बुधवार, 18 अप्रैल 2012

स्कूल शिक्षा की बर्बादी

                                                                     स्कूल शिक्षा की बर्बादी 

रजत पथ में पूर्व में अनेक बार लिखा जा चुका है कि म. प्र. सरकार योजना बद्ध तरीके से शिक्षा व्यवस्था  को बर्बाद कर रही है , इस धारणा  की पुष्टि राज्य सरकार स्वयं कर रही है . स्कूलों में बच्चों को दो ड्रेस के लिए ४०० रुपये दिए जाते हैं जितने में दो ड्रेस नहीं आती हैं . यह पैसा बच्चो को चेक से दिया जाता है . यह इस बात का प्रमाण है कि सरकार जानती है कि यदि नगद राशि दी जायगी तो भृत्य से मंत्री तक सब भ्रष्ट होने के कारण बच्चों तक पैसा नहीं पहुँच पायेगा . ४०० रुपये लेने के लिए उन्हें ५०० रुपये का खाता खुलवाना पड़ता है . छात्र- छात्राएं  स्वयं या उनके माता -पिता को बैंक जाकर चेक जमा करवाना पड़ता है , चेक का पैसा खाते में आने के बाद उसे लेने जाना पड़ता है , दो- तीन बार बैंक तक आने- जाने में समय तथा धन दोनों बर्बाद होते हैं यदि थोड़ी घूंस कि बात होती तो सरकार और लोग दोनों उसे बर्दाश्त कर लेते . लेकिन मुख्यमंत्री जानते हैं कि उनके अधीनस्थ कितने भ्रष्ट हैं , इसलिए भुगतान चेक से करना पड़ता है . स्कूल शिक्षा के लोगों के भ्रष्ट होने के कारण बेचारे  बैंक कर्मी लाखों लोगों का अनावश्यक बोझ सह रहें हैं . सरकार का वे कुछ कर नहीं सकते , अन्य लोगों की बैंक सेवाएं कम हो रही हैं . परिणाम स्वरूप जिनके  पास अधिक धन होता है वे निजी बैंकों में चले जाते हैं और सरकारी बैंक अच्छी सेवाएं न दे पाने के कारण बदनाम होते हैं .
     यदि सरकारी लोग ईमानदार होते तो ड्रेस बनाने  का ही नहीं, ड्रेस के कपडे बनाने की  मिल भी सरकार चला सकती थी जिससे अनेक लोगों को रोजगार मिलता  . सरकार ने अपने स्कूल इतने बदनाम कर लिए हैं कि घरों में काम करने वाली महिलाएं भी  अच्छे भविष्य के लिए बच्चों को सरकारी स्कूल नहीं भेजना चाहती हैं .बदनामी छुपाने के लिए स्कूलों की  ड्रेस  बदलने का सिद्धांत रखा जा रहा है और इस छूट के साथ कि स्कूल स्वयं तय कर लें कि उनके स्कूल में कौन सी ड्रेस होगी . इस कानून के लागू होते ही सभी स्कूल अपने निकट तम अच्छे निजी स्कूल कि ड्रेस अपने स्कूलों में लगा देंगे ताकि बच्चों को स्कूल आने - जाने में शर्म न लगे और यदि किसी के पूछने पर बच्चा किताब भी न पढ़ पाए या जोड़ - घटाओ भी न कर पाए  तो लोग समझ ले कि निजी स्कूल का स्तर भी सरकारी जैसा हो गया है . यदि सरकारी स्कूलों का स्तर अच्छा होता तो यही ड्रेस उनकी शान होती .
        अभी तक सरकारी अफसर राज्य के निजी  स्कूलों का ही शोषण करते थे . भला हो अनिवार्य शिक्षा कानून का . अब इन भ्रष्ट अफसरों को सी बी एस ई के स्कूलों को भी फंसाने का अवसर मिल गया है . कानून में कहा गया है कि निजी स्कूलों में निःशुल्क भरती करवाए गए बच्चों का व्यय शासन वहन करेगा . अफसरों ने निजी स्कूलों में अपने बच्चों के प्रवेश तो करवा दिए परन्तु उनके लिए अभी तक फूटी कौड़ी भी नहीं दी है . व्यय देने के माप - दण्ड स्कूल के अनुसार न रख कर मनमाने ढंग से तय कर दिए हैं , अधिकतम रुपये २६०७प्रति छात्र , प्रति वर्ष . स्कूल की  फीस यदि अधिक होगी तो वे इतने ही देंगें , यदि किसी स्कूल कि फीस इससे कम होगी तो वे कम पैसे देंगे . सरकार का अर्थ ही है अपने मनमाने ढंग से काम करना .
