बुधवार, 18 सितंबर 2013

नाज़ीवाद

               नाज़ीवाद
नाज़ीवाद एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका जिसे जर्मनी के तानाशाह हिटलर ने प्रारंभ किया था . हिटलर का मानना था कि जर्मन आर्य है और विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं . इसलिए उनको सारी दुनिया  पर राज्य करने का अधिकार है . अपने तानाशाही पूर्ण आचरण से उसने विश्व को द्वितीय विश्व युद्ध  में झोंक दिया था . १९४५ में हिटलर के मरने  के साथ ही नाज़ीवाद का अंत हो गया परन्तु ‘नाज़ीवाद’ और ‘हिटलर होना’ मानवीय क्रूरता के पर्याय बन कर आज भी भटक रहे है .
    हिटलर का जन्म १८८९ में आस्ट्रिया में हुआ था . १२ वर्ष की३ आयु में उसके पिता का निधन हो गया था जिससे उसे आर्थिक संकटों से जूझना पड़ा . उसे चित्रकला में बहुत रूचि थी . उसने चित्रकला पढने के लिए दो बार प्रयास किये परन्तु उसे प्रवेश नहीं  मिल सका . बाद में उसे मजदूरी तथा घरों में पेंट करके जीवन यापन करना पड़ा . प्रथम विश्व युद्ध प्रारंभ होने पर वह सेना में भरती हो गया . वीरता के लिए उसे आर्यन क्रास से सम्मानित किया गया . युद्ध समाप्त होने पर वह एक दल जर्मन लेबर पार्टी में सम्मिलित हो गया जिसमें मात्र २०-२५ थे . हिटलर के भाषणों से अल्प अवधि में ही उसके सदस्यों की संख्या हजारों में पहुँच गई . पार्टी का नया नाम रखा गया ‘नेशनल सोशलिस्ट जर्मन लेबर पार्टी’ . जर्मन में इसका संक्षेप में नाम है ‘नाज़ी पार्टी’ . हिटलर द्वारा प्रतिपादित इसके सिद्धांत ही नाज़ीवाद कहलाते हैं .
   हिटलर ने जर्मन सरकार के विरुद्ध विद्रोह का प्रयास किया . उसे बंदी बना लिया गया और ५ वर्ष की जेल हुई . जेल में उसने अपनी आत्म कथा ‘मेरा संघर्ष’ लिखी . इस पुस्तक में उसके विचार दिए हुए हैं . इस पुस्तक की लाखों प्रतियाँ शीघ्र बिक गईं जिससे उसे बहुत ख्याति मिली . उसकी  नाज़ी पार्टी को पहले तो चुनावों में कम सीटें मिलीं परन्तु १९३३ तक उसने जर्मनी की सत्ता पर पूरा अधिकार का लिया और एक छत्र तानाशाह बन गया . उसने अपने आसपास के देशों पर कब्जे करने शूरू कर दिए जिससे दूसरा विश्व युद्ध प्राम्भ हो गया . वह यहूदियों से बहुत घृणा करता था . उसने उन पर बहुत अत्याचार किये , कमरों में ठूँसकर विषैली गैस से हजारों लोग मार दिए गए . ६ वर्षों के युद्ध के बाद वह हार गया और उसने अपनी प्रेमिका, जिसके साथ उसने एक-दो दिन पहले ही विवाह किया था, के साथ गोली मारकर आत्महत्या कर ली .
                     नाज़ीवाद के उदय के कारण       
प्रथम विश्व युद्ध १९१४ से १९१९ तक चला . इसमें जर्मनी हार गया .युद्ध के कारण उसकी बहुत क्षति हुई . इन सब के ऊपर ब्रिटेन, फ़्रांस आदि मित्र राष्ट्रों ने उस पर बहुत अधिक दंड लगा दिए . उसकी सेना बहुत छोटी कर दी, उसकी प्रमुख खदानों पर कब्ज़ा कर लिया तथा इतना अधिक अर्थ दंड लगा दिया कि अनेक वर्षों तक अपनी अधिकांश  कमाई देने के बाद भी कर्जा कम नहीं हो रहा था .१९१४ में एक डालर =४.२ मार्क था जो १९२१ में ६० मार्क, नवम्बर १९२२ में ७०० मार्क,जुलाई १९२३ में एक लाख ६० हजार मार्क तथा नवम्बर १९२३ में एक डालर  = २५ ख़राब २० अरब मार्क के बराबर हो गया . अर्थात मार्क लगभग शून्य हो गया जिससे मंदी, मंहगाई और बेरोजगारी का अभूतपूर्व संकट पैदा हो गया . उस समय चुनी हुई सरकार के लोग अपना जीवन तो ठाट- बात से बिता रहे थे परन्तु देश की समस्याएँ कैसे हल करें , उन्हें न तो इसका ज्ञान था और न ही बहुत चिंता थी . ऐसे समय में हिटलर ने अपने ओजस्वी भाषणों से जनता को समस्याएँ हल करने का पूरा विश्वास दिलाया . इसके साथ ही उसके विशेष रूप से प्रशिक्षित कमांडों विरोधियों को मरने तथा आतंक फ़ैलाने के काम भी कर रहे थे जिससे उसकी पार्टी को धीरे- धीरे सत्ता में भागीदारी मिलती गई और एक बार चांसलर ( प्रधान मंत्री ) बनने  के बाद उसने सभी विरोधियों का सफाया कर दिया और संसद की सारी शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित कर ली . उसके बाद  वे देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री सबकुछ बन गए . उन्हें फ्यूरर कहा जाता था .
    नाज़ीवाद का आधार
हिटलर से 11वर्ष पूर्व इटली के प्रधानमंत्री मुसोलिनी भी अपने फ़ासीवादी विचारों के साथ तानाशाही पूर्ण शासन चला रहे थे . दोनों विचारधाराएँ समग्र अधिकारवादी, अधिनायकवादी, उग्र सैनिकवादी, साम्राज्यवादी, शक्ति एवं प्रबल हिंसा की समर्थक,लोकतंत्र एवं उदारवाद की विरोधी, व्यक्ति की समानता,स्वतंत्रता एवं मानवीयता की पूर्ण विरोधी तथा राष्ट्रीय समाजवाद (अर्थात राष्ट्र ही सब कुछ है . व्यक्ति के सारे कर्तव्य राष्ट्रीय हित में कार्य करने में हैं ) की कट्टर समर्थक हैं . ये सब समानताएं होते हुए भी जर्मनी ने अपने सिद्धांत फासीवाद से नहीं लिए . इसका विधिवत प्रतिपादन १९२० में गाटफ्रीड ने किया था जिसका विस्तृत विवरण हिटलर ने अपनी पुस्तक ‘मेरा संघर्ष’ में किया तथा १९३० में ए. रोज़नबर्ग ने पुनः इसकी व्याख्या की थी . इस प्रकार  हिटलर के सत्ता में आने के पूर्व ही नाज़ीवाद के सिद्धांत स्पष्ट रूप से लोगों के सामने थे जबकि अपने कार्यों को सही सिद्ध करने के लिए मुसोलिनी ने सत्ता में आने के बाद अपने फ़ासीवादी सिद्धांतों को प्रतिपादित किया था . इतना ही नहीं जर्मनों की श्रेष्ठता का वर्णन अनेक विद्वान् करते आ रहे थे और १०० वर्षों से भी अधिक समय से जर्मनों के मन में अपनी श्रेष्ठता के विचार पनप रहे थे जिन्हें हिटलर ने मूर्त रूप प्रदान किया .
                                      नाज़ीवाद के सिद्धांत
प्रजातिवाद : १८५४ में फ्रेंच लेखक गोबिनो ने १८५४ तथ१८८४ में अपने निबंध ‘मानव जातियों की असमानता’में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि विश्व की सभी प्रजातियों में गोरे आर्य या ट्यूटन नस्ल सर्वश्रेष्ठ है . १८९९ में ब्रिटिश लेखक चैम्बरलेन ने इसका अनुमोदन किया .जर्मन सम्राट कैसर विल्हेल्म द्वितीय ने देश में सभी पुस्तकालयों में इसकी पुस्तक रखवाई तथा लोगों को इसे पढ़ने के लिए प्रेरित किया . अतः जर्मन स्वयं को पहले से ही सर्व श्रेष्ठ मानते थे . नाज़ीवाद में इस भावना को प्रमुख स्थान दिया गया .
  हिटलर ने यह विचार रखा कि उनके अतिरिक्त अन्य गोरे लोग भी  मिश्रित प्रजाति के हैं अतः जर्मन लोगों को यह नैसर्गिक अधिकार है कि वे काले एवं पीले लोगों पर शासन करें, उन्हें सभ्य बनाएं इससे हिटलर ने यह स्वयं निष्कर्ष निकल लिया कि उसे अन्य लोगों के देशों पर अधिकार करने का हक़ है . उसने लोगों का आह्वान किया कि श्रेष्ठ जर्मन नागरिक शुद्ध रक्त की संतान उत्पन्न करें . जर्मनी में अशक्त एवं रोगी लोगों  के संतान उत्पन्न करने पर रोक लगा दी गई ताकि देश में भविष्य सदैव स्वस्थ एवं शुद्ध रक्त के बच्चे ही जन्म लें .
   हिटलर का मानना था कि यहूदी देश का भारी शोषण कर रहे हैं . अतः वह उनसे बहुत घृणा करता था . परिणाम स्वरूप सदियों से वहां रहने वाले यहूदियों को अमानवीय यातनाएं दे कर मर डाला गया और उनकी संपत्ति राजसत कर ली गई . अनेक यहूदी देश छोड़ कर भाग गए . उस भीषण त्रासदी ने यहूदियों के सामने अपना पृथक देश बनाने के चुनौती  उत्पन्न कर दी जिससे इस्रायल का निर्माण हुआ .  
