी की चिंता में पड़ जाता है , बहुत असुरक्षित मसूस करने लगता है और जितना लाभ कमा सकता है बिना किसी कंजूसी के कमाने लगता है .यह सामान्य प्रक्रिया है . यदि उसे किसी कानून के कारण कोई असुविधा होती है ती वह उसे बदलने में भी देर नहीं लगाता है क्योंक क़ानून बनाने वाली संस्था संसद या विधानसभा भी उसी की पार्टी की होती है .कानून बन जाने के बाद न्यायालय भी उन्हें रोक नहीं सकता क्योंकि तब वे नए क़ानून के अनुसार ही काम कर रहे होते हैं .इंदिरा गाँधी ने १९७१ में बैंकों का राष्ट्रीय करण किया , राजाओं के प्रिवी पर्स समाप्त किये . . सुप्रीम कोर्ट ने इसे गैर संवैधानिक करार देकर निरस्त करवा दिया . इंदिरा गाँधी ने शीघ्र ही संविधान संशोधन किया और पुनः कानून बनवा दिया ,जिससे प्रिवीपर्स बंद हो गए तथा बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो गया . भारत के अन्य नागरिकों की भांति शाहबानो को जब सुप्रीम कोर्ट ने तलाक के बाद गुजारा - भत्ता देने का निर्णय दिया तो मुस्लिम नाराज हो गए . प्रधान मंत्री राजीव गाँधी ने संविधान संशोधन करके सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को प्रभाव हीन कर दिया . लेकिन जब भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे सी वी सी थामस की प्रधान मंत्री ने नियुक्ति की तो न्यायालय ने उसे अमान्य कर दिया और थामस को हटना पड़ा . प्रधान मंत्री को सांसदों का भी समर्थन रहता है . अतः वह न्यायालय पर भारी पड़ जाते हैं .मंत्रिमंडल को सरकार मानने का जनता पर यह प्रभाव पड़ता है कि वह मान लेती है कि सरकार उसके सारे कष्टों का निवारण करेगी . लोग अपनी-अपनी मांगें मंत्रियों के समक्ष इस प्रकार रखते हैं कि वे राजा हैं और उनकी मांग तुरंत पूरी कर देंगे . परन्तु ये सारी मांगे पूरी नहीं कर सकते . प्रधान मंत्री ने अन्नाहजारे कि सिविल सोसायटी को स्वयं को राजा मानकर ही स्वीकृति दी थी और मंत्री समूह उनसे बात कर रहा था . जब मंत्रियों को लगा कि इस क़ानून में वे ही फंस जायेंगे तो उन्होंने संसद और संविधान कि रट शुरू कर दी . अब वे अपने को सरकार या राजा नहीं मान रहे हैं , सिर्फ मंत्री मान रहें हैं कि कानून संसद ही पास करेगा ,वे तो केवल बिल प्रस्तुत ही कर सकते हैं . नेताओं की यह चालाकी तभी तक चल सकती है जब तक सरकार, मंत्री और न्यायालयों के अर्थ , कर्तव्य और अधिकार अच्छी प्रकार नहीं समझ लिए जाते.
इसका सबसे दुखद पहलू यह है कि न्यायालय भी मंत्रियों को सरकार कहते और मानते हैं.मंत्रियों , अधिकारियों तथा कर्मचारियों द्वारा किये गए काम को वे सरकार के काम कहकर संबोधित करते हैं . उन्हें इस बात का कोई ध्यान नहीं है कि कि वे भी सरकार के एक तिहाई भागीदार हैं और जब तक किसी काम को न्यायालय कि स्वीकृति प्राप्त न हो वे काम सरकार के न होकर किसी मंत्री या अफसर के कार्य होते हैं . इसलिए जब गलत कार्यों के लिए न्यायालय सम्बंधित मंत्री या अधिकारी को दोषी न मान कर सरकार को दोषी मानते हुए सरकार को पीड़ित की क्षति पूर्ति का आदेश देते हैं और उसका भुगतान सरकारी खजाने से किया जाता है अर्थात जनता के पैसे से किया जाता है तो यह इस अवधारणा की पुष्टि करता है जनता का पैसा मंत्रियों और अफसरों का ही पैसा है जैसा पहले राजाओं और जमीदारों का होता था . और जब इस अवधारणा का पूरा लाभ उठाते हुए मंत्री- अफसर सरकारी पैसे को अपना माल समझ कर अपने देश - विदेश के बैंकों में जमा करते हैं तो भ्रष्टाचार का हो हल्ला क्यों होता है ? मंत्रियों - अधिकारियों के जानबूझ कर किये गए गलत कार्यों की सजा उन्हें व्यक्तिगत रूप से क्यों नहीं मिलनी चाहिए ? उन्हें इसके लिए ढेर सारा वेतन और भत्ते तथा सुविधाएँ जनता के कर के पैसों से किस लिए दी जाती हैं ? वे उत्तर दाई क्यों नहीं ठहराए जाने चाहिए ?
