शनिवार, 19 मार्च 2011

भारत में नव सामंतवाद

                                         भारत में नव सामंतवाद
प्राम्भ से ढाई- तीन सौ वर्ष पूर्व तक राजतन्त्र से ही अधिकांश शासन व्यवस्थाएं चलती थीं . राजतन्त्र में राजा के प्रमुख विश्वासपात्र सलाहकार सामंत कहलाते थे. ये सामंत अपने राजा के प्रति ही उत्तरदाई होते थे . जनता के हितों से इन्हें कोई लेना-देना नहीं होता था .जनता के कर को अपनी संपत्ति समझना तथा उसे अपने एशो- आराम पर व्यय करना उनकी प्रकृति का अहम् पक्ष होता था .जब राजा कमजोर होने लगता था तो ये सामंत अवसर मिलते ही लगान एवं करों से प्राप्त तथा हमलों में लूट खसोट से प्राप्त धन का अधिकांश भाग राजा को देने के बदले अपने पास रख लेते थे . धन बांटकर वे सरदारों को अपनी ओर मिला लेते थे तथा अपनी सेनाएं भी बनालेते थे और अवसर मिलते ही स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर देते थे. आज ये कार्य मंत्री -अफसर कर रहे हैं . अतः आज भ्रष्टाचार के नाम से जो हो हल्ला हो रहा है ,वह सदियों से चली आ रही सामाजिक - राजनीतिक प्रक्रिया है और उस पर नियंत्रण का एक ही उपाय रहा है कि केन्द्रीय शासक कितने शक्तिशाली और ईमानदार हैं. राजीव गाँधी कि अपरिपक्व बुद्धि के कारण , उसके समय में कांग्रेस को मिला दो तिहाई से अधिक बहुमत तो समाप्त हुआ ही , आज तक एक पार्टी की सरकार नहीं बन पाई है .नरसिम्हा राव के समय (१९९१ - १९९६ ) कांग्रेस की अल्पमत सरकार ने ५ वर्ष पूरे किये . इसके लिए उनकी बहुत प्रशंसा भी की गई थी . परन्तु सरकार चलाने के लिए उन्होंने कितनी कीमत अदा की ? बाहर से समर्थन दे रहे बंगाल के कम्युनिष्टों , बिहार के लालू प्रसाद , तमिलनाडु की जय ललिता , उ. प्र. के मुलायम सिंह , तथा विपक्ष की भारतीय जनता पार्टी को उन्होंने मनमानी की छूट दे दी तथा उनका विरोध करने वाले कांग्रेसियों को दबा दिया . परिणाम स्वरूप उन राज्यों में कांग्रेस खड़े होने की स्थिति में आज तक नहीं आ पाई है . सरकार बचाने के लिए उन्होंने घूंस देकर संसद भी ख़रीदे जैसा पुराने सामंत करते थे. उनके बादके चुनावों से ये स्थानीय छत्रप या सामंत केन्द्रीय सरकार बनाने-बिगाड़ने वाले बन गए . अब प्रधान मंत्री सरकार नहीं बना सकता है . चुनाव के बाद विजयी सामंत मिलकर अपने अधिकतम लाभ के लिए देश को बाँट लेते हैं अर्थात अपनी- अपनी ताकत के अनुसार सरकार के विभागों का बंटवारा कर लेते हैं और ऐसा प्रधान मंत्री बनाने की सहमति देते हैं जो एक सूत्रधार का काम करे , उनके काम में टांग न अड़ाए. ये सामंत अपने खासमखास सांसदों को अपने हिस्से के विभागों का मंत्री बनाते हैं . जिस प्रकार सब लोग अपने को बनाने वाले भगवन की पूजा करते हैं ,ये मंत्री भी अपने सामंत के आदेश का पालन करते हैं , जनता क्या , प्रधान मंत्री के प्रति भी वे उत्तर दाई नहीं होते हैं . इसलिए न राजा ने डा. मनमोहन सिंह की कोई बात सुनी और न मनमोहन सिंह उसे कुछ कहने का साहस रखते हैं . खाद्य मंत्री या वित्तमंत्री मंहगाई बढ्वाएं ,उन्हें कोई कुछ नहीं कह सकता . डा. सिंह स्वयं देश की सबसे बड़ी सामंत सोनिया गाँधी के इच्छा के विरुद्ध कुछ सोचने का विचार भी नहीं कर सकते हैं . यही उनकी मजबूरी है . आज सामंत शाही इतनी हावी हो गई है कि नगरपालिका के चुनावों से लेकर अपने अधिकार की छोटी- बड़ी सभी टिकटों का बंटवारा तथा संवैधानिक , सरकारी एवं राजनीतिक पदों पर (जैसे कलमाड़ी ,थामस ) नियुक्ति तथा उद्योगों को लाइसेंस आदि काम भी इसी हाई कमांड अर्थात सत्ता पर हावी सामंत के द्वारा किये जाते हैं और उसकी पहले से बाद तक कीमत भी वसूली जाती है . आगामी चुनावों में प्रमुख सामंत अपनी-अपनी ताकत बढ़ाने के प्रयास करेंगे .कांग्रेस - ममता बनर्जी , कांग्रेस -करूणानिधि , कम्युनिस्ट आदि स्वयं को बड़ा सामंत सिद्ध करने के लिए जोर लगा रहे हैं . अभी तक उन्होंने जो कमाया है वह चुनाव में खर्च करेंगे और जीतने के बाद जो खर्च किया है , उससे अधिक कमाएंगे .
सामंत वे व्यक्ति हैं ,जिनके अधिकार असीमित हों , कर्तव्य शून्य हों , जनता के पैसों को अपना समझते हों , जिन्हें कानून की कोई परवाह न हो तथा मनमाने ढंग से कार्य करने के लिए स्वछंद हों . नौकर शाह (शाही ठाट-बाट से रहने वाले नौकर ) , दबंग व्यवसायी तथा उद्योगपति , डान ,छद्म सामाजिक कार्य कर्ता , सट्टेबाज आदि सभी लोग ,जो सरकार बनाने , बिगाड़ने तथा चलाने की ताकत रखते हैं , अप्रत्यक्ष सामंत होते हैं . ये सामंत बड़ी बेशर्मी से जनतासे लूटे गए धन को देश तथा विदेशों में जमा करते जाते हैं क्योंकि ये सरकारों से बड़े हैं , ये कुछ भी कर सकते हैं . भ्रष्टाचार की कुल इतनी ही थ्योरी है .
डा.ए. डी.खत्री ,भोपाल