राज्य सम्बन्धी विचार : नाजीवाद में राज्य को साधन के रूप में स्वीकार किया गया है जिसके  माध्यम से लोग प्रगति करेंगे . हिटलर के मतानुसार राष्ट्रीयता पर आधारित राज्य ही शक्तिशाली बन सकता है क्योंकि उसमें नस्ल,भाषा, परंपरा, रीति-रिवाज आदि सभी सामान होने के कारण लोगों में सुदृढ़ एकता और सहयोग की भावना होती है जो विभिन्न भाषा, धर्म  एवं प्रजाति के लोगों में होना संभव नहीं है . हिटलर ने सभी जर्मनों को एक करने के लिए अपने पड़ोसी देशों आस्ट्रिया, चेकोस्लोवाकिया आदि के जर्मन बहुल इलाकों को उन देशों पर दबाव डाल कर जर्मनी में मिला लिया तथा बाद में उनके पूरे देश पर ही कब्ज़ा कर लिया . अनेक  देशों पर कब्ज़ा करने को नाजियों ने इसलिए आवश्यक बताया कि सर्व श्रेष्ठ होते हुए भी जर्मनों के पास भूमि एवं संसाधन बहुत कम हैं जबकि उनकी आबादी बढ़ रही है . समुचित जीवन निर्वाह के लिए अन्य देशों पर अधिकार करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है .इसलिए हिटलर एक के बाद दूसरे देश पर कब्जे करता चला गया .
   जर्मनी में राज्य का अर्थ था हिटलर . वह देश, शासन, धर्म सभी का प्रमुख था . हिटलर को सच्चा देवदूत कहा जाता था . बच्चों को पाठशाला में पढ़ाया जाता था – “ हमारे  नेता एडोल्फ़ हिटलर, हम आपसे से प्रेम करते हैं, आपके लिए प्रार्थना करते हैं, हम आपका भाषण सुनना चाहते हैं . हम आपके लिए कार्य करना चाहते हैं .” हिटलर ने अपने कमांडों के द्वारा आतंक का वातावरण पहले ही निर्मित कर दिया था . उसे जैसे ही सत्ता में भागीदारी मिली ,उसने सर्व प्रथम विपक्षी दलों का सफाया कर दिया . एक राष्ट्र , एक दल, एक नेता का सिद्धांत उसने बड़ी क्रूरता पूर्वक लागू किया था . उसके विरोध का अर्थ था मृत्यु . 
व्यक्ति का स्थान : नाजी  कान्त तथा फिख्टे  के इस विचार को मानते थे कि व्यक्ति के लिए सच्ची स्वतंत्रता इस बात मेंनिहित है कि वह राष्ट्र के कल्याण के लिए कार्य करे . उनका कहना था कि एक जर्मन तब तक स्वतन्त्र नहीं हो सकता जब तक जर्मनी राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र न हो जो उस समय वह वार्साय संधि की शर्तों के अनुसार नहीं था .नाजियों का एक ही नारा था कि व्यक्ति कुछ नहीं है , राष्ट्र सब कुछ है . अतः व्यक्ति को अपने सभी हित राष्ट्र के लिए बलिदान कर देने चाहिए . मित्र देशों के चंगुल से जर्मनी को मुक्त करने के लिए उस समय यह भावना आवश्यक भी थी .परन्तु नाजियों ने इसका विस्तार जीवन के सभी क्षेत्रों – शिक्षा, धर्म, साहित्य, संस्कृति, कलाओं,  विज्ञान, मनोरंजन,अर्थ-व्यवस्था आदि सभी क्षेत्रों में कर दिया था .इससे सभी नागरिक नाज़ियो के हाथ के कठपुतले से बन गए थे .
बुद्धिवाद का विरोध : शापेनहार, नीत्शे, जेम्स, सोरेल, परेतो जैसे अनेक दार्शनिकों ने बुद्धिवाद के स्थान पर लोगों की सहज बुद्धि ( इंस्टिंक्ट ), इच्छा शक्ति,और अंतर दृष्टि ( इंट्यूशन )को उच्च स्थान दिया था . नाजी भी इसी विचार को मानते थे कि व्यक्ति अपनी बुद्धि से नहीं भावनाओं से कार्य करता है . इसलिए अधिकांश पढ़े-लिखे और सुशिक्षित व्यक्ति भी मूर्ख होते हैं .उनमें निष्पक्ष विचार करने के क्षमता नहीं होती है .वे अपने मामलों में भी बुद्धि पूर्वक विचार नहीं करते हैं .वे भावनाओं तथा पूर्व निर्मित अव धारणाओं के अधर पर कार्य करते हैं . इसलिए जनता को यदि अपने अनुकूल कर लिया जाये तो उसे बड़े से बड़े झूठ को भी सत्य मनवाया जा सकता है . बुद्धि का उपयोग करके लोग परस्पर असहमति तो बढ़ा सकते हैं परन्तु किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते हैं . अतः बुद्धिमानों को  साथ लेकर एक सफल एवं शक्ति शाली संगठन नहीं बनाया जा सकता है . शक्ति शाली राष्ट्र निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि लोगों को बुद्धमान बनाने के स्थान पर उत्तम नागरिक बनाया जाना चाहिए . उनके लिए तर्क एवं दर्शन के स्थान पर शारीरिक, नैतिक एवं औद्योगिक शिक्षा देनी चाहिए . उच्च शिक्षा केवल प्रजातीय दृष्टि से शुद्ध जर्मनों को ही दी जानी चाहिए जो राष्ट्र के प्रति अगाध श्रद्धा रखते हों . नेताओं को भी उतना ही बुद्धिवादी होना चाहिए कि वह जनता कि मूर्खता से लाभ उठा सके और अपने कार्य क्रम बना सकें .  अबुद्धिवाद से नाज़ियों ने अनेक महत्वपूर्ण परिणाम निकाले और अपनी पृथक राजनीतिक विचारधारा स्थापित की .
लोकतंत्र विरोधी : प्लेटो की भांति हिटलर भी लोकतंत्र का आलोचक था . उसके अनुसार अधिकांश व्यक्ति बुद्धि शून्य, मूर्ख, कायर और निकम्मे होते हैं जो अपना हित नहीं सोच सकते हैं . ऐसे लोगों का शासन कुछ भद्र लोगों द्वारा ही चलाया जाना चाहिए .
साम्यवाद विरोधी : साम्यवाद मानता है कि अर्थ या धन ही सभी कार्यों का प्रेरणा श्रोत है . धन के लिए ही व्यक्ति कार्य करता है और उसी के अनुसार सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाएं निर्मित होती हैं . परन्तु अधिकांश व्यक्ति बुद्धिहीन  होने के कारण  अपना हित सोचने में असमर्थ होते हैं . उनके अनुसार साम्यवाद वर्तमान से भी बुरे शोषण को जन्म देगा .
 अंध श्रद्धा ( सोशल मीथ ) : सोरेल की भांति हिटलर भी यही मानता था कि व्यक्ति बुद्धि और विवेक के स्थान पर अंध श्रद्धा से कार्य करता है . यह अंध श्रद्धा लोगों को राष्ट्र के लिए बड़ा से बड़ा बलिदान करने के लिए प्रोत्साहित कर सके . नाज़ियों ने जर्मन लोगों में अनेक प्रकार की अंध श्रद्धाएँ उत्पन्न कीं और उन्हें राष्ट्र निर्माण में तत्पर कर दिया .
शक्ति और हिंसा का सिद्धांत : नाज़ियों ने लोगो में अन्द्ध श्रद्धा उत्पन्न कर दी कि जो लड़ना नहीं चाहता उसे इस दुनियां में जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है . इस सिद्धांत को प्रतिपादित करना हिटलर की मजबूरी भी थी क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुई वार्साय की संधि में उस पर जो दंड एवं प्रतिबन्ध लगे गए थे , वार्ता द्वारा उससे बाहर निकलने का कोई मार्ग नहीं था . उन परिस्थितियों में युद्ध ही एक मात्र रास्ता था और उसके लिए सभी जर्मन वासियों का सहयोग आवश्यक था . इसलिए लोगों ने उसे सहयोग भी दिया .
अर्थव्यवस्था : वह साम्यवाद का विरोधी था इसलिए जर्मनी के पूंजीपतियों ने उसे पूरा सहयोग दिया . परन्तु उसका पूंजीवाद स्वच्छंद नहीं था , उसे मनमानी लूट और धन अर्जन का अधिकार नहीं था . वह उसी सीमा तक मान्य था जो नाज़ियों के सिद्धांत और जर्मन राष्ट्र के हित के अनुकूल हो .
   उसने उत्पादन बढ़ने के लिए सभी तरह के आंदोलनों , प्रदर्शनों और हड़तालों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था . सभी वर्गों के संगठन बना दिए गए थे जो विवाद होने पर न्यायोचित समाधान निकाल लेते थे ताकि किसी का भी अनावश्यक शोषण न हो . अधिक रोजगार देने के लिए उसने पहले एक परिवार एक नौकरी का सिद्धांत लागू किया फिर अधिक वेतन वाले पदों का वेतन घटा कर एक के स्थान पर दो व्यक्तियों को रोजगार दिया . इस प्रकार उसने दो वर्षों में ही अधिकांश लोगों , जिनकी संख्या लाखों में थी, को रोजगार उपलब्ध कराये . इससे शिक्षा, व्यवसाय, कृषि, उद्योग, विज्ञानं, निर्माण आदि सभी क्षेत्रों में जर्मनी ने अभूतपूर्ण उन्नति कर ली . १९३३ से लेकर १९३९ तक छः वर्षों में उसकी प्रगति का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि जिस जर्मनी का कोष रिक्त हो चुका था, देश पर अरबों पौंड का कर्जा था, प्राकृतिक संसाधनों पर मित्र देशों ने कब्ज़ा कर लिया था और उसकी सेना नगण्य रह गई थी , वही जर्मनी विश्व के बड़े राष्ट्रों के विरुद्ध एक साथ आक्रमण करने कि स्थिति में था, सभी देशों में हिटलर का आतंक व्याप्त था और वह इंग्लैंड, रूस तक अपने देश में बने विमानों से जर्मनी में ही बने बड़े-बड़े बम गिरा रहा था . मात्र छः वर्षों में उसने इतना धन एवं शक्ति अर्जित कर ली थी जो अनेक वर्षों में भी संभव नहीं है .
  स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने के कारण  हिटलर युद्ध हार गया, उसने आत्म हत्या कर ली .  पराजित हुआ व्यक्ति ही इतिहास में गलत माना जाता है अतः द्वितीय विश्वयुद्ध की सभी गलतियों के लिए हिटलर और मुसोलिनी उत्तरदायी ठहराए गए और आज भी सभी राजनीतिक विद्रूपताओं के लिए ‘हिटलर होना’, ‘फासीवादी होना’ मुहावरे बन गए हैं .

