शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

लोकतान्त्रिक अर्थ शास्त्र

                
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                                       लोकतान्त्रिक अर्थ शास्त्र 
    लोकतान्त्रिक अर्थ शास्त्र को समझने के पूर्व पहले भारत के वर्त्तमान अर्थशास्त्र जो तृष्णा का ऋणात्मक अर्थ शास्त्र है (१), को समझना होगा।  तृष्णा के धनात्मक अर्थशास्त्र में उत्पादन बढ़ता है , नवीन खोजें होती हैं , आय बढ़ती है जबकि ऋणात्मक अर्थशास्त्र में प्रत्यक्ष रूप से समृद्धि में वृद्धि दिखाई देती है परन्तु धीरे- धीरे उससे अर्थव्यवस्था  नष्ट होती जाती है।  इतिहास में मीरजाफर ने  इसका बहुत अच्छा   उदाहरण प्रस्तुत किया है।  मीरजाफर बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला का सेनापति था।  अंग्रेजों  की मदद से उसने नवाब को मार दिया और बंगाल का नवाब  बन गया।  उसका प्रभाव और प्रतिष्ठा बढ़  गई।  लेकिन अंग्रेजो की कुटिल चालों से १०  वर्ष मे ही बंगाल पर अंग्रेजों का राज्य हो गया और उसका पूरा परिवार ही नष्ट हो गया।  उसकी नवाब बनने की तृष्णा ने बंगाल पर ही अंग्रेजो का राज्य नहीं स्थापित किया , उन्हें वह  मार्ग दिखा  दिया जिस पर चलकार उन्होंने सारे भारत पर राज्य स्थापित कर लिया तथा  देसी राजाओं से आधीनता स्वीकार करवा ली। 
      भारत में वर्त्तमान में लोगों के लिए धन आवश्यकता पूर्ति  का साधन  न बनकर स्वयं साध्य  बनता जा रहा है। इसलिए अफसर और मंत्री हजारो करोड़ के घपले करके  डकार भी नहीं लेते हैं, सीधे उदरस्थ कर जाते हैं।  सर्वहारा वर्ग का राग अलापने वाले साम्यवादियों के एक राज्य के एक मंत्री ने गद्दे  में २२ लाख रूपये भरवाए और उस पर सोने की तृष्णा पूरी की। वे पूँजीपतियों को क्या दोष देंगे ? भारत सरकार के मंत्रियों ने तो भ्रष्टाचार और गबन के सभी रिकार्ड तोड़ दिए हैं और तोड़ते जा रहे हैं।सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने अपने रंग में देशवासियों को भी रंग लिया है और चारों और लूट-खसोट ही दिख रही है।  २००८ में कांग्रेस पार्टी ने चुनाव जीतने के लिए किसानों के ७१ हज़ार करोड़ रूपये के ऋण माफ़ कर दिए।  देश में इतनी बड़ी राशि लोगों को अचानक प्राप्त हो गई।  बाज़ार गुलज़ार हो गए , बड़ी कंपनियों ने जम  कर लाभ कमाया। प्रत्यक्ष में समृद्धि हुई। उसके बाद जो मंहगाई बढ़ने लगी उसने सभी को  त्रस्त  कर दिया।  २००८ से २०१३ तक ५ वर्ष अर्थात  ६० माह में  इस बाज़ार ने कितना धन झटक लिया है ? पिछले ५ वर्षों में  मंहगाई के कारण  प्रति परिवार औसत रूपये २ हजार  प्रति माह से अधिक व्यय बढ़ा ही  है।  यदि  प्रति परिवार औसत ४ सदस्य माने जाएँ  तो १२० करोड़ आबादी में औसत ३० करोड़ परिवार होंगे।  इनके द्वारा मंहगाई के कुंड में पिछले ५ वर्षों में कम से कम ३० करोड़*६० माह*२ हजार = ३६ लाख करोड़ रुपये अन्य  व्यय के अतिरिक्त भस्म हो गए।  