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

मुख्य मंत्री की कूटनीति


शह और मात का खेल


म. प्र. के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह का सविनय सत्याग्रह उपवास का आयोजन शह और मात का अनोखा खेल है . यह म.प्र. में भाजपा और कांग्रेस , भाजपा और भाजपा तथा म.प्र.एवं केंद्र और केंद्र में कांग्रेस तथा भाजपा के मध्य बिछाई गई चौसर का खेल है जिसमें अभी तक चतुर सुजान शिवराजसिंह ने म.प्र. में भाजपा तथा कांग्रेस दोनों के विरुद्ध आसान विजय दर्ज कर ली है .इस खेल का आनंद लेने के लिए इसके विभिन्न पक्षों को समझ लेना उचित होगा . म.प्र. की गद्दी से दिग्विजय सिंह को बेदखल करके मुख्य मंत्री बनी उमा भारती को पता ही न चल सका और उन्हें गद्दी से ही नहीं भाजपा से बाहर निकालकर शिवराज सिंह चौहान ने म.प्र. का निष्कंटक राज्य प्राप्त कर लिया और एक-एक विरोधी को या तो अपने पक्ष में कर लिया या उसकी शक्ति का हरण वैसे ही कर लिया जैसे बाली शत्रु की शक्ति का हरण कर लेता था .इतने शक्तिशाली और चतुर सामंत से मुक्ति का एक ही मार्ग है ,उसकी स्तुति करके उसमे अहम् उत्पन्न करना , प्रशंसा कर के ऊँचे शिखर पर चढ़ा देना और नीचे कांटे बिछा देना ताकि वह उनमें उलझ जाये . यदि मुख्य मंत्री हड़ताल पर बैठ जाये , हड़ताल लम्बी चलने पर उसका स्वास्थ्य गिरता जाये तो उसे किसके आदेश पर पुलिस जबरन उठा कर ले जाएगी और कौन डाक्टर जबरदस्ती उसका उपवास तुडवा पायेगा ? यदि श्री चौहान उपवास पर बैठ जाते तो यही स्थिति उत्पन्न हो जाती और जान बचाने के लिए उन्हें अपनी प्रतिष्ठा त्यागकर भागना पड़ता . उन्होंने अपने किसी साथी को इसकी भनक ही नहीं लगने तथा जितनी फुर्ती से तम्बू में गए , उससे अधिक उर्जा से बाहर निकल आए . उन्हें घेर कर भजन करने वाले ताकते ही रह गए. उधर कांग्रेस के नेता जो उनके उपवास का विरोध करके व्यापक प्रदर्शन का अवसर पाने को लालायित हो रहे थे , टापते रह गए . संभव है उन्होंने अपना गुस्सा परस्पर चर्चा करके महामहिम राज्यपाल और प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह पर निकाल लिया हो , खुल्लमखुल्ला तो कुछ कर नहीं सकते .
दिल्ली में महान राजनीतिग्य सोनिया जी विराजमान हैं . संभव है उन्हीं के आदेश पर प्रधान मंत्री ने चौहान जी को दिल्ली बुलवाया हो . वे २० फरवरी को मोंटेक सिंह अहलुवालिया से चर्चा करेंगे . अगले दिन से केंद्र का बजट सत्र प्रारम्भ हो रहा है . स्वाभाविक है बजट में म.प्र. की मांगो को पारित करवाने का आश्वासन दिया जा सकता है जिसमें संसद में भाजपा को सहयोग देने केलिए कहा जायेगा अर्थात उस पर जे. पी सी. की मांग छोड़कर बजट सत्र में भाग लेने के लिए दबाव बनाया जायेगा . यदि कृषकों के लिए केंद्र ने राशि स्वीकृत भी की तो म.