गुरुवार, 23 अगस्त 2012

मुहम्मद इकबाल (अलामा इकबाल )

मुहम्मद इकबाल (अलामा इकबाल )
   सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा , हम बुलबुले हैं इसकी , यह गुलिस्ताँ हमारा , जैसे कालजयी शेर के शायर मुहम्मद इकबाल हिंदुस्तान,पाकिस्तान की सीमाओं से भी पार ईरान , ईराक , अरब देशों के लोगों के भी दिलों  के बेताज बादशाह थे और आज भी हैं .पाकिस्तान ने उन्हें अपना राष्ट्रीय कवि माना और उनके जन्म दिन (९ नवम्बर १८७७ ) ९ नवम्बर को आज भी वहां राष्ट्रीय अवकाश रहता है  . ये वह शक्सियत हैं जिन्होंने हिन्दू - मुस्लिम द्विराष्ट्र का सिद्धांत दिया था , मुस्लिम लीग के द्वारा उसे परवान चढ़ाया  और जो उनकी मृत्यु(१९३८) के ९ वर्ष बाद पाकिस्तान के रूप में साकार हुआ .
इकबाल के पूर्वज सप्रो गोत्र के कश्मीरी ब्रह्मण थे जो जम्मू से पंजाब के स्यालकोट नगर में आकर बस गए थे और उन्होंने लगभग २५० वर्ष पूर्व इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था . उनके पिता शेख नूर मुहम्मद दर्जी थे . उनके माता- पिता धार्मिक और नेक इन्सान थे .उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्यालकोट में हुई थी . वे ४ वर्ष की आयु में घर पर अरबी सीखने लगे वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धिके थे और पथ को शीघ्र याद कर लेते थे . उन्होंने १८९३ में १०वी ,१८९५ में १२वी , तथा उसके बाद शासकीय महाविद्यालय लाहौर  से  १८९७ में बी.ए.( दर्शन शास्त्र , अंग्रेजी और अरबी साहित्य ) और १८९९ में एम्.ए.( दर्शन शास्त्र )  पास कर लिया जिसमें उन्हें पंजाब विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था .
   शासकीय महाविद्यालय लाहौर में उन्हें अरबी - फारसी के विद्वान् प्राध्यापक आर्नाल्ड का विशेष स्नेह प्राप्त हुआ तथा उनकी प्रेरणा से उनमें साहित्य के प्रति विशेष रूचि उत्पन्न हुई . लाहौर में उन दिनों मुशायरे की भे धूम रहती थी . इकबाल ने भी उन में शामिल होकर अपने कलाम सुनाना प्रारंभ किया और शोहरत की बुलंदियों को छूने लगे . ग़ज़ल लिखना तो उन्होंने स्कूल से ही शुर कर दिया था . उस समय के प्रसिद्द शायर उस्ताद दाग के पास डाक से वे अपनी रचनाएं भेजते थे . दो - चार ग़ज़लें देखकर उन्होंने कहा कि उनमें सुधार जैसा कुछ भी संभव नहीं है . उनकी ग़ज़लें पूर्ण थीं , बहुत अच्छी थीं . इससे इकबाल का आत्म विश्वास बहुत बढ़ गया और वे जीवन भर लिखते रहे . 
१८९५ में उनका पहला विवाह करीम बीबी से हुआ था .दूसरा सरदार बेगम से और १९१४ में तीसरा विवाह मुख़्तार बेगम से किया था .१८९९ में एम्. ए. पास करते ही वे ओरिएंटल कालेज  में दर्शन -- अरबी के प्रवक्ता नियुक्त्त  हो गए थे . शीघ्र ही वे जूनियर प्रोफेस्सर के पद पर शासकीय महाविद्यालय लाहौर में दर्शन--अंग्रेजी पढाने लगे . अपने दार्शनिक ज्ञान तथा शायराना अंदाज के कारण वे कालेज में तथा बाहर भी लोक्प्रिता प्राप्त करते जा रहे थे .   १९०५ में वे छात्रवृत्ति लेकर अध्ययन करने इंग्लॅण्ड चले गए . वहां उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कालेज में प्रवेश लिया . वहां   पर उन्होंने १९०६ में बी. ए. , १९०७ में लिंकन इन से बारिस्टर तथा १९०८ में जर्मनी जाकर ' प्रशा में तत्वमीमांसा का विकास '  पर पी-एच.डी .प्राप्त कर ली . उनका शोध प्रबंध शीघ्र  ही प्रकाशित हो गया था लन्दन में उन्होंने ६ माह तक अरबी का अध्यापन भी किया .भारत लौटकर वे अध्यापन के साथ जिला अदालत लाहोर में १९३४ तक वकालत भी करते रहे .  