यदि ७१ हजार करोड़ रूपये देश में भंडार गृह बनाने में व्यय किये गए होते तो प्रति वर्ष देश में जो हजारों करोड़ रूपये का अनाज और फल-सब्जियां बर्बाद होते है न होते।  किसानों को आय भी अधिक होती और मंहगाई न बढ़ती।  कांग्रेस ने तात्कालिक लाभ के लिए जनता का धन लुटा कर जो चाल चली, पिछले चुनाव में वे भले ही जीत गए हों , २०१३ में  राज्यों के  चुनावों में वही उनकी अपनी प्रिय मंहगाई हार का कारण बन गई और २०१४ के राष्ट्रीय  चुनाव में  उनकी हार की पूरी सम्भावना  बनी हुई है।  इस प्रकार बिना किसी अध्ययन- सर्वेक्षण  के ऋण मुक्त करने का प्रभाव यह हुआ है कि किसानॉ ने  बैंकों से ऋण  लेकर वापस करने का काम ही बंद कर दिया। जिससे अनेक क्षेत्रीय बैंक बंद होने की कगार पर पहुँच गए हैं ।  
        देश में अन्य लोगों में भी यही प्रवृत्ति  इन नेताओं ने भर दी हैं।  वेतन पूरा लेना और काम न करना सरकारी कर्मचारी, अधिकारी, मंत्री   अपना जन्मजात  अधिकार उसी प्रकार  मानते हैं जैसे १७८९ की फ़्रांस क्रांति के पूर्व वहाँ के सामंत मानते थे। डा मनमोहन सिंह का यह कैसा अर्थशास्त्र  है, वित्त मंत्री चिदंबरम की यह कैसी वित्त नीति है और मोंटेक सिंह अहलुवालिया की यह कैसी योजना है , यह समझ से परे है।   
       मार्क्स का अर्थशास्त्र  कहता है कि पूंजीपति अपने धन के दम पर  श्रमिकों का शोषण करके लाभ कमाते जाते हैं। इसलिए साम्यवादी देशों में श्रम का बड़ा महत्त्व रहा है।  वहाँ सबको भोजन का अधिकार है परन्तु उन्हें राज्य द्वारा दिया गया कार्य पूरे पारिश्रम से करना होता है।  मुफ्त में खिलाना उनके सिद्धांत के विरुद्ध है। महात्मा गांधी भी श्रम के उपासक थे।  वे स्व्यं श्रम करते थे और सबसे अपेक्षा करते थे कि वे भी श्रम करें।  एक बार वे अपने सचिव आचार्य जे बी कृपलानी के साथ बिहार गए जहां तांगे से यात्रा की।  बाद में उन्होंने कृपलानी जी से हिसाब माँगा।  कृपलानी जी ने बताया कि तांगे वाले को पौने सात रूपये देने थे परन्तु वे १० रूपये का नोट देकर शेष राशि लेना भूल गए।  गांधी जी ने इस पर अप्रसन्नता व्यक्त की और उन्हें जनता धन  बर्बाद करने के लिए एक दिन का उपवास रख कर उसकी क्षतिपूर्ति करनी पड़ी। नोआखाली के दंगा पीड़ितों की सहायता के लिए गांधी जी के पूर्व वहाँ  सुचेता कृपलानी गई थीं।  उन्होंने पीड़ितों के लिए राहत कैम्प खुलवाए।  गांधी जी ने वहाँ पहुँच कर सारी  व्यवस्था देखी। उन्होंने सुचेता जी से पूछा कि कैम्प में रहने वाले लोगों को जो भोजन एवं सुविधाएं दी जा रही है , उसके बदले वे क्या काम कर रहे हैं।  सुचेता जी ने उन्हें कैम्प में उनके द्वार किये गए  कामों की जानकारी दी , तब गांधी जी संतुष्ट हुए। गांधीजी मानते थे कि व्यक्ति  में जब तक आत्म गौरव है , तभी तक वह मनुष्य है।  यदि मुफ्त का खाकर उसकी आत्म शक्ति समाप्त हो गई तो वह   क्या कर सकेगा। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का जन्म गरीबी में हुआ था। डा हेडगेवार अति सामान्य परिवार से थे परन्तु उनमें आत्म बल बहुत अधिक था।  