शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

नाज़ीवाद

                         नाज़ीवाद
    नाज़ीवाद एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका जिसे जर्मनी के तानाशाह हिटलर ने प्रारंभ किया था . हिटलर का मानना था कि जर्मन आर्य है और विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं . इसलिए उनको सारी दुनिया  पर राज्य करने का अधिकार है . अपने तानाशाही पूर्ण आचरण से उसने विश्व को द्वितीय विश्व युद्ध  में झोंक दिया था . १९४५ में हिटलर के मरने  के साथ ही नाज़ीवाद का अंत हो गया परन्तु ‘नाज़ीवाद’ और ‘हिटलर होना’ मानवीय क्रूरता के पर्याय बन कर आज भी भटक रहे है .
    हिटलर का जन्म १८८९ में आस्ट्रिया में हुआ था . १२ वर्ष की आयु में उसके पिता का निधन हो गया था जिससे उसे आर्थिक संकटों से जूझना पड़ा . उसे चित्रकला में बहुत रूचि थी . उसने चित्रकला पढ़ने के लिए दो बार प्रयास किये परन्तु उसे प्रवेश नहीं  मिल सका . बाद में उसे मजदूरी से  तथा घरों में पेंट पुताई करके जीवन यापन करना पड़ा . प्रथम विश्व युद्ध प्रारंभ होने पर वह सेना में भरती हो गया . वीरता के लिए उसे आर्यन क्रास से सम्मानित किया गया . युद्ध समाप्त होने पर वह एक संगठन  
जर्मन लेबर पार्टी में सम्मिलित हो गया जिसमें मात्र २०-२५ सदस्य थे . हिटलर के भाषणों से अल्प अवधि में ही उसके सदस्यों की संख्या हजारों में पहुँच गई . पार्टी का नया नाम रखा गया ‘नेशनल सोशलिस्ट जर्मन लेबर पार्टी’ . जर्मन में इसका संक्षेप में नाम है ‘नाज़ी पार्टी’ . हिटलर द्वारा प्रतिपादित इसके सिद्धांत ही नाज़ीवाद कहलाते हैं .
   हिटलर ने जर्मन सरकार के विरुद्ध विद्रोह का प्रयास किया . उसे बंदी बना लिया गया और ५ वर्ष की जेल हुई . जेल में उसने अपनी आत्म कथा ‘मेरा संघर्ष’ लिखी . इस पुस्तक में उसके विचार दिए हुए हैं . इस पुस्तक की लाखों प्रतियाँ शीघ्र बिक गईं जिससे उसे बहुत ख्याति मिली . उसकी  नाज़ी पार्टी को पहले तो चुनावों में कम सीटें मिलीं परन्तु १९३३ तक उसने जर्मनी की सत्ता पर पूरा अधिकार का लिया और एक छत्र तानाशाह बन गया . उसने अपने आसपास के देशों पर कब्जे करने शुरू कर दिए जिससे दूसरा विश्व युद्ध प्राम्भ हो गया . वह यहूदियों से बहुत घृणा करता था . उसने उन पर बहुत अत्याचार किये , कमरों में ठूँसकर विषैली गैस से हजारों लोग मार दिए गए . ६ वर्षों के युद्ध के बाद वह हार गया और उसने अपनी प्रेमिका, जिसके साथ उसने एक-दो दिन पहले ही विवाह किया था, के साथ गोली मारकर आत्महत्या कर ली .
                     नाज़ीवाद के उदय के कारण       
प्रथम विश्व युद्ध १९१४ से १९१९ तक चला था . इसमें जर्मनी हार गया था . युद्ध के कारण उसकी बहुत क्षति हुई . इन सब के ऊपर ब्रिटेन, फ़्रांस आदि मित्र राष्ट्रों ने उस पर बहुत अधिक दंड लगा दिए . उसकी सेना बहुत छोटी कर दी, उसकी प्रमुख खदानों पर कब्ज़ा कर लिया तथा इतना अधिक अर्थ दंड लगा दिया कि अनेक वर्षों तक अपनी अधिकांश  कमाई उन्हें देने के बाद भी जर्मनी का कर्जा कम नहीं हो रहा था .१९१४ में एक डालर =४.२ मार्क था जो १९२१ में ६० मार्क, नवम्बर १९२२ में ७०० मार्क,जुलाई १९२३ में एक लाख ६० हजार मार्क तथा नवम्बर १९२३ में एक डालर  = २५ ख़राब २० अरब मार्क के बराबर हो गया . अर्थात मार्क लगभग शून्य हो गया जिससे मंदी, मंहगाई और बेरोजगारी का अभूतपूर्व संकट पैदा हो गया . उस समय चुनी हुई सरकार के लोग अपना जीवन तो ठाट- बात से बिता रहे थे परन्तु देश की समस्याएँ कैसे हल करें , उन्हें न तो इसका ज्ञान था और न ही बहुत चिंता थी . ऐसे समय में हिटलर ने अपने ओजस्वी भाषणों से जनता को समस्याएँ हल करने का पूरा विश्वास दिलाया . इसके साथ ही उसके विशेष रूप से प्रशिक्षित कमांडों विरोधियों को माँरने तथा आतंक फ़ैलाने के काम भी कर रहे थे जिससे उसकी पार्टी को धीरे- धीरे सत्ता में भागीदारी मिलती गई और एक बार चांसलर ( प्रधान मंत्री ) बनने  के बाद उसने सभी विरोधियों का सफाया कर दिया और संसद की सारी शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित कर ली . उसके बाद  वे देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री सबकुछ बन गए . उन्हें फ्यूरर कहा जाता था .
              नाज़ीवाद का आधार
हिटलर से 11वर्ष पूर्व इटली के प्रधानमंत्री मुसोलिनी भी अपने फ़ासीवादी विचारों के साथ तानाशाही पूर्ण शासन चला रहे थे . दोनों विचारधाराएँ समग्र अधिकारवादी, अधिनायकवादी, उग्र सैनिकवादी, साम्राज्यवादी, शक्ति एवं प्रबल हिंसा की समर्थक,लोकतंत्र एवं उदारवाद की विरोधी, व्यक्ति की समानता,स्वतंत्रता एवं मानवीयता की पूर्ण विरोधी तथा राष्ट्रीय समाजवाद (अर्थात राष्ट्र ही सब कुछ है . व्यक्ति के सारे कर्तव्य राष्ट्रीय हित में कार्य करने में हैं ) की कट्टर समर्थक हैं . ये सब समानताएं होते हुए भी जर्मनी ने अपने सिद्धांत फासीवाद से नहीं लिए . इसका विधिवत प्रतिपादन १९२० में गाटफ्रीड ने किया था जिसका विस्तृत विवरण हिटलर ने अपनी पुस्तक ‘मेरा संघर्ष’ में किया तथा १९३० में ए. रोज़नबर्ग ने पुनः इसकी व्याख्या की थी . इस प्रकार  हिटलर के सत्ता में आने के पूर्व ही नाज़ीवाद के सिद्धांत स्पष्ट रूप से लोगों के सामने थे जबकि अपने कार्यों को सही सिद्ध करने के लिए मुसोलिनी ने सत्ता में आने के बाद अपने फ़ासीवादी सिद्धांतों को प्रतिपादित किया था . इतना ही नहीं जर्मनों की श्रेष्ठता का वर्णन अनेक विद्वान् करते आ रहे थे और १०० वर्षों से भी अधिक समय से जर्मनों के मन में अपनी श्रेष्ठता के विचार पनप रहे थे जिन्हें हिटलर ने मूर्त रूप प्रदान किया .
                       नाज़ीवाद के सिद्धांत
प्रजातिवाद : १८५४ में फ्रेंच लेखक गोबिनो ने १८५४ तथा १८८४ में अपने निबंध ‘मानव जातियों की असमानता’में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि विश्व की सभी प्रजातियों में गोरे आर्य या ट्यूटन नस्ल सर्वश्रेष्ठ है . १८९९ में ब्रिटिश लेखक चैम्बरलेन ने इसका अनुमोदन किया .जर्मन सम्राट कैसर विल्हेल्म द्वितीय ने देश में सभी पुस्तकालयों में इसकी पुस्तक रखवाई तथा लोगों को इसे पढ़ने के लिए प्रेरित किया . अतः जर्मन स्वयं को पहले से ही सर्व श्रेष्ठ मानते थे . नाज़ीवाद में इस भावना को प्रमुख स्थान दिया गया .
  हिटलर ने यह विचार रखा कि उनके अतिरिक्त अन्य गोरे लोग भी  मिश्रित प्रजाति के हैं अतः जर्मन लोगों को यह नैसर्गिक अधिकार है कि वे काले एवं पीले लोगों पर शासन करें, उन्हें सभ्य बनाएं .  इससे हिटलर ने स्वयं यह निष्कर्ष निकाल लिया कि उसे अन्य लोगों के देशों पर अधिकार करने का हक़ है . उसने लोगों का आह्वान किया कि श्रेष्ठ जर्मन नागरिक शुद्ध रक्त की संतान उत्पन्न करें . जर्मनी में अशक्त एवं रोगी लोगों  के संतान उत्पन्न करने पर रोक लगा दी गई ताकि देश में भविष्य में सदैव स्वस्थ एवं शुद्ध रक्त के बच्चे ही जन्म लें .
   हिटलर का मानना था कि यहूदी देश का भारी शोषण कर रहे हैं . अतः वह उनसे बहुत घृणा करता था . परिणाम स्वरूप सदियों से वहां रहने वाले यहूदियों को अमानवीय यातनाएं दे कर मार डाला गया और उनकी संपत्ति राजसात कर ली गई . अनेक यहूदी देश छोड़ कर भाग गए . उस भीषण त्रासदी ने यहूदियों के सामने अपना पृथक देश बनाने की चुनौती  उत्पन्न कर दी जिससे इस्रायल का निर्माण हुआ .  