    हिटलर और नाज़ियों के अबुद्धिवाद के सिद्धांत अर्थात मनुष्य बुद्धिशून्य और मूर्ख होता है और अपना हित नहीं समझ पाता है का सर्वाधिक कुशलता पूर्वक प्रयोग भारत में हो रहा है . नेता परिवारों  के प्रति अंध श्रद्धा के कारण ही यहाँ के लोकतंत्र में सामंत का लड़का- लड़की सामंत, मुख्यमंत्री का लड़का मुख्यमंत्री , मंत्री का लड़का मंत्री आसानी से बन जाते हैं. उसी अबुद्धिवाद और अंध श्रद्धा के कारण सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी ही देश चला सकते हैं क्योंकि वे नेहरु और इंदिरा गाँधी के वारिस हैं भले ही कांग्रेस के शासन कल में भ्रष्टाचार और मंहगाई, अपराध, साम्प्रदायिकता और आतंकवाद निरंतर बढ़ते जा रहे हों . उसी के आधार पर एक कुशल नेता की छवि निर्मित करके अब नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री बनने के प्रयास कर रहे हैं . उनकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि देश के कितने लोगों में  उनके प्रति अंध श्रद्धा उत्पन्न हो पाती है .          

मैं एक विद्यार्थी (३)

     मैं एक विद्यार्थी (३)
   मुझे क्या करना है , कैसे करना है , कहाँ पढ़ना है, क्या पढ़ना है  झे ही लेने होते थे . मैंने दसवीं कक्षा बीएनएसडी इंटर कालेज से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी और मेरे सभी सहपाठियों को बहुत अच्छे अंक मिले थे . परन्तु दूर होने के कारण मैंने ११वीं अपेक्षा कृत निकट के मारवाड़ी इंटर कालेज, जो कैनाल रोड पर स्थित है से करना उचित समझा . वहां ११ वीं विज्ञान में प्रवेश लेने वाले छात्रों में मात्र ५ छात्र ही १० वीं में प्रतम श्रेणी उत्तीर्ण थे जिनमें मेरे अंक सबसे अधिक थे और अंत तक अधिक बने रहे . उस समय संस्थाओं का नियंत्रण उनकी संचालक समितियां ही करती थीं . शासन शिक्षकों को पूरा वेतन अनुदान तो देते थे परन्तु वर्तमान के समान अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करते थे . अतः शिक्षक जाति – धर्म के अनुसार न रख कर योग्यता के आधार पर रखे जाते थे . वे अपना दायित्व समझते थे . वे व्यक्तिगत स्तर पर ट्यूशन भले ही पढ़ते रहें हों,  कक्षाओं में नियमित रूप से पढ़ाना और अपनी पूरी लगन से पढ़ाना उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती थी . सैद्दांतिक विषयों की पढ़ाई के साथ प्रायोगिक कार्य भी अच्छी प्रकार कराये जाते थे और आज की भांति बिना प्रायोगिक कार्य  कराये परीक्षा में अंक देने की परम्परा नहीं थी . रसायन विज्ञान की प्रायोगिक परीक्षा वरिष्ठ छात्रों से सुना था कि उनके बाह्य परीक्षक बड़े सख्त थे, वे मिश्रण अपने कालेज से बना के लाये थे जो किसी में घुल ही नहीं रहा था अर्थात उसका विश्लेषण बहुत कठिन था . उत्तर प्रदेश में अधिकांश कालेज प्राइवेट हैं परन्तु उस समय उनका पढ़ाई का स्तर बहुत अच्छा होता था . हाँ, एक तथ्य यह भी था कि कालेजों का स्तर बहुत स्पष्ट था . किस अंक के छात्र प्रवेश के लिए किस कालेज को प्राथमिकता देंगे, यह कालेज के नाम से ही ज्ञात हो जाता था . उसी के अनुरूप बोर्ड में मेरिट भी आती थीं . मारवाड़ी कालेज वाणिज्य विषयों के लिए प्रसिद्ध था .विज्ञान विषय सामान्य थे अतः प्रथम श्रेणी के कम छात्र प्रवेश लेते थे . इसलिए वहां कक्षा में कम्पटीशन का माहौल नहीं था परन्तु जैसा मैंने कहा शिक्षक अच्छा पढ़ाते थे . इसलिए उनका छात्रों पर नियंत्रण भी अच्छा होता था . किसी विवाद पर कालेज में पुलिस का आना प्राचार्य क्या शिक्षक भी अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझते थे . दूसरे शब्दों में उस समय के शिक्षक अपनी योग्यता से कालेज में अनुशासन बनाने में सक्षम थे . अतः पढ़ाई भी होती थी और छात्र पढ़ते भी इस भावना से थे कि इसी से उनका भविष्य बनेगा . वह ज़माना मुफ्त के अंक देने वाले शिक्षकों और मुफ्त के सर्टिफिकेट बाँटने वाले बोर्डों, विश्वविद्यालयों और सरकारों का नहीं था .
   कक्षा में मेरे अंक सर्वाधिक थे, अतः मुझसे अच्छे अंक लाने की आशा करना स्वाभाविक था . तिमाही की परीक्षा हो रही थी . गणित के प्रश्नपत्र में मेरे होश उड़ गए . मैंने आसान समझ  कर पहला प्रश्न प्रारंभ किया . मैं उसमें अटक गया . दूसरे प्रश्न और फिर तीसरे प्रश्न में भी अटक गया . इसका अर्थ था शून्य अंक आना . मैंने पेन रख दिया और आँखें बंद करके बैठ गया कि अब क्या करूँ . तिमाही के अंक सालाना में नहीं जोड़े जाते थे पर पेपर छोड़ कर भाग भी नहीं सकते थे . थोड़ी देर बाद पुनः प्रयास किया, ईश्वर की कृपा से सभी प्रश्न सही होते चले गए . उस समय रिफ्रेशर बुक्स नहीं आती थीं . उच्च स्तरीय मणि जाने वाली त्रिकोंमिति और स्थिति विज्ञान की पुस्तकें १०० वर्ष पहले लिखी गेन थीं और उसी रूप में चल रही थीं . गणित की पुस्तकों में जो प्रश्न हल किए रहते थे, उनसे समझना पड़ता था . शिक्षक कठिन प्रश्न भी हल करवाते थे . भौतिक या रसायन शास्त्र के आंकिक प्रश्न स्वयं करने होते थे . वह कोचिंग का ज़माना नहीं था . शिक्षक निजी स्तर पर ट्यूशन पढ़ाते थे . १२ वीं की परीक्षा में ११वीं का पाठ्यक्रम भी रहता था . एक प्रश्नपत्र ११वीं से एवं दूसरा १२वीं के कोर्स से आता था . भौतिक शास्त्र में प्रश्न के साथ नुमेरिकल रहता था या लम्बे उत्तर का प्रश्न होता था . आब्जेक्टिव प्रश्न नहीं होते थे . इसलिए उत्तीर्ण होने के लिए भी पूरा पाठ्य क्रम पढ़ना पड़ता था . १२ वीं में प्रथम श्रेणी लाना कठिन माना जाता था . मेरी लिखने की गति कम थी और स्मरण शक्ति भी कुछ कम थी . परिश्रम करके १२वीं में ७१.४% आ गए जो कालेज में सर्वाधिक थे . उसका प्रभाव यह हुआ कि मारवाड़ी कालेज के मेरिट बोर्ड पर १९६७ की सूची में मेरा नाम भी दर्ज हो गया जो आज भी लगी हुई है .
    दसवीं में मुझे ७२.६% अंक मिले थे जो  राष्ट्रीय छात्र वृत्ति के लिए वांछित अंकों से ४ कम थे . अतः मुझे ५० रुपये प्रतिमाह के स्थान पर १६ रूपये प्रति माह की छात्र वृत्ति मिली परन्तु १२ वीं के बाद विश्वविद्यालय की ६०० रूपये सालाना की छात्रवृत्ति मिल गई . उन दिनों भी सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं था . सतयुग में भी राक्षस होते थे . दसवीं में हमारे जैसे छात्र दिन –रात परिश्रम से पढ़ते थे . हमारे मोहल्ले का एक छात्र पढ़ने में कमजोर था . वह परीक्षा के दिन प्रातः ३ बजे १२ किमी दूर कहीं जाता था . उसे पैसे देकर पेपर बता दिया जाता था जिससे वह उन प्रश्नों के उत्तर याद करके ७ बजे परीक्षा दे देता था . उसने प्रत्येक पेपर ऐसे ही दिया . वह मुश्किल से पास हो पाया था . विज्ञान विषयों के साथ हमें हिंदी एवं अंग्रेजी साहित्य भी पढ़ना होता था . दोनों में ५-५ पुस्तकें थीं . हिंदी गद्य-पद्य दोनों में प्राचीन लेखकों और कवियों की रचनाएं ही पढाई जाती थीं . पद्य में सूर-तुलसी से लेकर पद्माकर, सेनापति, प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा आदि की रचनाएं थीं . मेरी स्मरण शक्ति भी कमजोर थी . भूल जाता था . कहीं  शब्दों के अर्थ कठिन होते तो कही भाव . ऊपर से अलंकारों – समासों का भी हिसाब रखो . आदत के अनुसार पूरा पाठ्यक्रम पढ़ते थे . सारी  रात पढ़ते बीत गई . सुबह तो  पुस्तकें छोड़ने की मजबूरी थी . कालेज जाने का समय हो गया था . जितना बना कर आये . परीक्षा देकर बाहर आये तो हल्ला था कि वह पेपर पिछली रात आउट हो गया था . संभव था कि उसे पूरे प्रदेश में निरस्त करके पुनः करवाया जाय. मुसीबत आती है तो सीधे लोगों के लिए ही आती है . पर  हवा आई और चली गई .
    परीक्षा में नकल करना आसान नहीं था . इसलिए उ.प्र. में अधिकांश प्राइवेट कालेज होने के बावजूद १०वीं और १२वीं का परीक्षा फल ३७-३८ प्रतिशत ही रहता था . अनुत्तीर्ण होने पर भी छात्र को उसी कक्षा में पुनः प्रवेश दे दिया जाता था क्योंकि बाहर कोचिंग थी नहीं , वह आगे कैसे पढता .फेल होने पर किसी को अपराधी मानकर कालेज से बाहर करने का पाप नहीं किया जाता था . इसके साथ ही मैं यह भी जानकारी दे दूं कि १९६३- ६४ में एयर मैन के चयन में भी पेपर ३०० रुपये में आउट हो जाता था . ऑब्जेक्टिव पेपर के प्रश्नों के उत्तर कि पहले का उत्तर ‘ए’ या दूसरे का ‘डी’ अदि बता दिए जाते थे . जिस प्रकार शरीर के साथ बीमारियाँ स्वाभाविक रूप से रहती हैं वैसे ही सामाजिक व्याधियां भी आदिकाल से रहती आई हैं और आगे भी आती रहेंगी . समय के अनुसार उसका रूप बदलता रहता है .
  पढने वाले छात्र होते थे तो कुछ उत्पति भी होते थे परन्तु वे शिक्षकों का आदर करते थे , उनके सामने उद्दंडता नहीं करते थे . एक फालतू घूमने वाल छात्र भी दिखता था . किस्में किस विषय पर क्या बात हुई , मुझे नहीं मालूम परन्तु उसे एक दुसरे लड़के ने उठक बैठक लगाने का दंड दिया . वह ठीक से उठ- बैठ नहीं पा रहा था .  दादा लड़के ने उसकी तलाशी ली . उसके पास चाकू था . चाकू जब्त करके उससे उठक बैठक करवाई .
  उन दिनों परिवार नियोजन के साधनों का प्रचार होने लगा था . हमारा कालेज भी अन्य कालेजों की तरह केवल लड़कों का था . छात्र भी उस पर चर्चा करते . एक दिन एक शिक्षक ने एक छात्र से एक पेन जब्त किया जिसके निचले पारदर्शी भाग में एक नग्न लड़की थी . फिर चर्चा थी कि शिक्षक स्टाफरूम में उसका अवलोकन कर रहे थे . 
   छुटपुट शरारतें अपनी जगह थीं परन्तु नैतिकता का स्तर बहुत ऊंचा था . उन दिनों मनोरंजन का साधन राम लीला होती थी . अनेक स्थानों पर १०-१२ दिन तक उसका मंचन होता था .  सीता स्वयंबर के बाद अर्ध रात्रि के बाद २-३ बजे परशुरामी होती थी जो प्रातः ६-७ बजे तक चलती थी . राम वनवास के दिन दशरथ का विलाप भी देर रात्री तक चलता था . रामलीला में बहुत भीड़ होती थी . बाल, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष सभी जाते थे . जब इच्छा हो वहां आते-जाते थे . महिलाऐं क्या लड़कियां भी बिना किसी समस्या के आती- जाती थीं . १९७० के बाद भी ऐसी घटनाएं  नहीं सुनने में आईं जिसमें लूट-खसोट या जोर जबरदस्ती की कोशिश की गई हो .
   हमारे घर के पीछे पार्क में सायं काल कुछ युवक कसरत करते थे , वेटलिफ्टिंग करते थे . सभी सामान्य परिवार के थे . मैं भी जाता था . उसमें बंगाली युवक अधिक आते थे . दुर्गा पूजा बंगाली बहुत उत्साह से मनाते हैं . एक  मोहल्ले  में दुर्गा पूजा के अवसर पर छोटा सा सांस्कृतिक कार्य क्रम हो रहा था जिसमें आमंत्रित श्रोताओं को भी गाने के लिए कहा जा रहा था . एक स्मार्ट युवक साधना- राजेन्द्र कुमार की फिल्म आरजू का गाना गाने लगा – ‘ए फूलों की रानी, बहारों की मल्लिका, तेरा मुस्कुराना गजब हो गया ' . वह सुर और लय में गा रहा था जिसमें उसकी आँखें और भाव भंगिमाएं भी साथ दे रही थीं . महिलाऐं और  लड़कियां भी थीं . बस एक युवक ने मंच पर चढ़ कर उसके सामने से माइक खींच लिया और उसे डांटकर नीचे उतार दिया कि स्टेज हीरोपंती के लिए नहीं है . यह उन्ही वर्जिश करने वालों में से एक था . कहने का तात्पर्य है उस समय युवकों की शक्ति समाज रक्षा में लगती थी . महिलाऐं भी सीमित दायरे में रहती थीं . दिल्ली की मुख्य मंत्री शीला दीक्षित कहती हैं कि वे अपने समय में बिना किसी भय के अकेले कालेज आती-जाती थीं परन्तु आज उनकी पोती घर से बाहर जाती है तो उन्हें चिंता रहती है . जन साधारण की सुरक्षा की बात कौन करे ?


