सोमवार, 18 मार्च 2013

मंहगाई का अर्थ शास्त्र


                                     मंहगाई का अर्थ शास्त्र

     वर्तमान में भारत में जो अर्थ शास्त्र चल रहा है , वह मंहगाई का अर्थ शास्त्र है . यह मंहगाई  का अर्थशास्त्र इसिये कहा जाता है कि इसका उद्देश्य ही महगाई बढ़ाना है . जो लोग समझते हैं की भविष्य मे कभी मंहगाई कम हो जायगी तो यह उनकी भूल है . इसी का दूसरा नाम है पूंजीवादी अर्थशास्त्र अर्थात निरंतर पूँजी बढ़ाते जाओ . मंहगाई बढ़ने का अर्थ है पूंजीवादी कि पूँजी बढ़ना . सुधारवाद का भी यही अर्थ है कि अमीरों कि पूँजी निरंतर बढती जाये . दुनिया के अनेक उन्नत कहे जाने वाले देशों ने इसे अपनाया है और अब भारत भी वही सब कर रहा है जिससे भारत में भी पूंजीवादियों और पूंजीपतियों कि संख्या तेजी से बढती जा रही है .
     भारत में डा. मनमोहन सिंह इसके प्रणेता हैं . भारत में कम्युनिस्टों के साथ मिलकर इंदिरा गाँधी ने समाजवादी व्यवस्थ लागू की थी . जब उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो यही दलील दी थी  कि पूँजीवादी लोग बड़े दुष्ट होते हैं . वे गरीबों का शोषण करते हैं . निजी बैंक पूंजीपतियों और जमाखोरों को उधार में धन देते है जिससे वे सामानों को खरीद कर भंडारों में जमा कर लेते हैं और काला बाजारी कर के भारी मुनाफा कमाते हैं . उनके समय में उद्योगपति और व्यवसायी देश और समाज के दुश्मन समझे जाते थे . इसलिए उस समय कांग्रेस के सहयोगी कम्युनिस्टों ने श्रमिक संघों के द्वारा सरकर  पर दबाव डाल कर ऐसे श्रमिक क़ानून बनवाये कि देश में सदियों से चले आ रहे उद्योगपतियों के आलावा कोई सर उठा ही न सके . वे इसलिए चल पा रहे थे कि नेताओं को आये दिन धन देते रहते थे . धन खाने के दूसरे साधन थे सरकारी विभाग और सहकारी संस्थाएं . उस समय जनता अपनी गाढ़ी कमाई से जो धन कर के रूप में सरकारी कोष में जमा करती , सरकारी चोर उन्हें खा जाते जिससे देश का धन धीरे-धीरे समाप्त होता गया .भ्रष्ट  नेता – अफसर – कर्मचारी बिना कोई उत्पादन किये , बिना कोई व्यवसाय किये  ही पूंजीपति बनते गए . ये लोग १९९० तक देश का सारा धन चट कर गए और सरकार  चलाने के लिए देश का सोना विदेश में गिरवी रखना पड़ा . वह थोडा सा धन भी कब तक चलता ? काम चलाने के लिए सरकार नोट भी छापती गयी जब कि उतना धन कोष में नहीं था . परिणाम स्वरूप रुपये का मूल्य घटता गया . सामान खरीदने के लिए अधिक रुपये लगने लगे अर्थात मंहगाई बढ़ने लगी . अपने देश में अनेक आधुनिक मशीनों , उपकरणों जहाज़ों , युद्ध सामाग्रियों आदि का उत्पादन होता नहीं था . उन्हें खरीदने के लिए धन कहाँ से आता ? विदेशी लोग हमारे  कागज़ के रूपये पर सामान क्यों देने लगे . देश का सोना भी गिरवी में रखा हुआ था तो कर्जा किस आधार पर मिलता ? ऐसी हालत में एक व्यक्ति गुजारा कैसे चलाता है ? उसे घर का सामान बेचना पड़ता है . जब इंदिरा – राजीव दोनों नहीं रहे  और नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री तथा डा. मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने तो जिंदगी भर इंदिरा – राजीव के समाजवाद की  हाँ में हाँ मिलाने वाले अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह पलट गए और उन्होंने खुली अर्थ व्यवस्था अर्थात जिसे जैसा अच्छा लगे करे और धन कमाए तथा देश की  जमा पूँजी जो सरकारी कंपनियों , प्राकृतिक संसाधनों के रूप में शेष थी , को बेच कर धन प्राप्त करने का विदेशियों का सुझाव मान लिया . धन आने लगा और सरकार चल पड़ी . वर्षों से सरकार लोगों को पूँजी पतियों के भूत से डराती आ रही थी , अब अचानक पूंजीवाद का गुणगान कैसे करती? अतः उन्होंने संविधान से ‘समाजवादी ‘ शब्द तो नहीं हटाया पर पूँजी वाद लागू कर दिया और उस पर जनकल्याण का लेबल लगा दिया कि नेता भी खाएं , अफसर – कर्मचारी भी खाएं और जनता भी खाए . जिसका जितना जोर हो वह उतना खाए . जैसे जो जमीन पर कब्ज़ा कर ले , जमीन उसकी , जो नौकरी पर कब्ज़ा कर ले नौकरी उसकी , जो गरीबी का कार्ड बनवा ले सारी  सुविधाएं उसकी . कुल मिलाकर जो जैसा हथकंडा अपना ले, लूट उसकी .  इस अर्थ शास्त्र का परिणाम यह निकला कि देश में संत्री से मंत्री तक सभी मालामाल होते गए और देश बेहाल होता चला गया . अब  डा. सिंह को देश को यह समझाना पड़  रहा है कि  विदेशी  धनवान  आकर ही देश को चला पायेंगे . इंदिरा गाँधी पूँजी पति नाम के जिस भूत का नाम लेकर लोगों को डराया करती थी और लोग उसके डर के कारण उसे वोट देते जाते थे  अब वर्तमान कांग्रेसी सरकार लोगों को किसी दलाल नाम के खतरनाक जंतु का नाम लेकर भयभीत कर रही है और उससे निपटने के लिए महान विदेशी पूंजीपतियों को , जो अपना देश तबाह कर चुके हैं , भारत बुलवा रही है . पहले  कांग्रेसी विपक्षियों को पूंजीपतियों का दलाल कहते थे और अब दलालों का दलाल कह रहे हैं क्योंकि पूंजीपति अब  कांग्रेस के हितैषी हो गए हैं , अत्यंत प्रिय हो गए हैं . इसलिये सरकार उनकी पूंजी बढाने का  हर सम्भव प्रयत्न कर रही  है. उनकी पूँजी तभी बढ़ेगी जब वस्तुएं मंहगी होंगी अर्थात मंहगाई बढ़ेगी . इसलिए जब सरकार का कोई मंत्री या तथाकथित अर्थशास्त्री मंहगाई कम करने कि बात करता है तो यह मान कर करता है कि जनता मूर्ख है और उसे निरंतर बहलाना,फुसलाना और हसीं सपने दिखाना संभव है .लेकिन जब जनता जागती है तो फ़्रांस जैसी क्रांति करती है अथवा पश्चिम एशियाई देशों के समान उथल- पुथल .   
     


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