राज्य सम्बन्धी विचार : नाजीवाद में राज्य को साधन के रूप में स्वीकार किया गया है जिसके  माध्यम से लोग प्रगति करेंगे . हिटलर के मतानुसार राष्ट्रीयता पर आधारित राज्य ही शक्तिशाली बन सकता है क्योंकि उसमें नस्ल, भाषा, परंपरा, रीति-रिवाज आदि सभी समान होने के कारण लोगों में सुदृढ़ एकता और सहयोग की भावना होती है जो विभिन्न भाषा, धर्म  एवं प्रजाति के लोगों में होना संभव नहीं है . हिटलर ने सभी जर्मनों को एक करने के लिए अपने पड़ोसी देशों आस्ट्रिया, चेकोस्लोवाकिया आदि के जर्मन बहुल इलाकों को उन देशों पर दबाव डाल कर जर्मनी में मिला लिया तथा बाद में उनके पूरे देश पर ही कब्ज़ा कर लिया . अनेक  देशों पर कब्ज़ा करने को नाजियों ने इसलिए आवश्यक बताया कि सर्व श्रेष्ठ होते हुए भी जर्मनों के पास भूमि एवं संसाधन बहुत कम हैं जबकि उनकी आबादी बढ़ रही है . समुचित जीवन निर्वाह के लिए अन्य देशों पर अधिकार करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है .इसलिए हिटलर एक के बाद दूसरे देश पर कब्जे करता चला गया .
   जर्मनी में राज्य का अर्थ था हिटलर . वह देश, शासन, धर्म सभी का प्रमुख था . हिटलर को सच्चा देवदूत कहा जाता था . बच्चों को पाठशाला में पढ़ाया जाता था – “ हमारे  नेता एडोल्फ़ हिटलर ! हम आपसे से प्रेम करते हैं, आपके लिए प्रार्थना करते हैं, हम आपका भाषण सुनना चाहते हैं . हम आपके लिए कार्य करना चाहते हैं .” हिटलर ने अपने कमांडों के द्वारा आतंक का वातावरण पहले ही निर्मित कर दिया था . उसे जैसे ही सत्ता में भागीदारी मिली ,उसने सर्व प्रथम विपक्षी दलों का सफाया कर दिया . एक राष्ट्र , एक दल, एक नेता का सिद्धांत उसने बड़ी क्रूरता पूर्वक लागू किया था . उसके विरोध का अर्थ था मृत्यु . 
व्यक्ति का स्थान : नाजी  कान्ट  तथा फिख्टे  के इस विचार को मानते थे कि व्यक्ति के लिए सच्ची स्वतंत्रता इस बात में निहित है कि वह राष्ट्र के कल्याण के लिए कार्य करे . उनका कहना था कि एक जर्मन तब तक स्वतन्त्र नहीं हो सकता जब तक जर्मनी राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र न हो जो उस समय वह वार्साय संधि की शर्तों के अनुसार संभव ही नहीं था . नाजियों का एक ही नारा था कि व्यक्ति कुछ नहीं है , राष्ट्र सब कुछ है . अतः व्यक्ति को अपने सभी हित राष्ट्र के लिए बलिदान कर देने चाहिए . मित्र देशों के चंगुल से जर्मनी को मुक्त करने के लिए उस समय यह भावना आवश्यक भी थी . परन्तु नाजियों ने इसका विस्तार शिक्षा, धर्म, साहित्य, संस्कृति, कलाओं,  विज्ञान, मनोरंजन, अर्थ-व्यवस्था आदि जीवन के सभी क्षेत्रों में कर दिया था .इससे सभी नागरिक नाज़ियो के हाथ के कठपुतले से बन गए थे .
बुद्धिवाद का विरोध : शापेनहार, नीत्शे, जेम्स, सोरेल, परेतो जैसे अनेक दार्शनिकों ने बुद्धिवाद के स्थान पर लोगों की सहज बुद्धि ( इंस्टिंक्ट ), इच्छा शक्ति,और अंतर दृष्टि ( इंट्यूशन )को उच्च स्थान दिया था . नाजी भी इसी विचार को मानते थे कि व्यक्ति अपनी बुद्धि से नहीं भावनाओं से कार्य करता है . इसलिए अधिकांश पढ़े-लिखे और सुशिक्षित व्यक्ति भी मूर्ख होते हैं . उनमें निष्पक्ष विचार करने के क्षमता नहीं होती है . वे अपने मामलों में भी बुद्धि पूर्वक विचार नहीं करते हैं . वे भावनाओं तथा पूर्व निर्मित अव धारणाओं के आधार पर कार्य करते हैं . इसलिए जनता को यदि अपने अनुकूल कर लिया जाये तो उसे बड़े से बड़े झूठ को भी सत्य मनवाया जा सकता है . बुद्धि का उपयोग करके लोग परस्पर असहमति तो बढ़ा सकते हैं परन्तु किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते हैं . अतः बुद्धिमानों को  साथ लेकर एक सफल एवं शक्ति शाली संगठन नहीं बनाया जा सकता है . शक्ति शाली राष्ट्र निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि लोगों को बुद्धमान बनाने के स्थान पर उत्तम नागरिक बनाया जाना चाहिए . उनके लिए तर्क एवं दर्शन के स्थान पर शारीरिक, नैतिक एवं औद्योगिक शिक्षा देनी चाहिए . उच्च शिक्षा केवल प्रजातीय दृष्टि से शुद्ध जर्मनों को ही दी जानी चाहिए जो राष्ट्र के प्रति अगाध श्रद्धा रखते हों . नेताओं को भी उतना ही बुद्धिवादी होना चाहिए कि वह जनता कि मूर्खता से लाभ उठा सके और अपने कार्य क्रम बना सकें .  अबुद्धिवाद से नाज़ियों ने अनेक महत्वपूर्ण परिणाम निकाले और अपनी पृथक राजनीतिक विचारधारा स्थापित की .
लोकतंत्र विरोधी : प्लेटो की भांति हिटलर भी लोकतंत्र का आलोचक था . उसके अनुसार अधिकांश व्यक्ति बुद्धि शून्य, मूर्ख, कायर और निकम्मे होते हैं जो अपना हित नहीं सोच सकते हैं . ऐसे लोगों का शासन कुछ भद्र लोगों द्वारा ही चलाया जाना चाहिए .
साम्यवाद विरोधी : साम्यवाद मानता है कि अर्थ या धन ही सभी कार्यों का प्रेरणा स्रोत है . धन के लिए ही व्यक्ति कार्य करता है और उसी के अनुसार सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाएं निर्मित होती हैं . परन्तु अधिकांश व्यक्ति बुद्धिहीन  होने के कारण  अपना हित सोचने में असमर्थ होते हैं . उनके अनुसार साम्यवाद वर्तमान से भी बुरे शोषण को जन्म देगा .
 अंध श्रद्धा ( सोशल मीथ ) : सोरेल की भांति हिटलर भी यही मानता था कि व्यक्ति बुद्धि और विवेक के स्थान पर अंध श्रद्धा से कार्य करता है . यह अंध श्रद्धा लोगों को राष्ट्र के लिए बड़ा से बड़ा बलिदान करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है . नाज़ियों ने जर्मन लोगों में अनेक प्रकार की अंध श्रद्धाएँ उत्पन्न कीं और उन्हें राष्ट्र निर्माण में तत्पर कर दिया .
शक्ति और हिंसा का सिद्धांत : नाज़ियों ने लोगो में अन्ध  श्रद्धा उत्पन्न कर दी कि जो लड़ना नहीं चाहता उसे इस दुनियां में जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है . इस सिद्धांत को प्रतिपादित करना हिटलर की मजबूरी भी थी क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुई वार्साय की संधि में उस पर जो दंड एवं प्रतिबन्ध लगाए गए थे , वार्ता द्वारा उससे बाहर निकलने का कोई मार्ग नहीं था . उन परिस्थितियों में युद्ध ही एक मात्र रास्ता था और उसके लिए सभी जर्मन वासियों का सहयोग आवश्यक था . इसलिए लोगों ने उसे सहयोग भी दिया .
अर्थव्यवस्था : वह साम्यवाद का विरोधी था इसलिए जर्मनी के पूंजीपतियों ने उसे पूरा सहयोग दिया . परन्तु उसका पूंजीवाद स्वच्छंद नहीं था , उपूंजीपतियों को मनमानी लूट और धन अर्जन का अधिकार नहीं था . वह उसी सीमा तक मान्य था जो नाज़ियों के सिद्धांत और जर्मन राष्ट्र के हित के अनुकूल हो .
   उसने उत्पादन बढ़ाने के लिए सभी तरह के आंदोलनों , प्रदर्शनों और हड़तालों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था . सभी वर्गों के संगठन बना दिए गए थे जो विवाद होने पर न्यायोचित समाधान निकाल लेते थे ताकि किसी का भी अनावश्यक शोषण न हो . अधिक रोजगार देने के लिए उसने पहले एक परिवार एक नौकरी का सिद्धांत लागू किया फिर अधिक वेतन वाले पदों का वेतन घटा कर एक के स्थान पर दो व्यक्तियों को रोजगार दिया . इस प्रकार उसने दो वर्षों में ही अधिकांश लोगों , जिनकी संख्या लाखों में थी, को रोजगार उपलब्ध कराये . इससे शिक्षा, व्यवसाय, कृषि, उद्योग, विज्ञानं, निर्माण आदि सभी क्षेत्रों में जर्मनी ने अभूतपूर्ण उन्नति कर ली . १९३३ से लेकर १९३९ तक छः वर्षों में उसकी प्रगति का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि जिस जर्मनी का कोष रिक्त हो चुका था, देश पर अरबों पौंड का कर्जा था, प्राकृतिक संसाधनों पर मित्र देशों ने कब्ज़ा कर लिया था और उसकी सेना नगण्य रह गई थी , वही जर्मनी विश्व के बड़े राष्ट्रों के विरुद्ध एक साथ आक्रमण करने कि स्थिति में था, सभी देशों में हिटलर का आतंक व्याप्त था और वह इंग्लैंड, रूस तक अपने देश में बने विमानों से जर्मनी में ही बने बड़े-बड़े बम गिरा रहा था . मात्र छः वर्षों में उसने इतना धन एवं शक्ति अर्जित कर ली थी जो अनेक वर्षों में भी संभव नहीं है .
  स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने के कारण  हिटलर युद्ध हार गया, उसने आत्म हत्या कर ली .  पराजित हुआ व्यक्ति ही इतिहास में गलत माना जाता है अतः द्वितीय विश्वयुद्ध की सभी गलतियों के लिए हिटलर और मुसोलिनी उत्तरदायी ठहराए गए और आज भी सभी राजनीतिक विद्रूपताओं के लिए ‘हिटलर होना’, ‘फासीवादी होना’ मुहावरे बन गए हैं .

