शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

आज़ादी की आहट

Aazadi Ki Aahat Feb10

एडवोकेट परीक्षा अव्यवहारिक

एडवोकेट परीक्षा अव्यवहारिक
इस वर्ष प्रथम बार वकालत करने के लिए एल -एल .बी.उत्तीर्ण करने के बाद एक योग्यता परीक्षा भी उत्तीर्ण करनी होगी जिसका आयोजन बार काउन्सिल आफ इंडिया कर रही है .यद्यपि राज्यों के बार काउन्सिल ने इसका विरोध किया है ,परन्तु परीक्षा होगी और इसे उत्तीर्ण करना अनिवार्य होगा यदि न्यायालय जा कर वकालत करनी है । परीक्षा का औचित्य समझ से परे है । यदि इसके लिए छात्रों के विधि ज्ञान को न्यून स्तर का माना जा रहा है तो यह दोष बार काउन्सिल का ही है क्योंकि इसने बिना शिक्षक , बिना किसी सुविधा वाले अनेक शासकीय एवं अशासकीय महाविद्यालयों को विधि शिक्षा के लिए अनुमति दे रखी है . अनेक महाविद्यालयों में एक भी नियमित शिक्षक नहीं होते हैं ,बार काउन्सिल ने उनकी न तो मान्यता समाप्त की न ही उन पर शिक्षकों की नियुक्ति के लिए दबाव बनाया। अनेक छात्र कॉलेज जाते ही नहीं हैं .उनकी उपस्थिति के लिए कभी प्रयास नहीं किये गए . महाविद्यालयों में पुस्तकालयों में कानून की पुस्तकें हैं या नहीं ,कभी नहीं देखा गया । बार काउन्सिल को कानून शिक्षा व्यवस्था पर पूरा नियंत्रण रखना चाहिए।
राष्ट्रीय विधि महाविद्यालयों में कठिन प्रवेश परीक्षा के पश्चात ५ वर्षीय विधि स्नातक पाठ्यक्रम में प्रवेश दिए जाते हैं । अनेक अन्य विधि संस्थानों में भी स्तरीय पढाई होती है ,वहां से उत्तीर्ण छात्रों को भी यह परीक्षा देनी होगी । यह उन संस्थानों तथा छात्रों की प्रतिष्ठा के विपरीत होगा । आई.आई.टी तथा आई आई एम् से उत्तीर्ण छात्रों के भी इंटर व्यू लिए जाते हैं पर उसके पश्चात् कंपनिया उन्हें अच्छे वेतन पर नियुक्ति देती हैं । क्या बार काउन्सिल परीक्षा उत्तीर्ण करने वालों को कोई निश्चित आय का भी प्रावधान करने वाली है ? ऐसे अनेक संस्थान भी हैं जो परीक्षाएं लेते हैं ,प्रवेश के समय भी और पाठ्यक्रम पूर्ण करने पर भी . चार्टर्ड अकाउनटेंट ,कंपनी सेक्रेटरी ,ए एम् आई इ ,इलेक्ट्रानिक विभाग द्वारा 'ओ' ,'ए', 'बी','सी', स्तर की कंप्यूटर परीक्षा आदि । परन्तु इन संस्थानों के छात्रों को किसी संस्था में नियमित रूप से पढने का प्रावधान नहीं रखा गया है । कहीं भी पढो,कैसे भी पढो ,किसी भी पुस्तक से पढो ,इन संस्थाओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है .क्या भारत की बार काउन्सिल भी ऐसा प्रावधान करने जा रही है ? क्या अब विधि की शिक्षा किसी संस्थान में बिना शिक्षा ग्रहण किये ,निजी स्तर पर पढ़ कर भी उत्तीर्ण की जा सकेगी ?बार काउन्सिल यदि अपनी परीक्षा के स्तर का विश्वास करती है तो उसे इतना साहस भी दिखाना चाहिए कि अब तक जो छात्र बिना पढ़े विधि परीक्षा उत्तीर्ण करते चले आ रहे थे , उस व्यवस्था को घोषित रूप से स्वीकार कर ले ।
बार काउन्सिल आफ इंडिया को अनेक अन्य कार्य भी करने चाहिए जिससे वकीलों की प्रतिष्ठा में वृद्धि हो। वकीलों के पहचान पत्रों को सरकार मान्यता नहीं देती है । चुनाव के समय मतदान करते समय , फोन ,मोबाईल ,गैस आदि का कनेक्शन लेने में ,बैंक में एकाउंट खुलवाने में या इसी प्रकार के अन्य कार्यों में वकील को बार काउन्सिल द्वारा दिए गए पहचान पत्र को स्वीकार नहीं किया जाता है ,न ही उसे सरकार द्वारा पहचान पत्रों कि सूची में रखा गया है .उसमें राशन कार्ड , ड्राइविंग लाइंसेंस , पासपोर्ट जैसे पहचान पत्र तो हैं जिन्हें एजेंटों के माध्यम से कैसे भी बनवाया जा सकता है और यह तथ्य सभी जानते भी हैं ,परन्तु राज्यों की बार कौंसिलों द्वारा दसवीं से लेकर अंतिम उत्तीर्ण परीक्षा तक तक सभी अंक सूचिओं तथा प्रमाणपत्रों को मूल रूप से मिलान कर दिए गए पहचान पत्र सरकारी नजर में कुछ नहीं हैं। बार काउन्सिल को मुकदमें जल्दी निपटाने तथा न्यायालयों पर बोझ कम करने के प्रयास भी करने चाहिए .अनेक गरीब लोग थोड़े से अर्थदंड न चुका पाने के कारण जेलों में पड़े रहते हैं । जाँच पड़ताल के बाद सरकार से उसे माफ़ करवाने के प्रयास करने चाहिए । भूमि प्रकरणों में भारी न्याय शुल्क को कम करवाना चाहिए .इनसे वकीलों की प्रतिष्ठा बढ़ेगी ।