      दार्शनिक होने के कारण वे चाहते थे कि विश्व एक  इस्लामिक झंडे के नीचे आ जाय अन्य मुस्लिम विद्वानों की भांति वे भी धर्म-समाज- राजनीति को एक ही इस्लामिक दर्शन के विभिन्न पक्ष मानते थे जिन्हें एक - दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता है . उन्होंने ईरान , ईराक , अरब देशों में जाकर अनेक भाषण दिए . मुस्लिम देशों में पृथक सीमाएं उन्हें पसंद नहीं थीं .परन्तु धर्म के नाम पर राजा अपना अधिकार छोड़कर किसी एक महाराजा के आधीन हो  जायेंगे जैसी असंभव राजनीतिक कल्पना देखकर लगता है कि उन्हें राजनीति का ज्ञान नहीं था . अलग देश की सीमाएं तो छोडिये , भारत से जो मुस्लमान वीसा और अनुमति प्राप्त करके  २-४ दिन के लिए पाकिस्तान घूमने भी जाते हैं तो इकबाल के पाकिस्तान में प्रवेश से लेकर लौटने तक पाक जासूस घेरे रहते हैं और उसे कहीं  जेल में बंद न  कर दें ,  पूरे समय उन्हें यह भय बना रहता है .
      भारत में उन्होंने मुस्लिम लीग के सक्रिय सदस्य बनकर राजनीति में प्रवेश किया . १९२० में जब मुस्लिम लीग के नेता आपस में लड़ पड़े और लीग समाप्त प्राय हो गयी तो उन्हें बहुत बड़ा झटका लगा .जिन्ना तो राजनीति से दूर हो गए थे . परन्तु इकबाल ने  जिन्ना को बार- बार पत्र लिख कर प्रेरित किया कि भारत में मुसलमानों के हितों और अधिकारों की रक्षा वही कर सकते हैं . अपने भाषणों में इकबाल भय व्यक्त करते थे कि भारत में बहु संख्यक हिन्दुओं का राज होइने पर मुस्लिम धरोहर , संस्कृति , धर्म सब संकट में फंस सकते हैं . वे जिन्ना की भांति कांग्रेस को हिन्दू पार्टी मानते थे . सिकुलर अर्थात धर्म निरपेक्ष विचार के वे धुर विरोधी थे .क्योंकि वे विश्व में केवल इस्लाम ही चाहते थे .मुस्लिम लीग पुनः प्रारंभ होने पर १९३० में वे उसके अध्यक्ष बने तो इलाहबाद में अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने भारत के उत्तर - पश्चिम भाग तथा बंगाल को मुस्लिम राज्य बनाने का विचार प्रथम बार रखा था . जिन्ना जैसा व्यक्ति, जिसने खिलाफत आन्दोलन का समर्थन  इसलिए नहीं किया था कि यह केवल धार्मिक उन्माद के कारण हो रहा है ( जबकि गाँधी जी ने प्रबल समर्थन दिया था )तथा मुस्लिम कट्टर पंथियों से दूर रहता था , इकबाल के कारण कट्टरपंथी हो गया तथा देश का बंटवारा करवाकर ही दम लिया .. इकबाल एक बार लाहौर से मुस्लिम सीट पर पंजाब विधान सभा के लिए चुने गए थे . 
  'संस्कृति  के   चार  अध्याय ' पुस्तक  में  राष्ट्र  कवि  दिनकर  ने  भी  इकबाल  के  लिए  कहा  है ,"इकबाल  की  कविताओं  से  , आरम्भ  में , भारत की सामासिक संस्कृति को बाल मिला था , किन्तु, आगे चलकर उन्होंने बहुत सी ऐसी चीजें भी लिखीं जिनसे हमारी एकता को व्याघात पहुंचा ." 
        पर शायरी में तो उनका कोई मुकाबला ही नहीं था . इकबाल कि शायरी का जब अंग्रेजी में अनुवाद हुआ तो उनकी ख्याति इंग्लॅण्ड तक फ़ैल गई जिससे प्रभावित होकर जार्ज पंचम ने उन्हें 'सर' की उपाधि दी.
बाद में उनकी कविताओं का अनुवाद यूरोप की अन्य भाषाओं में भी हुआ . अरब देशों के लोग भी उनकी शायरी समझें ,इसलिए उन्होंने अधिकांश शायरी फारसी में की है . कुछ पुस्तकें उर्दू में भी हैं . १९३८ में वे स्पेन से लौटे तो गले में कोई असाध्य रोग हो गया जो ठीक नहीं हो सका . लाहौर में दिनांक २१ अप्रेल १९३८ को उनका निधन हो गया . भोपाल के नवाब ने उनके लिए पेंशन स्वीकृत की थी . पाकिस्तान में उनके नाम पर अनेक संस्थाएं हैं . वे पाक ही नहीं ,भारत के लोगों के दिलों में आज भी हैं . उन्हें प्राप्त उपाधियाँ हैं --'शायर -ए- मुशरिफ '( पूर्व के कवि), मुफाकिए - ए- पाकिस्तान(पाकिस्तान के प्रस्तोता ) , हाकिम - उल- उम्मत ,तथा पाकिस्तान के राष्ट्रीय  कवि .
साहित्य सृजन :उन्होंने अधिकांश शायरी फारसी में की है . फारसी की रचनाएँ है --असरारे -खुदी ,रामूजे बेखुदी , पयामे मशरिक , जावेद नामा आदि . उर्दू में - बाल- जिब्रील(पीड़ित जनता ) तथा बांग- ए-दरा(देश भक्त) प्रमुख हैं . गद्य में उनके भाषण समाहित हैं .