प्र. को आगामी वर्ष में मिलने वाली किसी अन्य मद की राशि को कम किये जाने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता . जो लोग यह मान कर बैठे हैं की राज्यपाल के द्वारा संविधान के उल्लंघन का उल्लेख करने पर शिवराज मान गए , उन्होंने श्री चौहान को इतना अल्प बुद्धि कैसे मान लिया , वही जाने.
जहाँ तक गरीब किसानों के हित की बात है तो उनका मुख्य मंत्री से उतना ही सम्बन्ध है जितना एक रंक का राजा से होता है . वे किसानों को अच्छे बीज और अच्छी खाद तथा पर्याप्त बिजली देने की चर्चा भूल कर भी नहीं करते हैं जिससे उनका वास्तविक भला होगा . वे इससे भयभीत दिखते हैं कि पिछले आन्दोलन कि विपरीत दूसरे आन्दोलन में किसान -संघ अपने ट्रेक्टर -ट्रालियों से कहीं उनका किला ही न घेर लें . इसके साथ ही मुख्य मंत्री पर अपने मंत्रियों , पक्ष-विपक्ष के विधायकों , बड़े -बड़े अफसरों का दबाव भी होगा जो कृषि -भूमि के मालिक हैं और किसानों के नाम पर केंद्र से मुफ्त में मिले रुपयों में उनकी हिस्सेदारी भी तय होगी . किसानों के नाम पर राजनीती करने वाले मुख्य मंत्री अन्य लोगों के साथ तो ऐसा बर्ताव कर रहे हैं जैसे वे उनके राज्य में ही न हों . बेचारी गरीब नर्सों कि मांग नहीं मानी , उनके आन्दोलन को एस्मा लगाकर दबा दिया गया और स्वयं कलेक्टर -सचिवों सहित आन्दोलन को उद्यत . महीनों क्या वर्षों से भोपाल कि सड़कें खुदवा रखी हैं , मुख्या सड़क तक आने के लिए ४०-५० फुट कच्चा रास्ता भी नहीं बनाते . महाविद्यालयों के अनेक प्राध्यापकों को युक्तिकरण के नाम पर दूर- दूर शहरों में फेंक दिया .७-८ महीनों से उनका वेतन बंद करवा रखा है जैसे वे अन्य अफसरों कि भांति घूंस खा कर गुजारा कर रहे होंगे. सेमस्टर सिस्टम को जानबूझ कर ऐसे लागू करवाया कि म. प्र. के हजारों छात्रों का एक वर्ष बर्बाद हो गया . उन्हें क्षतिपूर्ति देने का नाम ही नहीं ले रहे हैं . भोपाल के गाँधी मेमोरिअल चिकित्सा महाविद्यालय में अनुदान बंद करके कैंसर जैसे विभागों में पी जी कक्षाएं ही बंद करवा दीं .राज्य के किसी विभाग में न तो पर्याप्त कर्मचारी हैं , न सामान है . और तो और अनिवार्य शिक्षा के अंतर्गत निजी विद्यालयों में गरीब बच्चों के प्रवेश के लिए पिछले दो वर्षों से कोई नियम ही नहीं बना सके है , उसमें कौन सा पैसा लग रहा था ! इन सब में एक ही कमी है कि इन लाभों को प्राप्त करने वालों में कोई विधायक नहीं है , कोई आई ए एस , कोई आई पी एस स्तर का अधिकारी नहीं है .