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

राज्यों का विघटन

राज्यों के विघटन की प्रक्रिया

स्थिर सामाजिक -राजनीतिक व्यवस्था के मुख्या कारक हैं --संस्कृतिक एकता ,वैचारिक सामंजस्य ,परस्पर विश्वास ,दूसरों का सम्मान ,उपेक्षा एवं शोषण का अभाव , स्थिर राजनीतिक व्यवस्था तथा राजनीतिक दूरदृष्टि । सामान्य विश्लेषण के पूर्व इसे मध्यप्रदेश के सन्दर्भ में समझना उपयुक्त होगा । १ नवम्बर १९५६ को महाकोशल तथा छत्तीसगढ़ मिलकर मध्य प्रदेश बना । बाद में मध्य भारत ,विन्ध्य प्रदेश एवं भोपाल राज्य का भी इसमें विलय हो गया। ४५ वर्ष पश्चात छत्तीसगढ़ इससे पृथक हो गया । मध्य प्रदेश में आज भी स्थापना दिवस पूर्व की भांति १ नवम्बर को बड़ी शानशौकत से मनाया जा रहा है । आपत्ति उत्सव मनाने पर नहीं है । दुःख इस बात का है की १ नवम्बर ही इसका विघटन दिवस भी है । मध्य प्रदेश का विघटन क्यों हुआ इस पर भी चर्चा - विचार विमर्श होना चाहिए था , जो नहीं हो रहा है । कल को अन्य क्षेत्र भी पृथक हो सकते हैं । छत्तीसगढ़ के पृथक होने का कारण उस क्षेत्र के लोगों का भारी शोषण था जिससे असंतोष उत्पन्न होता गया । छत्तीसगढ़ की प्राकृतिक सम्पदा का शोषण जम कर किया गया परन्तु उनके विकास पर ध्यान नहीं दिया गया । १९८८ में मैं जगदलपुर में पदस्थ था .जगदलपुर से विशाखा पट्टनम के लिए लौह अयस्क ढोने के लिए तो ट्रेन थी परन्तु मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल तथा उच्च न्यायालय जबलपुर आने के लिए कोई ट्रेन नहीं थी । धक्के खाते हुए पहले बस से रायपुर आइए फिर देखिए कि आगे क्या मिलेगा । कुल मिलाकर ऐसी व्यवस्था बना कर रखी गयी थी कि आदिवासी हमेशा के लिए आदिवासी बने रहें और महा पुरुष इच्छानुसार उनका शोषण करते रहें .इसी कारण से बिहार से झारखण्ड तथा उत्तर प्रदेश से उत्तरांचल पृथक हुए । हमने कोई सबक नहीं सीखा .पूर्वांचल धधक रहा है .तेलंगाना आंध्र से पृथक होने को बेताब है ।
आज कश्मीर के विघटन की कगार पर पहुँचने पर कुछ लोगों के दुखी होने से समस्या हल होने वाली नहीं है .हम आजादी का जश्न मनाते आ रहे हैं । क्या हमने कभी सोचा है की भारत का विघटन क्यों हुआ ? आजादी के पूर्व भारतीय नेताओं में दूरदृष्टि नहीं थी । स्वार्थी मुस्लिम लीगी नेताओं ने सोचा की जैसे मुस्लिमों ने सदिओं से हिन्दुओं पर अत्याचार किये है हिन्दुओं का राज होगा तो वे बदला ले सकते हैं .यह भावना सांस्कृतिक एकता के अभाव और परस्पर अविश्वास के कारण उत्पन्न हुई । गाँधी - नेहरु जिन्ना का पूरा विश्वास करते थे परन्तु जिन्ना उनकी उपेक्षा के साथ सदिओं पुरानी आक्रान्ताओं की आक्रमण नीति का अनुसरण करता था । भारत से दो पाकिस्तान अलग हुए धर्म के नाम पर । परन्तु बाद में वहां पंजाबिओं - सिन्धिओं ने बंगालिओं की उपेक्षा तथा शोषण प्रारंभ कर दिया जिससे बंगलादेश बन गया .आज पाकिस्तान भावी विघटन की ओर बढ़ रहा है । इन्हीं कारणों से शक्तिशाली कहे जाने वाले युगोस्लाविया के तीन और रूस के २४ टुकड़े हो गए । नेताओं की तो छोडिए ,क्या किसी समाजशास्त्र -राजनीतिशास्त्र के प्रोफ़ेसर ने इन पर विचार करने का प्रयत्न किया ? भारतीय राजनीति पर पाकिस्तान समर्थकों का शिकंजा कस चुका है । इसलिए कश्मीर वार्ता के लिए बनाई गई समिति ने बिना कोई प्रयास किये घोषणा कर दी कि कश्मीर का हल पाकिस्तान ही निकाल सकता है और इस संगीत में भारतीयता की चादर ओढ़े अनेक सियार हुआ -हुआ करने लगे हैं । यदि हम अब भी मनमानी करते रहेंगे , बिना चिंतन किये जश्न में डूबे रहेंगे , सियारों से डरते रहेंगे तो कश्मीर के आगे भी विघटन की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है ।