             

मैं एक विद्यार्थी ( २ )

                        मैं एक विद्यार्थी ( २ )
  आठवीं की बोर्ड परीक्षा में अच्छे अंक आने के बाद यह तय करना था कि ९वीं में किस कालेज में प्रवेश लेना है . उत्तर प्रदेश में १० वीं तक तो विद्यालय कहलाते हैं परन्तु १२ वीं तक के स्कूलों को इंटर कालेज कहते हैं . उस समय अनेक प्रदेशों में हायर सेकेंडरी (११ वीं) स्कूल  के बाद कालेज की पढ़ाई प्रारंभ होती थी परन्तु यूपी में १०+२ व्यवस्था चल रही थी . अब सभी स्थानों पर १०+२+३ की स्नातक व्यवस्था है परन्तु पहले जिन प्रदेशों में हायर सेकेंडरी (११ वीं) स्कूल कहा जाता था ,वहां १२ वीं तक होने के बाद भी पूर्ववत स्कूल ही कहा जाता है और उ.प्र. में इंटर कालेज कहा जाता है जिनमें कक्षा ६ से १२ तक पढ़ाई होती है . उस समय कानपुर में  बीएनएसडी कालेज सर्वश्रेष्ठ कालेज गिना जाता था , आज भी है परन्तु २०१३ में अर्थात इसी वर्ष जब मैं वहां गया तो मुझे यह देख कर बहुत दुःख हुआ कि सरकारी हस्तक्षेप के कारण उसकी वह प्रतिष्ठा नहीं रही जो पहले होती थी . उस समय यूपी सरकार सभी प्रतिष्ठित निजी विद्यालयों में पर्याप्त अनुदान देती थी . अब केवल शिक्षकों एवं कुछ स्टाफ का वेतन देती है जिससे भवन , पुस्तकालय , फर्नीचर , प्रयोगशालाओं की व्यवस्था बनाए रखना ही दुष्कर हो गया है क्योंकि अनुदान प्राप्त कालेज छात्रों से अतिरिक्त शुल्क ले नहीं सकते . इसके साथ ही अब शिक्षकों की नियुक्ति भी संस्था स्वयं नहीं  कर सकती अर्थात सारी व्यवस्था सरकारी हो गई है . इसके विपरीत वर्तमान आधुनिक प्राइवेट शिक्षण संस्थाएं सरकार से कोई अनुदान नहीं लेती हैं , छात्रों से ही सारी  शुल्क लेती हैं और अपने स्तर को बनाए रखती हैं . अब अधिकाँश अच्छे छात्र उन्ही संस्थाओं में पढ़ रहे हैं . ८ वीं के अंकों के आधार पर हमें विश्वास था कि वहां प्रवेश मिल जायगा . इंटर कालेजों में प्राचार्य के अतिरिक्त एक हेड मास्टर भी होता है जो मुख्यतः १० वीं तक की व्यवस्था देखता है . उस समय वहां पर पुत्तु लाल हेड मास्टर थे . सारे प्रवेश वही करते थे . यह बात १९६३ की है . ९ वीं कक्षा से ही विज्ञान , कला एवं वाणिज्य विषय अलग हो जाते थे . वही तय करते थे कि प्रवेश देना है या नहीं और कौन से विषय देने हैं और कौन सा सेक्शन देना है . पूर्व का परीक्षा फल देखा , तत्काल निर्णय किया और  प्रवेश फ़ार्म दिया . उन्होंने मना कर दिया तो प्रवेश नहीं मिलेगा . उस समय कक्षा ९ वीं में जी सेक्शन में बोर्ड से ८ वीं उत्तीर्ण करके आने वाले  अच्छे छात्रों को प्रवेश दिया जाता था . कक्षाओं में ४० – ४५ छात्र तक होते थे .उनके अपने विद्यालय के भी सैकड़ों छात्र प्रत्येक कक्षा  में होते थे . प्रत्येक वार्षिक परीक्षा के बाद मेरिट सूची के आधार पर अगली कक्षा में सेक्शन  बनते थे . एक ही कक्षा में बकरी, गधे, घोड़े भरने की परंपरा नहीं थी . इससे यह लाभ होता था कि एक कक्षा में एक जैसे स्तर के छात्र होने से पढ़ाई अच्छी प्रकार हो जाती थी . बी  एन एस डी कालेज के कक्षा ९ वीं के अपने श्रेष्ठ छात्र एफ सेक्शन में रखे जाते थे . अन्य विद्यालयों के उन  छात्रों को जो  बिना बोर्ड के ८ वीं उत्तीर्ण करके आते थे, एफ और जी सेक्शन में प्रायः प्रवेश नहीं मिलता था भले ही उन्होंने अपने विद्यालय में टाप किया हो .  इसका अर्थ है कि  उस समय जिला बोर्ड से ८ वीं उत्तीर्ण अच्छे छात्रों की बहुत प्रतिष्ठा थी . मेरिट और कम आय वर्ग का होने के कारण मेरी मासिक शुल्क माफ़ कर दी गई थी . रु ६.९२ में से मुझे एक रूपये बयालीस पैसे शुल्क देनी होती थी . १० वीं में भी इतनी ही शुल्क लगती थी .
   उस समय स्कूल कालेजों की अपनी बस व्यवस्थाएं नहीं होती थी . सरकारी बसें पर्याप्त थीं और ठीक थीं . कालेज मेरे घर से ७-८  किमी दूर था . पहली बार शहर में अकेले  जाना था . अधिकांश क्षेत्र भीड़ युक्त रहते  थे , अतः प्रारम्भ में बस से जाने लगा . आज की पीढी  ने पैसे नहीं देखे हैं क्योंकि अब तो रूपये(१००पैसे) में भी कुछ नहीं मिलता है . तब बस का किराया १८ पैसे लगता था . कुछ समय बाद  मैं स्टेशन तक १० पैसे में जाता था और आगे ३-४  किमी पैदल चला जाता था क्योंकि बस थोडा चक्कर काट कर जाती थी . समय की तो कोई बचत नहीं होती थी परन्तु ८+८  पैसे बच जाते थे . यद्यपि घर में  ऐसा करने के लिए किसी ने नहीं कहा .  कुछ समय बाद मैं साइकिल से जाने लगा . कालेज में कितने छात्र थे मुझे नहीं मालूम परन्तु ९ वीं कक्षा में ही १३- १४ सेक्शन थे . कालेज का साइकिल स्टैंड बहुत बड़ा और व्यवस्थित  था जैसे स्टेशन के बाहर होते हैं . कालेज में कैंटीन भी थी . वहां प्रदेश में टाप करने वाले छात्र भी थे और मार- कुटाई वाले भी ,परन्तु कालेज में गुंडागर्दी नहीं होती थी . शिक्षक पढ़ाने के साथ नियंत्रण करने में भी सक्षम थे .  हमारे  कालेज में मध्य में बहुत बड़ा खुला स्थान है . उसके चारों ओर तिमंजला भवन बना हुआ है . हमारी कक्षा सबसे अलग थी . तीन मंजिल ऊपर चढ़ कर पीछे की ओर एक मंजिल उतरना पड़ता था . कक्षा में सभी बोर्ड उत्तीर्ण अच्छे छात्र थे , कालेज के बाहर के थे अतः परस्पर घुलने-मिलने में कोई असुविधा नहीं हुई .
     हमारे सभी शिक्षक बहुत अच्छे तो थे ही ,नियमित भी थे . कक्षाएं छोड़ने  जैसी समस्याएँ कभी नहीं आईं .वे समझाते  भी थे , लिखाते भी थे . उस समय ९ वीं में ६ विषय होते थे . मेरे विषय थे, हिन्दी, अंग्रेजी , गणित ( ये अनिवार्य विषय थे ) तथा वैकल्पिक में विज्ञान, जीन विज्ञान और आर्ट ( ड्राइंग ). उस वर्ष से एक विषय कम कर दिया गया . मैंने जीव विज्ञान छोड़ दिया . कक्षा में  एक दिन राउंड लेते हुए हिंदी शिक्षक ने मेरी कापी देख कर कहा कि ऐसी राइटिंग से तीन डंडे ( थर्ड डिविसन ) मिलेंगे . गणित की पुस्तक के लेखक हमारे कालेज के ही हेड मास्टर पुत्तु लाल और कटियार थे , जो कानपुर शहर में अत्यंत प्रतिष्ठित गणित शिक्षक माने जाते थे . प्रत्येक अध्याय में  छः- सात खंड तो होते ही थे और  प्रत्येक खंड में २० से ३० प्रश्न तक होते थे . हमारी कक्षा अच्छे छात्रों की थी अतः प्रत्येक दिन ३० से ४० सवाल तक करने के लिए दिए जाते थे  और हम लोग पूरे करके ले जाते थे . कुछ होशियार छात्र भी थे जो सवाल न आने पर हम लोगों की कापी से टीप लेते थे .