देश में कार्यकारिणी के लोग अपने अधिकारों का प्रयोग करना बखूबी जानते हैं , सांसद , विधायक भी जानते हैं । परन्तु न्यायालयों को नहीं मालूम की भारत के संविधान ने उन्हें न्याय देने के लिए बनाया है । उन्हें पूरा अधिकार है कि कानून या व्यवहार में जहाँ भी गड़बड़ी हो वे स्वतः हस्तक्षेप करें न कि केवल उस समय जब कोई अन्य व्यक्ति पैसे खर्च करके उनके दरबार में पहुंचे । सोचने कि बात है कि जब भारत के राष्ट्रपति व्यवस्थापिका ,कार्यपालिका और न्यायपालिका, तीनों के प्रमुख हैं तो न्याय सम्बन्धी मामलों में (जैसे दया याचिका ) राष्ट्रपति को न्यायालय से सलाह लेनी चाहिए या मंत्री मंडल से ? यह मंत्रियों को सरकार मानने कि गलती करने तथा न्यायलयों का अपने अधिकारों को न समझने का ही परिणाम है कि न्यायालय के कार्यों पर भी मंत्री हावी हैं . उन्हें इतनी सी बात भी समझ में नहीं आई कि राष्ट्रपति को शपथ दिलाने का कार्य उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को इसलिए सौंपा गया है वह संविधान को समझने और उसका सम्मान करने वाला देश का सर्वाधिक गरिमा युक्त व्यक्ति है . न्यायालय कि इसी नासमझी का लाभ उठाते हुए इंदिरा गाँधी ने १९७५ में , जब भ्रष्टाचार के कारण उनका चुनाव निरस्त हो गया था , प्रधान मंत्री तो दूर उन्हें सांसद का पड़ भी छोड़ना था , स्वयं को सरकार (राजा ) मानते हुए आपात काल लगा दिया , सभी विरोधियों को जेलों में ठूंस दिया तथा न्यायालयों में अपने मन पसंद न्यायाधीश नियुक्त कर दिए और स्वयं क़ानून के बहुत ऊपर विराजमान हो गयीं . तब उच्चतम न्यायालय के अवकाश प्राप्त अनेक न्यायाधीशों समेत अनेक क़ानून वेशेषज्ञों ने इसकी भारी आलोचना की कि असंवैधानिक कार्य किये जा रहे हैं ,परन्तु उससे इंदिरा जी पर क्या असर पड़ा . जब आप उन्हें सरकार मानते हो तो उन्हें अपनी मनमानी पूरी करने का अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाता है . अतः आपात काल के लिए दोषी न्यायालय थे , जो इंदिरा गाँधी को असंवैधानिक कार्य करने से नहीं रोक पाए , जो कि उनका ही दायित्व था . आज भी न्यायालय उसी पुरानी तर्ज पर चल रहें हैं कि हमें किसी बात से कुछ लेना -देना नहीं हैं , जब कोई फरियाद करेगा , देखा जायगा . इसलिए आज लोकपाल की बात हो रही है और यदि वह भी धृतराष्ट्र निकला जिसे स्वयम कुछ भी दिखाई नहीं देता और उसे विदुर या कृष्ण की नहीं, केवल दुर्योधन की बात ही समझ आती है तो इस देश को अत्याचार, भ्रष्टाचार , आतंकवाद , मंहगाई , गरीबी आदि समस्याओं से कोई नहीं बचा सकता .
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