    हिटलर और नाज़ियों के अबुद्धिवाद के सिद्धांत अर्थात मनुष्य बुद्धिशून्य और मूर्ख होता है और अपना हित नहीं समझ पाता है, का सर्वाधिक कुशलता पूर्वक प्रयोग भारत में हो रहा है . नेता-परिवारों  के प्रति अंध श्रद्धा के कारण ही यहाँ के लोकतंत्र में सामंत का लड़का- लड़की सामंत, मुख्यमंत्री का लड़का मुख्यमंत्री , मंत्री का लड़का मंत्री आसानी से बन जाते हैं. उसी अबुद्धिवाद और अंध श्रद्धा के कारण सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी ही देश चला सकते हैं क्योंकि वे नेहरु और इंदिरा गाँधी के वारिस हैं भले ही कांग्रेस के शासन काल में भ्रष्टाचार और मंहगाई, अपराध, साम्प्रदायिकता और आतंकवाद निरंतर बढ़ते जा रहे हों . उसी के आधार पर एक कुशल नेता की छवि निर्मित करके अब नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री बनने के प्रयास कर रहे हैं . उनकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि देश के कितने लोगों में  उनके प्रति अंध श्रद्धा उत्पन्न हो पाती है .          

पावापुरी और नालंदा

                 पावापुरी और नालंदा
अपरान्ह पटना पहुंचकर डा खत्री  बिहार पर्यटन विभाग में राजगीर भ्रमण के लिए जानकारी प्राप्त करने गए . गया या राजगीर जाने , वहां रुकने , घूमने आदि के सम्बन्ध में उन्हें कोई जानकारी नहीं थी या उन्होंने दी नहीं . वहाँ टैक्सी  एजेंट बैठा रखा था जिसने बताया कि टैक्सी बुक करवा लो वह सब घुमा लायेगा .
   दूसरे दिन हम भगवान भरोसे ट्रेन में सवार होकर राजगीर पहुंचे तथा होटल में रुक गए .  पास ही एक मारवाड़ी भोजनालय में भोजन किया . होटल वाले ने कोई जानकारी नहीं दी सिर्फ इसके कि टैक्सी बुलवा देते हैं ७०० रुपये लगेंगे . वह लगभग ४ घंटे में पावापुरी और नालंदा घुमा लायेगा . राजगीर तो तांगे पर ही भ्रमण पड़ता है क्योंकि तांगे वाले यहाँ टैक्सी वालों को नहीं चलने देते हैं . हम उससे संतुष्ट नहीं हुए . हमने सोचा कि साथ ही बस स्टैंड है . वहां से पूरी जानकारी लेकर जायेंगे .
      वहां एक मिनी बस चलने को तैयार थी . हमने उससे पूछा तो उसने कहा बैठिये , २० रुपये किराया लगेगा , पावापुरी में ही उतार देंगे, आधा घंटा समय लगेगा . हम सवार हो गए . २०-२५ मिनट में एक कसबे सिवली में बस रुकी . वहां अधिकाँश दुकाने खाजा से सजी थीं . खाज वहां का मुख्य उत्पाद है . हथेली के आकर की पतली पापड़ी की एक पर एक ४-५ फैली हुई परतों पर परते होती हैं . मीठा १०० रूपये किलो और नमकीन १२० रूपये किलो . हमने पूछा कि नमकीन मंहगा क्यों है तो दुकानदार ने बताया कि एक किलो में मीठे ३५-३६ खाजे तथा नमकीन लगभग ५५ खाजे चढ़ते हैं . खाना अच्छा लगता है पर ले जाना कठिन है क्योंकि स्थान ज्यादा घेरता है और जरा से दबाव से खाजा चूरा होने लगता है . हमने एक – एक  पाव ले लिये जिसने बैग में बहुत जगह घेर ली .
      आगे बढ़े तो हमने पावापुरी के १० – ८ -२ किमी के पत्थर देखे , कंडक्टर से पूछा भी परन्तु बस आगे बढती गई . एक घंटे बाद जब हमने उसे दबाव देकर पूछा तो उसने हमें उतार  दिया और एक शेयर्ड ऑटो में बैठा कर उससे कह दिया कि हमें पावापुरी उतार दे . उसने भी ८-८ रूपये किराया लिया और थोड़ी देर बाद  हमें पावापुरी के मोड़ पर उतार दिया . वहां तांगे वाले खड़े थे . पावापुरी की ५ रूपये सवारी . परन्तु हम दो थे . वहां तांगे  वाले ४ व्यक्ति मिलने पर ही चलते हैं हमने कहा कि उसे आने- जाने के ४० रूपये दे देंगे ,वह चल पड़ा . वह थोड़ी दूर चलने के बाद कहने लगा कि वह पास के मंदिर में जा रहा है , वहां ४ मंदिर हैं . दूर बहुत अच्छा दिगंबर जैन मंदिर है , वहां के १०० रूपये लगेंगे . हमने कहा कि उसने यह पहले क्यों नहीं बताया ? वह जान गया था कि हम बाहरी व्यक्ति हैं और नए हैं . हमारे पास समय कम था . लौटते समय नालंदा भी देखना था . अतः हम वहीँ तक गए .
    वहां श्वेताम्बर जैन मंदिर हैं . पावापुर महावीर स्वामी जी की निर्वाणस्थाली है . एक मंदिर एक बड़े सरोवर के मध्य स्थित है . सरोवर में कमल लगे हैं . उस समय कमल तो नहीं दिखे पर पूरा  सरोवर कमल के पत्तों से आच्छादित है . इसलिए उसकी रमणीयता दर्शनीय है . वहीँ पर पास में नया समोशरण मंदिर है जो बहुत सुन्दर है . पास ही धर्म शाला है जहां रुकने एवं भोजन की अच्छी व्यवस्था है  ताकि दूर – दूर से आने वाले लोग वहां रहकर धर्म लाभ कर सकें . वहां से लौटते समय तांगे में एक ब्रह्मदेव उपाध्याय भी थे जो नालंदा में जैन मंदिर में प्रबंधक हैं . पावापुरी मोड़ से हम उनके साथ मिनी बस में बैठे जो प्रत्येक ५ मिनट में आती रहती हैं . ५ रु किराया लेकर उसने हमें १०- १५ मिनट में नालंदा मोड़ पहुंचा दिया . वहाँ  से रिक्शे वाले ने १०- १० रु में ५ मिनट में नालंदा पहुंचा दिया . उन्होंने बताया कि समय कम है अतः हम पहले संग्रहालय देख लें फिर विश्व विद्यालय के अवशेष देखने जाएँ . कई वीथिकाओं में वहां के उत्खनन से प्राप्त मूर्तियां रखी हुई हैं जो इतिहास के विद्यार्थियों के लिए जिज्ञासा का विषय हैं . वहां से निकल कर हम विश्वविद्यालयके भग्नावशेष देखने गए . हमने सोचा कि स्वयं जाकर देख लेंगे , खंडहर ही तो हैं . परन्तु हम जैसे ही उस परिसर में गए और वहां आश्चर्य जनक भवनों के अवशेष देखे तो सिवाय पत्थर के हम कुछ न समझ सके  अतः डा खत्री बाहर द्वार तक गए और एक संक्षिप्त  गाइड ले आये क्योंकि साढ़े  चार बज चुके थे और एक ही घंटा वहाँ देख सकते थे . उसने संक्षेप में आधे घंटे में हमें उसके सम्बन्ध में जानकारी दी . प्रवेश करते समय एक गाइड २०० रु मांग रहा था परन्तु संक्षिप्त जानकारी के लिए उसने ५० रु लिए . परन्तु वह परम आवश्यक थी .
     नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना  चौथी या पांचवीं सदी में मगध के सम्राट कुमारगुप्त ने करवाई थी .उसके पश्चात हर्षवर्धन ने सातवीं सदी में उसका विकास एवं विस्तार किया . तत्पश्चात बंगाल के पाल राजाओं ने उसके विस्तार में अहम भूमिका निभाई . तीनों राजाओं के कार्य काल के निर्माण पृथक से दृष्टिगोचर होते हैं . निर्माण बड़ी – बड़ी ईंटें बनाकर किया गया है जो आज भी विद्यमान हैं . बिना सीमेंट की बनी वे दीवारे आज भी बहुत अच्छी स्थिति में हैं . दीवारें बहुत मोटी हैं . सामने बड़े-बड़े अध्यापन कक्ष है , उनके पीछे कुछ छोटे ध्यान कक्ष हैं . उनमें जल निकासी एवं वायु प्रवाह के लिए समुचित व्यवस्थाएं हैं . पीछे स्तूप खंड भी हैं . यह विश्वविद्यालय बौद्ध शिक्षा का विश्व प्रसिद्द केंद्र था . उसमें छात्रों को प्रवेश द्वारपाल के प्रश्नों का उत्तर देने पर ही मिलता था . कड़ी प्रवेश परीक्षा होती थी . उसमें १०००० हजार से अधिक छात्र तथा २००० शिक्षक एवं अन्य लोग कार्य करते थे . सैद्धांतिक के बाद ध्यान की परीक्षा भी उत्तीर्ण करनी होती थी . ध्यान की परीक्षा में भारतीय विदेशी छात्रों से पीछे रह जाते थे .
   विश्विद्यालय को कई सदियों तक राजा अपना पूरा सहयोग देते रहे . नालंदा के नाम २०० गाँव थे जिनकी आय से उसका व्यय चलता था . अन्य किसी सन्दर्भ में राजा कोई हस्तक्षेप नहीं करते थे . उसके विशाल भग्नावशेषों को देखकर भारत की प्राचीन गौरवमयी संस्कृति एवं ज्ञान के विस्तार का अनुमान लगाया जा सकता है . ११९३ में बख्तियार खिलजी ने नालंदा पर आक्रमण कर दिया था . उसने सम्पूर्ण विश्विद्यालय को आग के हवाले कर दिया तथा कत्लेआम का आदेश दिया ताकि कोई भारतीय विद्वान् जीवित न बचे . सभी छात्रों तथा शिक्षकों को, जो सामने आ गए,  कत्ल कर दिया गया . वहां महीनों तक आग जलती रही . बाद में ये अवशेष  भूमिगत हो गए थे जो खुदाई के बाद निकले हैं .
      बख्तियार खिलजी दक्षिणी अफगानिस्तान का रहने वाला तुर्क था . वह पहले कुतुबुद्दीन ऐबक की सेना में भरती होने आया परन्तु वहां उसे अच्छा पद नहीं मिला . इधर – उधर प्रयास करता हुआ वह अवध पहुंचा . वहां के सरदार ने उसे अपने साथ रख लिया तथा उसे मिर्जापुर में एक जागीर दे दी . उसने अपनी सेना बनाई तथा छुटपुट हमले करता रहा और सफलता प्राप्त करता गया . ११९३ में उसने बिहार पर आक्रमण किया तथा एक भाग पर कब्ज़ा कर लिया . उसी समय नालंदा पर भी आक्रमण हुआ था . १२०३ में उसने बिहार पर कब्ज़ा कर लिया . १२०६ में वह बंगाल पहुंचा जहां उस समय लक्ष्मण पाल का शासन था . बख्तियार खिलजी अपने १८ सैनिकों के साथ आगे निकल गया था . वहां किसी ने उसका सामना ही नही किया, राजा भाग गया . बंगाल खिलजी का हो गया . उसी वर्ष उसने तिब्बत पर आक्रमण किया जाते समय अपने परम विश्वसनीय सरदार अली मर्दान  खिलजी को घोड़ा घाट उपजिले में राज्य की व्यवस्ता के लिए नियुक्त कर दिया . बख्तियार तिब्बत से घायल और बीमार होकर लौटा . घोड़ा घाट में अली की देखरेख में उपचार और विश्राम करने लगा . सुअवसर देख कर अली ने उसकी हत्या कर दी .    

   साढ़े पांच बजे सुरक्षा कर्मी सबको ढूंढ – ढूंढ कर वहां से बाहर कर रहा था . खत्री जी रात्रि भोजन नहीं करते हैं . परिसर के बाहर वहाँ सिर्फ  एक टपरे वाला होटल है . वहीँ भोजन करना पड़ा . हमें ज्ञात हुआ कि राजगीर के लिए  अंतिम बस ७ बजे जाती है . हमारे आलावा वहां बाहर मोड़ तक आने वाले लोग नहीं थे . अतः शीघ्रता से एक तांगे वाले को ४ सवारी का पैसा ४० रु देकर बाहर तक आये . बस ने १०-१० रु में हमें २०-२५ मिनट में राजगीर पहुंचा दिया . तब हमें समझ आया कि अपरान्ह बस वाले कंडक्टर ने हमसे धोखा किया था . ५ रु किराये के लालच में वह हमें दूर तक ले गया जिससे हमारे डेढ़ – दो घंटे का समय बर्बाद हो गया . परन्तु हमने वहां लोगों को जितनी निकट से देखा वह उनसे दूर रह कर समझना संभव नहीं है .      ( क्रमशः )