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डा . ए. डी खत्री ,
संपादक , रजतपथ ,भोपाल

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

न्यायालयों का अस्तित्व कब तक


न्यायालयों का अस्तित्व तभी तक रहता है जब तक वे न्याय करने में सक्षम होते हैं . अंग्रेजों के आने के पूर्व भारत में कानून की स्थिति बड़ी दयनीय हो गई थी . काजिओं को कोई वेतन नहीं मिलता था . विवादग्रस्त व्यक्तियों के शुल्क से उनके खर्चे चलते थे .जो व्यक्ति अधिक धन देता था उसके पक्ष में निर्णय हो जाता था . एक नगर काजी ने एक नर्तकी को गाने के लिए बुलवाया . उसे पूर्व में नृत्य के लिए पैसे नहीं मिले थे . अतः उसने आने से इनकार कर दिया . उसे पकड्वाकर लाया गया और उसका सिर कलम कर दिया गया . लोग अपनी व्यथा किससे कहते ? इसलिए जब अंग्रेजों ने अपने कोर्ट प्रारंभ किये तो लोगो ने उसे शीघ्र स्वीकार कर लिया और भारतीय न्याय व्यवस्था समाप्त हो गई . आज भारतीय न्यायालय एक चौराहे पर खड़े हैं . यदि वे उचित मार्ग का चयन नहीं कर सके तो न्यायालयों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा .
भारत में विभिन्न न्यायालयों में ढाई करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं . यदि एक मुकदमें में न्यूनतम दो व्यक्तियों को लें तो ५ करोड़ से अधिक लोग न्याय के लिए भटक रहे हैं . हमारे न्यायालय इन्हें न्याय देने में सक्षम नहीं हैं , इसे स्वीकार करने के अलावा हमारे पास क्या विकल्प है? इससे यह भी स्पष्ट होता है की भारत में अपराध तो जम कर हो रहे हैं , अभियुक्त भी हैं परन्तु अपराधी नहीं हैं . यदि अपराधी होते तो उन्हें सजा भी मिलती . न्याय का यह सिद्धांत कोई बुरा नहीं है कि ९९ अपराधी भले ही छूट जाएँ परन्तु एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए . इसलिए १०० में से ९९ अपराधियों को छोड़ दिया जाता है , चाहे वे पैसे और अच्छे वकीलों के कारण न्यायालय से छूट जाएँ , उन्हें पुलिस छोड़ दे या फिर पुलिस पकडे ही नहीं . जो निर्णय होते भी हैं , उन्हें न्याय कहा जा सके , यह भी आवश्यक नहीं है . अधिकांश प्रकरणों में तथा कथित सरकार के लोग गैर कानूनी कार्य करते हैं जैसे पुलिस पर दबाव डालना , गवाहों को परेशान करना , दोषी नेता , अफसर के विरुद्ध मुक़दमे कि अनुमति न देना , मुक़दमे को ठीक से प्रस्तुत न करना , निर्णय आने के बाद उस पर अमल करने में हील - हवाला करना आदि . ऐसे अधिकांश प्रकरणों में हमारे न्यायालय कुछ नहीं कर पाते हैं . आज जो कुछ हो रहा है , अपराध बढ़ रहे हैं , भ्रष्टाचार हो रहा , मंहगाई बढ़ रही है या आतंकवाद बढ़ रहा है , उसके लिए हमारी न्याय -व्यवस्था ही उत्तरदाई है .
१९७५ में इंदिरा गाँधी का चुनाव इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अवैध करार दे दिया था . पद से हटने के स्थान पर उन्होंने आपात काल लगा दिया , मनमाने ढंग से उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश कि नियुक्ति कर दी , विपक्षियों को जेलों में ठूंसकर यातनाएं दी , उनकी ओर से न्यायालय में स्पष्ट बयान दिया गया कि आपातकाल में लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं है ( वे सरकार अर्थात सत्तारूढ़ दल कि दया पर जीवित रह सकते हैं ), न्यायालयों ने उनका क्या कर लिया ? आज सी वी सी थामस कह रहें हैं कि ( मान लिया मैं भ्रष्ट हूँ ) जब भ्रष्टाचारी मंत्री हो सकता है तो वह सी वी सी क्यों नहीं हो सकते ? कल यदि वह यह कहेंगे कि भ्रष्ट न्यायाधीश हो सकते हैं तो वे अपना पद क्यों छोड़ें