   इकबाल की जुबान ही शायरी है . जो कहा ,शेर हो गया . उन्होंने रामुर नानक पर लिखा , धार्मिक सौहार्द्र के लिए शिवाला  जैसी रचनाएँ लिखीं  आजादी और राष्ट्रीयता से ओतप्रोत कविताएँ लिखीं , गरीबों से सहानुभूति  और बच्चों को प्रेरित करने के लिए रचनाएँ प्रस्तुत कीं और कट्टरता तथा आधुनिक शिक्षा के विरोध में भी स्वर मुखरित किये . यहाँ उनकी शायरी के  कुछ बंद   प्रस्तुत हैं  :
.बच्चों के लिए ( गुलामी का दर्द )
("परिंदे की फ़रियाद " )
आता है याद मुझको गुजरा हुआ जमाना
वह बाग की बहारें , वह सबका चहचहाना .
आजादियाँ कहाँ वे अब अपने घोंसले  की ,
अपनी ख़ुशी से आना , अपनी ख़ुशी से जाना .
२.पहाड़ को गिलाहरी का उत्तर ( समानता, स्वाभिमान )
("एक पहाड़ और एक गिलहरी " से )
कदम उठाने की ताकत ,जरा नहीं है तुझमें
निरी बड़ाई है , खूबी और क्या है तुझमे  ,
जो तू बड़ा है , तो हुनर दिखा मुझको
यह छालियाँ ही तोड़ कर दिखा मुझको .
३.  भारत का गौरव 
(हिन्दुस्तानी बच्चों का कौमी गीत )
चिश्ती ने जिस जमी पर पैगामे हक सुनाया ,
नानक ने जिस चमन में वहदत का गीत गया.
तातारियों ने जिसको अपना वतन बनाया ,
मेरा वतन वही है , मेरा वतन वही है .
४. धार्मिक एक्य ( नया शिवाला )
आ गैरियत  के के परदे इक बार फिर उठा दें ,
बिछड़ों को फिर मिला दें ,नक़्शे दुई मिटा दें .
सूनी पै हुई है मुद्दत से दिल कि बस्ती ,
आ इक नया शिवाल इस देश में बना दें .
५. राष्ट्रीय एकता ( तराना - ए हिंदी )
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा ,
 हम बुलबुले हैं इसकी , यह गुलिस्ताँ हमारा
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना
हिंदी हैं हम ,वतन है हिन्दोस्तां  हमारा .
.धार्मिक कट्टरता (तराना -ए- मिल्ली )
चीनो अरब हमारा , हिन्दोस्तां हमारा
मुस्लिम हैं हम वतन के , सारा जहाँ हमारा .
तोहीद की अमानत , सीनों में है हमारे  ,
आसां नहीं मितान , नामों - निशान हमारा .
७. अन्य धर्मों का भी आदर ( राम)
इस देश में हुए हैं हजारों मलक - सरिश्त(१)१. देवता -स्वभाव
मशहूर जिनके दम से है दुनिया में नामे हिंद .
है राम के वजूद पे हिन्दोस्तान को नाज ,
अहले नज़र समझते हैं उसको इमामे हिंद .
.परोपकार भावना (साक़ी)
नशा पिलाके गिरना तो सबको आता है
मज़ा तो जब है कि गिरतों को थम ले साक़ी.
जो बदकाश थे पुराने , वह उठते जाते हैं ,
कहीं से आबे - बक़ा-ए-दवाम ला साक़ी.
कटी है रात तो हंगामा-गुस्तरी में तिरी ,
सहर करीब है अल्लाह का नाम ले साक़ी .
९. दकियानूसी - शिक्षा से नास्तिकता का भय 
( तालीम और उसके नताइज़ )
खुश तो हम भी हैं जवानों की तरक्क़ी  से मगर ,
लबे - खदां (1) से  निकल जाती है फरियाद भी साथ.
हम समझता थे कि फरागत, तालीम ,
क्या ख़बर थी कि चला आएगा इल्हाद (२) भी साथ .
घर में परवेज के शीरीं  तो हुई जलवा नुमा
लेके आई  मगर तेष- ए- फ़रहाद  भी  साथ .
तुख्में- दीगर बकफ़ आरएम व बकारेम जनौ
के आंचे कश्तेम जख्जलत नातवां क़र्द दरौ(३)
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१. स्मित होंठ २. नास्तिकता ३. जब दूसरों का बीज लेकर बोते हैं
 तो उससे लज्जा के अतिरिक्त और कुछ नहीं उग सकता .
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१०. आत्मबल बढ़ाना 
 ख़ुदी को कर बुलंद इतना ,कि हर तक़दीर से पहले ,
ख़ुदा बन्दे से ख़ुद पूछे , बता तेरी रज़ा क्या है .
टीप: ये अंतिम पंक्तियाँ  मनुष्य को आत्मबल-स्वप्रयास से भाग्य बनाने की प्रेरणा देती हैं . इस पर हिन्दू दर्शन का पूरा असर है जिसमें व्यक्ति ख़ुदा के सामने है और ख़ुदा व्यक्ति से पूछ कर उसका  भाग्य लिखने की बात कहता है  . जबकि इस्लाम में ख़ुदा सर्वत्र उपस्थित एक अदृश्य शक्ति है और उसने  लोगों को जो भी सन्देश दिया है  , वह पैगम्बर के माध्यम से दिया है जो कि व्यक्ति के रूप में पृथ्वी पर आये थे . 


