उत्पाद , बाज़ार और धन


                    उत्पाद , बाज़ार और धन
    सामान्य जन की भाषा में बाज़ार का अर्थ ऐसे स्थान से होता है जहाँ स्थाई-अस्थाई , कच्ची-पक्की कई दुकानें स्थित हों और एक ही स्थान पर विभिन्न उपयोगी वस्तुएं क्रय-विक्रय की जा रही हों . आज कल डिपार्टमेंटल स्टोर और माल ऐसे स्थान हैं जहाँ एक बड़ा व्यापारी अकेला ही व्यक्ति के उपयोग की अनेक वस्तुएं उपलब्ध करा देता है . इसके भी आगे नेट -मार्केटिंग से विश्व के किसी भी कोने से कम्पनियाँ अपना सामान अनेक देशों में बेच रही हैं . अतः बाज़ार का अभिप्राय उस समस्त क्षेत्र से है जहाँ तक उत्पाद बेचे जा सकते हैं . यह  कुछ दुकानों के सीमित क्षेत्र से लेकर राज्य और देश की सीमाओं के पार तक हो सकता है .
  इसी प्रकार उत्पाद भी स्थूल रूप से लेकर अमूर्त रूप तक हो सकते हैं यदि उसे बेच कर धन प्राप्त किया जा सकता हो . आजकल सेवा,  नैतिकता और मानवता स्वर्गवासी हो गई हैं . इसीलिए नामी-गरामी साधु - संत स्वर्ग और भगवान के नाम का लाइसेंस जनता को बेचकर धन बटोर रहे हैं और स्वयं धन बल से धरती पर इस नश्वर शरीर के सारे सुख भोग रहे हैं .भक्तों का समूह उनका बाज़ार है .
 धरती पर और विशेष रूप से भारत जैसे देश में जहां अनेक लोग सदियों से भुक्खड़ रहे हैं ,  धन कमाने के लिए कितना परिश्रम कर रहे हैं , कैसे –कैसे कार्य कर रहे हैं , इसे देखना -समझना अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है क्योंकि इन व्यवस्थाओं को विदेशों से प्राप्त ज्ञान चक्षुओं से नहीं समझा जा सकता है .
  सबसे सरल उदाहरण शिक्षक का है . वह शिक्षा बेच कर धन कमाता है तो चिकित्सक अपनी सलाह देकर . शिक्षक के लिए विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय बाज़ार है तो चिकित्सक के लिए चिकित्सालय . वकील-जजों के लिए कोर्ट बाज़ार है . खिलाड़ी अपनी क्रीड़ा योग्यता को खेलों में बेचता है , अपने नाम को मीडिया पर बेचता है . अभिनेता अपनी अभिनय कला को फिल्मों और दूरदर्शन के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व में बेचता है . अभियंता और प्रबंधक अपनी विशिष्ट  योग्यता को कंपनियों , संस्थाओं में बेचते हैं , उनके लिए वही बाज़ार है . नगरपालिका या निगम के उत्पाद अपने नगर क्षेत्र में वैध-अवैध अनुमतियाँ और लाइसेंस हैं . वे इसे बेचकर गुज़ारा कर रहे हैं तो सरकारी अधिकारी भी अपने विभाग के मातहत अनुमतियाँ , लाइसेंस , ठेके देकर कारोबार कर रहे हैं .    विश्वविद्यालयों के कुलपति , रजिस्ट्रार फर्जी प्रवेश और डिग्रियां बेचने पर तुले हुए हैं . वे अकेले ही इतना बड़ा काम करने में अक्षम होने के कारण अनेक शिक्षण संस्थाओं को भी डिग्रियां बाँटने में सहयोग करने का लाइसेंस बेच कर परोपकार कर रहे हैं . फिर आगे वे बी. एड. से लेकर बी डी एस और उसके भी आगे तकनीकी तथा चिकित्सा के क्षेत्र में स्नातकोत्तर और पी.एच-डी . डिग्री जैसे उत्पाद बेचकर धनोपार्जन कर रहे हैं . म.प्र. में तो व्यापम जैसे संस्थानों के संचालक और उनके सहयोगी विद्यार्थियों को ‘प्रवेश’ नामक उत्पाद ही बेचकर लाखों के वारे-न्यारे कर रहे हैं . उनके जैसे सक्षम संस्थान नौकरियां भी बेचने से इन्कार नहीं करते हैं . अपने राज्य ही नहीं सारे देश के विद्यार्थी उनके लिए खुला बाज़ार है .
   पुलिस का तो कहना ही क्या है ! उनके पास अधिकार के साथ डंडा भी होता है . अतः वे जिसे अनुमतियाँ बेचते हैं उसके व्यसाय में सहयोग भी करते हैं . रिक्शे , ऑटो , वैन , बसों तथा ट्रकों से वसूली तो सामान्य बात है . समाचार पत्रों से ज्ञात हुआ है कि  म.प्र. के रतनपुर माता जी के मेले में उन्होंने ट्रैक्टरों को अनुमति बेच दी . लोग आगे –पीछे हटने का नाम ही नहीं ले रहे थे . शायद पुल खाली करवाने के लिए उन्होंने लाठी चलाई होगी और लोग तब भी नहीं हटे तो उन्हें डराने के लिए कुछ लोगों को नीचे नदी में फेंक दिया होगा .बस बड़ा हादसा हो गया . उनके पास डंडा नहीं होगा तो असामाजिक तत्वों का बाज़ार कैसे चलेगा, बाज़ार नहीं चलेगा तो बेचारा पुलिसवाला क्या खायेगा ? अवैध धंधों के सभी क्षेत्र उनके बाज़ार हैं .
   सचिव, मंत्री, मुख्य मंत्री ही नहीं बल्कि ज्ञात हुआ है कि प्रधान मंत्री तक खदानें बेच रहे है , टूजी तो पहले ही बेच चुके हैं या बेचने में सहयोग दे रहे हैं .बड़े-बड़े औद्योगिक घराने उनका बाज़ार हैं . ये मंत्री बड़े मंजे खिलाड़ी होते हैं . ऊपर जिन-जिन उत्पादों और बाज़ारों का वर्णन किया है या जिनका नाम नहीं लिया है उन सभी के जनक और स्रोत ये सचिव और मंत्री ही होते हैं . ये अपने संवैधानिक अधिकारों से प्राप्त शक्तियों से ऐसे नए-नए जीवों ( पदों और अधिकारियों ) का उत्पादन करते हैं जो धन के लिए सब कुछ बेच सकते हैं . धरती, आकाश ( टूजी स्पेक्ट्रा ) , पाताल ( दानें ) अर्थात तीनों लोक उनके लिए बाज़ार हैं जहाँ वे कुछ भी बेच सकते हैं . उत्पाद, बाज़ार और धन के आधुनिक अर्थशास्त्र का ये महापुरुष ही भूगोल हैं और ये ही इतिहास हैं .  

    

