अमेरिका में लोकतंत्र और भारत में सामंतवाद है
लोकतंत्र का अर्थ है लोगों की व्यवस्था अर्थात व्यवस्था में लोगों की सह्भागिता कितनी है , व्यवस्था पर उस देश या संस्था के लोगों का कितना नियंत्रण है . सामंत का अर्थ है ऐसे लोगों जिनके अधिकार सभी है परन्तु कर्तव्य शून्य हैं ,जिनके पास चमचों की फ़ौज होती है जो उन्हें महान सिद्ध करती रहती है तथा लोग जितना परेशान और दुखी होते हैं सामंतों को उतना ही आनंद आता है .यहाँ पर धन, राजनीति और न्यायव्यवस्था के सन्दर्भ में दोनों देशों की चर्चा की जारही है .
अमेरिका में सारा धन 'कर दाताओं का धन होता है '. समाचार पत्रों में कहीं पर भी केंद्र या राज्य के पैसे या राष्ट्रपति अथवा गवर्नर के धन की बात नहीं कही जाती है . इसलिए कहीं पर भी धन का दुरूपयोग या क्षति हुई तो उसकी जिम्मेदारी तय की जाती है और क्षति पूर्ति का आदेश तथा दण्ड दिए जाते हैं . भारत में जनता से वसूला गया धन जनता का नहीं कहा जाता है . वह धन केंद्र , राज्य , प्रधानमंत्री , मुख्यमंत्री या किसी विभाग का हो जाता है . फिर ये लोग उसका उपयोग जैसे चाहे करें और चाहे अपने देश-विदेश के खातों में जमा करें . अमेरिका में कोई ठेके मनमाने ढंग से नहीं दिए जा सकते , प्रत्येक विभाग में अर्थशास्त्री होते हैं जो तत्काल हानि - लाभ का विश्लेषण करते हैं और सही ढंग से काम करने का दबाव बनाए रखते हैं .जबकि भारत की सामंतवादी व्यव्यस्था में जनता धन को बर्बाद करना , नेता - अफसर अपना अधिकार समझते हैं . इसलिए वे जब तक धन लूटते रहते हैं , सब चुप रहते हैं . बाद में कभी हल्ला हुआ भी तो या तो लुटेरों का पता ही नहीं चल पाता , पता चल भी गया तो सिद्ध नहीं हो पाता , सिद्ध हो भी गया तो भी धन कभी नहीं मिलता. अमेरिका में नेता जनता केधन से अपने बड़े - बड़े पोस्टर , विज्ञापन नहीं लगा सकते , सरकारी खर्च पर देश भर में घूम - घूम कर फालतू के भाषण नहीं दे सकते , अपने को महान नहीं सिद्ध कर सकते जैसा भारत में रोज होता है .
अमेरिका में सामंत नहीं हैं अतः राजनीतिक हाई कमांड भी नहीं होती है . भारत में चुनाव में टिकट पार्टी के हाई कमांड अर्थात बड़े सामंत को ढेर सा धन देकर , उसकी चरण वंदना करके और उसे अपना भाग्य विधाता मानने का विश्वास दिलाने पर मिलता है , जबकि अमेरिका अपनी योग्यता सिद्ध करने पर टिकट मिलता है . अमेरिका में २०१२ में राष्ट्रपति का चुनाव होना है . एक वर्ष पूर्व से ही संभावित उम्मीदवार इसके प्रयास में लग जाते हैं . एक ही दल के कई लोग सामने आते हैं . उनके टी वी डिबेट होते हैं , समाचारपत्रों में उनके विचार छपते हैं जिसमें उन्हें देश की समस्याओं पर बहस करनी होती है , जैसे उन्हें यह बताना होता है कि वे मंहगाई , बेरोजगारी , शिक्षा , युद्ध , आतंकवाद आदि समस्याओं को कैसे दूर करेंगे . एक पार्टी का होने के बावजूद वे परस्पर एक दूसरे पर आरोप -प्रत्यारोप भ लगते हैं , जनता के प्रश्नों के उत्तर भी देते हैं , उसके बाद सभ ५० राज्यों में वोटिंग होती है , जो जीतता है , पार्टी का उम्मीदवार बनाया जाता है . इस चुनाव में हारे हुए नेता भी फिर उसे अपना नेता मान लेते हैं और विपक्ष से चुनाव के समय एक होकर उसके पीछे खड़े रहते हैं , पूरी ताकत से उसके पक्ष में प्रचार करते हैं , भारत जैसे उसके वोट नहीं काटते हैं . भारत में नेताओं के पास इतना ही ज्ञान होता है कि वे विपक्षियों कि अधिकतम निंदा कर सकें , धर्म, जाति , गरीबी आदि के नाम पर लोगों को ब्रमित कर सकें , धन, सामान बाँट कर या भविष्य में देने का वायदा करके या डरा धमकाकर वोट लूट सकें .देश कि समस्याओं से तो उन्हें कभी लेना- देना ही नहीं रहा . इसलिए वहां के नेताओं को देश- विदेश कि सब जानकारी रहती है , वे किसी कि कठपुतली न होकर स्वयं निर्णय लेने में सक्षम होते हैं . राजनीतिक निर्णय भी वहां नेता नहीं , जनता लेती है . महत्व पूर्ण क़ानून बनाने से पहले चुनाव के समय मतपत्र के साथ वोटरों को सभी क़ानून भी दिए जाते हैं जिन्हें स्वीकार करने या न करने का उन्हें अधिकार होता है . यदि जनता का बहुमत उस क़ानून के पक्ष में होता है तो क़ानून बनाया जाता है अन्यथा नहीं . भारत जैसे उलटे- पुल्टे क़ानून जनता पर थोपने कि परम्परा वहां नहीं है .