अंग्रेजी में हम सब दुखी होते थे . हमारे शिक्षक बड़े परिश्रम से ग्रामर में पन्चुएशन पढ़ा रहे थे परन्तु कम रुचि  के कारण एक दिन छात्रों ने आक्रोश व्यक्त करने के लिए जैसे ही वे कक्षा में आये और छात्र खड़े हुए,  सबने कहना शुरू कर दिया पन्चुएशन-पन्चुएशन . उनका अप्रसन्न और क्रोधित होना स्वाभाविक था .सबको दो-दो बेत खाने पड़े . अंग्रेजी छोड़कर भागते भी कहाँ ?
 कक्षा के बाहर तो परस्पर  मिलने का समय ही नहीं मिलता था क्योंकि घर दूर था , समय पर कालेज पहुंचे और छुट्टी होते ही घर को रवाना हो लिए . लंच में कुछ समय मिल जाता था . युवक हों और किसी के मन में शरारत न आये यह कैसे संभव है . कक्षा से निकल कर हम सीधे ही कालेज की तिमंजिली छत पर होते थे . जो कानपुर की  व्यस्ततम मॉल रोड ( महात्मा गाँधी रोड ) के किनारे है  . एक छात्र मूंग के दाने और एक कांच के पतली नली रखता था . वह मूंग के दाने मुंह में भर लेता और नली से नीचे रोड पर गुजरने वाले रिक्शों पर बैठी लड़कियों और महिलाओं पर मारता था . निशाना  लगाने का आनंद तो था ही परन्तु जब  निशाना  लग  जाता तो वह थोड़ा पीछे हट जाता था .  मूंग यदि  कपड़ों पर लगा तब  तो उन्हें पता भी नहीं चलता था और चेहरे या खुले हाथ पर लग गया तो चौंकने  के आलावा उन्हें पता नहीं चलता था कि क्या हुआ और रिक्शा आगे चला जाता था . कालेज की छत वैसे ही ऊंची थी और उस पर ऐसा तो कुछ था नहीं कि लोग ऊपर देख कर चलें . शरारत भी हुई और अगले को पता भी नहीं  चला कि कोई शराफत से  शरारत कर गया .
   उन दिनों तिमाही – छमाई परीक्षाएं भी होती थीं . मेरे मोहल्ले में एक और छात्र भी वहीँ पर ९ वीं में पढ़ता था . उसका कोई फिसड्डी सेक्शन था . उसने बताया  कि यहां पर पास होना बहुत कठिन है . परन्तु मुझे किसी भी स्तर पर परेशानी नहीं हुई . अधिकांश छात्र कक्षा ९ में किसी न किसी विषय में फेल हो जाते थे . कुछ अंकों तक उन्हें ग्रेस अंक देकर पास किया जाता था . कक्षा ९ में सभी विषयों में पास हो जाने का अर्थ होता था १० वीं में अच्छी प्रकार उत्तीर्ण होना ही है . कक्षा ९ वीं के वार्षिक परिणामों में मुझे १० वीं का सेक्शन सी मिला जो टापर छात्रों का था . उस समय १० वीं पास करना ही कठिन होता था . हमारी कालोनी के जो लड़के – लड़कियां १० वीं द्वितीय श्रेणी उत्तीर्ण हो जाते थे वे अपने को भाग्य शाली समझते थे . कक्षा १० वीं में वहां सी सेक्शन का अर्थ था इन छात्रों को यूपी बोर्ड में मेरिट में आना है और कभी – कभी छात्र टाप भी करते थे .
 अतः १० वीं में सी सेक्शन मिलना ही बहुत बड़ी बात होती थी जो मुझे भी मिला . कक्षा में ४२ विद्यार्थी थे जिनमे से अधिकाँश एफ सेक्शन से आये थे . कक्षा के बाहर हमारे पास समय भी कम था और कक्षाएं कभी खाली नहीं जाती थी अतः कुछ पुराने मित्रों के आलावा जो मेरे साथ थे , अन्य लोगों से बहुत घुलना-मिलना नहीं हो पाया , सामान्य बात ही होती थी . जागेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव  जी हिंदी और अंग्रेजी दोनों पढ़ाते थे और बहुत अच्छा पढ़ाते थे . वे सामयिक विषयों पर भी चर्चा करते , कभी निबंध तो कभी स्वरचित कविता लिखने को भी कहते थे  कटियार जी गणित पढ़ाते थे .गणित या ज्यामिति की समस्या को हल कैसे करना है , उसका पूरा विश्लेषण करना सिखाया जाता था . प्रायः अधिकाँश छात्र सभी सवाल कर लेते थे .एन सी मिश्र जी विज्ञान पढ़ाते थे . वे बड़े खुश मिजाज थे .मुस्कुराकर ही बात करते थे . छात्र उन्हें देख कर ही खुश हो जाते थे . कुल मिलाकर कक्षा में आनंद बना रहता था . उस समय १० वी बोर्ड परीक्षा में कक्षा ९ एवं १० दोनों का सम्मिलित पूरा पाठ्यक्रम आता था . अतः दोनों वर्षों का कोर्स याद करना पड़ता था. हमारी पढ़ाई इस प्रकार कराई जाती थी कि नवम्बर तक १० वी का  कोर्स पूरा हो जाये ताकि दोहराने का समय मिल जाये . जिन कक्षाओं में  कमजोर छात्र रहते थे  उन्हें उसी प्रकार सहजता से पढ़ाया जाता था , वैसे ही शिक्षक रहते थे ताकि वे उत्तीर्ण हो जाएं .  उस समय सैद्धांतिक प्रश्न ही पूछे जाते थे और ८४- ८५ % अंक में टाप हो जाता था, टाप की स्थिति तो अब भी ऐसी ही है .मेरी रटने कि क्षमता और लिखने की स्पीड दोनों कम रहे हैं . अतः मैं एक औसत छात्र था . मुझे ७२.६% अंक मिले .
   १० वीं की परीक्षा के पूर्व कक्षा के छात्रों ने गेट टुगैदर रखा . ढाई रूपये फोटो ग्रुपिंग के और ढाई रुपये नाश्ते- पानी के देने थे . हमने फोटो तो स्मृति के लिए खिंचवाया परन्तु नाश्ते के लिए ढाई रूपये देने में असमर्थता व्यक्त की . फोटो खिंचवाने के बाद मैं और मेरा एक साथी चले गए . दूसरे दिन अध्यापक ने कहा कि हम क्यों चले गए थे  , पीछे खाने का सामान बचा पड़ा था , सहयोग राशि नहीं दी थी तो क्या हुआ . परन्तु  उसके साथ ही यह भी चर्चा थी कि व्यय अधिक हो गया है और कुछ सक्षम बच्चों से अतिरिक्त सहयोग की बात हो रही थी .बिना सहयोग राशि दिए हम किस नैतिकता से उसमें सम्मिलित होते ? अच्छा तो मुझे भी नहीं लगा था, माता-पिता भी इसके लिए मना नहीं करते पर मैं यथा संभव प्रयास करता था कि मेरे कारण घर पर अनावश्यक बोझ न पड़े . अब यदि कभी कंजूसी करता हूँ तो बेटे कहते हैं कि मुझे किस बात की कमी है तो मेरा यही उत्तर होता है कि बचपन की आदत छोड़ना संभव नहीं है . हाँ अब मैं कंजूसी नहीं करता, मितव्ययिता का ध्यान रखता हूँ .
  मैं कक्षा ९ वीं में था तो चक्कर आते थे . यद्यपि मैं प्रातः घूमने जाता था, व्यायाम करना, खेलना – कूदना, अंकुरित चने खाना , सभी कुछ करता था परन्तु  मुझे अनेक बार आंखों के आगे अँधेरा लगता था . दवा भी करवाई परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ .ऐसे समय में  पानी पीने से कुछ राहत मिल जाती थी . मुझे लगने लगा कि यह सब गर्मी के कारण  हो रहा है और मैंने चाय पीना छोड़ दिया .  