हिंसा और अहिंसा का द्वन्द

धर्म :             
              हिंसा और अहिंसा का द्वन्द
  व्यक्ति को हिंसक होना चाहिए या अहिंसक, उसे हिंसा करनी चाहिए या नहीं और यदि करनी चाहिए तो किस सीमा तक ? जैसे अनेक प्रश्न व्यक्ति के मन में उठते रहते हैं . ईसा ने कहा है कि यदि कोई एक गाल पर चांटा माँरे तो दूसरा गाल भी आगे कर दो . परन्तु व्यव्हार में ऐसा नहीं है . शांति के दूत ईसा को सूली पर चढ़ाया गया और उनके अनुयायी ईसाइयों ने अपने धर्म के प्रचार के लिए क्रूरता से हिंसा की . इतिहास इसका साक्षी है . विदेशी  मुस्लिम आक्रामकों और शासकों ने भी इस्लाम के प्रचार के लिए हिंसा का मार्ग  भी अपनाया . भारत में प्रवर्तित किसी भी धर्म ने धर्म प्रचार के लिए कभी हिंसा का सहारा नहीं लिया . अतः निरपेक्ष रूप  से यह नहीं कहा जा सकता कि धर्म हिंसा का समर्थन करता है या अहिंसा का . परन्तु अब यह सामान्य मानवीय अवधारणा स्वीकार कर ली गई है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने का अधिकार है और धर्म सम्बन्धी हिंसा अस्वीकार्य है .
  विश्व का इतिहास इस बात का साक्ष्य  है कि राज्य और शासन सदैव शक्तिशाली का ही होता है , वह अच्छा है या नहीं , यह भिन्न विषय है .छोटा से छोटा राजा भी अपना राज्य और शासन व्यवस्था बड़े या शक्ति शाली राजा को नहीं सौंपता है और कोई भी राजा बिना हिंसा के अपने राज्य का विस्तार नहीं कर सकता है  . बड़े राजा को लोग बड़े सम्मान के साथ स्वीकार करते हैं , इतिहास उसकी प्रशंसा करता है , उसके देशवासी स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते हैं . हारे गए देश के लोग अपने राजा को कोसते हैं , उसकी दुर्बलता की निंदा करते हैं और स्वयं को अपमानित महसूस करते हैं . जहां तक हार-जीत का प्रश्न है, राजा क्या, किसी खेल में अपने देश की टीम की विजय से लोग गौरवान्वित होते हैं और हारने पर दुखी . विजय हिंसा द्वारा प्राप्त की गई हो या अहिंसा द्वारा , इतिहास में वह सम्मान प्राप्त करती है . 
   भारत के सन्दर्भ में अक्टूबर माह का विशेष महत्व होता है . दो अक्टूबर को महात्मा गाँधी का जन्म दिन होता है . महात्मा गाँधी का नाम आते ही अहिंसा का सिद्धांत सामने आ जाता है . गाँधी जी ने असहयोग आंदोलनों के द्वारा भारत में अंग्रेजी शासन से संघर्ष किया था और अनेक लोग उनके अहिंसात्मक आन्दोलन को भारत की आज़ादी का श्रेय देते हैं . आज विश्व के अनेक नेता उनके शांति पूर्ण ढंग से राजनीतिक विवाद सुलझाने की वकालत करते हैं . भारत के नेता तो अहिंसा का नाम लेते ही गद्गगद हो जाते हैं . परन्तु गाँधी जी अहिंसा के पूर्व सत्य पर चलने , स्वार्थ त्यागने और निडर होने की बात करते हैं जबकि हमारे आज के नेता जो गाँधी जी के अहिंसा के सिद्धांत का शोर मचाते हैं , अपवाद छोड़कर सदैव मिथ्याचरण करते है , अपने स्वार्थ के लिए काम करते हैं और अत्यंत भयभीत रहते हैं . वे ज़ेड कमांडो के बिना एक कदम भी नहीं चल पाते हैं . प्रश्न यह है कि अहिंसा को मानने वाले लोग हिंसा से इतना क्यों डरे हुए हैं ? क्या अहिंसा हिंसा से बहुत कमज़ोर होती है ?
   अक्टूबर के महीने में ही प्रायः दुर्गा पूजा और दशहरा आते हैं . देवी दुर्गा ने तो महिषासुर , शुम्ब-निशुम्भ , चंड-मुंड , रक्तबीज जैसे अत्यंत बलवान और क्रूर राक्षसों का वध किया था . रक्तबीज राक्षस को यह वरदान प्राप्त था कि जहां पर उसका रक्त  गिरेगा , उसकी हर बूँद से नया रक्तबीज राक्षस उत्पन्न हो जायगा . जब माँ काली ने उसका गला काटा तो उसके रक्त के पृथ्वी पर गिरते ही अनेक रक्तबीज उत्पन्न हो कर युद्ध करने लगे . उसे मारा जाय और खून ज़मीन पर न गिरे , यह कैसे सम्भव था ! अंततः माँ काली ने एक पात्र भी हाथ में लिया ताकि उसके गिरने वाले रक्त को उसमें ही गिराया जाय और कहीं पृथ्वी पर न गिरे  . इसलिए रक्तबीज को मारने के साथ-साथ उसका रक्तपान भी करती गईं . उन्होंने इतनी तीव्र गति से युद्ध किये कि रक्तबीज का गला काटा , पात्र में रक्त इकठ्ठा किया , उसे पी लिया और दूसरे रक्तबीज को मारा . इस प्रकार उनका अंत किया .
  भगवान राम ने भी रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए शक्ति अर्थात भगवती की उपासना की थी . किसी भी धर्म ग्रन्थ या अन्य पुस्तक में राक्षसों के संहार को हिंसा के रूप में निरूपित नहीं किया गया है . दशहरे पर रावण का वध और दहन किया जाता है . राम की विजय को बुराई पर अच्छाई की जीत कहा जाता है . राम ने ताड़का को भी मारा था जबकि हिन्दू धर्म में स्त्री और ब्राह्मण के वध का निषेध है और उसे बहुत बड़ा पाप माना गया है . यह तथ्य राम भी जानते थे . परन्तु अपने पाप और उसके होने वाले परिणामों को देखें या जन सामान्य की पीड़ा को ? इसलिए उन्होंने स्वयं पाप झेलते हुए भी जनहित में आततायियों को मारा . बाद में प्रायश्चित स्वरूप उन्होंने यज्ञ और दान–पुण्य  किये . पंडितों ने इसे धर्म सम्मत कहा है . भगवती देवी एवं श्री राम को हिन्दू भगवान् स्वीकार करते हैं , उनकी पूजा करते हैं .
