रविवार, 6 अप्रैल 2014

मनुर्भव का सिद्धांत

  
                                              
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           मनुर्भव का सिद्धांत 

ऋग्वेद का सूक्त है : ' मनुर्भव ' अर्थात तू मनुष्य बन।  बचपन में जब कोई गलती हो जाती थी जिससे असभ्यता या बुद्धि हीनता का आभास होता हो तो डांट कर  समझाइश दी जाती थी कि जानवर मत बनो, इंसान बनो।  साधु -संत , ज्ञानी , बुद्धिमान या देवता बनने  की बात कभी नहीं कही गई।  अब समझ आता है कि मनुष्य बनना ही विश्व की सबसे बड़ी आवश्यकता आदिकाल से रही है और सृष्टि के अंत तक रहेगी।  हिन्दू धर्म में मनुष्य योनि का सर्वाधिक महत्त्व है क्योंकि लाखों योनियों अर्थात जीव-जंतुओं में केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसे कर्म करने का अधिकार है और वह  कर सकता है क्योंकि उसके पास ज्ञान अर्जित करने के लिए बुद्धि है, वाणी है , विचारों को प्रेषित करने की कला है, योजना बनाने और सहयोग देने-लेने की क्षमता है, स्मरण शक्ति है, धन-संपत्ति है , सृजन और विकास करने की प्रवृत्ति है तथा  कर्म द्वारा अपना और दूसरों का भाग्य बनाने की शक्ति है। अन्य जीवों में ये गुण नहीं होते।  उनके कार्य की सीमाएं बहुत छोटी होती हैं , अतः वे भाग्य पर आश्रित होते हैं। वे न तो कष्टों का निवारण कर सकते है और न ही  इच्छानुसार सुख या आनंद प्राप्त कर  सकते हैं।  इसलिए मनुष्य होना ही सबसे बड़ी घटना है। मानुष्य की शक्ल होने से कोई मनुष्य नहीं हो जाता , मनुष्य संस्कारों से बनता है , सामाजिकता से बनता है, धर्म और नैतिकता से बनता है। 
     पाशविक प्रवृत्ति सभी प्राणियों का मूल गुण धर्म है।  उदर-पूर्ती, वात्सल्य, वंशवृद्धि,निद्रा, विश्राम, परस्पर लड़ना-झगड़ना, सुरक्षा आदि इसके विभिन्न स्वरूप हैं।  इसके मुख्य भाव हैं ,भूख-प्यास,  सुख-दुःख की अनुभूति, सुरक्षा, काम, वात्सल्य-प्रेम, आलस्य, ढुलमुल, कायरता, लालच, क्रोध, स्वार्थ-सिद्धि, भय, शोक, क्रूरता, चालाकी, मक्कारी, चापलूसी, शारीरिक- मानसिक अक्षमता, अज्ञान तथा दूसरों की आज्ञाओं एवं आदेशों का पालन करना।  
 मनुष्य में उक्त गुण तो होंगे ही, उनपर नियंत्रण करने एवं इच्छानुसार परिवर्तित करने की क्षमता भी होती है।  मनुष्य भविष्य का योजनाकार तथा तदनुरूप उसमें प्रवृत्त होने वाला प्राणी है।  वसुधैव कुटुम्बकम अर्थात जियो और जीने दो उसकी भावना है।  ज्ञान- विज्ञान, विवेक, सत्य, न्याय, त्याग, करुणा, क्षमा, साहस तथा चिंतन उसके प्रमुख गुण हैं।परहित उसका धर्म है।अहंकार, काम, क्रोध, लोभ, मोह उसके दुर्गुण हैं।  
   परपीड़ा में आनंद लेना  मूल आसुरी प्रवृत्ति है।  अहंकार, ईर्ष्या-द्वेष, घृणा, क्रोध, लोभ,  झूठ बोलना, संस्कृति पर प्रहार करना,  भय-आतंक फैलाना,  विध्वंस करना  तथा मायावी रूप धारण करना उनके प्रमुख गुण हैं।  
