मंगलवार, 19 मार्च 2013

म.प्र. उच्च शिक्षा विभाग के तुगलकी आदेश


                 म.प्र. उच्च शिक्षा विभाग के तुगलकी आदेश
   म.प्र.का उच्चशिक्षा विभाग तुगलकी आदेश निकालने में सिद्ध हस्त है .अभी एक आदेश निकाल दिया कि सीधी भरती से नियुक्त प्राध्यापकों का वेतन आधा करेंगे .भला क्यों ? क्योंकि यह हमारी मर्जी .इनसे कोई पूछे कि जब आप नियुक्तियां दे रहे थे , उस समय जो वेतन देना शुरू किया , तब आपको यह नहीं पता था कि वेतन कितना दिया जाना चाहिए ? इस से एक बात तो साफ़ हो जाती है कि उच्च शिक्षा विभाग के अधिकारी , आयुक्त, प्रमुख सचिव तथा स्वयं मंत्री महोदय भी बड़ी-बड़ी बातें करके उच्च शिक्षा की  गुणवत्ता बनाने के चाहे कितने ढोल पीट लें , उन्हें अपने विभाग में कार्यरत कर्मचारियों , अधिकारियों , शिक्षकों के पद ,उनके काम और उनके वेतन के बारे में कुछ भी ज्ञान नहीं होता  है . जब इन्हे वर्तमान का ही अता  पता नहीं है तो इसका इतिहास- भूगोल क्या पता होगा .एक बार एक महाविद्यालय  के कार्य क्रम में उच्च शिक्षा कि अतिरिक्त मुख्य सचिव अपना विद्वता पूर्ण उद्बोधन दे रहीं थीं . उन्होंने शिक्षकों को व्याख्याता कहा . उन्हें यह ज्ञान ही नहीं था कि व्याख्याता महाविद्यालयों में नहीं विद्यालयों में होते हैं . यह वैसे ही था जैसे शासन के सचिव या वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी  को कोई डिप्टी कलेक्टर कह दे .उनको ज्ञान देने का साहस कौन करता  ?
     भारत में पहले महाविद्यालयों में व्याख्याता और रीडर होते थे तथा विश्वविद्यालयों में उससे बड़े,  प्राध्यापक होते थे . रीडर का अर्थ था कि वे स्नातकोत्तर विभागों के मान्य (कार्यवाहक नहीं) विभागाध्यक्ष होंगे .परन्तु म.प्र. में १९७० के पहले से ही स्नातकोत्तर विभाग के अध्यक्ष को प्राध्यापक पदनाम दे दिया गया था . १९७६ में यू जी सी लागू करने के लिए हड़ताल करनी पड़ी थी . सरकार वेतन मान तोड़-मरोड़ कर  दे रही थी . उसमें महाविद्यालयों में सिर्फ व्याख्याता का पदनाम ही दिया गया था परन्तु सरकार ने उनमें फूट डालने के लिए प्राध्यापक का पदनाम जारी रखकर उनको व्याख्याताओं से फोड़ लिया . १९८६ में यू जी सी
वेतनमान में शिक्षकों के पदनाम सहायक प्राध्यापक , सहायक प्राध्यापक (वरिष्ठ श्रेणी ) , सहायक प्राध्यापक(प्रवर श्रेणी )रखे गए परन्तु म.प्र.में उसके आगे प्राध्यापक का पुराना रुतबा भी बरकरार रखा गया .उस समय स्नातकोत्तर के अलावा स्नातक स्तर पर भी  प्राध्यापक बनाए जाने लगे . वेतन सहायक प्राध्यापक(प्रवर श्रेणी ) तथा  प्राध्यापक के सामान थे . परन्तु यह परिभाषा दी गई कि ये असली प्राध्यापक नहीं हैं सिर्फ सहायक प्राध्यापक(प्रवर श्रेणी ) से थोड़े वरिष्ठ हैं . पुराने प्राध्यापकों के पद पूर्ववत बने रहे .इनके अलावा पहले से ही म.प्र.में सीधे भरती से भी प्राध्यापक नियुक्त होते थे जिनका रुतबा अधिक रहता था . प्राचार्य पद पर पदोन्नति के लिए सीधे भरती से आने वालों के लिए २५% पद आरक्षित रहते थे . अतः वे बड़ी जल्दी पदोन्नत हो जाते थे . सरकार इन मेल-मेल के प्राध्यापकों में मौका मिलते ही वरिष्ठता के झगड़े  करवाने और उन्हें मुक़दमे बाजी में उलझाने में माहिर रही है .ऐसा अनेक बार होता आया है कि जो लोग पहले व्याख्याता या सहायक प्राध्यापक तक नहीं बन पाते थे ,वे प्राध्यापक की सीधी भरती में सफल हो जाते थे.
    जब म.प्र. सरकार ने प्रारम्भ से ही यू जी सी के पदनाम से हटकर रीडर के ऊपर अपना एक प्राध्यापक का पद चला रखा है तो अब अचानक यू टर्न लेने का क्या अर्थ है ? किसी का वेतन मान एक झटके में आधा कर देना क्या यह नहीं दर्शाता कि उच्च शिक्षा विभाग में कोई नियम –क़ानून नहीं है ? सरकार के इस आदेश से यह तो पूर्णतयः स्पष्ट हो गया है कि उच्च शिक्षा विभाग प्रारम्भ से अब तक अज्ञानी लोग चला रहे थे या अब अज्ञानी लोग घुस आये हैं .
भ्रष्टाचार के इस युग में इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि पहले यदि तथा कथित अधिक वेतन दिया गया हो तो उसका कारण वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा नव-नियुक्त प्राध्यापकों से कमीशन लेते रहना हो और जब उन्होंने एका  करके कमीशन देना बंद कर दिया हो तो यह शिगूफा छोड़ दिया हो क्योंकि कोई किसी को अधिक सरकारी धन क्यों देने लगा   स्थानान्तरण के समय  तो ऐसे किस्से  सुनाई देते रहते हैं .

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