और सरकार , जिसने चुनकर उन्हें कुर्सी सौंपी है, कह दे कि वह पद नहीं छोड़ रहा है, तो न्यायालय के पास उसे हटाने का क्या उपाय है ? उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिए कि रैगिंग नहीं होनी चाहिए , रैगिंग नहीं रुकी , न्यायालय ने बंद- आन्दोलन को अवैध करार दिया , सामान्य बंद तो छोडिये , लोगों ने पटरियां उखाड़ फेंकी , अनेक दिनों तक रेल नहीं चल सकी , न्यायालय खामोश रहे , क्यों ? जब कोई व्यक्ति अपना समय ख़राब करके , पैसे जुटाकर अच्छे वकील करके महीनों तक न्यायालय के चक्कर लगा पाएगा , तब न्यायालय उस पर महीनों - वर्षों तक सुनवाई करके कोई निर्णय दे पाएँगे . न्यायलयों की इसी कार्य प्रणाली के कारण पूर्व लोक सभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी कहते थे कि लोकसभा के कार्यों में न्यायालय हस्तक्षेप न करें , अब हमारे इमानदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी कह रहे हैं कि न्यायालय अपनी हद में रहें . किसी भी सरकार के लिए न्यायपालिका , कार्यपालिका और
विधायिका (व्यवस्थापिका ) में परस्पर संघर्ष शुभ नहीं है . यह स्थिति न्यायालयों ने स्वयं उत्पन्न की है . शायद ही कोई न्यायाधीश बता सके कि भारत के न्यायालय और न्यायाधीश किसके प्रति उत्तरदाई हैं .इसीलिए अफजल गुरु को सजा देने या न देने का अंतिम निर्णय महामहिम राष्ट्रपति के नाम पर कानून के विशेषग्य उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के स्थान पर मेल-मेल के नेताओं से बने मंत्रिमंडल के पास है जिसे सब सरकार कहते हैं .
भारत के संविधान में 'सरकार' नाम कि कोई अवधारणा नहीं है . उसमें व्यवस्थापिका है, न्यायपालिका है तथा कार्यपालिका के विभिन्न अंग ( मंत्रिमंडल एवं विभिन्न संवैधानिक अधिकारी जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त, सी वी सी आदि ), राष्ट्रपति , उपराष्ट्रपति , राज्यपाल आदि हैं .व्यवस्थापिका , कार्यपालिका तथा न्यायपालिका ,तीनों मिलकर सरकार बनते हैं, जिसका प्रमुख राष्ट्रपति होता है तथा सरकार के सभी काम राष्ट्रपति के नाम से होंगे . मंत्रिमंडल अकेला सरकार नहीं होता है . जब सरकार के विरुद्ध कोई मुकदमा होता है तो कोर्ट में पेशी सचिव कि होती है , मंत्री सरकार हैं , तो मंत्री की पेशी क्यों नहीं होती है . यदि सरकार पर जुर्माना लगता है तो उसे न मंत्री देता है , न सचिव देता है , उसे जनता के धन से दिया जाता है . यह न्याय की कौन सी परिभाषा में आता है , समझ से परे है .
सरकार का अभिप्राय उस सम्प्रभु शक्ति से है जो अपने राज्य में अपने आदेश का पालन प्रेम से अथवा बलपूर्वक कर सकती है . यदि कोई कार्य कार्यपालिका द्वारा नियमानुसार किये जाते हैं ,न्यायालय में उसके विरुद्ध कोई वाद दायर नहीं होता है तो वह कार्य सरकार के कार्य होते हैं .यदि मंत्री या अफसर के कार्य को न्यायालय में चुनौती दे दी जाती है तो वे कार्य न्यायालय द्वारा सही करार कर दिए जाने के पूर्व वैध कार्य नहीं माने जा सकते हैं . मंत्री-अफसर द्वारा किये कार्यों को ( जैसे वर्तमान में सी वी सी थामस की नियुक्ति )न्यायालय द्वारा स्वयं 'सरकार के कार्य ' कहना ही न्यायालय एवं कार्यपालिका तथा न्यायालय एवं व्यवस्थापिका के मध्य अधिकारों के विवाद की जड़ है और इसे न्यायालयों ने स्वयं उत्पन्न किया है . न्यायालय स्वयं आँख बंद करके बैठे रहेंगे जैसा ध्रतराष्ट्र के समय हुआ था , तो महाभारत होगा ही जैसे आज अरब देशों में हो रहा है . ऐसी स्थिति निर्मित होने पर न्यायालयों का अस्तित्व भी नहीं रहता है .