लिव इन रिलेशन शिप

कानून की भी सीमा होती है

जब स्त्री-पुरुष बिना विवाह के साथ -साथ रहते हैं ,तो उन्हें यह मानने का कोई अधिकार नहीं है की उन्हें भी उन कानूनों का लाभ मिलेगा जो समाज के शरीफ लोगों के लिए बनाए गए हैं .फिजा -चाँद मुहम्मद का प्रकरण सबके सामने है । चन्द्रमोहन के परिवार में हस्तक्षेप करने के लिए वे हिन्दू से मुसलमान बन गए । जब मुस्लिम क़ानून के अनुसार चाँद मुहम्मद ने तलाक दिया तो फिजा को हिन्दू धर्म जैसी वफ़ादारी याद आने लगी । उसे लगा की उसके साथ बड़ा अन्याय हो रहा है जबकि चन्द्रमोहन की धर्म पत्नी के साथ उसके द्वारा किये गए अन्याय को वह भूल गई.हिन्दू और मुस्लिम दोनों कानूनों का एक साथ लाभ उसे कैसे मिल सकता था ?पैसे या शरीर -सुख के लिए अथवा किसी गैर कानूनी कार्य के लिए यदि कोई महिला स्वेच्छा से किसी पुरुष के साथ रह रही है तो उसे विवाह के लाभों के लिए सोचने का भी अधिकार नहीं है । विवाह न करने का अर्थ है की वह भी किसी अच्छे अवसर पर दूसरे के साथ रह सकती है । विवाह सर्वाधिक प्राचीन सामाजिक संस्था है , बिना किसी कारण के उसका मजाक उड़ाने का किसी को अधिकार नहीं है .बिना विवाह किसी पुरुष के साथ रहने वाली महिला को शुरू से ही रखैल कहा जाता है ,रखैल माना जाता रहा है जो पुरुष की यौन संतुष्टि के लिए है। फिर न्यायाधीश उसके लिए किस शब्द का प्रयोग करते जिससे स्त्री के सम्मान में वृद्धि हो जाती ? क्या कालगर्ल अथवा सेक्स वर्कर कहने से वेश्या के सम्मान में वृद्धि हो जाती है ? ऐसे लोगों को विवाह के लाभ और सम्मान क्यों मिलने चाहिए ? विवाह से दो व्यक्तियों ही नहीं परिवारों के मध्य कर्तव्यों तथा दायित्वों का सृजन होता है .विवाह के पश्चात् संपत्ति का अधिकार सर्वाधिक महत्त्व पूर्ण है जिस पर प्रथम अधिकार स्वतः पत्नी या पति का हो जाता है .उसके पश्चात् बच्चों का अधिकार होता है और इसे समाज स्वीकार करता है .यदि स्त्री या पुरुष का विवाह नहीं हुआ है तो सम्पति पर उनके माता- पिता, भाई- बहनों का अधिकार होता है । विवाह के बिना संपत्ति के उत्तराधिकार के असंख्य प्रकारों के लिए व्यावहारिक क़ानून बनाना दुष्कर है । इसके साथ ही इससे समाज में अन्य विद्रूपताएँ भी उत्पन्न होंगी । अतः इसे यथा संभव हतोत्साहित करना चाहिए ।