उन्होंने जिन्हें पूर्ण कालिक प्रचारक बनाया , उन्हें सारे व्यय की व्यवस्था जन सहयोग से स्वयं करनी पड़ती  थी।  उसके प्रशिक्षण शिविरों में जो लोग तब आते थे और आज आते हैं, उन्हें आने-जाने और भोजन के व्यय स्वयं वहन करने पड़ते हैं।  उसका सीधा सिद्धांत है जो अपने भोजन की व्यवस्था भी स्वयं नहीं कर सकता वह समाज और देश के लिए क्या सोचेगा, क्या करेगा ? परन्तु आज देश में मार्क्स के अनुयायी कम्युनिस्ट हों , गांधी जी के नाम की माला जपने वाले कांग्रेसी हों , संघ के स्वयं सेवक भाजपाई हों या अन्य कोई हों , बिना हिचक  जनता धन को निज हित में लुटाने में लगे हैं , बिना श्रम और अध्ययन के डिग्रियां बेच और बाँट रहे हैं और लोगों को बिना काम के धन और वस्तुएं बांटने की  प्रतियोगिता कर रहे हैं। क्या ये राजनीतिज्ञ स्वयं  को उन महान विचारकों से  अधिक योग्य और बुद्धिमान नहीं समझ रहे हैं ?क्योंकि वे धनहीन थे और ये धन कुबेर बन गए हैं।   इससे देश , समाज और लोग कहाँ जायेंगे ?
    राजा हो या पूँजी पति या फिर गरीब व्यक्ति , वह किसी भी धर्म या जाति का हो , सदैव यही प्रयास करता है कि उसके बच्चे आत्म निर्भर बनें , अपना हित- अहित समझें। कांग्रेस की  इस से विपरीत मानसिकता  के कारण १९४७ में नेहरू ने गरीबी हटाओ का सपना देखा था,  १९७१ में इंदिरा गांधी गरीबी हटा रही थीं और ४२ वर्ष बाद अब उनके पौत्र राहुल गांधी भी वही गरीबी  हटा रहे हैं जबकि गरीबों की सख्या, कुपोषितों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है।  ये कुटिल राजनीतिज्ञ  सोचते हैं कि यदि लोग आत्म निर्भर और समझदार हो जायेंगे तो उनकी राजनीति  की दुकान बंद हो जायगी  फिर वे किसके राजा और किसके राजकुमार कहलायेंगे ! अमेरिका में उद्यानों और समुद्र तटों पर स्पष्ट निर्देश रहते हैं कि लोग पशु-पक्षियों को खाने का कोई सामान न दें।  प्रकृति ने उन्हें अपना भोजन ढूंढने के लिए सक्षम बनाया है।  यदि वे लोगों पर आश्रित हो जायेंगे तो जिस दिन उद्यान बंद होगा , वे भूखे ही रह जायेंगे क्योंकि लोगों पर आश्रित होने के कारण वे स्वयं भोजन ढूंढना या शिकार पकड़ना भूल चुके  होंगे।  वे अपने पशु-पक्षियों को भी आत्मनिर्भर रखना चाहते हैं और हमारे देश में ऋण लेकर सरकारें लोगों में बाँट रही हैं ताकि वे जिंदगी भर निकम्मे रहे और और उन्हें अपना दाता समझ कर पूजते रहें।                 लोकतंत्र में गांधीजी की अर्थ व्यवस्था अपनाई जानी  चाहिए जिसे उनके अनुयाई नेहरू ने ही अस्वीकार कर दिया था। वर्त्तमान नेता गांधीजी के अर्थ शास्त्र के नाम से ही भयभीत हो जाते हैं। उन्हें भय लगता है तो वर्त्तमान में हजारों करोड़ रूपये भ्रष्टाचार से कमाने के अवसर ही शून्य नहीं होंगे , उन्हें गांधी जी की भांति लंगोटी में आना पड़  सकता है। गांधी जी का मौलिक सिद्धांत था कि ग्रामों में ही रोजगार उपजलब्ध करवाए  जाँय। जो वस्तु  जहाँ उत्पन्न होती है , उससे  सम्बंधित उद्योग वहीं लगने  चाहिए। देश की जनता की कमाई दिल्ली जैसे महानगरों में झोंकने और उसे चमकाने पर  राष्ट्रकवि दिनकर  ने अपनी कविता समर शेष है में कहा है (१९५४):