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डा . ए. डी. खत्री ,
संपादक रजतपथ ,भोपाल

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

शिक्षा

शिक्षा की धज्जियाँ उड़ाती . प्र .सरकार

म. प्र. सरकार शिक्षा व्यवस्था की किस प्रकार धज्जियाँ उड़ा रही है इसका तजा उदाहरण ५वे सेमेस्टर के वे छात्र हैं जिन्हें पूर्व में परीक्षाओं में ए टी के टी होने के कारण ५वे सेमेस्टर में प्रवेश से वंचित कर दिया गया था तथा परीक्षा - फार्म भरने की अनुमति नहीं दी गई थी । उनके आन्दोलन के कारण अब उन्हें परीक्षा में बैठने की अनुमति दी गई है । प्रथम प्रश्न यह उठता है की यदि उन्हें परीक्षा में बिठाना ही था तो किस आधार पर उन्हें कक्षा में प्रवेश से रोका गया ? जो छात्र पूर्व की परीक्षाएं नहीं उत्तीर्ण कर पाए थे ,वे कमजोर तो हैं ही . अब वे बिना पढ़े कैसे पास होंगे ?जिन्होंने कक्षा में प्रवेश ही नहीं लिया , उनकी ७५% उपस्थिति का क्या होगा ? किस आधार पर सरकार कुछ छात्रों के लिए ७५% और कुछ के लिए शून्य उपस्थित का नियम लागू कर रही है ? सरकार और विश्वविद्यालय तो शिक्षा को चौपट करने का संकल्प पूरा करने में जी-जान से जुटे हैं ,भारी कष्ट इस बात का है कि प्राध्यापकों से कहा गया है कि उनके आतंरिक मूल्यांकन तथा प्रायोगिक कार्यों के नंबर शीघ्र भेजें .जब प्राध्यापकों ने उन्हें पढ़ाया ही नहीं ,तो टेस्ट किस बात का लें , कैसे लें, कब लें ? सरकार कि मंशा साफ़ है .मंत्री- अफसर ही क्यों भ्रष्ट कहलाएँ ? यदि कोई सरकार का नौकर है ,वह प्राध्यापक ,शिक्षक हो या कोई अन्य , उसकी आत्मा का कचूमर निकाल दो ताकि वह भ्रष्टाचार के रंग में इस कदर रंग जाए कि इमानदारी से काम करने का विचार ही न कर सके .भ्रष्ट सरकार के पास भ्रष्ट विश्विद्यालय हैं , भ्रष्ट कुलपति और रजिस्ट्रार हैं, भ्रष्ट अधिकारी -कर्मचारी हैं । किसी को भी कह दो कि इन छात्रों की पास की मार्क शीट टाइप कर लाओ , वह तुरंत ले आएगा , उसके लिए इतना नाटक -नौटंकी करने की क्या आवश्यकता है ? सरकार एक काम सबसे अच्छा करती है की इस नौटंकी में वह कुलाधिपति , गवर्नर साहब को भी अच्छा सा रोल दे देती है ताकि वे भी खुश रहें । डर की बात तो है कि गवर्नर साहब कही नाराज हो गए और पूछ बैठे की छात्रों को बर्बाद क्यों कर रहे हो ,तो क्या कहेगी सरकार ?
स्कूली छात्रों की योग्यता के नमूने लिए गए । दूसरी के बच्चों को ठीक से गिनती भी नहीं आती है ,तीसरी के बच्चे जोड़- घटाओ नहीं जानते , पांचवी के छात्र गुणा - भाग नहीं कर सकते । सरकार की योजना बच्चों को इतना पढ़ाने- लिखाने की है कि देश - विदेश में कह सकें कि हम साक्षर हैं । बच्चों को ज्ञान इतना होना चाहिए कि जब मंत्री- अफसर अरबों के भ्रष्टाचार करें तो लोग समझ ही न सकें कि यह राशि कितनी बड़ी है । सरकार जो कर्जे ले रही है , वह कितना है , कल उसे कितना चुकाना होगा , उससे मंहगाई कितनी बढ़ेगी , जैसी किसी बात कि समझ जानता को नहीं होनी चाहिए । सब भ्रष्ट नेताओं -अफसरों ने छात्रों के हित का हवाला देते हुए नियम बना दिए कि किसी छात्र को कुछ न कहो ,वह पढ़े य न पढ़े , स्कूल आये या न आये , उसे फेल नहीं कर सकते । कल यही युवा बन कर शिक्षक बनेंगे तो क्या पढाएंगे ?किसी आफिस में काम करेंगे तो क्या काम करेंगे ?
जो कल मंत्री थे , यही तिकड़म करते थे , आज सड़कों पर चप्पलें फटकार रहें हैं । जो आज मंत्री हैं , मान कर बैठे हैं कि वे जिन्दी भर मंत्री बनकर देश को बर्बाद करते रहेंगे । यह सच है कि वे न्यायालय की दृष्टि में कोई अपराध नहीं कर रहे हैं क्योंकि अपराध करते होते तो उन्हें सजा हो जाती । वे तो पाप कर रहे हैं , उसकी सजा समाज कि पीडिओं को उसी प्रकार भुगतनी होगी जिस प्रकार देसी राजाओं -नवाबों की रंगीनियो तथा निकम्मेपन की सजा देश को गुलामी के रूप में झेलनी पड़ी थी । A