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

बैंक लोगों का शोषण न करें

Bank Shoshan Feb10

नई जिंदगी

नई जिंदगी

मुझे पेट की शिकायत युवावस्था से थी । ५० वर्ष की आयु के बाद कष्ट अधिक बढ़ गए । ५५ वर्ष की अवस्था में रक्त युक्त दस्तों की संख्या १५ - २० प्रतिदिन तक हो गई । बहुत कठिनाई से ज्ञात हुआ कि बड़ी आंत में कैंसर है और दूसरी अवस्था में पहुँच गया है । चिकित्सा के लिए मैं कैंसर अस्पताल गया । वहां मुझे जो कुछ समझाया गया और जो कुछ मेरी समझ में आया कि मै इलाज करवाऊं तो २ साल और जी सकता हूँ । मुझे यह भी बतलाया गया कि मल के लिए एक थैली पेट के साइड से निकाली जायेगी जो हमेशा के लिए भी रह सकती है . मैं इस अवस्था में जीने के लिए तैयार नहीं था । घर वालों के दबाव के कारण इलाज करवाना पड़ रहा था । इलाज के बाद शासन से प्रतिपूर्ति प्राप्त हो जाए ,इसलिए भोपाल के हमीदिया अस्पताल से आवेदन अग्रेषित करवाने गया । वहां सर्जरी विभाग में मुझे डा . अरविन्द राय मिले । उन्होंने जाँच रिपोर्ट देखी और मुस्कुराते हुए बोले - "इसमें अग्रेषित करवाने कि क्या बात है । आप आज अस्पताल में भर्ती हो जाइये । आपरेशन करके दो दिनों में आपको रोग मुक्त कर देंगें ।" मैंने उनसे थैली कि समस्या बताई । उन्होंने कहा कि आपको थैली नहीं लगेगी । मैं उनकी बातों से आश्वस्त हो गया । हमीदिया अस्पताल के कैंसर विभाग के अध्यक्ष डा . ओ. पी . सिंह के निर्देश पर पहले ३ सप्ताह रेडियो थेरेपी कि गई जब कि कैंसर अस्पताल में ६ सप्ताह की थेरेपी बताई गई थी । आपरेशन से पूर्व मैंने डा . राय से कहा कि मेरे तो छोटे आपरेशन के घाव भी कई दिनों में भर पाए थे । डा .राय ने कहा ,''हम किस लिए हैं .आप कोई चिंता न करें । '' ४-५ घंटे आपरेशन चला । ९ इंच बड़ी आंत काटकर अलग कि गई । ११ दिनों में मुझे घर भेज दिया गया । लौटते समय रास्ते में मैंने स्वयं फल ख़रीदे . अस्पताल में जूनियर डाक्टरों ने इतनी तत्परता से काम किया कि मुझे पता ही नहीं चला कि मै बीमार हूँ । मैं सभी काम सामान्य रूप से करने लगा । टीम के दूसरे डा . माहिम कोशरिया से जब मैंने कहा कि पेट पर दाग है तो वे बोले , ''दाग क्यों रहेगा ?''उन्होंने एक ट्यूब लिख दी जिसे लगाने के बाद छुरी का निशान भी गायब हो गया । २१ दिनों के बाद मैं स्वयं कार चलाकर केमो थेरेपी के लिए जाने लगा । बिना किसी फीस के इतने बड़े रोग की इतनी आसानी से चिकित्सा सरकारी डाक्टर कर सकते हैं ,शायद विश्वसनीय न लगे परन्तु पिछले ४ वर्षों से ६१ वर्ष की आयु में मेरी नई जिन्दगी दौड़ रही है ।

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

राज्यपथ

Rajpath_1_feb10

म.प्र.में जन भागीदारी समितियों का मायाजाल .