     मुख्यमंत्री शिवराज चौहान प्रदेश भर में बड़े- बड़े अपने फोटो लगे पोस्टरों से समय सीमा में काम होने का बिगुल बजा रहे हैं , फिर पूरा साल बीतने के बाद भी अभी तक उन गरीब बच्चों की  फीस क्यों नहीं दी गई ?ईमानदार मुख्यमंत्री एक भी ऐसा सरकारी या निजी संस्था का उदाहरण बताएं जहां मुफ्त में आरक्षण किया जाता हो और साल भर सीना जोरी से सेवाएं लेने के बाद  उसके लिए एक पैसा भी न दिया गया हो . रजत पथ में यह पूर्व  में ही लिखा गया था कि सरकार पैसे आसानी से नहीं देगी . यदि यह भ्रष्टाचार नहीं है तो एक साल तक फीस रोकने का क्या अर्थ था ?
अब स्कूलों से कहा जा रहा है कि पहले बच्चों की ८०% उपस्थिति का प्रमाण पत्र दो . यदि छात्र प्रवेश लेने  के बाद स्कूल नहीं आये तो क्या उसका नाम काटने का कोई नियम है ?क्या उसे डांटने का अधिकार किसी शिक्षक को है ? यदि छात्र परीक्षा में सादी कापी छोड़  आये तो उसे फेल करने का कोई नियम है ? यदि छात्र परीक्षा देने ही न जाय तो क्या उसका नाम काटने का कोई नियम है , या उसे फेल करने का कोई नियम है ? निजी स्कूलों  पर ८०% उपस्थिति पूरी करने दायित्व किस नियम से डाला जा रहा है ?जिन अफसरों ने उनके प्रवेश कराये हैं , उन्हें स्कूल तक लाने -ले जाने और यदि पढ़ने में कमजोर हों तो अतिरिक्त ट्यूशन की  व्यवस्था का दायित्व भी उन अफसरों को क्यों नहीं दिया जा रहा है ?सरकार को यह सोचने का क्या अधिकार है कि सरकारी कुर्सियों पर नीचे से ऊपर तक तो भ्रष्ट जम गए हैं , जो नीचे खड़े हैं या नीचे घूम रहे हैं , वे विशुद्ध रूप से सेवा भाव से काम करें और उनके उलटे -सीधे इशारों पर नाचते जाएँ ! सरकारी स्कूलों में तो झूठे आंकड़े बनाकर उपस्तिथि और नम्बर भर दिए जाते हैं .क्या विदेशी कंपनियों को अपना व्यापार चलाने के लिए अब निजी स्कूल उसी प्रकार बर्बाद करने कि योजना बनाई गई है जैसे पूर्व में निजी स्कूलों के लिए सरकारी स्कूल बर्बाद किये गए थे ?
      सरकारी स्कूलों में क्या होता है ? स्कूल खुलने के दिन बच्चों की  आरती उतार ली . विवेकानंद जयंती पर सामूहिक सूर्य नमस्कार कर लिए . सारे साल शक्षकों को पढाने के अलावा अनेकों प्रकार के कामों में  उलझाए रखना ताकि वे पढ़ा न पायें . स्कूलों में ताला बंदी , न बैठने कि जगह , न फर्नीचर , न पीने का पानी , न टायलेट . २० बच्चों को दोपहर का भोजन कराया झूठी उपस्थिति अनेकों कि लगा दी , बीच का पैसा खा गए . स्कूल के सरकारी अफसरों को इन स्कूलों से क्या मिलेगा ? सब मिलकर निजी स्कूलों पर आक्रमण कर रहे हैं ताकि उनका दोहन किया जा सके . जब स्कूल प्रबंधन और प्राचार्य इन भ्रष्ट अफसरों के आगे नत मस्तक हो जायेंगे तो उनका पेट भरने के लिए बेचारे सीधे - सादे बच्चों की  पढाई चौपट होगी और इस भ्रष्टाचार का  हर्जाना भी इनके अभिभावकों को देना होगा . यह पहला वर्ष था . प्रारंभिक कक्षा में १५ से ३० बच्चे तक ही भरती हुए थे जिनकी फीस देने का वायदा सरकार ने किया था . अतः स्कूलों ने उस अनुपात में अन्य बच्चों की  फीस अभी नहीं बढ़ाई है परन्तु ये स्कूल, जो शिक्षा  के साथ धन कमाने के लिए बने हैं स्वयं घाटा क्यों सहेंगे ? 
   सरकारी स्कूलों में अपवाद भी हैं . अनेक माडल स्कूल और उत्कृष्टता विद्यालय बहुत अच्छे हैं . पता नहीं सरकार को किससे शर्म आती है या किससे  डरती है कि ऐसे अन्य विद्यालय नहीं खोल रही है . निजी स्कूलों को फीस देने , उसमें भ्रष्टाचार के  रास्ते ढूँढने में सरकार अपनी ऊर्जा क्यों लगा रही है . अच्छे सरकारी विद्यालय चलाओ , बच्चे स्वतः उधर आकृष्ट होंगे. 