   भारतीय न्यायालय मृत्यु दण्ड को उचित नहीं मानते . जब पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सैनिकों का सिर  काट ले जाते हैं तो हमारी सरकार उनकी निंदा करने के बाद अहिंसा की बात करने लगती है . जब अधिकारी, मंत्री मनमाने ढंग से लूटपाट और राक्षसों के सामान जन पीड़ा दायक कर्म करते जाते हैं तो उन्हें पूरी छूट दी जाती है क्योंकि वे इसे अहिंसा पूर्वक करते हैं . जब पीड़ित जनता विद्रोह करती है तो सरकार द्वारा उसे हिंसा कह कर उन पर हिंसक आक्रमण किये जाते हैं और उन्हें जेलों में बंद कर दिया जाता है और अनेक कष्ट दिए जाते हैं . प्रश्न यह है कि क्या अहिंसक लूट और अत्याचार सर्वमान्य हैं  तथा उनके  विरोध स्वरूप हिंसा अनुचित है ? क्या इसीलिए भारतीय क्रांतिकारियों को सेकुलरवादी इतिहासकारों ने आतंकवादी कहा है , लोकमान्य तिलक को आतंकवादियों को प्रेरित करने वाला कहा गया है ?
   हिंसा - अहिंसा का द्वन्द्व  इतना  ही है कि शक्तिशाली व्यक्ति के कार्य अहिंसक होते हैं और शक्तिशाली व्यक्ति किसी भी कार्य को न्याय विरुद्ध अथवा हिंसक निरूपित कर सकते हैं और हिंसा द्वारा उनको दबा सकते हैं उनका अंत कर सकते हैं . कुछ विद्वानों की उक्तियों के परिप्रेक्ष्य में भी इसे समझना उपयुक्त होगा .
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ : हिंसा का आघात तपस्या ने कब कहाँ सहा है ?
                     देवों का दल सदा दानवों से हारता रहा है .
विनोबा भावे : जो फूट डालती है , भेद बढ़ाती , वही हिंसा है .
 विनोबा जी के कथन के अनुसार तो भारतीय नेता भयंकर हिंसक हैं क्योंकि वे अपनी पूरी शक्ति से लोगों में भेद बढ़ाने और फूट डालने में व्यस्त हैं ताकि जनता इतनी कमजोर हो जाये कि उन्हें मनमानी लूट-खसोट करने से कोई रोक न सके .
शुभचन्द्राचार्य : हिंसा ही दुर्गति का द्वार है , हिंसा ही पाप का समुद्र है , हिंसा ही घोर नरक है , हिंसा ही महा अंधकार है .
डा. ए. डी. खत्री :शरीर पर आघात ही हिंसा नहीं है अपितु  मन , वचन और कर्म से किसी भी प्राणी को मानसिक , शारीरिक अथवा आर्थिक कष्ट देना अथवा कोई ऐसा कार्य करना जिससे किसी को वर्तमान या भविष्य में क्षति हो , हिंसा है .
  मानसिक विकृति के असामान्य कार्य इसके अपवाद होंगे . यदि कोई सामान्य लड़की अनायास किसी प्रतिष्ठित पुरुष से  या व्यक्ति किसी महिला से कहे कि वह उससे विवाह करे तो यह संभव नहीं होगा और इससे यदि चाहने वाले को कोई कष्ट होता है तो यह हिंसा नहीं होगी . इसी प्रकार यदि कोई नशा करने के लिए अथवा आपराधिक कृत्य करने के लिए किसी से धन या सहयोग मांगे और वह न दे तो मांगने वाले को होने वाले कष्ट के लिए इन्कार करना कोई हिंसा नहीं है . देश में शिक्षा व्यवस्था चौपट करने , चिकित्सालयों में सुविधाएँ न देने , नगर पालिकाओं द्वारा धन वसूलने और नागरिकों को कोई सुविधा न देने जैसे अनेक सरकारी कृत्य , भ्रष्टाचार , घूंस , गबन , अयोग्य लोगों की नियुक्तियां, न्यायालयों द्वारा न्याय न देना या उसमें विलम्ब करना आदि  अहिंसा के वेश में छुपे हुए अत्यंत क्रूर राक्षसी कर्म हैं और हिंसा का मूल हैं  . इससे पीड़ित व्यक्ति के मन में आक्रोश भरता जाता है जो दबे हुए क्रोध और बैर में परिणित होता जाता है तथा अवसर मिलते ही विद्रोह, सरकार और सार्वजानिक संपत्ति को हिंसक कार्यों द्वारा नष्ट करने, आगजनी करने , दंगे करवाने तथा क्रांति करने जैसे अनेक रूपों में प्रकट होता है. इससे वर्तमान ही नहीं आने वाली अनेक पीढ़ियां विभिन्न  प्रकार हिंसा तथा  कष्ट उठाने को बाध्य होती हैं .
  शेर द्वारा पशु का भक्षण हिंसा नहीं है , उसका धर्म ( प्रकृति ) है . सेना द्वारा आक्रमणकारी शत्रुओं का संहार , न्यायाधीश द्वारा अपराधी को दिया गया दंड , जल्लाद द्वारा दी गई फांसी जैसे अनेक कार्य हिंसा नहीं हैं जो असामान्य स्थितियों में कर्तव्य पालन के लिए किये गए हों .
                    अहिंसा के सम्बन्ध में विचार
महात्मा गाँधी : अहिंसा सत्य का प्राण है उसके बिना मनुष्य पशु है . अहिंसा का अर्थ है ईश्वर पर भरोसा करना .
 पतंजलि : जब कोई व्यक्ति अहिंसा की कसौटी पर खरा उतर जाता है तो दूसरे व्यक्ति स्वयं ही उसके पास आकर वैरभाव भूल जाते हैं .
शंकराचार्य : जीवमात्र की अहिंसा स्वर्ग को देने वाली है .
भगवती चरण वर्मा :   हममें दया , प्रेम , त्याग , ये सब प्रवृत्तियां मौजूद हैं इन सब को विकसित करके अपने सत्य और मानवता के सत्य को एकरूप कर देना – यही अहिंसा है .
 डा.ए.डी.खत्री : जिस प्रकार नपुंसक व्यक्ति ब्रह्मचारी नहीं कहा जाता है, पदहीन व्यक्ति का सदाचारी होना अर्थहीन है, , दुर्बल व्यक्ति भी अहिंसक होने की प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर सकता है . अहिंसक होने के लिए व्यक्ति का शक्तिशाली होना अनिवार्य शर्त है . शक्तिशाली व्यक्ति या देश पर कोई हमले या क्षति पहुँचाने का साहस नहीं करता है जिससे अहिंसक व्यवस्था बनी रहती है .        