          
      

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

अरविन्द का दर्शन

:
                                                    अरविन्द का दर्शन
महर्षि अरविन्द घोष ने युवावस्था तक इंग्लॅण्ड में रहकर पाश्चात्य साहित्य तथा दर्शन का गंभीर अध्ययन किया था .भारत आकर उन्होंने संस्कृत सीखी और वेद ,   उपनिषद गीता , सांख्य योग आदि ग्रंथों का विषद  अध्ययन एवं चिंतन किया .वह भारतीय संत - महात्माओं की इस बात से सहमत नहीं थे कि माया दुःख देने वाली   है और मनुष्य समस्त माया का त्याग करके केवल आत्म चिंतन करे , ब्रह्म चिंतन करे ,तप करे और मोक्ष प्राप्त हेतु निरंतर तत्पर रहे . वे पश्चिम के भौतिक वाद को भी अपूर्ण मानते थे .अपने चिंतन में उन्होंने पूर्व और पश्चिम की विचारधाराओं का अपूर्व समन्वय किया है .
     वेदांत के दो सूत्रों ---एकम सत-नेह नानास्ति किंचन (सत्य एक है , दूसरा नहीं ) तथा सर्व खल्विदं ब्रह्म (यह सब कुछ ब्रह्म है ) की पुनर्व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि ब्रह्म एक है तथा यह सब कुछ( माया ,प्रकृति ,भौतिक वस्तुएं  भी) ब्रह्म ही  हैं .यह सब उस ब्रह्म का विस्तार ही है . भौतिकता से दूर भागना उचित नहीं है .आवश्यकता है कि  अध्यात्म और भौतिकता का उचित समन्वय किया जाय . ये दोनों एक ही हैं तथा एक से अनेक और अनेक से एक तत्व की अद्भुत अभिव्यक्ति है . इनको समझ कर ही परम तत्वव की ओर मनुष्य बढ़ता जाये .
अरविन्द पुनर्जन्म के सम्बन्ध में भारतीय दृष्टिकोण   को स्वीकार करते हैं कि कर्म फल के अनुसार पुनर्जन्म होता है . वे सृष्टि के सभी तत्वों में परम ब्रह्म की सत्ता एवं चेतना का निवास मानते हैं . वे अवतार में विश्वास करते हैं . वे कहते हैं कि परम सत्ता लीलाएं करती है और यह सृष्टि उसकी लीलाएं ही हैं .
    अरविन्द ने योग को व्यक्ति की अन्तर्निहित एवं छुपी हुई शक्तियों को विकसित करने का मध्यम कहा है उनके अनुसार समस्त मानव जीवन ही योग है .मनुष्य और विश्व दोनों सत्य हैं एवं वास्तविक हैं .योग व्यक्ति को भौतिकता से ऊपर उठाता है जिससे वह अपना लक्ष्य पूरा करते हुए उत्तम पुरुष बन जाता है .योग साधना द्वारा बाह्य जीवन को संयमित एवं नियंत्रित करके मनुष्य को सर्व प्रथम परम सत्ता की अनुभूति प्राप्त करनी चाहिए .फिर साधना  द्वारा आत्मा को शुद्ध करते हुए ऊपर उठाना होता है . इस हेतु  आत्म्सपर्पण , चेतना , विवेक , प्रेम , भक्ति ,कर्म आदि आवश्यक हैं .
  व्यक्ति अपने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में चाहे-अनचाहे पाप-पुण्य करता रहता है .वे संसार को पापमय न मानकर पुण्य का साम्राज्य मानते हैं .संसार में पाप भी है परन्तु विषय वासनाओं को दूर करके सदवृत्तियों को अपनाकर , योग  पद्धति के मार्ग से , उस परम तत्व में पूर्ण विश्वास  रखते हुए , मनुष्य पाप से मुक्त हो जाता है .   गीता में जिसे पुरुषोत्तम कहा गया है , अरविन्द उसे अत्युत्तम  मानव ( सुपर मैन ) कहते हैं .उसमें एक अत्युत्तम मन एवं अत्युत्तम चेतना होती है इस अत्युत्तम मानव के एश्वर्य  की  अभिव्यक्ति ही यह संसार है .इस अत्युत्तम मानव में सत,चित  , आनंद --तीनों एकीभूत रूप में होते हैं .इसकी शाश्वत शक्ति से ही संसार की समस्त शक्तिया उत्पन्न होती हैं .  इसी से ब्रह्माण्ड की सभी क्रियाएं नियंत्रित होती हैं . मानव का उद्देश्य इस उत्तम मानव तक पहुंचना है . जब मनुष्य प्राण , मन , आत्मा देह के एकाकार रूप को समझ लेता है , उसे सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है तो वह सत-चित-आनंद ( सच्चिदानंद ) के अत्युत्तम स्तर को प्राप्त कर लेता है अर्थात ब्रह्ममय हो जाता है . यही मोक्ष है .
संसार में अनेक मनुष्य हैं जिनमें अमर आत्माएं स्थित हैं . ये आत्माएं उस अत्युत्तम आत्मा से सम्बंधित हैं . इससे अपनी आत्मा का एकात्म प्राप्त करना ही मनुष्य के जीवन का अंतिम लक्ष्य है . सांख्य योग दर्शन के अनुसार इस उत्तम आत्मा को हम तर्क द्वारा जान सकते हैं परन्तु अरविन्द आत्मसमर्पण को इसकी प्रथम शर्त मानते हैं .
अरविन्द सती सावित्री की शक्ति से बहुत प्रभावित थे . उसने अपनी शक्ति से अपने मृत पति सत्यवान को जीवित कर दिया था . सावित्री को अवतार नहीं माना जाता है .अतः अरविन्द का दृढ विचार था कि मनुष्य साधना द्वारा उस  शक्ति को प्राप्त कर सकता है जिससे व्यक्ति जन्म - मरण से परे,  अमर हो जाये . अरविन्द जीवन पर्यंत उसी अमरत्व की खोज में लगे रहे . वे अमरत्व तो नहीं प्राप्त कर सके परन्तु मृत्यु के चार दिन बाद तक उनके चेहरे पर कांति विद्यमान थी .उसके बाद ही उनका अंतिम संस्कार किया गया था .
 मनुष्य का जीवन स्तर उठाने के लिए उन्होंने अपने आश्रम पांडिचेरी में एक शिक्षा संस्थान प्रारंभ किया . उसमें उनके दर्शन के अनुसार अध्यात्म , योग एवं आधुनिक भौतिक विषयों की शिक्षा दी जाती है . बचपन में अंग्रेजियत में रंगे अरविन्द , युवावस्था  में  क्रन्तिकारी और बाद में एक सिद्ध पुरुष बन गए थे .