   

मंगलवार, 27 अगस्त 2013

शिक्षा की संकल्पना

स्वामी विवेकानंद ने कहा है, ’’ कोई देश उसी अनुपात में विकास करता है जिस अनुपात में वहां की जनता में शिक्षा और बुद्धि का विकास होता है .” .....”जिस अध्ययन द्वारा मनुष्य की संकल्प शक्ति का प्रवाह संयमित होकर प्रभावोत्पादक हो सके ,उसी का नाम शिक्षा है .“ वेदांत दर्शन के अनुसार बालक / बालिका के में अनन्त  ज्ञान, अनन्त  बल  तथा अनंत व्यापकता की शक्तियां विद्यमान हैं .शिक्षा द्वारा इन्हीं शक्तियों की अनुभूति तथा विकास किया जाना चाहिए . विवेकानंद ने स्पष्ट शब्दों में कहा है ,” शिक्षक के प्रति श्रद्धा, विनम्रता, सन तथा समर्पण की भावना के बिना हमारे जीवन में कोई विकास नहीं हो सकता है .” .... “ यदि देश के बच्चों की शिक्षा का भर फिर से त्यागी और नि:स्पृह व्यक्तियों के कन्धों पर नहीं आता तो भारत को दूसरों की पादुकाओं को सदा के लिए ढोते रहना होगा .” वे धर्म को शिक्षा की आत्मा मानते थे . पाठ्यक्रम के अन्य विषय मन तथा बुद्धि का परिष्कार करते हैं परन्तु धर्म ह्रदय को समुन्नत करता है . ह्रदय ज्ञान का प्रकाश है . ईश्वर ह्रदय के माध्यम से ही हमें सन्देश देता है . अतः ह्रदय का परिष्कार करो . परन्तु धर्म शिक्षा के पूर्व वे युवकों को सबल बनाने, उनमें नैतिक बल विकसित करने, सिंह के समान साहसी बनाने तथा चरित्र गठन पर अधिक जोर देते हैं .
 महात्मा गाँधी शिक्षा का सर्वोच्च ध्येय चरित्र निर्माण तथा व्यक्ति में उत्पादकता की भावना का विकास मानते थे . वे कहते हैं कि सभी बालकों में सामान दैवी शक्ति विद्यमान है परन्तु प्रत्येक का व्यक्तित्व विशिष्ट एवं विलक्षण होता है जिससे वह समाज को अपना योगदान विभिन्न प्रकार से देता है . यह शिक्षक ही होता है जो उसकी विलक्षणता को पहचान कर उसे व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करता है . अतः समाज में शिक्षक की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है .वे कहते हैं कि आचार्य तथा अध्यापक गण पुस्तकों के पृष्ठों से चरित्र नहीं सिखा सकते . चरित्र निर्माण तो उनके जीवन से ही सीखा जा सकता है . गुरु होने के लिए विद्यार्थी से आत्मिक सम्बन्ध स्थापित करना पड़ता है अर्थात्  शिक्षक उसकी रुचियों, योग्यताओं एवं आवश्यकताओं को समझ कर उन्हें उचित शिक्षा दे . वे अध्यापन कार्य में समर्पण भाव चाहते हैं तथा वेतन एवं अध्यापन कार्य को परस्पर मिलाना उचित नहीं मानते . उनके अनुसार शिक्षा व्यर्थ है यदि उसका निर्माण सत्य एवं पवित्रता की नींव पर नहीं हुआ है . उनकी दृष्टि में पवित्रता के बिना सब व्यर्थ है, व्यक्ति चाहे कितना भी विद्वान् क्यों न हो जाये .
   भारतीय शिक्षा शास्त्रियों में गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर का नाम बहुत आदर के साथ लिया जाता है . वे कहते है कि प्रत्येक छात्र को प्रकृति की ओर से अनन्त मानसिक शक्ति प्राप्त हुई है जिसका अल्पांश ही जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति में व्यय होता है . उसके पश्चात् उसकी विपुल शक्ति अवशिष्ट रहती है . इसका उपयोग सृजन के लिए किया जाना चाहिए . यह अतिरिक्त मानसिक शक्ति व्यक्ति को सृजन की विभीन्न दिशाओं में कार्य करने के लिए उत्प्रेरित करती है . शिक्षा का प्रमुख कार्य इस सृजन शक्ति का विकास करना तथा उसे उचित दिशा प्रदान करना है . विद्यालय स्तर पर तो सभी विषय अनिवार्य होते हैं परन्तु महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय स्तर पर चुने हुए विषय ही पढ़ने होते हैं . अतः उच्च शिक्षा की प्रमुख संकल्पना विद्यार्थियों की रूचि को समझना एवं तदनुसार उन्हें शिक्षा प्रदान करना है ताकि उनकी क्षमताओं का समाज हित में अधिकतम लाभलिया जा सके .
       गीता के कर्मयोग की व्याख्या करते हुए विनोबा भावे ने कहा है कि जब व्यक्ति मन की रूचि के अनुसार कार्य करता है तो उसका मन और शरीर एक ही दिशा में कार्य करते हैं , मन और शरीर का योग हो जाता है जिससे व्यक्ति बिना तनाव के अधिक कार्य करते हुए आनंद की अनुभूति करता है .
    शिक्षा एवं कार्य के उपर्युक्त प्रतिपादित सिद्धांतों के आधार पर विश्लेषण  करने पर यह  ज्ञात होता है कि भारत में उनके विपरीत कार्य किया जाता है और विदेशों में उनका यथा संभव पालन किया जाता है जिसके कारण भारत के शिक्षा संस्थान विदेशी संस्थानों से बहुत पीछे हैं . म.प्र. में तो महाविद्यालय के प्राध्यापकों को बाबूगीरी करने का प्रशिक्षण दे दिया गया है . प्राध्यापक अपनी इच्छा एवं रूचि के विपरीत कुढ़ते हुए सारा समय रिकार्ड बनाने में लगाते हैं क्योंकि म. प्र. शासन ने उनसे पढ़ने- पढ़ाने का कार्य छीन लिया है . प्रदेश के अनेक महाविद्यालयों में शिक्षक हैं ही नहीं परन्तु विद्यार्थी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होते जाते हैं . इससे शासन ने यह सफलता पूर्वक सिद्ध कर दिया है कि शिक्षा का प्रमाण पत्र देने में शिक्षक, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, पुस्तकों आदि की कोई आवश्यकता नहीं है . विद्यार्थियों को महाविद्यालय आना और परीक्षा देना इसलिए अनिवार्य रखा गया है कि आने वाले छात्रों से शुल्क लेना है और उनके  नाम पर विश्व भर के वित्तीय संस्थानों से उधारी लेनी है नहीं तो खायेंगे क्या ? अभी तो प्रदेश सरकार ने उच्च शिक्षा के लिए मात्र १००० करोड़ रूपये के कर्ज का जुगाड़ किया है, और प्रयास जारी हैं . छात्र संख्या बढ़ाने पर इसलिए जोर दिया जा रहा है ताकि कर्ज देने वालों को बताया जा सके कि हमारे इतने सारे बच्चे हैं जो जीवन भर आपका कर्ज चुकाते रहेंगे . शासन बहुत अच्छी शिक्षा व्यवस्था कर रहा है इसको सिद्ध करने के लिए प्राध्यापकों से बनवाये गए रिकार्ड वक्त जरूरत बहुत काम आते हैं .