''सकल देश में हलाहल(१) है , दिल्ली में हाला  है,दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है। 
……… अटका कहाँ स्वराज ?बोल दिल्ली ! तू क्या कहती है ?तू रानी बन गई, वेदना जनता क्यों सहती है ?'' (१) तीव्र विष। 
  आज महा नगरों में अनेक लोग नारकीय जीवन बिता रहे हैं।  वे वहाँ मजदूरी करने आते हैं क्योंकि उनके गाँव और नगरों में रोजगार नहीं हैं।  गांधी जी ने यह कभी नहीं कहा कि उद्योग न लगें।  वे चाहते थे कि पहले लोगों को पेट भरने और दैनिक आवश्यकताओं की  पूर्ती के अवसर मिलें फिर अन्य काम भी किये जांय। यदि ऐसा होता तो देश के सभी हिस्सों में खुशहाली का बंटवारा होता , सिर्फ महानगरों में ही चांदनी नहीं बिखरती।  मुट्ठी भर पूंजी पतियों की हजारों करोड़ की कमाई को देश की  कमाई तो माना जायगा परन्तु उस आधार पर प्रति व्यक्ति औसत आय में वृद्धि दिखाना, देश की जनता के साथ धोखा है, क्रूर मजाक है।                
   देश में नवयुवकों की संख्या अधिक है  परन्तु उनका उपयोग क्या है  ? बी ई, एम बी ए उत्तीर्ण छात्र यदि बेरोजगारी के कारण चपरासी की नौकरी के लिए आवेदन कर रहे हों और  देश के नेताओं,  अर्थशास्त्रियों को डा मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार दिख रहे हों और कहा जा रह हो कि सुधार और तेज किये जांय , सरकार  कहे कि कठोर कदम उठाने होंगे , तो इस पूंजीवादी अर्थशास्त्र को भट्टी में झोंक देना चाहिए।  सरकार निकम्मी है और नए रोजगार नहीं उत्पन्न कर पा  रही है, एक सीमा तक स्वीकार किया जा सकता है। परन्तु देश में चलते हुए रोजगारों को नष्ट करने के लिए विदेशियों को आमंत्रित करना, उन्हें करों में भारी छूट  देना तो क्षम्य नहीं है। इसने  चीन के  उत्पादों को सस्ता बिकवाकर पहले अनेक स्वदेशी उद्योग नष्ट करवाए।  अब उन्हें मनमाने दाम पर बेचने की छूट दे दी गई है।  चीन के सामान देश  में धड़ल्ले से बिक रहे हैं और जितने दाम उनपर लिखे होते हैं उनसे दुगुने - तिगुने दाम पर बिक रहे है जिसकी कोई रसीद नहीं दी जाती , न कोई लिखा -पढ़ी होती है।  दूकानदार कहते हैं कि कर चोरी करने के लिए कंपनी से रेट कम लिख कर आता है , अतः लिखे मूल्य पर नहीं मिलेगा।  यह किसी एक शहर में नहीं पूरे देश में हो रहा है  क्योंकि भारत की यह विदेशियों की सरकार स्वयं यह सब करवा रही है।  क्या विदेशियों के साथ देश को लूटने का यह सहयोग यहाँ के सत्तारूढ़ नेता मुफ्त में दे रहे हैं ?यदि डा मनमोहन सिंह कहें , वित्त मंत्री कहें , योजना आयोग के उपाध्यक्ष कहें या फिर सोनिया गांधी - राहुल गांधी कहें कि वे बेचारे हैं , उन्हें तो इसका पता ही नहीं है , तो उन्हें देश की सत्ता संभालने का क्या हक़ है ? यदि वे कहें कि चीन बहुत शक्तिशाली है और वे उसे कुछ नहीं कह सकते, कुछ नहीं कर सकते तो भी उन्हें सत्ता में रहने का अधिकार नहीं है।  विदेशियों को कर मुक्त या बहुत कम कर तथा देशवासियों पर करों का बोझ लादने का काम ये उसी  प्रकार कर रहे हैं  जैसे गद्दार मीरजाफर ने अंग्रेजों के लिए किया था।  उस समय राजा -नवाबों के राज्य अंग्रेजों से नहीं बच सके , देश के लोग, देश के युवा जो इतिहास से कुछ भी सीखने के लिए तैयार नहीं हैं , लोकतंत्र को विदेशियों के चंगुल से कैसे बचा पाएंगे ? अतः लोकतंत्र के अर्थ शास्त्र को अच्छी प्रकार समझना होगा और जनता को समझाना होगा।                           