म . प्र . में जन- भागीदारी समितियों का मायाजाल

१९९५ में देश की आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब थी । अपनी आय के साधन नहीं थे । विदेशों से सुविधानुसार कर्जे भी नहीं मिल रहे थे। मंत्री-अफसर रुपया नहीं खायेगा तो भूखा मरेगा। ऊपर से छुटभैये नेता बड़े नेताओं कि जान खाए पड़े थे कि तुम लोग तो मलाई खाए जा रहे हो और हम दरी बिछाने ,तम्बू तानने ,भीड़ जुटाने में धूल फांकते - फांकते मरे जा रहे हैं । अफसरों- नेताओं की अक्ल काम कर गई । एक पत्थर से दो चिड़ियाँ मार गिराईं. शिक्षा , स्वास्थ्य जैसे फालतू विभागों में शासकीय व्यय रोकने और छोटे नेताओं का पेट भरने का काम एक साथ कर लिया गया । उन्होंने जनभागीदारी नाम की अवैध संस्थाएं पैदा कर दीं और जबरन उनका पंजीयन रजिस्ट्रार , फर्म्स एवं संस्थाएं भोपाल के कार्यालय में करवा दिया गया । अवैध इसलिए कि संस्थाओं के पंजीयन के मूल नियमों को दरकिनार करके पदाधिकारिओं की नियुक्ति कर दी गई . प्रारम्भ में संस्था का अध्यक्ष सांसद, विधायक या समकक्ष लोक प्रतिनिधि को बनाया जाता था । उपाध्यक्ष जिले का कलेक्टर या उसका प्रतिनिधि , सचिव कालेज का प्राचार्य , विश्वविद्यालय का नामांकित प्रतिनिधि , बैंक अधिकारी , अन्य गणमान्य लोग , कुछ प्राध्यापक आदि सदस्य बनाए जाते थे । पूरे प्रदेश के महाविद्यालयों की जनभागीदारी सूची मध्य प्रदेश के शासन के उच्च शिक्षा विभाग भोपाल में मंत्रीजी के आशीर्वाद से तैयार करके कालेजों को भेज दी जाती है अर्थात समिति के सदस्यों द्वारा पदाधिकारिओं का चुनाव न करवा कर ऊपर से थोप दिए जाते हैं । इन समितियों में अधिकांश सदस्य आते ही नहीं थे । वर्तमान में गणमान्य व्यक्ति के नाम पर प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी के किसी भी व्यक्ति को महाविद्यालय का अध्यक्ष बना दिया जाता है जिसे उस क्षेत्र के विधायक या ऐसे ही किसी शक्तिशाली नेता का आशीर्वाद प्राप्त हो । सचिव अभी भी प्राचार्य को रहना पड़ता है क्योंकि वह बेचारा कहाँ जाये ! मनोनीत अध्यक्ष अपने मोहल्ले के किन्ही भी १०-१२ साथिओं को सदस्य बना लेता है .उपाध्यक्ष तो कलेक्टर या उसका प्रतिनिधि ही होता है परन्तु व्यस्तता के कारण वे शायद ही कभी बैठक में गए हों । समिति में अपने सदस्य होने के नाते अध्यक्ष जैसा चाहे आदेश पारित करवा लेता है । भाग्यशाली प्राचार्यों को सहयोग देने वाले अध्यक्ष भी मिल जाते हैं । अध्यक्ष अपनी मनमानी कर सकें , इसके लिए उच्च शिक्षा विभाग से आदेश आते रहते हैं । इनके आलावा विधायकों तथा नेताओं का समर्थन -सहयोग उन्हें मिलता ही रहता है । फर्म एवं संस्थाओं के पंजीयन के क़ानून के अनुसार किसी संस्था के चुने हुए अध्यक्ष , सचिव तथा कोषाध्यक्ष को धारा २७ के अंतर्गत प्रत्येक वर्ष संस्था के कार्यों की पंजीयक को जानकारी भेजनी पड़ती है, इस घोषणा के साथ की यदि जानकारी गलत होगी तो वे दंड के पात्र होंगे । ये मनोनीत सरकारी अध्यक्ष इस से मुक्त हैं अर्थात किसी भी गड़बड़ी के लिए वे उत्तरदाई नहीं होते हैं । दंड के लिए सरकार प्राचार्य को आदर्श जीव मानती है । तीसरी विचित्रता यह है की किसी भी समिति का सदस्य बनने के लिए सदस्यों को सदस्यता शुल्क देना होता है । यहाँ पर सभी सदस्य सरकारी होते हैं ,अतः उन्हें कोई शुल्क नहीं देना होता है .कुल मिलाकर बिना परिश्रम, बिना खर्च ,बिना किसी दायित्व के ढेर सारे अधिकार उन्हें दे दिए गए हैं । इन समितियों के गठन में कानून के साथ क्रूरतम मजाक यह किया गया है की जिन बेचारे छात्रों के शुल्क से इन समितियों को जीवन मिलता है , उन छात्रों को इसकी गतिविधियों की भनक भी नहीं नहीं लगने दी जाती है .