गुरुवार, 16 अगस्त 2012

हिंदी भाषा

                    हिंदी भाषा
नेता जी समझा गए , अंग्रेजी का मोल,
अंग्रेजी महान है , तू   अंग्रेजी ही बोल
अंग्रेजी में बात करेगा , तेरा सब पर रोब जमेगा ,
हिंदुस्तान की  धरती पर , अंग्रेजी में राज चलेगा .
देशी भाषा बढ़ न पायें  , भाषा को   विवाद  बनाया
परस्पर लड़ , सब कांतिहीन हुईं ,ऐसा माया जाल बिछाया .
अनेकों नेता ऐसे हैं जो अंग्रेजी में राज हैं करते ,
वोट मांगने जाते हैं जब, दो-चार वाक्य हिंदी में पढ़ते .
बालीवुड के सब अभिनेता , हिंदी फिल्मों से धन हैं पाते ,
उनसे कोई प्रश्न करे तो , अंग्रेजी में रोब जमाते .
राजनीति इनकी सब देखो ,एक दिवस हिंदी का डाला ,
तीन सौ चौंसठ दिन रहता है , अंग्रेजी का बोलबाला .
दुनियां में भारत ही ऐसा , बिन निज भाषा आगे बढ़ता ,
निज भाषा की घोर उपेक्षा ,विश्व का कोई देश न करता .
जिसकी स्व भाषा नहीं , क्या उसका आधार .
मुट्ठी भर पढ़ जायेंगे , रहेंगे शेष बेकार ..
अंग्रेजी आती नहीं , न निज भाषा का ज्ञान .
ऐसी भीड़ को ढो रहा , भारत देश महान ..
विदेशी भाषा में जो सोचें , देश के कारोबार .
समाधान क्या होएंगे , जिनका नहीं आधार .
अक्षम नेता हैं कर रहे , विदेशी धन की आस .
क्यों होगी हमसे हमदर्दी , होंगे सभी निराश ..
उठो देश के युवकों जागो , अपना भाग्य है तुम्हें बनाना .
निज  भाषा को विकसित कर दो , तुमको यदि आगे है जाना ..

