सरकार और न्यायालय
न्यायमूर्ति गांगुली के दुःख व्यर्थ हैं .अवकाश ग्रहण करने के बाद जिस तरह वह सरकार की आलोचना कर रहे हैं , यह उन्हें अपने पद पर रहते हुए करना चाहिए था .भारत में तीन करोड़ मुकदमों का भण्डार है , इसके लिए कौन दोषी है ?यह दुःख का विषय है कि भारत में न्यायालय लोकतान्त्रिक स्वरूप ले ही नहीं सके . इसलिए आज भारत सामंतवाद के चंगुल में फंस गया है . उनके २- जी घोटाले के निर्णय की पूर्व लोक सभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने आलोचना ठीक ही की है . सोमनाथ चटर्जी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता रहे हैं . उनका सिद्धांत है राजनीतिक दल का मुखिया अर्थात सर्वेसर्वा . वह जो कुछ कह दे वही सत्य है . उसकी आलोचना शब्दों से भी नहीं कर सकते . उसके कार्यों का विरोध सपने में भी सोच लिया तो हत्या होना निश्चित है जैसा कम्युनिस्ट चीन और पूर्व के कम्युनिस्ट रूस में होता रहा है .उनके अनुसार सरकार का अर्थ है लोगों द्वारा जबरन चुनवाये गए लोग क्योंकि कम्युनिस्टों के देश में दूसरा राजनीतिक दल होता ही नहीं है और जिसे सर्वेसर्वा कह दे , वह अकेला ही चुनाव में खड़ा होता है और सबको उसी को वोट देने ही होते हैं . इसलिए सोमनाथ जी ने जो कहा और जो लोकसभाध्यक्ष रहते हुए कहते थे , वह उनकी पार्टी और उनके विचारों के अनुसार सही है .
रही बात न्यायमूर्ति गांगुली जी की , तो वे सरकार किसे कहते है ? वे सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश रहे हैं . वे जानते ही होंगे कि संविधान में 'सरकार' नाम कि कोई संस्था नहीं है . संविधान में 'कार्यकारिणी ' नाम कि भी कोई संस्था नहीं है . हाँ , वहां मंत्रिमंडल है , प्रधान मंत्री आदि हैं . राजनीति शास्त्र में सरकार का अर्थ वह संस्था है जो प्यार से या दण्ड देकर लोगों से अपने आदेश का पालन करवा सके . व्यवस्थापिका , कार्यकारिणी और न्यायालय तीनो मिलकर सरकार कहलाते हैं . पूर्व काल में राजतन्त्र था और तीनो शक्तियां एक ही व्यक्ति , राजा या बादशाह में निहित होती थी परन्तु लोकतंत्र में तीनों शक्तियों को पृथक कर दिया गया है . इसलिए कार्यकारिणी द्वारा द्वारा किया गया कार्य तभी सरकार का कार्य माना जाता है जब वह व्यवस्थापिका द्वारा बनाए गए क़ानून के अनुरूप हो . कार्य क़ानून के अनुरूप है या नहीं इसका निर्णय करना न्यायालय का कार्य और अधिकार है . यदि न्यायालय मंत्रिमंडल या किसी अन्य अधिकारी के आदेश को रोक देता है तो न्यायालय से समर्थन न मिलने तक वह कार्य मंत्रिमंडल का या किसी अधिकारी विशेष का कहा जाएगा , सरकार का नहीं और न्यायालय के आदेश के अनुसार ही उन्हें कार्य करना होगा . यदि कोई न्यायाधीश किसी कार्य को सरकार का कार्य या सरकार का आदेश कहते हैं तो उन्हें भी उसकी आलोचना का अधिकार नहीं है क्योंकि सरकार के कार्य में न्यायालय की स्वीकृति स्वतः निहित हो जाती है .