     आज के अर्थशास्त्र का सबसे बड़ा संकट भ्रष्टाचार है।  लोग भ्रष्टाचार का अर्थ घूंस खाना समझते हैं और इसी लिए डा मनमोहन सिंह को ईमानदार कहते हैं।  परन्तु ऐसा नहीं है।  इससे जुड़े सभी शब्दों का अर्थ लोगों को समझना चाहिए। भ्रष्टाचार का अर्थ है स्वयं या मित्रों के लाभ के लिए करने योग्य कार्य को न करना  और न करने योग्य कार्य को करना। जैसे किसी कार्यालय में एक व्यक्ति कोई प्रमाण पत्र या अनुमति पत्र लेने जाता है , उसे बिना कारण  के या कोई बहाना बना कर न दिया जाय या अवैध निर्माण की अनुमति दे दी जाय। किसी को लाभ या हानि पहुँचाने के लिए नीतियां  बनाना, योजनाएं बनाना, सीवेज,जल-व्यवस्था, विद्युत् व्यवस्था , केबल डालना आदि की जान बूझ कर या अनजाने में गलत योजनाएं बनाना जिससे जनता -कर से प्राप्त पैसे की बरबादी हो। न्याय में अनावश्यक विलम्ब भी इसी श्रेणी में आएगा। इसी  के भाई -बंधु हैं , घूंस, गबन आदि। किसी कार्य के लिए निर्धरित शुल्क के अतिरिक्त निजी लाभ के लिए धन लेना , गलत योजनाएं बनाने  के लिए धन लेना घूंस है । गबन का अर्थ है कम लागत के शासकीय कार्य  को अधिक राशि के ठेके पर देना और कमीशन खाना , घटिया और सस्ती वस्तु को अधिक दाम पर खरीदना , घटिया काम करवाना, बिना काम किये शासन से धन प्राप्त कर लेना, शासकीय सम्पत्ति को कम मूल्य पर बेचना जैसे स्पेक्ट्रम, खदानें आदि । जिस प्रकार अपने ही घर का धन लूटने के लिए कुछ दुष्ट और मक्कार व्यक्ति अपने मित्रों के साथ मिल कर कोई अपहरण या लूट का षड्यंत्र करते है , गबन वैसा ही जनता -धन लूटने का षड्यंत्र है।   सड़क खोदकर कोई कार्य करने पर  यह नियम रहता है कि सड़क पूर्ववत करके दी जायगी परन्तु भारत में तो ऐसा नहीं होता है ।  सड़कों में गड्ढे छोड़ दिए जाते हैं और बिल पास हो जाते हैं।  यह चोरी है। शासकीय संपत्ति जैसे भूमि, खदान पर अनधिकृत ढंग से अधिकार कर लेना लूट है और जो अधिकारी उसे देख कर भी चुप रहता है वह  लूट में सहभागी है।  यदि उसने इस कार्य के लिए धन भी लिया है तो वह  गबन का भी अपराधी है।  मिलावट करना,  जल-विद्युत् वितरण कार्य में घटिया माल लगाना  शत्रु कार्य हैं क्योंकि इनसे जीवन खतरे में पड़  जाता है, दूसरे शब्दों में जनहत्या का प्रयास है । जो अधिकारी धन लेकर यह  करवाता है वह शत्रु कार्य के साथ घूंस भी ले रहा है। यदि कोई अधिकारी यह कहे कि उसे उक्त  अपराधों का पता ही नहीं चला तो वह  अक्षम है।  