  महाविद्यालयों से निकलने वाले विद्यार्थियों की योग्यता की इसलिए आवश्यकता नहीं होती है कि उन्हें कौन सा काम करना है . सरकार जमीन, घर, राशन, पानी, बिजली सब तो मुफ्त में दे ही रही  है . अनेक प्रदेश सरकारें तो टीवी, फ्रिज, साइकिल, लैपटाप , मिक्सी आदि भी खुले हाथों से बाँट रही हैं . सरकारी नौकरियाँ उन्हें देनी नहीं हैं और यदि शिक्षक ही बन गए तो उन्हें राशन ढोना, खाना बनवाना और बच्चों को खिलना ही तो है, कौन सा पढ़ाना है .विद्यालय के छात्रों को तो विद्यालय आने की आवश्यकता भी नहीं है . डिग्री लेने वाले लोगों को यदि राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री के नाम भी न पता हों, ठीक से पुस्तकें भी न पढ़ पाते हों, गणित के प्रश्न भी न हल कर पाते हों तो क्या फर्क पड़ता है . गुरुजिओं के नियमितीकरण के लिए ली गई परीक्षा में यही परिणाम सामने आये थे .ऐसे शिक्षक छात्रों के सामने कौन सा आदर्श प्रस्तुत करेंगे और उनके कैसे चरित्र का निर्माण करेंगे ?
   म.प्र. समेत देश के प्राय: सभी प्रान्तों में महाविद्यालयों  में तदर्थ नियुक्तियां ही की जा रही हैं . कार्ल मार्क्स ने अपना शोषण का सिद्धांत श्रमिकों के लिए लिखा था, माओ ने उसमें सुधार करके किसानों को जमींदारों के चंगुल से छुड़ाया . वे बेचारे क्या जानते थे कि भारत में अच्छे पढ़े लिखे लोगों का  समाजवाद के नाम पर चलने वाली कल्याणकारी सरकारें स्वयं क्रूरता पूर्वक शोषण  करेंगी . म. प्र. में दूसरी समस्या विषयों की है . विश्वविद्यालय विषयों के सीमित समूह बनाते हैं जिससे विद्यार्थी अपनी पसंद के विषय नहीं ले पाते हैं . ऐसे शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था के प्रति विद्यार्थियों या समाज में क्या श्रद्धा होगी . भारत में दूसरी सबसे बड़ी समस्या आरक्षण की है . अच्छे छात्रों को जाति-धर्म के नाम  पर उच्च शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश नहीं मिलता है  अथवा उनके रूचि के विषय नहीं मिलते हैं परिणाम स्वरूप ऐसे अनेक छात्र विदेशों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए चले जाते हैं वे प्रत्येक वर्ष एक लाख करोड़ रूपये से अधिक राशि वे विदेशों में व्यय करते हैं तथा उनमें से अधिकांश युवक वहीँ बस जाते हैं अर्थात भारत को बौद्धिक पलायन के कारण भारी क्षति उठानी पड़ती है . सरकार धन का रोना तो रोती  रहती है परन्तु देश से धन एवं बुद्धि का पलायन रोकने के प्रयास करना तो दूर , उसे और प्रोत्साहित करती रहती है . इतने धन में तो अनेक अच्छी संस्थाएं खुल सकती हैं यदि सरकार  में इच्छा शक्ति हो .परन्तु  महापुरुषों के विचारों के विपरीत काम करने वाली सरकारों से यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है ?
  हमारे देश के भौतिक शास्त्री रामकृष्ण वेंकट रमण को अपनी रूचि के विषय के उच्च अध्ययन के लिए विदेश जाना पड़ा . वहां उन्हें रसायन शास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला . क्या भारत में एक विषय में उपाधि प्राप्त व्यक्ति को दूसरे विषय में अध्ययन की अनुमति दी जा सकती है ? कभी नहीं . अमेरिका के अनेक विश्वविद्यालयों में नोबेल पुरस्कार प्राप्त विद्वान अध्यापन करते हैं . स्वाभाविक है छात्र उनकी लगन एवं ज्ञान के प्रति अपार श्रद्धा रखते हैं . अतः उनके सानिध्य में वे अच्छे शोध कार्य करते हैं . वहां पर अनेक पूर्व छात्र अच्छी नौकरी लगने के बाद या व्यवसाय जमाने के बाद अपने पूर्व संस्थानों को अपनी सामर्थ्य के अनुसार नियमित रूप से सहयोग राशि  देते हैं जिससे वे संस्थान सतत रूप से स्तरीय शिक्षा देने में सक्षम बने हुए हैं . आई आई टी के पूर्व छात्र भी जो विदेशो में कार्य रत हैं, अपने संस्थानों को कुछ सहयोग राशि  भेजते रहते हैं . भारत में स्वतंत्रता के बाद से आज तक लाखों लोगों को जनता के धन पर जीवन की सभी सुविधाओं को देते हुए उच्च शिक्षित किया गया , उन्हें अच्छे-अच्छे पद एवं वेतन  भी दिए गए परन्तु उनमे से शायद ही किसी ने अपने पूर्व शिक्षण संस्थान को कोई राशी दी हो जिससे भविष्य में आने  वाले जरूरत मंद लोगों की सहायता की जा सके .
    म. प्र. की सरकार  ने एक योजना बनाई कि सरकारी विद्यालयों को पूँजी पति दान दें और भवन निर्माण आदि में सहयोग करें . कोई भी आगे नहीं आया . स्वयं नेता –अधिकारी- धनवान लोगों ने अपने धन शिक्षण संस्थाओं में तो लगाए परन्तु निजी संस्थाओं में लगाए ताकि शिक्षा का व्यवसाय कर सकें और खूब धन कमा सकें . पता नहीं किस आदर्शवादी ने यह विचार दिया था . सरकारी विद्यालयों या अन्य संस्थाओं ने ऐसा कोई प्रतिष्ठा का काम किया है या उनके मंत्री – नेता – अधिकारीयों ने ऐसा कोई कार्य किया है जिसे देख कर शिक्षा व्यवस्था के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो ? भारत में तो सरकारों का एक ही रूप सामने आता है और वह है भ्रष्टाचार का . गाँधी जी कहते हैं शिक्षा देने का कार्य त्याग का कार्य है . शिक्षक को समर्पित भाव से अध्यापन करना चाहिए . आज ऐसे कितने शिक्षक होंगे ? विदेशों में और हमारे देश में यही मौलिक अंतर है कि वे महापुरुषों एवं विद्वानों के विचारों के अनुसार कार्य करते हैं, हम उनकी फोटो सामने रख कर आरती उतारते हैं, उनकी जय-जयकार करते हैं, लोगों में उनके प्रति श्रद्धा उत्पन्न करते हैं कि वे महान थे और काम सारे उलटे करते हैं . आज देश का यही संकट है . यही चरित्र का संकट है जिसके अच्छा होने की बात महापुरुष बार – बार कहते रहे हैं . जब रक्षक ही भक्षक बन बैठे तो देश बेचारा क्या करे ? लोग अपनी वेदना किससे कहें ?
प्रकृति की यह विडंबना ही कही जाएगी कि ऐसी व्यवस्था में भी कुछ शिक्षक अच्छा पढ़ा देते हैं, कुछ छात्र अच्छे से पढ़ लेते हैं और इतने व्यक्ति मिल जाते हैं जिनसे देश चलता जा रहा है .

   शिक्षा का उद्देश्य प्रत्येक  स्तर पर मनुष्य की आतंरिक शक्तियों का विकास करना है . परन्तु उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सभी विषय आते हैं , वह चाहे आर्थिक संकट हो या आतंकवादी एवं विदेशी हमला . उच्च शिक्षा की संकल्पना का अभिप्राय उस शिक्षा से है जो व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करे, उसे गौरव पूर्ण, गरिमा पूर्ण जीवन यापन के लिय सक्षम बनाए, सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे, राष्ट्र को समृद्ध करे तथा अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियों का सामना करने में समर्थ हो . हमारे नेताओं एवं अधिकारीयों  के द्वारा अच्छे विचारों से घृणा करने का ही परिणाम है कि देश में नेता आतंकवाद और विदेशी हमलों के समय भी एकमत नहीं हो पाते हैं . अनेक नेता तो ऐसे कुतर्क करते हैं जैसे वे विदेशी हमलावरों या व्यापारियों के वेतन भोगी एजेंट हों . दुनिया में संभवतः भारत ही इकलौता देश है जहां राष्ट्रीय आपदा के समय भी नेता-अधिकारी पहले निजि  स्वार्थ देखते हैं तथा राष्ट्रीय हितो के विरुद्ध बेझिझक काम करते रहते हैं . व्यवस्था यहाँ तक बिगड़ चुकी है कि उच्च प्राशासनिक अधिकारी भी अब असहाय होने लगे हैं . भारत में सबसे अधिक युवा हैं , यह कहने मात्र से देश को उसकी ऊर्जा का लाभ नहीं मिल जायेगा . उसके लिए शिक्षा को सुधारना होगा . तभी अच्छे नागरिक बनेंगे और अनेक समस्याएं स्वयं विलुप्त हो जांयगी .   