मनुर्भव , आजादी का सपना

                          मनुर्भव
ईश्वर ने तुमको मनुज बनाया ,तुम ऐसे इन्सान बनो ,
अपने और पराये में तुम , कोई भेद नहीं समझो .
व्यवहार तुम्हारा ऐसा हो , जैसा तू न्य से चाहते हो .
स्वयं जियो और जीने दो का, सिद्धांत अटल तुम मानते हो .
पशु और मनुष्य में भेद प्रमुख , पशु सोच और बोल नहीं सकता .
पशु खा सकता है ,पी सकता है , सृजन नहीं कोई कर सकता .
निद्रा , वंश-वृद्धि ,और उदरपूर्ति ,पशु ,मानव में समान है होती .
पशु तुल्य जिनका जीवन होता , उनकी किस्मत है सोती रहती .
तुम मानव हो निर्माण करो ,सर्व जन हिताय कुछ काम करो .
अपनी आत्म शक्ति पहचानो , आदर्श कार्य निष्काम करो .
जीवन के क्षेत्र अनेकों हैं , जिनमें यश , धन और मान मिलेगा .
लगन से आगे बढ़ते जाओ, ईश्वर ख़ुद मार्ग प्रशस्त करेगा  ..
                  आजादी का सपना
श्रम ,मेधा ,मौलिक चिंतन से जन-जन का तुम जीवन भर दो .
हर नागरिक हो जाये शिक्षित , सच्चा नेक काम यह कर दो .
सब हों सुखी ,नीरोग सभी हों ,ऐसा तुम यह राष्ट्र बनाओ .
सर्व समाज को अपना समझे ,मानवता की अलख जगाओ.
लालच ,भ्रष्टाचार रहित हों , सब समझें  यह देश है अपना .
सब मिलकर रहें , एक हो जाएँ ,सच्चा हो आजादी का सपना .
न दरिद्र हों ,न हों अशिक्षित ,ईर्ष्या ,द्वेष ,विकार  न होवें ,
ढाई अक्षर प्रेम का समझें , देश में सबकी गरिमा होवे ..

राजनीति (kavita)

                   राजनीति
फूट डालो और राज करो , अंग्रेजों का सिद्धांत .
ऐसा सबको समझा रही ,नेताओं की जात   ..१..
भारत का इतिहास है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण .
ईर्षा , द्वेष और शत्रुता , राजाओं की थी शान .२.
दो बिल्ली जैसे लड़ा करें ,देश के खेवनहार  .
बन्दर जैसे अंग्रेज थे , लूट  लिए भण्डार.३.
मीरजाफर और सिराजुद्दौला का ,है प्रसिद्द इतिहास .
कैसे मैं सत्ता हथियाऊं , अंग्रेजों से थी आस .४.
युद्ध में मीरजाफरबने , गद्दारों के सरदार .
सिराजुद्दौला को मरवा दिया ,कर गए बंटाढार .५.
अंग्रेजों की कठपुतली बने ,बंगाल के नए नवाब .
यह अनुभव उन्हें सिखा  गया , राजा बनने का ख़्वाब .६.
अंग्रेजों ने जब गौर से देखा देश का हाल .
चारों तरफ़ ही फूट थी , भारत था बेहाल .७.
१८५७ के संग्राम में अंग्रेजों का देकर साथ .
गद्दारों की कौम ने , मजबूत किये उनके हाथ .८.
आँख खोलकर देखिये , नवाब-राजाओं की नीति .
शोषण तक सीमित रही , गद्दारों की राजनीति .९.
अपने महल बना लिए , ऐय्याशी के चलते जाम .
जनशिक्षा और कल्याण के ,किये नहीं कोई काम .१०.
उनका सिद्धांत तो एक था , लोगों में रहे अज्ञान .
जितने वे निर्धन रहें ,उतनी राजा की शान .११.
रेल सड़क के नाम पर , उनके थे एक विचार ,.
ज्ञान -समृद्धि की वृद्धि से ,जनता होगी होशियार .१२.
जागरूक इन्सान तो , रखेगा तर्क की बात .
तर्क से नष्ट हो जाएगी , हम सामंतों की जात .13.
नव सामंतों ने इतिहास से , निकाला  यह निष्कर्ष .
लोगों में जितनी फूट हो , उतना बढेगा हर्ष .१४.
ये कूप -मंडूक बने रहें ,अज्ञान का हो विस्तार .
नेताओं की उतनी जीत है , जनता की जितनी हार .१५.
जाति -धर्म के नाम पर , बांटा  राष्ट्र -समाज .
अमीर - गरीब अलग रहें , ऐसे उनके काज .१६.
अमीर से धन लेते रहें , गरीब  के वोट चुराएं .
मीठ- मीठा बोलकर , पग-पग पर भेद बढाएं .१७.
चारों तरफ़ निहारिये , किसका रहा विश्वास .
बहुरूपिये भ्रष्टाचार ने , सबको किया निराश .१८.
अंग्रेजों इन नेताओं में , दो  ही मुख्य हैं भेद .
वे थे राजा के रूप में . ये हैं सेवकों के  भेष .१९.
अंग्रेजों ने धन लूटकर , समृद्ध किये अपने देश .
नेताओं ने धन लूटकर , समृद्ध किये परदेश.२०.