मंत्रिमंडल जो कि विशाल कार्य कारिणी (कार्य कारिणी मेंमंत्रिमंडल के अतिरिक्त छोटे अधिकारी से लेकर मुख्यसचिव , कैबिनेट सचिव, विभिन्न संस्थानों के प्रमुख जैसे रिसर्व बैंक के गवर्नर , महालेखाकार , चुनाव आयुक्त , लोकसेवा आयोग के अधिकारी आदि वे सभी पदाधिकारी आते है जो किसी भी रूप में सरकार के कार्य करते हैं तथा कोई आदेश पत्र दे सकते हैं ) का चेहरा मात्र है . परन्तु लोगों के साथ-साथ न्यायाधीशों द्वारा भी उन्हें पूरी सरकार मानने के कारण मंत्री स्वयं को सरकार तथा मनमाने कार्य करना अपना अधिकार समझते हैं और कभी नहीं चाहते कि न्यायालय उनके काम में दखल दे.
हमारे देश के न्यायलयों में सबसे बड़ी कमी यह है कि वे स्वयं कुछ नहीं करते . जब कोई धन या बुद्धि की ताकत के साथ उनका दरवाजा खटखटाता है तो कुछ निर्णय देने के लिए तत्पर होते हैं . लोकतंत्र में उनका दायित्व है जनता के हितों की रक्षा करना क्योंकि जनता के द्वारा दिए गए करों से ही उन्हें भी वेतन मिलता है और सारे व्यय होते हैं . यदि जनता के धन को कहीं पर भी कोई क्षति होती है तो उनका दायित्व है उसे रोकें . परन्तु आज तक स्वतन्त्र भारत में ऐसा कभी नहीं हुआ . डा. सुब्रमण्यम स्वामी को ज्ञान है , उनके पास क्षमता भी है . वे जी जान से भ्रष्टों के विरुद्ध संघर्ष कर रहें हैं , जब कि यह न्यायालयों का दायित्व है की ऐसे सभी कार्यों में स्वतः हस्तक्षेप करके अपराधियों को सजा दें . ३ करोड़ मुक़दमे यह स्पष्ट करते है कि भारत में अधिकाँश कार्य नियम विरुद्ध हो रहे हैं या अपराध घटित हो रहे हैं परन्तु अपराधी नहीं मिलते दूसरे शब्दों में भारत में अपराध तो होते है परन्तु अपराधी नहीं होते . इन परिस्तिथियों में यदि न्यायालयों के साथ भी अन्याय हो रहा है तो उन्हें यह कहने का कोई अधिकार नहीं है कि सरकार न्यायालयों के लिए कम धन दे रही है या पद नहीं बढ़ा रही है या उपेक्षा कर रही है . माननीय न्याय मूर्ति गांगुली जी किससे यह आशा करते हैं कि वह अपना समय और धन लगाकर न्यायालयों की सुविधा बढाने के लिए सरकार के विरुद्ध मुकदमा करे और बची खुची जिन्दगी न्यायालय की चौखट पर न्योछावर कर दे .
क़ानून की इन्हीं कमियों और न्यायाधीशों के द्वारा अपने अधिकारों का समुचित उपयोग न करने के परिणाम स्वरूप १९७५ में भ्रष्टाचार सिद्ध होने के बाद इंदिरा गाँधी ने प्रधान मंत्री का पद छोड़ना तो दूर ,आपात काल लगाकर संविधान को ही स्थगित कर दिया था तथा तानाशाही लागू कर दी थी जिसमें लोगों से जीवन का अधिकार भी छीनने की बात न्यायालय में चल रही थी . आपात काल लगाने की दोषी इंदिरा जी नहीं थीं , हमारे न्यायालय ही थे जो भ्रष्टाचारी को कानूनी ढंग से हटा नहीं सके . उसके बाद भी न्यायालयों की कार्यपद्धति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ . आज पुनः यदि तथा कथित सरकार के नेता या अफसर न्यायालयों का आदेश मानने से इनकार कर दे और कोई नेता ताना शाही पर उतार आये तो हमारे न्यायालयों के पास उसका क्या उपचार है ?
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