रविवार, 9 जनवरी 2011

जाम

रास्ता- जाम

जनता कहे सरकार से , तू क्या रोंधे मोय ,
हर दिन ऐसा आएगा , मैं रोंधूंगी तोय ।
मैं रोंधूंगी तोय , रास्ते जाम कराऊँ ,
चले न एको ट्रेन ,मैं पटरी पर सो जाऊं ।
सड़क का भ्रष्टाचार ,करन तू खोदे गड्ढे,
चलूँ मैं उलटी ओर, फंसे रहें बच्चे-बुद्धे ।। १ । ।
जाम करे सब काम

रास्ते करना जाम हमारा जन्म सिद्ध-अधिकार,
उलटी दिशा खड़ी करूँ , ट्रक,बस ,मोटर,कार ।
ट्रक,बस ,मोटर,कार, ट्रैक्टर नए -नए लाऊं ,
हो कृषकों की बात , ट्रालिया बीच अडाऊँ ।
विधान-सभा से लेकर , करूँ मैं रास्ते जाम।
जाम से होता नाम और जाम करे सब काम । । २ । ।

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

ईमानदार

ईमानदार

प्रहरी रहता ऊंघता , चोर करें निज काम ,
आफिस में कुछ लोग हैं ,जिनको काम हराम .
जिनको काम हराम , न कभी पैसे खावें ,
रखते धरम -ईमान ,जगत में नाम कमावें ।
मनमोहन की नीति, लगे सबको है न्यारी ,
रुपये से रहो दूर, करो जमकर मक्कारी ॥