इन जनभागीदारी समितियों के माध्यम से उच्च शिक्षा का वैधानिक रूप से राजनीतिकरण कर दिया गया है । इसका काला पक्ष यह है जनभागीदारी समितियां जन सहयोग के माध्यम से महाविद्यालयों के खर्चे पूरे करेंगी , इस प्रत्याशा में सरकार ने महाविद्यालयों के अनुदान बंद कर दिए । चाक - डस्टर से लेकर पुस्तकालय ,कम्पूटर , प्रयोगशाला , फर्नीचर आदि के सभी व्यय सरकार ने बचा लिए । जो सदस्य अपनी जेब से एक पैसा नहीं दे सकते वे अन्य लोगों से क्या कहकर धन जमा करेंगे ? जनभागीदारी की आय का एक मात्र श्रोत छात्रों से लिया गया शुल्क है । उनसे होने वाले क्रय एवं निर्माण कार्यों में अध्यक्ष और सदस्य , अपनी- अपनी क्षमता के अनुसार सेवा करते हैं और प्रसन्न बने रहते हैं बशर्ते प्राचार्य कोई कानून न दिखाएं । इनके सहयोग से सरकार ने धीरे- धीरे शुल्क बढ़ाते हुए उच्च , तकनीकी , चकित्सा शिक्षा आदि मंहगी कर दीं तथा शिक्षा का व्यवसायीकरण कर दिया । सरकार भयभीत है कि यदि छात्र-संघ के चुनाव होंगे तो ये बेचारे छुटभैये नेता कहाँ जायेंगे ।
जनभागीदारी समितियों का रवैया
चूंकि जनभागीदारी समितियों में बिना किसी योग्यता के अध्यक्ष की नियुक्ति होती है और वह व्यक्ति सत्तारूढ़ दल का चहेता होता है ,इसलिए वह इस समिति में इस प्रकार व्यवहार करता है जैसे मुख्यमंत्री अपने राज्य में करता है .बस एक अंतर होता है मुख्या मंत्री को विपक्ष का ,मीडिया का , जन प्रतिनिधियों का और अपने दल के लोगों का भी थोडा -बहुत भय होता है जबकि ज भा अध्यक्ष को भय तो किसी का होता नहीं है , ऊपर से उसे सहायता करने के लिए प्राचार्य होता है जिसे सरकार की ओर से भारी दबाव में रखा जाता है कि अध्यक्ष की आज्ञा मानो . इस अध्यक्ष और उसके चेलों के मुख्य कार्य होते हैं ,
१ मीटिंग में छात्रों से वसूले गए पैसों से चाय-वाय खाना पीना .२ सत्र के प्रारंभ में प्रवेश के समय अपने चहेतों के लिए नियम विरुद्ध प्रवेश के लिए प्राचार्य पर दबाव बनाना । ३.अपने चहेते छात्रों को शुल्क में छूट तथा फंड से धन दिलवाना । ४.अपने लोगों को कालेज में नौकरी पर लगवाना , वह काम करे या न करे । ५.यह देखना कि कालेज में कोई खरीदारी हो रही हो तो अपनी या परिचित कि दूकान से सामान खरीद वाना । ६.अपनी पार्टी के किसी नेता का जन्म दिन या अन्य कोई अवसर हो तो समाचारपत्रों में उसकी फोटो के साथ अपनी फोटो लगाकर बधाई सन्देश छपवाना और छात्रों के इन पैसों से भुगतान करवाना । ७.इस निधि से होने वाले निर्माण कार्यों के ठेके हथिआना .
८.अपने लिए कमरा -टेलेफोन मांगना । ९ अवसर मिलते ही अपने नाम का बोर्ड या पत्थर लगवाना .१०.कभी कभी स्टाफ से चंदा भी ले सकते हैं .कुल मिलाकर प्राचार्य तथा स्टाफ पर दबाव बनाए रखना ।
सभी प्राचार्य उनकी सभी बातें माने यह आवश्यक नहीं है .सभी समितियां उक्त सभी उत्पात करे , यह भी जरूरी नहीं है । परन्तु इन छुटभैये नेताओं को छात्र हित से कोई लेना देना नहीं है क्योंकि इनमे से अधिकांश को इतनी अक्ल ही नहीं होती है । कुल मिलाकर ये बहुत बड़ा न्यूसेंस हैं । इनकी एक घटना है , भोपाल के एक बड़े कालेज में परीक्षाएं हो रही थीं । परीक्षा हाल में होनी थी परन्तु ज भ अध्यक्ष ने वह अपने उत्सव के लिए ले लिया और लगे पार्टी करने । उनके शोर से बगल के कक्ष में परीक्षा दे रहे छात्रों को क्या हानि हो रही है इससे उन्हें कोई लेना-देना नहीं था.