     अपनी पाशविक प्रवृत्तियों तथा  दुर्गुणों के कारण मनुष्य सुखी एवं आनंदित जीवन जीते हुए देखे जा सकते  हैं परन्तु एक सीमा के बाद उनका विस्तार होने पर वे आसुरी कार्य करने लगते हैं और समाज को कष्ट होने लगता हैं।  समाज में ऐसे लोगों की संख्या भी बहुत अधिक है तथा बढ़ती जा रही है जिससे सामाजिक विद्रूपताएं उत्पन्न हो रही हैं। धर्म पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का निजी अधिकार है।  उसका प्रचार करना भी अनुचित नहीं कहा जा सकता परन्तु दूसरे  धर्मों को निम्न दृष्टि से देखना , उनसे घृणा करना, उनको सताना, अधिकारों से वंचित करना, उनकी धन-सम्पत्ति लूटना, उन्हें स्व धर्म का पालन न करने देना, उनकी हत्याएं करना क्रमशः बढ़ते आसुरी व्यवहार को दर्शाता है।एक राजा बड़ा राजा बनना चाहता है।  स्वाभाविक है वह दूसरे राज्य पर आक्रमण करेगा।  युद्ध में लोग भी मरेंगे।  यह स्वाभाविक ऐतिहासिक प्रक्रिया है।  परन्तु विजयी होने के बाद , पराजित लोगों  के धर्म को नष्ट करना , संस्कृति पर प्रहार करना,  नागरिकों को मारना- लूटना,  आगजनी और कत्ले आम करना क्रूर राक्षसी कार्य हैं। चुनाव लड़ना ,  जीतने के प्रयास करना मंत्री बनने  के लिए परिश्रम करना स्वाभाविक है परन्तु मंत्री बनकर घूंस खाना, योग्य व्यक्तियों के स्थान पर दुष्टों की नियुक्ति करना , उसमें धन खाने के षड्यंत्र रचना जिससे उनके लाभ के साथ  ही शेष व्यवस्था नष्ट हो जाए और आने वाली पीढ़ियां घोर कष्ट उठाएं, प्रबल राक्षसी कार्य हैं जो वे माया द्वारा अपने सुन्दर रूप धर कर सत्ता में बैठ कर करते हैं।  देश के व्यापर चौपट करना , विदेशी व्यापार बढ़ाने के लिए धन लेना , देश का धन विदेशों में जमा करना आसुरी प्रवृत्तियों के विभिन्न रूप हैं।  शिक्षा एवं स्वास्थ्य  व्यवस्था नष्ट करना जिसे भारत में आज सभी नेता जोर- शोर से कर रहे ,हैं महा मायावी असुरों  के कारनामे हैं क्योंकि इनसे आने वाली पीढ़ियां अनेक कष्ट पाती रहेंगी।  भारत के प्रधान मंत्री और म. प्र.  के मुख्य मंत्री द्वारा योजनाबद्ध तरीके से भोपाल गैस कांड के आरोपी को सुरक्षा देकर अमेरिका भिजवाना उसी आसुरी कार्य का प्रत्यक्ष हिस्सा है जिसमें आज तक लाखों लोग कष्ट पा रहे हैं।  उनके वंशज उन्हें पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएं देने के लिए भी तैयार नहीं हैं और उसके बाद भी अपनी मायावी चालों से सत्ता हथियाते रहे हैं।  ये उन लोगों से अनेक गुना क्रूर है जो पाकेट मारी, मारपीट जैसी घटनाओं से किसी को कष्ट देते हैं। बलात्कार और हत्याएं करने वाले राक्षसो को भी सभी मानवीय सुविधाएं मिलती रहेंगी तो आसुरी अधर्म बढ़ना ही है।असुरों पर शोर मचाने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।  इसलिए पशु कर्म, मानवीय भूलों और आसुरी कार्यों को अच्छी प्रकार समझना होगा , तदनुरूप न्याय करना होगा तभी सामाजिक समरसता बनेगी और स्थिर रहेगी जो लोकतंत्र की प्रथम  आवश्यकता है।  