उसे सेवा में रहने का कोई अधिकार नहीं है और पूर्व में लिए गए वेतन की राशि भी उससे वापिस ली जानी चाहिए। नगर निगम द्वारा बिना कोई सेवा दिए कर वसूलना और पुलिस द्वारा ठेलेवालों, रिक्शा वालो, ऑटोवालों आदि से जबरन वसूली करना अड़ी  डालकर वसूली करना है। असामाजिक एवं  प्रतिबंधित कार्यों जैसे जुए खिलवाना, ड्रग बिकवाना ,स्मगलिंग करना, वेश्या वृत्ति करना -करवाना , शराब के अवैध अड्डे चलाना और उसमें सहयोग देना, चाहे  वह  धन लेकर हो या अनदेखी करके हो, विद्रोह का कार्य है क्योंकि इससे समाज बर्बादी की ओर चल पड़ता है। परीक्षा में बड़ी राशि लेकर प्रवेश देना या उत्तीर्ण करवाना डानगीरी है जिसका अर्थ है  शासकीय कानूनों  के द्वारा  कोई भी अपराध करना।  भ्रष्टाचार और उक्त अपराधों में सम्बन्धों को इस प्रकार समझना चाहिए कि ये सब भ्रष्टाचार के ऐ सी मॉल में  घूंस, गबन आदि के विभिन्न डिपार्टमेंटल स्टोर हैं जो सारे देश को, जनता को अलग- अलग ढंग से लूट रहे हैं।  उक्त कार्यों की उपेक्षा करके कोई भी अर्थ नीति सफल नहीं हो सकती है।  १३८ = २५०० शब्द 
   आम आदमी  की अर्थव्यवस्था की बात करें तो यह देखा जा सकता है कि व्यक्ति अपने परिवार की आवश्यकताओं पर होने वाले व्यय और आय के  मध्य एक सम्बन्ध स्थापित करता है कि उसे महीने में किस मद में कितन व्यय  करना है, वह किसी अचानक आने वाले व्यय के लिए कुछ बचत भी करता है।  यदि घर में कोई अस्वस्थ हो जाय तो सर्व प्रथम उसके इलाज की व्यवस्था की जाती है , उस पर अतिरिक्त व्यय भी किया जाता है , कर्ज लेकर भी व्यय किया जाता है।  इसी प्रकार जुलाई में बच्चों की पढ़ाई और कापी-किताबों के लिए अतिरिक्त व्यय किया जाता है। यदि व्यवसाय करना हो या उच्च शिक्षा लेनी हो और धन न हो तो बैंक से ऋण भी लिया जाता है जिसे चुकाना होता है।  घर के लिए भी ऋण लिए जाते हैं  ताकि जीवन में अच्छा कारोबार कर सकें और सदैव  किराया न देना पड़े।  बैंक से लिए गए ऋण को चुकाना पड़ता है।  पुत्र भी माता-पिता की वृद्धावस्था में देख-भाल करते हैं। कर्ज के रूप में नहीं , दायित्व के रूप में।  ठीक ऐसी ही व्यवस्था देश  की भी होनी चाहिए। 
    यदि समाज के धन से एक व्यक्ति को विशेष सुविधाएं देकर पढ़ाया जाता है तो उसका भी यह दायित्व होना चाहिए कि वह  सक्षम होने पर समाज को अतिरिक्त सहयोग धन या अन्य सेवा के रूप में दे।यदि बिना किसी दायित्व के दान खाते में अनेक लोगों को दान करते जायेंगे तो देश को उसके लिए उद्योग लगाकर अतिरिक्त धन भी कमाना  होगा या नेता निजी उद्योग लगाकर उनके लिए धन की व्यवस्था करें।  छात्रवृत्तियां बढ़ाते जाना और दूसारी और शिक्षकों की लाखों पद खाली रखना, उन्हें भवन, फर्नीचर,  पुस्तकालय,  जल, शौचालय  आदि आवश्यक सुविधाओं से वंचित रखना, पीढ़ियों को अक्षम बनाने का  राष्ट्रीय अपराध है। 