    निजी  स्कूलों  में  प्रवेश  के  लिए आस-पास के वार्ड का फार्मूला लागू किया गया है . अमरीका में ऐसा इसलिए होता है कि सबको १२ वीं तक अनिवार्य एवं निःशुल्क  का अधिकार है . वहाँ स्कूल के सारे व्यय उसके निकट के वार्डों के मकानों से प्राप्त गृह-कर से चलते हैं जबकि हमारे यहाँ तो नगर निगम द्वारा वसूले गए गृह -कर का उपयोग उन कॉलोनियों पर भी नहीं किया जाता है जहां से वे वसूले जाते हैं . फिर  पास और दूर के वार्ड  का क्या अर्थ है . इस तरह तो भोपाल में जे के रोड पर रहने वाले बच्चों का प्रवेश डी पी एस और आई पी एस जैसे स्कूलों में कभी भी नहीं हो सकेगा .अगर अमरीका कि नक़ल करनी ही है तो पूरी तरह करो . सिद्धांत अमरीका का और कानून भारत के ताकि बच्चों को मिलने वाले लाभ को न्यूनतम किया जा सके .
      निजी स्कूलों और सरकार के मध्य सहयोग के  सम्बन्ध में पूछने पर सहोदय के सचिव एवं आई पी एस स्कूल के प्राचार्य  श्री कालरा  ने बताया कि उन्हें पिछले वर्ष भरती कराये गए बच्चों कि फीस  अभी तक नहीं मिली है इस वर्ष पुनः बच्चे भरती करवा दिए हैं . उन्होंने बताया कि गरीबी का कार्ड बनवाकर ऐसे बच्चों के प्रवेश भी करवाए गए हैं जो इनोवा कार से आते हैं . उनके घर के लोग कपड़ों और गहनों से भी विभूषित होते हैं . इसका अर्थ है जिन गरीब बच्चों के लिए यह क़ानून बनाया गया है ,सरकार की मदद से  उनके स्थान  पर लाभ अन्य लोग ले रहे हैं . सरकार से पूरा सहयोग करने के बाद भी निजी स्कूलों को परेशान किया जा रहा है .अभी तो शिक्षा का स्तर बनाए रखने के लिए उनका संगठन एक जुट है . परन्तु सरकारी अफसर , जो अपने स्कूल चौपट कर चुके हैं , निजी स्कूलों पर अनावश्यक दबाव बना रहे हैं .कुछ प्राचार्य तो बातचीत में सहमें - सहमें से लगे . सरकार ने पिछले साल भरती किये गए बच्चों की फीस अभी तक नहीं दी है बाकी सब अच्छा है , बहुत धीरे से वे इतना ही कह पाए .
       यदि कालरा साहब की  बात में सच्चाई है तो यह स्थित आपत्ति जनक है . प्राचार्य पुलिसकर्मी या सी बी आई का अफसर तो है नहीं की उनके घर जाकर छापा मारे और मुकदमें चलाये और  सरकारी गरीबी कार्ड को झूठा सिद्ध करने के लिए स्कूल  छोड़ कर कोर्ट कचहरी करता फिरे . जिस सरकारने उसको गरीब घोषित किया और जिसने अपने सामने उसके बच्चे का  प्रवेश करवाया , इसमें किस-किस कि मिली भगत हो सकती है ? उसके पास प्रत्यक्ष तो धन नहीं है पर वह मालामाल है .उसके पास सारा धन काला धन है जिसकी   ये सरकारी लोग सेवा भाव से  मदद कर रहे हैं . उनमें कुछ तो सम्बन्ध होगा ! बच्चे अपनी कापी किताबें , ड्रेस स्वयं लें , आना जाना स्वयं करें . सरकार की  यह घोषणा इस तथ्य कि पुष्टि करती है कि उसने अमीरों का प्रवेश करवाया है और इसलिए वे व्यवस्था स्वयं करें और वे बिना आपत्ति , सारे व्यय ख़ुशी -ख़ुशी करते भी जा रहे हैं .कुछ गरीब बच्चों को भी लाभ मिला है परन्तु जो बड़े स्कूलों की फीस के अलावा सारे व्यय वहन कर सकता है , कम से कम वह उतना गरीब तो नहीं है जिसकी परिभाषा योजना आयोग और केन्द्रीय सरकार ने दी है . यदि वे वास्तव में गरीब होते तो फीस के अलावा अन्य सुविधाएं भी मांगते .यदि यह भी मान लिया जाय कि अनेक शहरी बच्चों को निजी स्कूलों में भरती करने से उन्हें बहुत लाभ हो रहा है तो सरकार ग्रामीण बच्चों के लिए गाँव - गाँव में अच्छे निजी स्कूल कहाँ से लाने वाली है ? क्या उन्हें समान अवसरों से वंचित रखने का काम सरकार स्वयं नहीं कर रही है ?अवसरों की असमानता क्या संविधान का उल्लंघन नहीं है ?  गरीबों की  अनिवार्य शिक्षा का इतना ही फसाना है .
     






        























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