रविवार, 15 जुलाई 2012

संतरी से मंत्री तक

संतरी से मंत्री तक 
छापा पड़ा इक भृत्य के घर .
 संपत्ति का भण्डार था 
जब क्लर्क से पूछा गया
 तो वह भी मालामाल था ,
छोटे बड़े कई अफसरों की 
धन, कार , घरों की शान है 
आई ए एस ने खोला खजाना 
सबने कहा वह महान है .
राजा- कोंडा से कई मंत्री 
 सर्वत्र आनंद कर रहे 
जितनी जो सेवा कर रहे 
उतने वे खाते भर रहे .
इस देश में संत्री से मंत्री 
करोड़पति और मालामाल हैं 
कर्जे में डूबा देश सारा 
गरीब और बेहाल है .
शिक्षा -रक्षा को धन नहीं है 
भ्रष्टाचरण में महान है 
शत्रु  बढ़ते आ रहे 
इसका न उसको भान है 
है बढ़ रही प्रवृत्ति आसुरी 
धन -लालसा सर्वत्र है 
 दुःख दे कर के  धन लूटना 
उन सबका मूलमंत्र है .
'टैक्स-धन' अपना बताते 
 आती न उनको लाज है 
जितना अधिक जो लूट सकता
 क्षत्रप वही सरताज है .
ये देशद्रोही दिन पर दिन 
नए करतब हैं कर रहे 
एक हो ताकत लगाओ 
मनमानी न कोई कर सके .

भ्रष्टाचारी आत्मा 
भ्रष्टाचारी आत्मा    ईश्वर से करे पुकार .
दाता मेरी झोली भर दे ,दुश्मन को दे मार ..
देख रुपैया दिल ललचाया 
मान और ईमान गंवाया 
जो भी आए देता जाये 
ईश्वर सब दिन ऐसा आये .
गरजमंद हों आने वाले 
उनके काम हों मेरे हवाले .
अटकाऊं  काम बड़ी  टेबुल  पर 
नोट सजें फिर नीचे  ऊपर .
गद्दे में  नित  भरूँ  रुपैये 
लाकर  में नित भरूँ रुपैये 
धरती लूं , बंगले बनवाऊँ 
सोने से कोठी चमकाऊँ .
रोज मेरे घर हो दीवाली 
फिर भी मन हो मेरा खाली .
सिर्फ यही है विनती मेरी 
सजे रोज रुपयों के ढेरी .
मैं करता हूँ सच्ची पूजा 
काम नहीं है मेरा दूजा 
प्रभु जी दो सेवा का अवसर 
पुण्य कमाऊँ मै जी भरकर ..
भ्रष्टाचारी आत्मा  धरकर रूप अनेक .
सर्वत्र लूट मचा रही , भरे न उसका पेट ..




