     अमेरिका क्यों सबसे आगे है ? वह विश्व भर से बुद्धिमान व्यक्तियों को देश में आने के लिए प्रेरित करता है।  जितना धन बहरी व्यक्ति वहाँ जाकर कमाता है , उससे कई गुना अधिक वहाँ की राष्ट्रीय आय में योगदान देता है।भारत में बुद्धि पलायन पर कुछ लेख लखने से तो देश का कोई हित नहीं होने वाला है।  दूसरी ओर चीन ने प्रारम्भ में अपनी मानव-शक्ति का उपयोग करके अस्श्चर्य जनक प्रगति की है।  अतः देश में उपलब्ध धन, मानव-शक्ति एवं  बुद्धि का समुचित प्रयोग करके ही देश को आगे बढ़ाया जा सकता है।  भारत में धन और संसाधनों  की बंदरबांट तो हो रही है परन्तु  देश हित में उसका नियोजन करने की ओर कोई भी नहीं सोच रहा है। इसे शीघ्र क्रियान्वित करना होगा।  मूर्खों को शासन में नौकरी देकर और बुद्धिमानों को दूर भगाकर उन्नति की कल्पना से अधिक मूर्खता क्या हो सकती  है ? लोक निर्माण विभाग द्वारा किये गए निर्माण कार्यों को देखिए, लघु उद्योग निगम के माध्यम से क्रय किये गए सामानों की गुणवत्ता देखिए, सरकारी विद्यालयों के बच्चों का ज्ञान देखिये, सहकारी संस्थाएं देखिए, आप स्वयं कह उठेंगे कि इनमें पदस्थ अधिकारी, मंत्री कितने अक्षम, धूर्त और भ्रष्ट हैं। यदि निजी संसाधनों से संचार सेवाएं चलाने वाले अरबों रूपये का लाभ अर्जित कर रहे हैं और सरकारी भारत सेवा संचार निगम अरबों के घाटे में चल रहा है तो क्या इससे यह स्वतः सिद्ध नहीं हो जाता कि सरकार के बाहर रहकर कार्य करने वाला व्यक्ति समूची सरकार से बहुत योग्य है भले ही शक्ति धारण करने के कारण मंत्री और उच्च अधिकारी अपनी हेकड़ी में रहें। 
      देश में अर्थ व्यवस्था तो मिश्रित ही रखनी होगी। निजी उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए परन्तु इसका अर्थ यह कभी नहीं है कि शासकीय उपक्रमों को बेचते चले जांय।  यदि शासकीय उपक्रम घटे में चल रहे अहिं तो उसमें सुधर किये जेन चाहिए निकम्मों को बाहर निकाल कर योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति की जानी चाहिए।  भोजन, आवास, वस्त्र, शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन जैसी आवश्यकताओं के मूल्य सरकार को नियंत्रित करने होंगे।देश को डा मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री और चिदम्बरम जैसे वित्त मंत्री नहीं चाहिए जो कहें कि मंहगाई शीघ्र कम करेंगे और निरंतर मंहगाई बढ़ाते जांय।  प्रदेशॉन में भी  सरकार में थोक के भाव भ्रष्टाचार करने के लिए अनेक सेवाओं का केन्द्रीयकरण कर दिया गया है। जैसे  विद्यालयों में छोटी कक्षाओं की परीक्षाओं के प्रश्नपत्र भी राज्य स्तर पर छपते हैं जबकि उसे विद्यालय स्तर पर होना चाहिए।  पहले भ्रष्टाचार करके अयोग्य शिक्षक नियुक्त करना , फिर स्तर बनाए रखने का बहाना बनाकर एक साथ पर्चे छपवाना लोक व्यवस्था के विपरीत है।  योग्य व्यक्ति रखें , उसे काम करने की स्वतंत्रता दें , अनेक व्यवस्थाएं स्वतः ठीक हो जाएँगी।  
       भ्रष्टाचार रोकने के लिए शासन में कोटेशन या टेंडर से सामान क्रय किये जाते है या विक्रय किये जाते हैं जिनमें अब तो लाखों करोड़ के भ्रष्टाचार होने लगे हैं।  उसके लिए यह बेहतर होगा कि प्राप्त होने वाले मूल्य को सार्वजनिक करने के बाद पुनः विज्ञप्ति दी जाय  और यदि कोई उससे भी अच्छा सामान कम मूल्य पर  देता है या शासकीय सामान अधिक मूल्य पर क्रय करता है तो उसे अवसर दिया जाना चाहिए।  इससे अनेक स्थानों पर अच्छा सामान मिलेगा, अच्छा काम होगा और भ्रष्टाचार कम होगा। 
