रविवार, 13 फ़रवरी 2011

न्यायालयों का अस्तित्व कब तक


न्यायालयों का अस्तित्व तभी तक रहता है जब तक वे न्याय करने में सक्षम होते हैं . अंग्रेजों के आने के पूर्व भारत में कानून की स्थिति बड़ी दयनीय हो गई थी . काजिओं को कोई वेतन नहीं मिलता था . विवादग्रस्त व्यक्तियों के शुल्क से उनके खर्चे चलते थे .जो व्यक्ति अधिक धन देता था उसके पक्ष में निर्णय हो जाता था . एक नगर काजी ने एक नर्तकी को गाने के लिए बुलवाया . उसे पूर्व में नृत्य के लिए पैसे नहीं मिले थे . अतः उसने आने से इनकार कर दिया . उसे पकड्वाकर लाया गया और उसका सिर कलम कर दिया गया . लोग अपनी व्यथा किससे कहते ? इसलिए जब अंग्रेजों ने अपने कोर्ट प्रारंभ किये तो लोगो ने उसे शीघ्र स्वीकार कर लिया और भारतीय न्याय व्यवस्था समाप्त हो गई . आज भारतीय न्यायालय एक चौराहे पर खड़े हैं . यदि वे उचित मार्ग का चयन नहीं कर सके तो न्यायालयों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा .
भारत में विभिन्न न्यायालयों में ढाई करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं . यदि एक मुकदमें में न्यूनतम दो व्यक्तियों को लें तो ५ करोड़ से अधिक लोग न्याय के लिए भटक रहे हैं . हमारे न्यायालय इन्हें न्याय देने में सक्षम नहीं हैं , इसे स्वीकार करने के अलावा हमारे पास क्या विकल्प है? इससे यह भी स्पष्ट होता है की भारत में अपराध तो जम कर हो रहे हैं , अभियुक्त भी हैं परन्तु अपराधी नहीं हैं . यदि अपराधी होते तो उन्हें सजा भी मिलती . न्याय का यह सिद्धांत कोई बुरा नहीं है कि ९९ अपराधी भले ही छूट जाएँ परन्तु एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए . इसलिए १०० में से ९९ अपराधियों को छोड़ दिया जाता है , चाहे वे पैसे और अच्छे वकीलों के कारण न्यायालय से छूट जाएँ , उन्हें पुलिस छोड़ दे या फिर पुलिस पकडे ही नहीं . जो निर्णय होते भी हैं , उन्हें न्याय कहा जा सके , यह भी आवश्यक नहीं है . अधिकांश प्रकरणों में तथा कथित सरकार के लोग गैर कानूनी कार्य करते हैं जैसे पुलिस पर दबाव डालना , गवाहों को परेशान करना , दोषी नेता , अफसर के विरुद्ध मुक़दमे कि अनुमति न देना , मुक़दमे को ठीक से प्रस्तुत न करना , निर्णय आने के बाद उस पर अमल करने में हील - हवाला करना आदि . ऐसे अधिकांश प्रकरणों में हमारे न्यायालय कुछ नहीं कर पाते हैं . आज जो कुछ हो रहा है , अपराध बढ़ रहे हैं , भ्रष्टाचार हो रहा , मंहगाई बढ़ रही है या आतंकवाद बढ़ रहा है , उसके लिए हमारी न्याय -व्यवस्था ही उत्तरदाई है .
१९७५ में इंदिरा गाँधी का चुनाव इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अवैध करार दे दिया था . पद से हटने के स्थान पर उन्होंने आपात काल लगा दिया , मनमाने ढंग से उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश कि नियुक्ति कर दी , विपक्षियों को जेलों में ठूंसकर यातनाएं दी , उनकी ओर से न्यायालय में स्पष्ट बयान दिया गया कि आपातकाल में लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं है ( वे सरकार अर्थात सत्तारूढ़ दल कि दया पर जीवित रह सकते हैं ), न्यायालयों ने उनका क्या कर लिया ? आज सी वी सी थामस कह रहें हैं कि ( मान लिया मैं भ्रष्ट हूँ ) जब भ्रष्टाचारी मंत्री हो सकता है तो वह सी वी सी क्यों नहीं हो सकते ? कल यदि वह यह कहेंगे कि भ्रष्ट न्यायाधीश हो सकते हैं तो वे अपना पद क्यों छोड़ें और सरकार , जिसने चुनकर उन्हें कुर्सी सौंपी है, कह दे कि वह पद नहीं छोड़ रहा है, तो न्यायालय के पास उसे हटाने का क्या उपाय है ? उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिए कि रैगिंग नहीं होनी चाहिए , रैगिंग नहीं रुकी , न्यायालय ने बंद- आन्दोलन को अवैध करार दिया , सामान्य बंद तो छोडिये , लोगों ने पटरियां उखाड़ फेंकी , अनेक दिनों तक रेल नहीं चल सकी , न्यायालय खामोश रहे , क्यों ? जब कोई व्यक्ति अपना समय ख़राब करके , पैसे जुटाकर अच्छे वकील करके महीनों तक न्यायालय के चक्कर लगा पाएगा , तब न्यायालय उस पर महीनों - वर्षों तक सुनवाई करके कोई निर्णय दे पाएँगे . न्यायलयों की इसी कार्य प्रणाली के कारण पूर्व लोक सभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी कहते थे कि लोकसभा के कार्यों में न्यायालय हस्तक्षेप न करें , अब हमारे इमानदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी कह रहे हैं कि न्यायालय अपनी हद में रहें . किसी भी सरकार के लिए न्यायपालिका , कार्यपालिका और
विधायिका (व्यवस्थापिका ) में परस्पर संघर्ष शुभ नहीं है . यह स्थिति न्यायालयों ने स्वयं उत्पन्न की है . शायद ही कोई न्यायाधीश बता सके कि भारत के न्यायालय और न्यायाधीश किसके प्रति उत्तरदाई हैं .इसीलिए अफजल गुरु को सजा देने या न देने का अंतिम निर्णय महामहिम राष्ट्रपति के नाम पर कानून के विशेषग्य उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के स्थान पर मेल-मेल के नेताओं से बने मंत्रिमंडल के पास है जिसे सब सरकार कहते हैं .
भारत के संविधान में 'सरकार' नाम कि कोई अवधारणा नहीं है . उसमें व्यवस्थापिका है, न्यायपालिका है तथा कार्यपालिका के विभिन्न अंग ( मंत्रिमंडल एवं विभिन्न संवैधानिक अधिकारी जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त, सी वी सी आदि ), राष्ट्रपति , उपराष्ट्रपति , राज्यपाल आदि हैं .व्यवस्थापिका , कार्यपालिका तथा न्यायपालिका ,तीनों मिलकर सरकार बनते हैं, जिसका प्रमुख राष्ट्रपति होता है तथा सरकार के सभी काम राष्ट्रपति के नाम से होंगे . मंत्रिमंडल अकेला सरकार नहीं होता है . जब सरकार के विरुद्ध कोई मुकदमा होता है तो कोर्ट में पेशी सचिव कि होती है , मंत्री सरकार हैं , तो मंत्री की पेशी क्यों नहीं होती है . यदि सरकार पर जुर्माना लगता है तो उसे न मंत्री देता है , न सचिव देता है , उसे जनता के धन से दिया जाता है . यह न्याय की कौन सी परिभाषा में आता है , समझ से परे है .
सरकार का अभिप्राय उस सम्प्रभु शक्ति से है जो अपने राज्य में अपने आदेश का पालन प्रेम से अथवा बलपूर्वक कर सकती है . यदि कोई कार्य कार्यपालिका द्वारा नियमानुसार किये जाते हैं ,न्यायालय में उसके विरुद्ध कोई वाद दायर नहीं होता है तो वह कार्य सरकार के कार्य होते हैं .यदि मंत्री या अफसर के कार्य को न्यायालय में चुनौती दे दी जाती है तो वे कार्य न्यायालय द्वारा सही करार कर दिए जाने के पूर्व वैध कार्य नहीं माने जा सकते हैं . मंत्री-अफसर द्वारा किये कार्यों को ( जैसे वर्तमान में सी वी सी थामस की नियुक्ति )न्यायालय द्वारा स्वयं 'सरकार के कार्य ' कहना ही न्यायालय एवं कार्यपालिका तथा न्यायालय एवं व्यवस्थापिका के मध्य अधिकारों के विवाद की जड़ है और इसे न्यायालयों ने स्वयं उत्पन्न किया है . न्यायालय स्वयं आँख बंद करके बैठे रहेंगे जैसा ध्रतराष्ट्र के समय हुआ था , तो महाभारत होगा ही जैसे आज अरब देशों में हो रहा है . ऐसी स्थिति निर्मित होने पर न्यायालयों का अस्तित्व भी नहीं रहता है .

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डा . ए. डी. खत्री ,
संपादक रजतपथ ,भोपाल

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