                                                          धर्म और नैतिकता  
 पशु जो भी हिंसक-अहिंसक कार्य करते हैं उनकी सीमा उनकी उदर पूर्ती तथा सुरक्षा होती है।  शेर चीते शिकार तभी करते हैं  जब उन्हें भूख लगती है और बिना भूख के तब हमला करते हैं जब उन्हें अपनी सुरक्षा का भय होता है। मनुष्य का कर्म क्षेत्र सम्पूर्ण सृष्टि और मानवता है।  असुरों  का साम्राज्य वह जाल  है जिसका ताना-बाना  बुनकर वे शिकार फंसाते हैं और फिर उसे कष्ट देकर आनन्द की अनुभूति करते हैं।  धर्म एक पूजा की विधि मात्र नहीं है। ये वे विचार हैं जो व्यक्ति को मानवता की सीमा में रहने की प्रेरणा देते हैं। जो शिक्षा धर्म के नाम पर दूसरों के विरुद्ध घृणा और हिंसा फ़ैलाने या करने के लिए दुस्साहस उत्पन्न करती है , वह आसुरी और राक्षसी धर्म है। ऋषि पुत्र होते हुए भी राक्षसराज रावण  और दैत्य राज हिरण्य कश्यप ने अपने साम्राज्य में भगवान् की पूजा करने पर प्रतिबन्ध लगा रखा था. उन्होंने स्वयं को भगवान् घोषित कर दिया था और अपनी ही पूजा के लिए जनता पर अत्याचार करते थे। जो कोई उनके आदेश का पालन नहीं करता था उसे उनके सैनिक  कष्ट देकर मार डालते थे और खा भी जाते थे।वे राक्षस  और दैत्य थे , इसलिए नहीं बुरे थे अपितु वे बहुत बुरे थे , दूसरों को निजि  धर्म का पालन नहीं  करने देते थे। इसलिए  उनके कारण राक्षस और दैत्य नाम बदनाम हुए और बुराई का प्रतीक बन गए।  रावण के भाई विभीषण धार्मिक थे , उसके भाई कुम्भकरण और पुत्र मेघनाद पर भी ऐसे कोई आरोप नहीं हैं।  हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रहलाद, उनके पुत्र विरोचन, उनके पुत्र राजा बलि आदरणीय रहे हैं।  बलि की दानवीरता की बराबरी विश्व साहित्य की किसी कथा में भी नहीं आई है।  वे भी दैत्य थे।  सदियों तक ईसाइयों और मुस्लिमों ने भी यही किया और अनेक स्थानों परकुछ लोग  आज भी कर रहे हैं।  ये आज भी  मानवीय सीमा के उस पार के निवासी हैं। धर्म वह शिक्षा है जो व्यक्ति को मनुष्य बनाती  है और नैतिकता वह व्यवहार है जो मनुष्य को मानवीय कार्य करने की प्रेरणा देता है।  अतः लोकतंत्र के लिए धर्म एवं नैतिकता अपरिहार्य हैं। कड़ी  दंड व्यवस्था  अपराधों पर नियंत्रण तो कर सकती है परन्तु व्यक्ति में  सृजनात्मक कार्य करने की  भावना नहीं उत्पन्न कर सकती है।  वह दूसरों को कष्ट न दे परन्तु मन से तो घृणा कर सकता है , उससे ईर्ष्या-द्वेष तो रख सकता है। वह  स्वयं अलग रहे , इससे दूसरे व्यक्ति को क्या हानि हो सकती है ? परन्तु उनमें परस्पर सहयोग से समाज को जो लाभ मिलना चाहिए , वह तो नहीं मिलेगा।  नैतिकता ही इस कार्य को कर सकती है परस्पर भ्रातृत्व भाव उत्पन्न कर सकती है , उसमें  कर्तव्य  पालन  के लिए उत्साह भर सकती है , उसे व्यवहारिक मनुष्य बना सकती है , लोकतंत्र को साकार एवं सुदृढ़ बना सकती है।  इसलिए नैतिकता परम आवश्यक है। 