   

बुधवार, 25 सितंबर 2013

महाभारत


                             महाभारत 
एक कहानी तुम्हें सुनाएं हम ऐसे इन्सान की,
ईर्ष्या भाव से कुंठित होकर सुनी नहीं भगवन की। 
हस्तिनापुर का राज्य  प्रमुख था सारे हिंदुस्तान में। 
 भीष्म पितामह सजग खड़े थे , कमी न हो कोई शान में। 
धृतराष्ट्र पांडु से ज्येष्ठ पुत्र था , लेकिन आँखों से था लाचार। 
हीन भावना उसमें बैठी , था ईर्ष्या युक्त उसका व्यव्हार। 
नेत्र हीन होने के कारण उसके भाग्य न जग पाए। 
कनिष्ठ पांडु  जो होनहार थे , राजा की पदवी पाए।  
बचपन से आँखें नहीं हैं मेरी , इसमें क्या है मेरा दोष ?
भाग्य ने क्यों खिलवाड़ किया ,था रोम-रोम में उसके रोष। 
दिन बीते और रातें बीतीं , बढ़ता गया हीनता भाव। 
राजा की पदवी ही न थी, सबसे बड़ा था यही अभाव। 
फिर होनी ने ऐसा खेला उनके भाग्य संग खेल। 
दुर्योधन से ज्येष्ठ हो गए , युधिष्ठिर का था न कोई मेल। 
इससे हुआ सुनिश्चित, कल का राज्य युधिष्ठिर पाएगा। 
दुर्योधन भी दूर रहेगा , राज्य नहीं कर पाएगा। 
पर अनहोनी कोई न जाने , राजा पांडु का निधन हुआ।   
धृत राष्ट्र राजगद्दी पर बैठे , मोह भाव का सृजन हुआ।  
मेरे बाद इस राज्य का स्वामी प्रिय दुर्योधन कैसे हो ? 
दिन-रात लगी थी एक ही चिंता ,यह संकट हल कैसे हो ?
ईर्ष्या भाव बढ़ा  पुत्रों में , पिता से   कुसंस्कार मिला  .
 पांडु पुत्रों से श्रेष्ठ रहें हम , उनके अंदर यह विकार पला। 
हत्या के षड्यंत्र रचे और निश्चिन्त होने के किये प्रयास। 
पांडु पुत्रों के कृष्ण थे रक्षक , कौरवों की पूरी हुई न आस। 
पांडव हुए युवा और काबिल, उन्हें मिला पृथक एक राज्य। 
उनका वैभव और देख प्रतिष्ठा , ईर्ष्या से जल उठा कुराज। 
फिर जुए का पासा फेंका , पांडवों से छीना सम्मान। 
तेरह  वर्ष जंगल में भटके , माँगा वापस आ  अपना मान।   
दुर्योधन ने जिद्द थी ठानी , राज्य था अब उसके आधीन। 
ईर्ष्या द्वेष बढ़े  थे ऐसे , बैर था उनका रूप नवीन। 
पांडवों ने मांगे पांच गाँव , दुर्योधन न पर अड़ा  रहा। 
कृष्ण ने उसे बहुत समझाया , फिर भी वह ऐंठा  खड़ा रहा। 
भगवान् कृष्ण की बात न मानी ,गर्व में डूबा , युद्ध की ठानी। 
राज्य के मंत्री विदुर थे ज्ञानी , धृतराष्ट्र थे नेत्र हीन अज्ञानी। 
ईर्ष्या , बैर , घमंड था छाया , महाभारत का युद्ध कराया। 
कौरवों की नष्ट हुई सब माया ,सम्पूर्ण राष्ट्र का नाश कराया। 
वे आपस में विद्वेष  न करते , भाई  परस्पर बैर  न करते। 
प्रेम का मिलकर दीप जलाते , सारे सुख समृद्धि को पाते। 



अपराधियों का चुनाव

अपराधियों का चुनाव 

लोकपाल हम क्यों लाएं , अपने विरुद्ध हम क्यों जाएं ,
अपने बाई - बंधुओं को , फांसी पर हम क्यों लटकाएं। 
अपराधी हमारे अपने हैं , अपराध उनकी लाचारी है ,
शक्ति भोगी वसुंधरा है , वे सत्ता के अधिकारी हैं। 
अपराधियों को कहाँ भेजें , कहाँ रहें भ्रष्टाचारी  ?
चुनाव लड़ना अधिकार सभी का , यही रहेगी नीति हमारी। 
अपराधी जेल में बंद रहें , उन्हें चुनाव लड़वाएंगे ,
न्यायालय अपना काम करें , हम उनको जितवाएंगे। 
कोर्ट सर्कार के लिए नहीं , जनता हित में खुलवाये हैं ,
अपराध बढ़ाने की खातिर , अनेक क़ानून बनाए हैं। 
क़ानून राजनीति  में दखल न दें , हम अपने नियम बनाते हैं ,
हम कोर्ट नहीं जाया करते , राजनीति में वे क्यों आते हैं। 
नेता न्यायाधीश से पूछें , अपराध समाप्त कराओगे ? 
गर अपराधी ही न होंगे , तो बोलो , तुम क्या खाओगे ?
जितने अपराधी ज्यादा हों , वे न्यायलय की शान हैं ,
आरोपी के सामने ऊंचे बैठ , सब जज बनते महँ हैं। 
न आओ तुम बहकावों में , राज हमें ही करने दो , 
हम भी रखेंगे ध्यान तुम्हारा , जैसा चलता है , चलने दो।   
 

