कल्याणकारी सरकारों का सच :बजट की
भूलभुलैया कब तक
किसी व्यक्ति , कंपनी या सरकार के बजट का एक ही
अर्थ है कि आय कितना है और व्यय कितना है . यदि आय आय अधिक और व्यय कम है तो
जिंदगी आराम से चलती रहती है . यदि आय कम है तो अधिक खर्च के दो रास्ते हैं – आय बढाएं
या उधार लें और यदि साख नहीं है तो गिरवी
रख कर कर्ज लें अथवा घर का सामान बेचें .राष्ट्र के सम्बन्ध में सामान बेचने का
अर्थ है सरकारी कम्पनियाँ बेचना और प्राकृतिक संसाधन बेचना जैसे खदानें , नदियाँ
,बंदरगाह, वन ,भूमि आदि .इससे सरकार कि आय
और कम होती जाती है .व्यक्ति ,कम्पनी और सरकार ,सभी स्तर पर यदि कर्ज लेने का
उद्देश्य आय में वृद्धि करना है ,तब तो भविष्य में कर्ज चुका दिए जाते हैं ,
स्थिति अच्छी होती जाती है परन्तु यदि कर्ज का उद्देश्य अनावश्यक व्यय बढ़ाना है
जैसे विवाह या दिखावे के लिए मंहगे और फालतू सामान खरीदना जिनकी भरपाई उस आय में
संभव नहीं होती है तो व्यक्ति क्रमशः तनाव में फंसता जाता है और आत्महत्या तक करने
को बाध्य हो जाता है .राष्ट्र के सम्बन्ध
में स्थिति में थोड़ा अंतर होता है . इसमें
शासक लूट-खसोट से से अपना काम जब तक चलता है , चलाता है . परन्तु कुव्यवास्थाएं
बढ़ते जाने से किसी भी समय उसका शासन समाप्त हो जाता है . उसकी हत्या और कंगाली
तक भी संभव है. लोकतान्त्रिक व्यवस्थों में कोई स्थायी राजा नहीं होता है .
सरकारें ,मंत्री , अधिकारी आते -जाते रहते हैं और अपनी ताकत के अनुसार लूट –
भ्रष्टाचार द्वारा अपना खजाना भरते रहते हैं.लोगों को मूर्ख बनाने के लिए जब तक
संभव होता है . वे अतिरिक्त नोट छापकर तथा वस्तुओं के भाव बढ़ाकर काम चलाते जाते है
जिससे मुद्रा का मूल्य कम होता जाता है और मंहगाई बढ़ती जाती है , विदेश व्यापार बुरी तरह नष्ट होने
लगता है , भुगतान असुंतलन पैदा हो जाता है जिससे सरकार की आय तीव्रता से घटने लगती
है . इसका घातक प्रभाव भावी पीढ़ी को उठाना पड़ता है .
जब सरकार किसी भी प्रकार से धन जुटाने में
सक्षम नहीं हो पाती है तो व्यय कम करने के लिए मुख्य रूप से तीन प्रभाव पड़ते हैं .
प्रथम प्रभाव कर्मचारियों की संख्या पर पड़ता है . खाली पद भरे नहीं जाते हैं ,
अनेक पद समाप्त कर दिए जाते हैं तथा अनेक नियुक्तिययां काम चलाऊ ढंग से अस्थायी रूप से की जाती हैं .
इससे नौकरी में शेष बचे लोगों पर काम का बोझ बढ़ जाता है , वे तनाव ग्रस्त और बीमार
होने लगते हैं , जनता को उन सेवाओं का लाभ
उचित रूप से नहीं मिल पता है . बेरोजगारी बढ़ती जाती है . लोगों की आय कम होने से
उनकी क्रय शक्ति कम होती जाती है अर्थात मंदी
आती जाती है , उद्योग-धंधे चौपट होने लगते हैं . कुल मिलाकर कम आय –
बेरोजगारी – मंदी – मुद्रास्फीति – मंहगाई का दुष्चक्र चल पड़ता है और बढ़ता जाता है
.
धन की कमी का दूसरा प्रभाव लोक सेवाओं पर पड़ता
है . सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य ,रक्षा , पुलिस , न्याय-व्यवस्था आदि के व्यय कम
करती जाती है . इससे लोग मंहगे विद्यालय , अस्पताल आदि के चक्कर में फंसते जाते
हैं , क़ानून-व्यवस्था नष्ट होती जाती है .जनता –कर के दम पर नेता अपनी सुरक्षा तो कमांडो लगाकर कर लेते हैं
परन्तु जनता को भय और आतंक के वातावरण में जीने के लिए बाध्य करते जाते हैं .
प्रारम्भ में तो लोकतांत्रिक सरकार अमीरों से
नोट और गरीबों से वोट लेने के लिए अमीरों को ठेके तथा गरीबों को अनेक सब्सिडी देती
रहती है , परन्तु जब अंतिम अवस्था आने लगती है तो गरीबों को मिलने वाली सब्सिडी
धीरे – धीरे कम होती जाती है . सोनिया – मनमोहन की सरकार ने पहले पेट्रोल पर और अब डीज़ल पर
सब्सिडी समाप्त कर दी है , गैस पर कम कर दी है . आने वाले समय में किसानों और
गरीबों को दी जाने वाली बिजली ,खादों – खाद्यानों पर भी सब्सिडी हटानी पड़ेगी तथा समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने
की योजना भी समाप्त करनी होगी . यदि वर्तमान दिशा में देश की अर्थ व्यवस्था चलती
रही तो अगले ५ वर्षों में ये हालात पैदा हो सकते हैं .
ग्रीस , यूरोपीय संघ का सदस्य है , उसे
मित्र देश सहायता करते जा रहें हैं पर कब तक करेंगे , परन्तु भारत का तो विश्व में
एक भी मित्र नहीं है , भारत का क्या होगा अभी जनता को सोचने कि फुर्सत नहीं है . यह
ध्यान रहे कि वर्तमान स्थिति का मुख्य कारण अधिकाँश पदों पर अयोग्य और भ्रष्ट व्यक्तियों की नियुक्ति है जो अपने हितों के लिए देश को निर्ममता से संघर्ष
और असुरक्षा की ओर धकेलते जा रहे हैं.
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