प्राचार्य बेचारा अपने अध्यक्ष को क्या कह सकता है ? अनेक किस्से , मेल-मेल के किस्से कहाँ तक बखान करें ! क्या छात्रों से लिए गए इन पैसों का सदुपयोग प्राचार्य , प्राध्यापक और छात्र मिलकर नहीं कर सकते हैं ? पूरे प्रदेश में प्राचार्य इनसे त्रस्त हैं । सरकार में बैठे अफसर -नेता जब यह सुनते हैं तो बहुत खुश होते है की चलो अच्छा है ,प्राचार्य उलझे रहेंगे तो शासन से कुछ नहीं कहेंगे , छात्रों के लिए , कालेज के विकास के लिए कोई मांग नहीं करेंगे ।
शासन ने दागी मिसाइल
म प्र में कालेजों को शासन ने वर्षों से पुस्तकालय, वाचनालय, प्रयोगशालाओं , उपकरणों , फर्नीचर ,भवन -निर्माण आदि के लिए , जिनसे छात्रों का कहीं से भला होने वाला हो ,कोई भी राशि देने के प्रावधान पूरी तरह समाप्त कर दिए हैं ।अच्छे शिक्षक तो क्या कोई भी नए शिक्षक ,प्राचार्य नियुक्त नहीं किये जा रहे हैं .अतिथि विद्वान् कहकर युवकों का वर्षों से शोषण किया जा रहा है । स्टाफ है नहीं और साल भर चलने वाली परीक्षाओं का ऐसा जाल बनाया गया है कि कोई शिक्षक चाह कर भी न पढ़ा सके । जनभागीदारी समितियों के फंड पर भी कब्ज़ा शासन का ही है । बिना तिकड़म के कोई बड़ा काम करवाने का शासन से आदेश नहीं मिल सकता है । इतने झंझावात झेलते हुए भी कई साहसी प्राचार्य कालेजों में कुछ-कुछ काम करवा ही ले जाते हैं । शासन इससे आग बबूला हो गया है और उसने मिसाइल दाग कर छात्रों के जनभागीदारी फंड को फूं- फां कर दिया । अब चालाक से चालाक प्राचार्य भी कुछ नहीं कर पाएगा । शासन ने आदेश देकर छात्रों को दी जाने वाली अनेक छात्रवृतियों के रूप में यह धन खर्च कर दिया । इसका एक पक्ष तो यह है कि छात्रों को उनके धन से जो सुविधाए दी जानी चाहिए थीं ,नहीं दी गईं , इसलिए पैसे बचते गए । दूसरा पक्ष यह है की यदि यह धन तथा कथित सरकारी जनभागीदारी समितियों का मान भी लिया जाये तो क्या उनके साथ ऋण लेने का , वापिस करने का कोई अनुबंध किया गया कि कितने दिनों में ,कितने ब्याज के साथ वापिस करेंगे । नहीं , ऐसा कुछ नहीं किया गया क्योंकि जनभागीदारी समितियों को प्रशासनिक अधिकारी फर्जी और गैरकानूनी मानते हैं । इसलिए सीधे प्राचार्य को आदेश दिया और रुपये पार कर दिए . यदि खजाने में कुछ नहीं है तो छात्रवृतियों का ढोंग किस बात का कर रहे हो ? जब कालेजों में सुविधाएँ ही नहीं होने दे रहे हो तो छात्रवृति लेने वाले भी पैसे लेने के बाद कालेज में क्या करने आयें? क्या म.प्र . की सरकार बड़े-बड़े विज्ञापनों में उन छात्रों के फोटो छापवाएगी जिनके पैसों से ये जन कल्याण के कार्य जबरन किये जा रहे हैं । प्रदेश में प्राइवेट विश्विद्यालय खुल रहें हैं , प्राइवेट कालेज खुल रहें हैं । अगर सरकारी कालेज अच्छे होंगे ,वहां कौन पढने जाएगा ? उन बेचारों ने भी अपनी दौलत लुटाकर दो पैसे कमाने के लिए निजी संस्थाएं खोली हैं .अगर अफसर -नेता उनके हित में सरकारी कालेजों को बर्बाद नहीं करेंगे तो उनका क्या होगा ?संत तुलसीदास सही कह गए हैं ,''परहित सरिस धर्म नहीं भाई "। अपने बच्चों ,युवाओं का हित कभी नहीं करना चाहिए.उन्हें पढ़ाकर इतना योग्य नहीं बनने देना चाहिए की वे अपना भला सोच सकें .परायों का हित करना ही असली धर्म है .क्योंकि परायों का हित करने से पुण्य-लाभ होता है ,भगवान खुश होते हैं ,धन-दौलत मिलती है ,सुख समृद्धि आती है . अगर पराया विदेशी हो और उसको लाभ पहुचाया जाय तो सोने में सुहागे जैसी चमक भी आ जाती है।


