    भारत में सबसे ज्वलंत उदाहरण भ्रष्टाचार और बलात्कार के हैं।  महिला हिंसा एवं यौन शोषण के विरुद्ध सरकार ने कठोर क़ानून बनाए हैं परन्तु महिलाओं से दुर्व्यवहार के प्रकरण घटने के स्थान पर बढ़ते ही जा रहे हैं। इस पर अनेक लोग कहते हैं कि पुरुषों को अपने विचार बदलने होंगे।  पर कोई यह नहीं बताता कि यह बदलाव कैसे आयगा।  जब नैतिकता की बात की जाती है तो आधुनिक महिलाएं - पुरुष सभी भड़क उठते  हैं।  धर्म को दकियानूसी का  पर्याय माना  जाने लगा है।  अब एक ही तथ्य सामने रह जाता है कि घटनाएं होंगी और क़ानून अपना काम करेगा।  क्या इससे भय मुक्त समाज बन पायेगा  जो लोकतंत्र की आवश्यक शर्तों में से एक है ? इसी प्रकार भ्रष्टाचार रोकने के लिए भी क़ानून हैं पर भ्रष्टाचार अपने इतने रूप बदल रहा है कि उसे समझना ही कठिन है फिर रोकेंगे कैसे ? भोपाल में मेडिकल कालेजों में प्रवेश और अनेक नौकरियों में भर्ती के लिए घूंस के प्रकरणों की बाढ़ आ गई है।  जो पकड़ में आये हैं उन्हें तो निरस्त किया जा सकता है परन्तु हज़ारों ऐसे भी लोग होंगे जिनके नाम सामने नहीं आयेंगे।  मंत्री -सचिव शोध करके ऐसे अधिकरी ढूढ़ते हैं जो भ्रष्टाचार में सिद्ध हस्त हों।  उनकी नियुक्तियां मलाई दार पदों पर की जाती हैं ताकि वे मंत्री एवं अधिकारीयों को कुबेर रत्न बना सकें।  अपने वेतन से तो उनकी प्यास भी नहीं बुझ पाती  है।  नैतिकता के बिना इस प्रकार के अपराध और पाप नहीं रोके जा सकते हैं कानूनों से तो ये दिनदूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रहे हैं।  सबसे बड़ी बात यह है कि ये अपराध उन राक्षसों द्वारा किये जा रहे हैं जिन्हें सुरक्षा और न्याय का दायित्व दिया गया है।  अब तो छेड़छाड़ में भारत के उच्चतम न्यायालय के जज भी नाम कमा रहे हैं।  क़ानून क्या कर लेगा ? 
   इतिहास इसका साक्षी है कि अनैतिकता पर पलने-बढ़ने वाले राज्य और राजा कालांतर में बुरी तरह नष्ट हो गए। रावण के कार्यों ने सोने की लंका भस्म करवा दी।  महाभारत में कौरवों के अनैतिक कार्यों से उनका राज्य नष्ट हो गया।  उक्त दोनों युद्धों में आततायियों के वंश भी नष्ट हो गए।  मुसोलिनी और हिटलर के धर्म एवं जातीय  विद्वेषपूर्ण कार्यों तथा अहंकार से द्वितीय विश्व युद्ध हुआ जिसमें उन्नति करता हुआ उनका देश बुरी तरह पराजित हुआ।  वे तो मरे ही, राष्ट्र की जान-मॉल की भारी क्षति हुई।