शनिवार, 14 जुलाई 2012

न्यायालय , सरकार और संसद का द्वंद्व

                                                          न्यायालय , सरकार और संसद का द्वंद्व 

  पाकिस्तान में संविधान  का गहरा संकट उत्पन्न हो गया है . पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी के विरुद्ध पुराने भ्रष्टाचार के आरोप हैं जिन्हें पूर्व राष्ट्रपति मुशर्रफ ने माफ़ कर दिया था . जिसके कारण वे चुनाव लड़ सके और राष्ट्रपति बन गए . पाकिस्तान न्यायालय के वर्तमान  मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी इससे सहमत नहीं हैं . उनका मानना है कि  अपराधी छोटा हो या बड़ा , वह क़ानून के दायरे में आता है . यदि उसने अपराध किया है तो उसे  सजा दी जाएगी . उन्होंने पाकिस्तान के पूर्व प्रधान मंत्री युसूफ रजा गिलानी को आदेश दिया की वे राष्ट्रपति के विरुद्ध कार्यवाही करें , परन्तु गिलानी ने कोई कार्यवाही करने से इस आधार पर इनकार कर दिया कि संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है . इसके लिए उन्हें न्यायालय की अवमानना का दोषी करार दिया गया , उन्हें ३० सेकंड कि सजा हुई और अपना पद छोड़ना पड़ा . अब वहां पर रजा परवेज़ अशरफ प्रधान मंत्री हैं . उन्हें भी कोर्ट ने वही आदेश दिया है कि राष्ट्रपति के विरुद्ध कार्यवाही करो . हालाँकि पाकिस्तान कि संसद ने संविधान संशोधन करके उन्हें कोर्ट कि कार्यवाही से बचाने का  प्रयास किया है , परन्तु जज चौधरी साहब इसे मानेंगे या नहीं अभी संदिग्ध है .प्रश्न उठना  स्वाभाविक है कि संसद , सरकार और न्यायालय में से कौन बड़ा है और कौन  छोटा है .
         इस प्रकार के विवाद भारत में भी उठते रहे हैं . जब कभी न्यायालय सरकार के तौर -तरीकों पर रोक लगाते  हैं या टिपण्णी करते हैं तो हल्ला होने लगता है कि संसद बड़ी है , सरकार बड़ी है , कोर्ट को उसमें हस्तक्षेप नहीं  करना  चाहिये .न्यायाधीशों की  सीमाएं हैं .वे खुल्लम खुल्ला नहीं कह सकते हैं कि वे सरकार  और  संसद  से  बड़े  हैं . कौन छोटा होगा , कौन बड़ा होगा , इसके लिए किसी संविधान या क़ानून में कोई प्रावधान नहीं हैं . फिर कैसे मानें कि कौन किसके आदेश का पालन करेगा .भारत के संविधान में तो 'सरकार ' और कार्य कारिणी के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा गया है . जब कुछ लोग स्वयं को 'सरकार' मान कर काम करने लगते हैं तो मनमानी करना उनका अधिकार हो जाता है . 
      इस  द्वंद्व  की विवेचना करने के लिए राजनीति शास्त्र के मूल सिद्धांतों को समझना होगा , सरकार शब्द का अभिप्राय उस संस्था से है जो किसी देश में राजा की  ओर से राज्य व्यवस्था का सञ्चालन करती है . राज्य व्यवस्था में आते हैं -- १. क़ानून बनाना (व्यवस्थापिका ) २. शासन के समस्त कार्य करना ( कार्यपालिका ) तथा ३. न्याय व्यवस्था (न्यायालय ) . राजशाही में सभी कार्य राजा स्वयं करता था या वह जिसे चाहता था कोई भी काम सौंप देता था . सरकार जो भी काम करती  है राजा के हित के लिए करती है . कानून राजा कि इच्छा के अनुसार बनते है , सारे काम भी उसकी इच्छानुसार किये जाते हैं और विवाद होने पर न्याय भी राजा की  इच्छानुसार किया जाता है . राजा के किसी काम पर प्रश्न नहीं किया जा सकता . राजतन्त्र में राजा अपनी ताकत से बनते थे और मनमाने ढंग से काम करते थे . उनकी तानाशाही के विरुद्ध राजनीति शास्त्री मोंतेस्क्यु ने सिद्धांत दिया  कि राज्य में व्यवस्थापिका , कार्यपालिका तथा  न्यायालय की शक्तियों का पृथक्करण होना चाहिए . जब प्रजातंत्र की व्यवस्थाएं लागू की गयीं तो उसके सिद्धांत का पालन किया गया . प्रजातंत्र में चूंकि राजा जनता होती है जिसकी ओर से ये व्यवस्थाएं लागू की जाती हैं , अतः यह प्रयास किया जाता है कि सरकार का कोई एक भाग दूसरों पर हावी न हो सके .   इसलिए तीनों में से न कोई बड़ा है न कोई छोटा . इनमें से न्यायालय  की भूमिका इसलिए विशिष्ट हो जाती है कि उसे सामान्य लोगों के साथ उन सत्ताधारियों  पर भी नियंत्रण करना होता है जो अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते हुए धन और संपत्ति लूटने को आतुर होते हैं . अधिकांश क्षेत्रों में तो न्यायालय अपराधियों और भ्रष्टाचारियों का साथ देने वाले होते हैं क्योंकि न्यायाधीशों को जो पैसे देता है या बहुत अच्छा वकील कर सकता है  सामान्य रूप से न्याय उसी के पक्ष में जाता है . भारत को ही लीजिये यहाँ अपराध तो खूब होते हैं परन्तु अपराधी  नहीं होते . अपराधी पकड़ में नहीं आते हैं इसीलिए तो तीन करोड़ से अधिक मुकदमें चल रहे हैं .अपराधी सोचता है पहले से मुकदमें चल रहे है ,उससे क्या होता है जो मर्जी हो करते जाओ ,एक- दो मुकदमें और हो जायेंगे तो क्या फर्क पड़ता है . पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी प्रशंसा के पात्र है जिन्होंने मुहिम चला रखी है कि अपराधी राष्ट्र पति भी होगा तो उसे नहीं छोड़ेंगे . यदि वहां के नेता सोचते हैं कि यह टकराव अच्छा नहीं है तो उन्हें प्रारंभिक जाँच करनी चाहिए और यदि ज़रदारी प्रथम दृष्टया दोषी पाए जाते हैं तो उन पर महा अभियोग लगाकर उन्हें सत्ता से हटा देना चाहिए और न्यायालय के हवाले कर देना चाहिए जैसा लोकतान्त्रिक देश अमरीका में होता है . यदि न्याय व्यवस्था का उद्देश्य बड़े लोगों को मनमानी करने देने का है , उन्हें बचाने का है , तो लोकतंत्र का ढोंग करने की आवश्यकता नहीं है .