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

म.प्र. के मुख्य सचिव की कार्य प्रणाली

.प्र. के मुख्य सचिव को गुस्सा क्यों आता है

म.प्र. के मुख्य सचिव श्री अवनी वैश्य ने प्रदेश के कलेक्टरों की विडिओ कांफेरेंस के माध्यम से क्लास ली । क्लास में कलेक्टरों को समझाइश दी गई कि मुख्य मंत्री की घोषणाओं को गंभीरता से लें. हुआ यह था कि मुख्यमंत्री खंडवा गए थे । उन्हें जो कार उपलब्ध करवाई गई ,उसके टायर फट गए । दूसरी गाड़ी मुख्यमंत्री का भार ढोने में नाकामयाब रही । अब इसमें नाराजगी कि कौन सी बात है । जो सरकार कि गाड़ी होगी वही न मिलेगी ! यदि यह गुस्सा मुख्य सचिव उस दिन दिखाते जिस दिन भोपाल के हमीदिया अस्पताल में कैदियों को लाने वाली पुलिस की गाड़ी ने ७ लोगों को कुचल दिया था तो मुख्य मंत्री जी को ऐसी गाड़ी न मिलती । गैस कांड में मरने वाले लोगों की क्षतिपूर्ति के लिए इसी सरकार के मंत्री भी १० लाख रूपये मुआवजे की बात करते हैं । पुलिस वैन से मरने वाले होनहार मेडिकल कालेज के छात्रों को २ लाख मुआवजा किस आधार पर दिया गया । यदि गाडी का बीमा नहीं था तो यह सरकार की गलती है । बीमा होता तो सबको उचित मुआवजा मिलता । बिना बीमा के खटारा गाड़ी चलाने के लिए मुख्य मंत्री या मुख्य सचिव झूठी ही अप्रसन्नता व्यक्त कर देते तो समझ में आता कि उन्हें प्रदेश की चिंता है । परन्तु प्रदेश की चिंता करने का अर्थ कर्ज लेकर बाँटने और वाह- वाही लूटने को मानने वाले नेता - अफसर जमीनी वास्तविकताओं से दूर स्वप्न लोक में विचरण करते प्रतीत हो रहें हैं ।
गुजरे जमाने की घटना है । म.प्र . में सकलेचा जी की सरकार में एक अति सिद्धांत वादी समाजवादी मंत्री थे .सतना से आगे निकलते ही कार ख़राब हो गई । साथ चल रहे अधिकारी ने आनन् - फानन में बिरला सीमेंट फैक्ट्री से गाड़ी बुलवा दी । मंत्री जी ने आपत्ति की कि समाजवादी मंत्री , मैं पूंजीपति कि गाडी में कैसे चढ़ सकता हूँ !वह साईकिल का ज़माना था । स्कूटर भी कम थे । अधिकारी जी ने कहा ," गाड़ी पूँजी पति कि नहीं होगी तो क्या झोपड़ी में मिलेगी ?" बेचारा मंत्री क्या करता ! उस समय राज्य स्तर के अधिकारी ने अपनी बात बेबाकी से कह दी थी , आज कौन कलेक्टर पंगा लेकर अपनी कलेक्ट्री गंवाने का जोखिम उठाना चाहेगा ?
प्रदेश में शायद ही कोई ऐसा दिन हो जिस दिन किसी न किसी वर्ग के छात्र को परेशान न किया जाता हो । कभी सेमेस्टर वाले परेशान हो रहें हैं , कभी मेडिकल वालों को सताया जा रहा है , कभी आयुर्वेद - होमिओपैथी वाले हड़ताल कर रहे हैं , और बी एड जैसी परीक्षाओं का तो हाल ही मत पूछिए । जम कर लूट हो रही , सरे आम हो रही है ,वर्षों से हो रही है । इनका कोई माँ - बाप नहीं है । करबद्ध निवेदन है कि जवानी को यूं न सताइए । आए दिन कुलपतिओं का कि जांच- पड़ताल हो रही है । यह जांच- पड़ताल नियुक्ति के पहले क्यों नहीं की जाती है । वास्तविकता यह है कि तिकड़म से कुलपति नियुक्त किये जाते हैं । उनपर दबाव डालकर गलत काम करवाए जाते हैं ,जब वे फँस जाते हैं तो पालतू गाय की तरह सब उनका दोहन करने लगते हैं । दूध देना बंद तो खाना - पीना बंद और कुल से बाहर का रास्ता दिखा दिया । यह प्रयोग सबसे पहले क्लाइव ने बंगाल में मीरजाफर को नवाब बना कर शुरू किया था । नवाब बनाने के बदले उसने ,उसके अफसरों ने जम कर उपहार लिए और रोज कोई न कोई अफसर भेंट लेने आ जाता । जब वह नहीं दे पाया तो उसे निकाल बाहर किया , उसके दामाद कासिम को नवाब बना कर लूट -खसोट की । जब उसने आना -कानी की तो उसे हटाकर पुनः बूढ़े मीरजाफर को नवाब बना कर जबरन वसूली की और अंत में बंगाल की सत्ता हथिया ली । देश में कितने क्लाइव पैदा हो गए हैं , मौका मिले तो मुख्य सचिव जी उन्हें भी एक घुट्टी पिला दिया करें .
म.प्र शासन ने अनेक डाक्टरों को इसलिए बर्खास्त कर दिया कि उनकी डिग्री एम् आई सी से मान्यता प्राप्त नहीं है। आप उन कुल सचिवों , कुलपतिओं ,स्वस्थ्य विभाग के निदेशकों , आयुक्तों , प्रमुख सचिवों के विरुद्ध क्या कार्यवाही करने का साहस रखते हैं जिनके मार्ग दर्शन और प्रशासन में फर्जी डिग्रियां बांटी गईं । मान्यता की शर्तों को पूरा न करने के जिम्मेदार तो मुख्य सचिव और मुक्य मंत्री भी हैं । थोडा और साहस करिए न । यह सरकार तो राजधानी भोपाल के हमीदिया अस्पताल में हैण्ड ग्लब्स भी नहीं दे पा रही जिससे तत्परता पूर्वक युवा डाक्टरों द्वारा किये गए आपरेशन के समय उन्हें एड्स के संक्रमण का खतरा पैदा हो गया है । इन समस्याओं पर ध्यान देने वाला शायद कोई नहीं है . कलेक्टरों को आदेश भर देना ही प्रशासन नहीं होता है। बजट ,कर्मचारी तथा अन्य सुविधाएँ भी देनी होती हैं ।
डा ए डी खत्री