अब्राहम लिंकन ने दास प्रथा समाप्त करवाने के लिए अपने नैतिक बल से  गृह युद्ध का सामना किया और उस कलंक को सदा के लिए समाप्त कर दिया।  व्यक्ति की गरिमा स्थापित की गई जिससे आज वहाँ बड़ा से बड़ा व्यक्ति भी अपने अधिकांश कार्य स्वयं ही कर लेता है जबकि गरीब और विकासशील देशों में माध्यम वर्ग का व्यक्ति भी अपने काम करने में संकोच करता है।  उसे नौकर चाहिए।  विकसित देशों की उन्नति का रहस्य भी यही नैतिकता है कि वे अपना काम बड़ी ईमानदारी से करते हैं।  इसलिए वहाँ लोकतंत्र सफलता पूर्वक चल रहा है जबकि पाकिस्तान जैसे देश में या तो लोकतंत्र होता ही नहीं है या महज दिखावा होता है क्योंकि वहाँ धर्म के नाम पर पहले दूसरे धर्म वालों के विरुद्ध फिर स्वार्थ और लालच के कारण अपनों के ही विरुद्ध शोषण, लूट एवं हत्याएं की जाती हैं।  पाकिस्तान में पहले हिंदुओं को लूटा- मारा गया।  फिर पश्चिमी पाक ने पूर्वी पाक के अपने मुस्लिम धर्मवालों को भी को अपना शिकार बनाया। सैनिक अधिकारीयों ने वहाँ लूट, हत्या , बलात्कार जैसे सभी अमानवीय कार्यों का खुला तांडव किया परिणाम स्वरूप उसके टुकड़े हो गए और बंगला देश बन गया।  उसी अनैतिकता के कारण  आज उसकी अपनी भूमि ही युद्ध क्षेत्र में बदलती जा रही है जहाँ बच्चियो को पढ़ने से रोकने के लिए गोली से मारा जा रहा है ।  
        सोलहवीं सदी में ईसाई धर्म के पाखंड के विरुद्ध आवाज़ उठाते हुए मकियावेली ने कहा था कि उन राजाओं एवं गणतंत्रों को जो स्वयं को भ्रष्टाचार से मुक्त रखना चाहते हैं,  सबसे अधिक धार्मिक कार्यों की पवित्रता की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि धर्म के अपमान से बढ़कर किसी देशके विनाश का कोई लक्षण नहीं होता है।  दार्शनिक कांट ने कहा था " मनुष्य में नैतिक भावना स्वतन्त्र इच्छा की  सत्ता है।  यदि व्यक्ति में यह न होती तो उसमें कर्तव्य की भावना भी न होती।  व्यक्ति को कर्तव्यों का बोध बुद्धि या मस्तिष्क द्वारा नहीं अपितु ह्रदय या अंतः करण में निहित नैतिक भावना से होता है।  भारत में हिंदुओं ने धर्म के नाम पर  कभी किसी को नहीं सताया गया।  ऋषि वाक्य है सभी सुखी हों, सभी नीरोग हों , सभी अच्छा देखें, किसीको लेशमात्र भी दुःख न हो।  परन्तु भारत में भी शूद्रों के नाम पर समाज के एक बहुत बड़े भाग को अछूत मानते हुए समाज से पृथक रखा।  कालांतर में भारत के पतन का यह भी एक प्रमुख कारण था। इसलिए गांधी जी ने धर्म और नैतिकता पर बहुत जोर दिया था और उसकी शाक्ति भी विश्व को दिखाई थी जिसे आज भी सब स्वीकार करते हैं।   
धर्म शब्द धृ धातु से बना है जिसका अर्थ है जीवन को धारण करना और उसे कल्याणपथ पर अगर्सर करना।  इसी प्रकार नीति काअर्थ है साथ ले चलना जो वृत्ति मनुष्य को असत्य से सत्य,कुमार्ग से सन्मार्ग,अज्ञान सज्ञान, और मृत्य से जीवन के और ले जाती है , उसे ही नीति कहते हैं।  न्याय मार्ग पर चलना ही नीति हैं।  यहाँ पर यह नहीं कहा गया है कि पूजा किसकी और कैसे करनी है।  धर्म और नैतिकता का सीधा अर्थ वः पथ जिस पर चल कर व्यक्ति एवं समाज सुखी हो तथा सब परस्पर  भ्रातृ भाव रखते हुए समृद्धि प्राप्त करें।  २२०० शब्द   








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