क्या होगा हड़तालों से
दिनांक 20 एवम 21 फरवरी को देश व्यापी हड़ताल हो रही है . अनेक स्थानों पर जीवन अस्त -व्यस्त हो गया है . ट्रेन रोकने से अनेक यात्री बीच में फंस जाते हैं . यातायात के साधन बंद होने से समाज स्थिर हो जाता है . जिसे अस्पताल जाना हो , या उसी दिन परीक्षा हो ,जहां जाना आवश्यक हो तो वह व्यक्ति क्या करे ? अपना दुखड़ा किससे कहे , कौन उसकी मदद करेगा ?कर्मचारी अधिकारी तो हड़ताल करके , अपनी ताकत दिखाकर कुछ वेतन बढ़वा लेंगे , परन्तु आटो चालकों को इससे क्या लाभ होगा , पता नहीं है . यह निश्चित है की सरकार उनको कोई धन लाभ नहीं देगी, और यदि उनकी आय बढती है अर्थात किराया बढ़ता है , तो यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन्ही के हितो के विपरीत होगा , जिनके साथ मिलकर वे हड़ताल कर रहे हैं .
हड़ताल मुख्यतः कमुनिस्ट दल करवा रहे हैं . इनसे पूछो की क्या किसी कमुनिस्ट देश में हड़ताल हो सकती है ?30 वर्षों तक ये बंगाल पर कब्ज़ा जमाए रहे . प्रदेश पर कर्जे का बोझ लाद दिया और उसे सबसे पीछे धकेल दिया . श्रमिक संघ के नाम पर ये सरकारी और निजी संस्थानों में हड़तालें करवाकर सारी व्यवस्थाएं नष्ट करते गए . यदि पहले के कर्मचारी अच्छी प्रकार काम करते , तो आज भी कर्मचारियों पर भरोसा किया जाता . परन्तु आये दिन हडतालों के कारण , काम में बाधाओं के कारण ही कार्यालयों का मशीनीकरण और निजीकरण होता गया .अब तो नियुक्तियों में योग्यता का मापदंड ही समाप्त कर दिया गया है . अतः यदि कार्यालय में कोई अच्छा कर्मचारी होता है , तो सारा बोझ उसी पर डाल दिया जाता है . चपरासी से मंत्री तक सभी अपना पेट और स्वार्थ देख रहे हैं देश की चिंता किसी को नहीं है . हड़तालें कोई परिवर्तन नहीं ला सकती हैं . इनसे किसी नेता की निजी हानि तो हो नहीं रही है , अतः हड़ताल एक दिन चले या अधिक किसी कोई फर्क नहीं पड़ता है .
देश में एफ़ डी आई लाने पर व्यवसायी हड़ताल कर रहे थे . मैंने उनसे कहा की जब उद्योग बंद हो रहे थे, उनके कर्मचारी बेरोजगार हो रहे थे , आपने कभी आवाज नहीं उठाई क्योंकि आपको सामान बेचकर लाभ कमाने से मतलब है , तब आपने क्यों नहीं सोचा की आज विदेशी माल देशी माल को विस्थापित कर रहा है , कल विदेशी व्यापारी आपको भी किनारे करेंगे . पर जैसे पहले कहा है की प्रत्येक व्यक्ति अपना और सिर्फ अपना ही हित साधने में लगा हुआ है . इस व्यवस्था में आज एक का तो कल दूसरे का और फिर धीरे- धीरे सबका हाल बुरा होने वाला है जैसा टोकरे मे बंधे हुए मुर्गों का होता है .
जहां तक सरकार की बात है तो क़ानून की मनमानी व्याख्या करने और उसे तोड़ने का सार्वभौमिक अधिकार उसी को है . पहले उचित बातों को न सुनना , समस्याओं की अनदेखी करते जाना , हड़तालें करवाना और फिर डरकर बलशाली के सामने झुक जाना , कमजोर को धक्का दे देना , उसकी आदत बन गई है , सीधी सी बात है की यदि किसी का हक़ बनता है तो उसे पहले ही दे दो , और नहीं बनता तो बाद में भी मत दो , दूसरी व्यवस्था करो तो हड़ताल की नौबत ही क्यों आएगी / इन नेताओं ने अंग्रेजों से एक ही बात तो सीखी है कि 'फूट डालो और राज्य करो ' . इसी सिद्धान्त के अनुसार अधिकाँश विभागों में एक जैसे कामों के लिए अलग - अलग पदनामों से कर्मचारी रखकर उन्हें छोटे -बड़े वर्गों में बाँट दिया है ताकि वे आपस में मिल न पाएं और सरकार के लोग मनमानी करते रहें जब तक वे कुर्सी पर काबिज हैं . इसीलिए न्यायालयों में कर्मचारियों और सरकरों के मध्य लाखों मुक़दमे लंबित हैं . जब तक देश में सबको अपना समझने वाली सरकार नहीं बनती , देश में सुव्यवस्था की आशा करना व्यर्थ है .
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