रविवार, 3 अक्टूबर 2010

सेक्स कानूनों का भविष्य

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विलंबित परीक्षा परिणामों के लिए छात्रों को क्षतिपूर्ति दें

विलंबित परीक्षा परिणामों के लिए छात्रों को छतिपूर्ति दें

आज -कल मध्य प्रदेश में विलम्ब से परीक्षाएं करवाना तथा उससे भी अधिक विलम्ब से परीक्षा परिणाम निकालना
विश्विद्यालयों का फैशन हो गया है .इससे छात्रों की बहुत क्षति हो रही है । स्नातकोत्तर परीक्षाओं के परिणाम अभी तक नहीं निकले हैं .इन छात्रों को एम् फिल या पी. एच-डी. करनी हो तो उनका यह वर्ष तो बेकार चला गया .अगले वर्ष स्नातक और स्नातकोत्तर के छात्रों के साल बेकार जाएँगे ।क्या हमारे प्रदेश के विश्वविद्यालय और सरकार अन्य विश्वविद्यालयों में उनके लिए सीटें खाली रखवाएंगी ?यदि नहीं, तो क्षतिपूर्ति करना उनका कर्त्तव्य नहीं दायित्व है. यदि छात्र विलम्ब से परीक्षा फार्म भरते हैं ,उन्हें दंड -शुल्क देना होता है। विश्वविद्यालय प्रथम एक सप्ताह विलम्ब के लिए रु.३००/- फिर रु १०००/- और रु १५००/-तक भी विलम्ब -शुल्क वसूलता है । किसी पर कोई रहम नहीं किया जाता । किसी भी तरह का फार्म भरने में विलम्ब हो जाए तो मनमाने तरीके से विलम्ब शुल्क वसूले जाते हैं। छात्र इसलिए शुल्क नहीं देते की उनका भविष्य खराब किया जाय .विश्वविद्यालयों का दायित्व है कि समय पर परीक्षाएं करवाएं और समय पर अर्थात १ जुलाई तक सत्र के सभी परीक्षा परिणाम दे दें .और यदि नहीं देते तो क्षतिपूर्ति दें जो उनका दायित्व है.क्षतिपूर्ति के लिए चतुर्थ श्रेणी के नियमित कर्मचारी को आधार माना जा सकता है कि मान लीजिए कि पढने के बाद छात्र चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी ही बनता तो उसे न्यूनतम रु ३००/- दैनिक वेतन तो मिलता। १ जुलाई के जितने दिनों बाद कक्षा का परिणाम निकलता है ,उतने दिनों तक उसे रु ३००/- प्रतिदिन के हिसाब से क्षतिपूर्ति दी जाय. यदि सरकार और विश्वविद्यालय सोचते हैं कि उनके स्नातक और स्नातकोत्तर छात्र चपरासी बनने कि योग्यता भी नहीं रखते तो ऐसे विश्विद्यालयों को बंद कर दें क्योंकि ये तो मैकाले के उन स्कूलों से भी बदतर हैं जो कम से कम क्लर्क तो बना देते थे। कुलपतिओं और रजिस्ट्रारों को रु ८००००/- या एक लाख वेतन लुटाने से क्या लाभ ?
आजकल मीडिया के माध्यम से विश्वविद्यालय विलम्ब से परीक्षा परिणाम निकलने का ठीकरा प्राध्यापकों के सिर पर फोड़ रहें है कि वे समय पर काम नहीं करते हैं , सरकार भी उनकी हाँ में हाँ मिलाती है क्योंकि दोनों का उद्देश्य युवा पीढ़ी को बर्बाद करना है .अप्रेल २००८ में सेमेस्टर प्रणाली लागू करने के लिए बरकतुल्ला विश्वविद्यालय भोपाल में प्राचार्यों कि बैठक की गई थी . उसमें मैं भी उपस्थित था । मैंने कहा की पी जी डी सी ए की परीक्षा में कुछ सौ छात्र होते है ,उसके दो सेमेस्टर का परीक्षा फल ये एक वर्ष के स्था न पर दो वर्ष में निकाल पाते हैं ,ये हजारों छात्रों का परीक्षाफल समय से कैसे निकाल पाएंगे ? मैंने पूछा की एक परीक्षा में तीन से साढ़े तीन महीने लग जाते हैं .दो परीक्षाओं में सात महीने लगेंगे । छुटिया और त्यौहार भी आएँगे , पढाई कब होगी ? रजिस्ट्रार से इसका हल पूछा गया , उन्होंने प्रमुख सचिव- आयुक्त के आतंक के कारण या अंदरूनी मिलीभगत के कारण कह दिया कि वह एक माह में परीक्षा करवाकर समय पर रिजल्ट दे देंगे । उसके बाद इन्होने दो सेमेस्टर के अलावा पुरानी वार्षिक परीक्षाएं भी जारी रक्खीं .शिक्षकों को साल भर परीक्षाओं में , आतंरिक मूल्याङ्कन में , हाजरी का रिकार्ड बनाने में झोंक दिया ताकि वे छात्रों को पढ़ा न सके ,युवा अयोग्य बनते जाएँ और उसका राजनीतिक हल निकाला जा रहा है कि स्थानीय युवाओं को नौकरी में प्राथमिकता दी जाय । प्राथमिकता देने का तो मैं भी समर्थक हूँ ,परन्तु युवाओं में इतनी योग्यता देने में डर क्यों लगता है कि वे प्रदेश ही नहीं ,कहीं भी नौकरी करने कि क्षमता रखते हों । संभवतः इसलिए कि तब वे सरकार और विश्विद्यालयों को मनमानी नहीं करने देंगे .सेमेस्टर परीक्षाओं में एक विषय का एक पेपर होता है .पैसे लूटने के चक्कर में इन्होने दो- दो पेपर रखे .मेरे सुझाव को ठुकरा दिया गया कि एक विषय का एक पेपर रखो ।वार्षिक परीक्षाओं का शुल्क रु ७००/- था .सेमेस्टर में रु.११००/ + ११००/-=रु २२००/- अर्थात प्रति छात्र रु १५००/- अधिक वसूला गया.प्रदेश में यदि ५ लाख छात्र हों तो सीधे-सीधे रु ७५ करोड़ का अतिरिक्त धन प्राप्त कर लिया जायगा बेचारे छात्रों से .इतने ज्यादा पैसे लेकर भी समय पर परीक्षाफल न देने कि क्षति पूर्ती क्यों नहीं दी जानी चाहिए ?इन्ही घपलों और लूट खसोट के कारण सरकार छात्र-संघ के चुनाव करने के नाम पर डरने लगती है .प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के अनुसार विश्विद्यालय शुल्क वसूलता है । समय पर परिणाम देना अन्यथा उसकी क्षतिपूर्ति करना उसी का दायित्व है .