धारा ३७६ की नई व्याख्या
समाचार पत्र से ज्ञात हुआ कि दिल्ली उच्च
न्यायालय के जस्टिस प्रदीप नंद्रा जोग और जस्टिस मुक्ता गुप्ता ने ६५-७० वर्ष की
एक महिला से हुए बलात्कार मामले में भारतीय दंड संहिता की नई व्याख्या प्रस्तुत
करते हुए कहा है कि महिला की आयु ६५-७० वर्ष है. वह रजो
निवृत्त हो चुकी है. रजोनिवृत्त महिला से सम्बन्ध बनाना जबरन बनाए गए सम्बन्ध (
फोर्सिबुल) की श्रेणी में नहीं आता है ,यह सम्बन्ध उग्र प्रकार का ( फोर्सफुल ) हो
सकता है. अतः उस पर धारा ३७६ अर्थात बलात्कार का आरोप नहीं बनता है. बलात्कार के
आरोप में निचली अदालत ने आरोपी को १० वर्ष के कठोर कारावास की सज़ा दी थी जिसे उन्होंने
बरी कर दिया . इस पर कुछ महिला वकील एवं महिला संगठनों ने आपत्ति की है .
भारत में तो वही न्याय है जिसे जन साधारण
नहीं केवल जज ही समझते हैं. यदि जज अपराधी को दोष मुक्त कर रहे हैं तो उन्हें सज़ा
कौन और कैसे दे सकता है . फ़िल्मी स्टाइल में कोई पेड हीरो तो यहाँ होता नहीं है जो
पुलिस- न्यायालय को लांघता हुआ अपराधी को स्वयं दंड दे दे या मार डाले. यदि किसी को लगता है कि निर्णय
गलत है तो सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है . इन्हीं टेढ़े - मेढ़े निर्णयों के कारण अंग्रेजी
काल से यह क़ानून बना हुआ है कि न्यायालय
के निर्णय की आलोचना नहीं की जा सकती है भले ही वह कितना भी गलत हो . यदि कोई
आलोचना करता है तो वह न्यायाधीश की नहीं, माननीय न्यायालय की अवमानना का दोषी होगा
और उसे वही जज इच्छानुसार दंड दे सकते हैं . इसलिए हम तो नहीं कह सकते कि निर्णय
गलत है. निर्णय देने वाले दो जजों में एक आदमी है, दूसरी औरत है. वही कह रही है कि
बलात्कार नहीं हुआ तो दूसरा, तीसरा या स्वयं भुक्त भोगी कैसे कह सकती है कि
बलात्कार हुआ.
आपराधिक निर्णय सामान्य रूप से राज्य का विषय
होते हैं . राज्य ही आरोपी को सज़ा दिलवाने के लिए अपना सरकारी वकील करते हैं जब कि
आरोपी धन-बल के दम पर बड़ा से बड़ा वकील रखता है ताकि वह बच जाए. क्या इस प्रकरण में
दिल्ली राज्य की सरकार सर्वोच्च न्यायालय जायेगी ? यदि वह नहीं जाती है तो कम से
कम दिल्ली राज्य के लिए तो यह लागू हो ही जायगा कि रजो निवृत्त महिला से, जिसकी
आयु ५० वर्ष या अधिक हो सकती है कोई भी पड़ोसी, रिश्तेदार या अपिरिचित व्यक्ति
स्वेच्छानुसार फोर्सफुल सम्बन्ध बना सकेगा और पुलिस में उसकी रिपोर्ट भी दर्ज नहीं
होगी क्योंकि इसे बलात्कार न मानकर हलके-फुल्के धक्का देने या चांटा मारने जैसा
प्रकरण माना जायगा . कार्यालय या सेवा स्थान में अधीनस्थों क्या, महिला अधिकारीयों
से कोई मुंह जबानी छेड़छाड़ करेगा तो उस पर प्रकरण दर्ज होगा परन्तु यदि वह फोर्सफुल
सम्बन्ध बनाता है तो उसका कोई कुछ नहीं कर पायेगा. घर के अन्दर काम करने वाली
महिलाओं का तो हाल और भी बद्तर हो जायेगा . वे बेचारी किससे शिकायत करेंगी और इस
निर्णय के आगे उनकी बात कौन सुनेगा ? उतना ही भय तथा कथित बड़े घर की महिलाओं को भी
रहेगा जो घर में नौकरों से काम करवाती है. कड़े क़ानून की परवाह न करते हुए जब लोग
२-३ वर्ष की कन्याओं को नहीं छोड़ते हैं तो महिलाओं की बात कौन करे जहाँ क़ानून
अपराधी के साथ होगा.
कुछ माह पूर्व मीडिया के एक चैनेल में
दिखाया गया था कि विदेशी लोग विशेषकर अफ्रीकी खुले आम सौदा कर रहे हैं कि किस
प्रकार की कितनी लड़कियां कहाँ चाहिए. पुलिस को तो ये सब धंधे शुरू होने के पहले ही
पता चल जाते हैं. यदि पुलिस का सहयोग न हो तो ऐसे धंधों में संलिप्त शरीफों की शराफ़त
कब तक टिक सकती है ? आम पार्टी के समय क़ानून मंत्री सोमनाथ भारती को कुछ लड़कियों
के पत्र प्राप्त हुए कि वे विदेशी चकलेबाज़ों के चंगुल में फंस गई हैं , उन्हें
मुक्त कराया जाय. नए-नए बने क़ानून मंत्री भारती ने अति उत्साह दिखाते हुए ऐसे ही
एक स्थान पर छापा मार दिया . परिणाम यह निकला कि धंधेबाज़ तो धंधे में मस्त हैं ,
भारती के विरुद्ध विदेशी महिला के घर में जबरन घुसने और परेशान करने का प्रकरण दिल्ली पुलिस ने दायर कर दिया है.
कुल मिलाकर स्थिति यह है कि पहले पुलिस अकेले
दम पर जिन अनैतिक कार्यों को प्रोत्साहन दे रही थी, अब कानून भी उनके साथ आ गया है.
अब देखना है कि भारतीय संस्कृति और गौरव की दुहाई देने वाले प्रधान मंत्री नरेंद्र
मोदी इस प्रकरण को कितनी गंभीरता से लेते हैं . वे स्वयं पहल करते हुए धारा ३७६ की
पुनर्व्याख्या संसद में करवाएंगे या इसको देश के और भी बड़े जजों की दया पर छोड़
देंगे. इस निर्णय ने तो समलैंगिकता से भी बहुत बड़ी छलांग लगा दी है जिसके नीचे
महिलाएं ही नहीं पूरा देश और समाज आ गए है. स्वयं स्त्री और पुरुष जज भी आ गए हैं क्योंकि
अपवाद छोड़कर पुरुष जजों के घर में भी प्रौढ़ एवं वृद्ध स्त्रियाँ होती है, नहीं हैं
तो भविष्य में होंगी.
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