बुधवार, 18 सितंबर 2013

मंहगाई का पूँजीवादी अर्थशास्त्र

                 मंहगाई का पूँजीवादी अर्थशास्त्र
   भारत में डा. मनमोहन सिंह का  जो अर्थ शास्त्र चल रहा है, वह मंहगाई का अर्थ शास्त्र है . यह मंहगाई  का अर्थशास्त्र इसलिये कहा जाता है कि इसका उद्देश्य ही मंहगाई बढ़ाना है . जो लोग समझते हैं की भविष्य मे कभी मंहगाई कम हो जायगीमंहगाई का पूँजीवादी अर्थशास्त्र अर्थशास्त्र  तो यह उनकी भूल है . इसी का दूसरा नाम है पूंजीवादी अर्थशास्त्र अर्थात निरंतर पूँजी बढ़ाते जाओ . मंहगाई बढ़ने का अर्थ है पूंजीवादी कि पूँजी बढ़ना . सुधारवाद का भी यही अर्थ है कि वस्तुओं के भाव में सुधार होते जाएँ, वे  मंहगी होती जाएँ जिससे  अमीरों कि पूँजी निरंतर बढ़ती  जाये . दुनिया के अनेक उन्नत कहे जाने वाले देशों ने इसे अपनाया है और अब भारत भी वही सब कर रहा है जिससे भारत में भी पूंजीवादियों और पूंजीपतियों कि संख्या तेजी से बढ रही है .
      भारत में कम्युनिस्टों के साथ मिलकर इंदिरा गाँधी ने समाजवादी व्यवस्थ लागू की थी . जब उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो यही दलील दी थी  कि पूँजीवादी लोग बड़े दुष्ट होते हैं . वे गरीबों का शोषण करते हैं . निजी बैंक पूंजीपतियों और जमाखोरों को उधार में धन देते है जिससे वे सामानों को खरीद कर भंडारों में जमा कर लेते हैं और काला बाजारी कर के भारी मुनाफा कमाते हैं . उनके समय में उद्योगपति और व्यवसायी देश और समाज के दुश्मन समझे जाते थे . इसलिए उस समय कांग्रेस के सहयोगी कम्युनिस्टों ने श्रमिक संघों के द्वारा सरकार  पर दबाव डाल कर ऐसे श्रमिक क़ानून बनवाये कि देश में सदियों से चले आ रहे उद्योगपतियों के आलावा कोई सर उठा ही न सके . पुराने उद्योगपति  इसलिए चल पा रहे थे कि नेताओं को आये दिन धन देते रहते थे . धन खाने के दूसरे साधन थे सरकारी विभाग और सहकारी संस्थाएं . उस समय जनता अपनी गाढ़ी कमाई से जो धन कर के रूप में सरकारी कोष में जमा करती , सरकारी चोर उन्हें खा जाते जिससे देश का धन धीरे-धीरे समाप्त होता गया . भ्रष्ट  नेता – अफसर – कर्मचारी बिना कोई उत्पादन किये , बिना कोई व्यवसाय किये  ही पूंजी के पति बनते गए . ये लोग १९९० तक देश का सारा धन चट कर गए और सरकार  चलाने के लिए देश का सोना विदेश में गिरवी रखना पड़ा . उससे प्राप्त  थोड़ा  सा धन भी कब तक चलता ? काम चलाने के लिए सरकार नोट भी छापती गयी जब कि उतना धन कोष में नहीं था . परिणाम स्वरूप रुपये का मूल्य घटता गया . सामान खरीदने के लिए अधिक रुपये लगने लगे अर्थात मंहगाई बढ़ने लगी . अपने देश में अनेक आधुनिक मशीनों , उपकरणों, जहाज़ों, युद्ध-सामाग्रियों आदि का उत्पादन होता नहीं था . उन्हें खरीदने के लिए धन कहाँ से आता ? विदेशी कागज़ के रूपये पर सामान क्यों देने लगे ? देश का सोना भी गिरवी में रखा हुआ था तो कर्जा किस आधार पर मिलता ? जब एक व्यक्ति के पास धन न हो और समाज में उसकी इतनी प्रतिष्ठा भी न हो कि कोई उसे कर्ज दे  वह गुजारा कैसे चलाता है ? उसे घर का सामान बेचना पड़ता है . जब इंदिरा – राजीव दोनों नहीं रहे  और नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री तथा डा. मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने तो जिंदगी भर इंदिरा – राजीव के समाजवाद की  हाँ में हाँ मिलाने वाले अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह पलट गए और उन्होंने खुली अर्थ व्यवस्था अर्थात जिसे जैसा अच्छा लगे, करे और धन कमाए तथा देश की  जमा पूँजी जो सरकारी कंपनियों , प्राकृतिक संसाधनों के रूप में शेष थी , को बेच कर धन प्राप्त करने का विदेशियों का सुझाव मान लिया . धन आने लगा और सरकार चल पड़ी . वर्षों से सरकार लोगों को पूँजीपतियों के भूत से डराती आ रही थी , अब अचानक पूंजीवाद का गुणगान कैसे करती? अतः उन्होंने संविधान से ‘समाजवादी ‘ शब्द तो नहीं हटाया पर पूँजीवाद लागू कर दिया और उस पर जनकल्याण का लेबल लगा दिया कि नेता भी खाएं , अफसर – कर्मचारी भी खाएं और जनता भी खाए . जिसका जितना जोर हो वह उतना खाए . जैसे जो जमीन पर कब्ज़ा कर ले , जमीन उसकी , जो नौकरी पर कब्ज़ा कर ले नौकरी उसकी , जो गरीबी का कार्ड बनवा ले सारी  सुविधाएं उसकी . कुल मिलाकर जो जैसा हथकंडा अपना ले, लूट उसकी .  इस अर्थ शास्त्र का परिणाम यह निकला कि देश में संत्री से मंत्री तक सभी मालामाल होते गए और देश बेहाल होता चला गया . अब  डा. सिंह को देश को यह समझाना पड़  रहा है कि  विदेशी  धनवान  आकर ही देश को चला पायेंगे . इंदिरा गाँधी पूँजीपति नाम के जिस भूत का नाम लेकर लोगों को डराया करती थी और लोग उसके डर के कारण उसे वोट देते जाते थे,  अब वर्तमान कांग्रेसी सरकार लोगों को किसी दलाल नाम के खतरनाक जंतु का नाम लेकर भयभीत कर रही है और उससे निपटने के लिए महान विदेशी पूंजीपतियों को , जो अपना देश तबाह कर चुके हैं , भारत बुलवा रही है . पहले  कांग्रेसी विपक्षियों को पूंजीपतियों का दलाल कहते थे और अब दलालों का दलाल कह रहे हैं क्योंकि पूंजीपति अब  कांग्रेस के हितैषी हो गए हैं , अत्यंत प्रिय हो गए हैं . इसलिये सरकार उनकी पूंजी बढ़ाने का हर सम्भव प्रयत्न कर रही  है. उनकी पूँजी तभी बढ़ेगी जब वस्तुएं मंहगी होंगी अर्थात मंहगाई बढ़ेगी . इसलिए जब सरकार का कोई मंत्री या तथाकथित अर्थशास्त्री मंहगाई कम करने कि बात करता है तो यह मान कर करता है कि जनता मूर्ख है और उसे निरंतर बहलाना, फुसलाना और हसीन सपने दिखाना संभव है . लेकिन जब जनता जागती है तो फ़्रांस जैसी क्रांति करती है अथवा पश्चिम एशियाई देशों के समान उथल- पुथल . इसका  ध्यान सत्ता धारी तब तक नहीं रखते जब तक क्रांति न हो जाय फिर कांग्रेस क्यों रखे ?
   डा. मनमोहन सिंह और उनकी तिकड़ी ( डा.सिंह, चिदंबरम और मोंटेक सिंह) की प्रारंभ से ही यह परिकल्पना रही है कि विदेशी पूंजीपति और उनकी पूँजी से ही भारत चल सकता है . भारत में बड़े योजना बद्ध  ढंग से वे इस के लिए विगत ९ वर्षों से कठिन परिश्रम कर रहे हैं . भारत में बैंकों ने ब्याज दरें बढ़ा दीं ताकि देश के उद्योग विदेशी उद्योगों के सामने न टिक पाएं . भारत के लगभग सभी उद्योगों पर चीन ने कब्ज़ा कर लिया है . भारतीय उद्यमी वर्षों से यह  आस लगाए बैठे ही रह गए कि बैंक की ब्याज दरें कम होंगी . अर्थ व्यवस्था नष्ट होने पर दिखावे के लिए वित्त मंत्री चिदंबरम ने रिज़र्व बैंक से कहा कि वह ब्याज दरें घटाए , उसने भी मुंह दिखाई कर दी और कह दिया  कि बैंक ब्याज दरें घटा दें . उधर गिरते रूपये का वास्ता देकर सरकार  ने  रिज़र्व बैंक पर दबाव बनाया और उसने ब्याज दरें पहले की अपेक्षा २% बढ़ा दीं . भारत के उद्यमी एक ओर रूपये के गिरते मूल्य से परेशान  थे, सरकार ने तोहफे में क़र्ज़ और  भी महंगा कर दिया ताकि वे कभी उठ न पायें .
    दूसरी ओर अर्थशास्त्री बार-बार कह रहे हैं कि भारत की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए आयत कम किया जाय और निर्यात बढ़ाया जाय . सरकारी अर्थशास्त्री , प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री भी यही कह रहे हैं और कर रहे हैं उसका उल्टा ताकि उनका यह सिद्धांत सत्य सिद्ध हो जाय कि देश को अब विदेशी पूँजीपति ही चला सकते हैं . विदेशी पूँजीपति शेयर बाज़ार में धन लगाते हैं जिससे उत्पादन नहीं बढ़ता , सिर्फ उद्योगपतियों की पूँजी कागजों पर बढ़ती है जिससे प्रभावित होकर भारतीय लोग भी शेयर बाज़ार में अपनी बचत लगा देते हैं . अवसर पाते ही ये विदेशी अपने शेयर बेच कर अपनी पूँजी लाभ सहित लेकर भाग जाते हैं . इस प्रकार देश का धन बाहर निकलता जाता है और रुपया कमजोर होता जाता है . देश का धन तो देश में ही घूमता रहता है परन्तु विदेशी पूंजीपतियों द्वारा बाहर ले जाया गया धन वैसे ही नहीं लौटता जैसे शरीर छोड़ने के बाद आत्मा . वित्त मंत्री चिदंबरम सभी चीजों पर सेवा कर लगा चुके हैं . यदि अगली बार इन्हें भारत की जनता अवसर देगी तो वे सरकार की आय बढ़ाने के लिए परस्पर बातचीत के लिए भी कर लगा देंगे पर उससे भी इनका पेट नहीं भर पायेगा क्योंकि पूँजीपति और उनके दलालों का पेट सम्पूर्ण ब्रह्मांड से भी बड़ा होता है .  
 रूपये में सुधार के लिए यह भी सुझाव दिए गए हैं कि सरकार  अपना घाटा कम करे . उसने जैसे ही खाद्य सुरक्षा क़ानून लागू  किया, सब जान गए कि इनके पास धन तो है नहीं . ये खाद्य सुरक्षा पर सवा लाख करोड़ रूपये व्यय करेंगे तो  भारत का बजट घाटा बहुत बढ़ जायगा . परिणाम स्वरूप रुपया और लुढ़कने लगा . सरकार के पास अब घाटा कम करने का एक ही मार्ग  बचा है कि वह बजट में अन्य  कल्याणकारी कार्यों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा और विकास के लिए कम राशि रखे , गैस, डीजल, खाद आदि की सब्सिडी समाप्त करे बिजली, पेट्रोल के रोज रेट बढ़ाए . इससे उद्योग तो भूल ही जाइये , लोगों का जीवन भी संकट में पड़ जायगा . परन्तु महान पूंजीवादी मंत्रियों को इससे क्या लेना-देना ? मंदी अमेरिका में आये और रुपया भारत का लुढ़के, भारत के प्रधान मंत्री डा मनमोहन सिंह का यही अर्थशास्त्र है .   

   प्रधान मंत्री डा सिंह बहुत सीधे , सच्चे और भोले हैं . वे जानते हैं कि देश के नेता-अफसर-कर्मचारी महाभ्रष्ट हैं . परन्तु विदेशी पूँजीपति परम दयालु हैं . वे अपने-अपने देशों से मशक्कत से धन कमाकर भारत के भ्रष्टों का पेट भरने दौड़े-दौड़े आयंगे . वे इसीलिए विदेशियों की खुशामत कर रहे हैं . वे बेचारे इससे अधिक देश के लिए और क्या कर सकते हैं ?