अमेरिका में कानून व्यवस्था बहुत अच्छी है . इसका यह अर्थ नहीं न है कि वहां अपराध नहीं होते , अपराधी तो वहां भी हैं परन्तु वहां सजा भी है . व्यक्ति पकड़े जाने पर यदि अपना अपराध स्वीकार कर लेता है तो सजा काम हो जाती है अन्यथा लम्बी सजा होती है . भारत कि भांति वहां सभी सजाएं साथ -साथ नहीं चलती , एक के बाद एक चलती हैं .अतः सजाएं ८०-१०० साल कि भी हो सकती हैं .अमेरिका में क़ानून और दया का घाल मेल नहीं है . अपराध स्वीकार करने पर सजा इसलिए कम हो जाती है कि व्यक्ति को अपराध बोध हो रहा है ,वह पश्चाताप कर रहा है . इस स्थिति में आगे अपील भी नहीं की जाती है , अतः मुकदमों कि अनावश्यक संख्या भी नहीं बढ़ती है . वहां पर राजनीतिक दल पुलिस पर दबाव नहीं बनाते हैं जबकि भारत में छोटे अपराधियों तक को बचाने का काम नेता करते हैं .उ.प्र. के चुनावों का एक बढ़िया उदाहरण देखिए . भारत के संविधान में धर्म के नाम पर राज्य द्वारा कोई भी काम नहीं किए जाने कि व्यवस्था है परन्तु राजनीतिक लाभ के लिए केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस स्वयं धर्म के नाम पर आरक्षण देने पर आमादा है अर्थात संविधान तोड़ना अपना अधिकार मानती है . चुनाव के समय कोई अतिरिक्त घोषनाएँ नहीं की जा सकती हैं , परन्तु देश के क़ानून मंत्री स्वयं चुनाव आयुक्त कि चेतावनी की उपेक्षा करते हुए धर्म के नाम पर अपनी पत्नी और पार्टी के लिए वोट मांग रहेहैं . चुनाव आयोग को उनका चुनाव चिन्ह जब्त करने , उन्हें चुनाव के लिए अयोग्य घोषित करने , तथा गिरफ्तार तक करने का अधिकार है परन्तु चुनाव आयुक्त ने ऐसा न करके इसकी शिकायत राष्ट्रपति को की , राष्ट्र पति ने पत्र प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को भेज दिया . अब वह भारत के क़ानून मंत्री से पूछेंगे कि क़ानून मंत्री क़ानून का उल्लंघन कर रहा है , क्या करना चाहिए और इस मध्य कांग्रेस के अनेक नेता क़ानून मंत्री के पक्ष में खड़े हो गए . अमेरिका किस्सा देखिए . राष्ट्रपति ओबामा इलिनॉय राज्य से हैं , डेमोक्रेटिक हैं . २००८ में इलिनॉय के लोक प्रिय डेमोक्रेट गवर्नर भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए . दिसंबर २००८ में डिस्ट्रिक्ट अटोर्नी ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया ,राज्य प्रतिनिधि सभा (विधान सभा )ने उन पर महा अभियोग चलाया जिसमें डेमोक्रेट बहुमत में हैं .दो महीने के अन्दर डेमोक्रेट और रिपब्लिकन के ११४ सदस्यों ने सर्वसम्मति से उन्हें बर्खास्त कर दिया और दिसंबर २०११ में कोर्ट ने उन्हें १४ वर्ष की कारावास कि सजा इसलिए दे दी कि उन्होंने कोर्ट में अपना अपराध स्वीकार कर लिया , जनता से माफ़ी मांग ली और अपनी करनी पर पश्चाताप किया .यदि वहां डेमोक्रेट , भारत कि भांति अपराधी और भ्रष्ट गवर्नर का साथ देते तो वहां पूरे देश में पार्टी ही समाप्त हो जाती . अमेरिका में पूँजी वाद के कारण आर्थिक समस्याएँ हैं , परन्तु लोकतंत्र भी है .जबकि भारत में निकम्मे नेताओं और अफसरों द्वारा कृत्रिम रूप से उत्पन्न कि गई समस्याएँ ही समस्याएँ हैं .
डा. ए.डी. खत्री , भोपाल
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