  सरकार पूंजीपतियों को भी पर्याप्त सुविधाएं दे , सहयोग करे परन्तु ऐसे क़ानून न बनाए कि लोग स्वेच्छा से कोई कारोबार ही न कर सकें।  अमेरिका में न्यूनतम मजदूरी तय है।  वह  इतनी अधिक है कि लोग घरेलू नौकर रखने का साहस ही नहीं कर पाते।  यदि किसी के पास नौकरी नहीं है और वह  कोई कार्य करना चाहता  है तो उसे न्यूनतम स्तर बनाए रखना होता है जिसके कारण  वहाँ छोटी दूकान भी नहीं खोली जा सकती न ही किसी के घर काम मिल सकता है।  जबकि भारत में लाखों लोग छोटी- छोटी दुकाने करके, ठेले- खोमचे लगाकर या घरों में साफ़-सफाई का काम करके जीवन यापन कर सकते  हैं।  इसी प्रकार वहाँ आवागमन के लिए सस्ती सुविधा नहीं है , अतः अपनी कार रखनी पड़ती है , उसके खर्चे उठाने पड़ते हैं।  इसलिए मंदी के दौर में वहाँ अनेक लोग कंगाली और भुखमरी के मार्ग पर चल पड़े थे। भारत में भी खाद्य पदार्थों के लिए एक क़ानून बनाया गया है कि उसका उत्पादन एक निर्धारित स्तर के अनुसार होना चाहिए।  क़ानून लागू हो गया परन्तु अभी अनेक प्रदेशों ने उसे रोक रखा है।  अब ठेलों  पर चाट- पकौड़ी-चाय आदि बेचना अपराध हो गया है न ही बाजार में खुला सामान बेचा जा सकता है जबकि अनेक दुकानदार खुले सामन बेचकर जीविका चला रहे हैं  और कम सामान खरीद कर  दिहाड़ी मजदूर अपना पेट भर रहे हैं।  उस क़ानून का अर्थ है कि बड़े उद्योगपतियों द्वारा बनाए और पैक किये गए सामान को ही बेचा जा सकता है।  सरकार  को ऐसे क़ानून नहीं बनाए चाहिए जो अव्यवहारिक हों।  मिलावट रोकने और अच्छा सामान उपलब्ध कराने के लिए मिलावट खोरों को घूंस लेकर छोड़ना और उद्योगपतियों के लाभ के लिए और स्वयं उनसे धन लेने के लिए जन-विरोधी क़ानून बनाना सामंतवादी शोषण का सुधारवादी मुखौटा है , कठोर कदम है।  लोकतंत्र में ऐसे तत्वों का अस्तित्व बहुत हानिकारक है। लोकतान्त्रिक अर्थशास्त्र में सारे क़ानून लोक हित में और भवष्य को धान में रख कर बनाए जाने  चाहिए। 
 उद्योगों में अनावश्यक रूप से मशीनों का आधुनिकरण न हो , इसके लिए कर्मचारियों को भी सहयोगात्मक रवैया अपनाना  चाहिए। श्रम क़ानून ऐसे हों, उनमें ऐसे मध्यस्थ हों,  जिनसे कर्मचारियों का शोषण न हो और उद्योगपतियों में उद्योगो के प्रति उत्साह बना रहे। कम्युनिस्ट चीन  ने शासन सँभालने के बाद सभी आंदोलन प्रतिबंधित कर दिए और न्यूनतम मजदूरी पर लोगों से काम करवाया। व्यवस्था पर पूर्ण नियंत्रण करने के बाद उसने देशी -विदेशी उद्योगपतियों को भी पर्याप्त सुविधाएं दीं जिससे आज वह प्रत्येक क्षेत्र में आगे ज रहा है और विश्व उसका लोहा मान रहा है।  उसके विपरीत यहाँ कम्युनिस्टों ने हड़तालें करवाकर अधिकांश उद्योग बंद करवा दिए।  यदि विश्व में  कम्पूटर-दूरसंचार क्रांति न हुई होती तो देश में कोई उद्योग ही न होते।  लोकतान्त्रिक  शासन को दूरगामी परिणामों को देख-समझ कर नीतियां  और कानून बनाने चाहिए। 

    
         
          



   

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