    भोपाल में  एक फार्मेसी की छात्रा  ने रैगिंग से त्रस्त  होकर आत्म हत्या कर ली थी . रैगिंग रोकने के लिए सरकार ने नियम बनाए हैं , उच्चतम न्यायलय ने कठोर निर्णय लेने की बात कई बार कही है , फिर भी रैगिंग क्यों नहीं रुक रही है ? यदि संस्थानों में अध्यापन कार्य होता रहे तो छात्र-छात्राएं उसमें व्यस्त रहें . यदि महाविद्यालयों में छात्र संघ के चुनाव होते रहते तो अनेक प्रत्याशी नए छात्रों को अपने पक्ष में करने के लिए उन्हें संरक्षण देते, रैगिंग होती ही नहीं .परन्तु मनमानी लूट के लिए छात्र संघ बंद कर दिए गए , पढ़ाई होती नहीं , फ़िल्में , मीडिया और नेट हिंसा और सेक्स परोस रहे हैं तो अपराध नहीं होंगे तो क्या होगा ? फिर अपराध का स्वरूप कुछ भी हो सकता है .  

मंगलवार, 13 अगस्त 2013

हिंदी-हिंदी जपने से कोई लाभ नहीं होगा

अगस्त २०१३ में पाकिस्तानियों ने ५ भारतीय सैनिकों को मार दिया था . एक समाचार चैनेल पर बहस हो रही थी . उसमें एक पाकिस्तानी प्रवक्ता को भी सम्मिलित किया गया था . जब हमारे एक व्यक्ति ने उनके लिए शहीद शब्द का प्रयोग किया तो पाकिस्तानी ने तुरंत आपत्ति की कि शहीद शब्द तो उनका है , हम उसका उपयोग कैसे कर सकते हैं . भार्गव हिंदी –अंग्रेजी शब्दकोष में शहीद का अर्थ दिया है ‘ धर्म के लिए मरने वाला मुस्लिम’ . यह शब्दकोष पुराना है, देश पर मर-मिटने वालों के लिए इस शहीद शब्द का प्रयोग वर्षों से होता आ रहा है परन्तु हिंदी शब्दकोष में भी शहीद का अर्थ ‘देश पर आत्मोत्सर्ग करने वाला’ नहीं लिखा हुआ है . उसके लिए हिंदी शब्द है हुतात्मा . उस बहस में भारतीयों के पास इसका कोई उत्तर नहीं था . इसलिए जब कोई व्यक्ति विदेशी से बात करे और उसे यह ज्ञात हो जाये कि इसकी अपनी कोई भाषा नहीं है तो उसके मन में उसके प्रति सच्चा सम्मान कभी नहीं हो सकता . विदेशी समझ जाता है कि इसमें राष्ट्र गौरव की कोई भावना नहीं है क्योंकि इनका देश अत्यंत पिछड़ा हुआ है .

अनेक ऐसे भक्त देखे जा सकते हैं जो भगवान का नाम जपते रहते हैं परन्तु उनका व्यवहार मानवता के सर्वथा विपरीत होता है . कुछ लोग तो दूसरों का सर्वदा अहित ही करते रहते हैं . उनके लिए ‘मुंह में राम बगल में छुरी’ की कहावत बनाई गई है . कुछ ऐसा ही हाल म. प्र. सरकार का है . जो हिंदी प्रेम तो ऐसे प्रदर्शित करती है जैसे परम देश भक्त हों . लेकिन जब बी आर टी एस भोपाल के नाम करण की बात आई तो फट से नाम रख दिया “माई बस “. बस शब्द तो हिंदी ने गृहण कर लिया है परन्तु “माई” शब्द की हिंदी नहीं कर पाए . हिंदी विश्वविद्यालय खोलने का ढोंग करने से हिंदी का विकास नहीं होगा न ही हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्तान का नारा देने से होगा जब तक अन्दर पवित्र भावना नहीं होगी . हिंदी नाम रखने में शर्म आ रही थी तो उर्दू में ही रख देते, कोई अन्य भारतीय भाषा में रख देते . हिंदी –संस्कृत का इतना अपमान कम से कम भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाली भाजपा को तो शोभा नहीं देता और वह भी म.प्र. में . ‘माई बस’ नाम के लिए भोपाल की महापौर कृष्णा गौर ही उत्तर दाई नहीं हैं पूरी भाजपा है . संघ ने इस पर आपत्ति क्यों नहीं की , यह भी आश्चर्यजनक है .

हिन्दू अपनी प्राचीन संस्कृति और गौरव की प्रशंसा करते हुए नहीं थकते हैं . रसायन शास्त्र में कणाद ऋषि का नाम आदर से लिया जाता है कि उन्होंने सर्व प्रथम कहा था कि पदार्थ सूक्ष्म कणों से मिलकर बना होता है जिसे परमाणु कहते हैं . इसी प्रकार हम चिकित्सा, गणित, ज्योतिष आदि अनेक विषयों में अपने प्राचीन विद्वानों के नाम लेते हैं . उन्होंने काम किये थे तो उनका नाम लेना अच्छी बात है , उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित किया जाना चाहिए

आचार्य राम चन्द्र शुक्ल ने १९४० के दशक में मनोविज्ञान के अनेक व्यावहारिक विषयों , उत्साह, श्रद्धा-भक्ति, करुणा, लज्जा-ग्लानि, लोभ, घृणा, ईर्ष्या, भय, क्रोध और बैर पर उत्कृष्ट मौलिक निबंध लिखे हैं . परन्तु इन विषयों को मनोविज्ञान विषय में सम्मिलित नहीं किया गया . यदि उनके विचारों को गंभीरता पूर्वक समझ लिया जाय और व्यवहार में लाया जाय तो अनेक सामाजिक, आर्थिक, आप्राधिक तथा विधिक समस्याओं को घटने से पहले ही रोका जा सकता है जिनसे आज लोग त्रस्त हैं . परन्तु उन विचारों को हिंदी विषय के निबंधों तक ही सीमित रखा गया . रजत पथ में अप्रेल-मई २०११ के अंक में उन सभी निबंधों का सार-संक्षेप दिया गया था . उस पत्रिका के साथ मैंने मैंने अनेक प्राध्यापकों से अनुरोध किया कि उन्हें मनोविज्ञान विषय में सम्मिलित किया जाय . सबने एक ही समस्या बताई कि अब कोई प्राध्यापक यह नहीं कर सकता है . पाठ्यक्रम में सुधार तभी संभव है जब म.प्र. शासन का उच्च शिक्षा विभाग इसमें रूचि ले . उसकी पहल पर माननीय राज्यपाल, जो विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति भी हैं, उस विषय के प्राध्यापकों की संयोजन समिति की बैठक बुलायंगे तो उसमें ही कोई विषय जोड़े या घटाए जा सकते हैं . अतः प्राध्यापकों ने निजी स्तर पर कोई परिवर्तन करने में असमर्थता व्यक्त कर दी .

मैंने उस पत्रिका की प्रतियों के साथ, जो उन निबंधों के महत्त्व को दर्शाती हैं, म.प्र. के उच्च शिक्षा मंत्री से लिखित में अनुरोध किया, माननीय राज्यपाल जी से भी निवेदन किया तथा मुख्यमंत्री जी को पत्र लिखा . इस पर न तो कोई व्यय होना था न यह कार्य किसी के विपरीत था . परन्तु इस पर आज तक कोई कार्यवाही नहीं हुई . राजनीतिज्ञ कोई काम तभी करते हैं जब उन्हें कोई लाभ दिखे . इस काम से क्या लाभ होना था ? आचार्य रामचंद्र शुक्ल न तो कोई प्राचीन काल के हैं जिन्हें भारतीय संस्कृति के गौरव शाली व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया जा सके और न ही उनका नाम सरकार की लोकप्रियता में वृद्धि कर सकता है . संभवतः इसीलिए मेरे अनुरोध पर ध्यान नहीं दिया गया .

जहां तक विश्विद्यालय के पप्राध्यापकों का प्रश्न है, अधिकांश लोग अंग्रेजी के विद्वान् हैं . उन्हें हिंदी कम समझ आती है . दूसरे किसी तथ्य को तभी स्वीकार करने की पारम्परा है जब कोई विदेशी विद्वान् उसे अच्छा कह दे . इसलिए स्वतन्त्र भारत के ६६ वर्षों में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक, विधिक, धार्मिक आदि किसी भी क्षेत्र में कोई मौलिक कार्य सामने नहीं आया है . आज इसीलिए हम देश की अर्थ व्यवस्था सुधारने के लिए विदेशी पूंजीपतियों की चिरौरी कर रहे हैं . देश में मेधावी युवकों को विदेश जाने के लिए बाध्य किया जाता है और वे जब वहां अपना काम और नाम स्थापित कर लेते हैं तो हम उन भारतीयों पर झूठा गर्व करते हैं . इनसे देश का कोई हित होने वाला नहीं है .यदि ये निबंध किसी विदेशी के होते तो हमारे प्राध्यापक उन्हें सर-आँखों पर लेते .

चीन और चीनी भाषा की प्रगति का यही मुख्य कारण है कि १९४९ में माओत्सेतुंग ने जब चीन पर आधिपत्य स्थापित किया , उसने सर्वप्रथम अंग्रेजी दां प्राध्यापकों और विद्वानों को निकाल बाहर किया और श्रम केन्द्रों में भेज दिया कि देश में कोई काम हो या न हो पर काम होगा तो अपनी भाषा में होगा , अपने देश की परिस्थितियों के अनुसार होगा .

मैंने अनेक हिंदी विद्वानों तथा साहित्यकारों से भी इस पर चर्चा की परन्तु किसी ने इस पर कोई पहल नहीं की क्योंकि आचार्य शुक्ल जी का आपना कोई गुट नहीं है . शुक्ल जी से मेरी भी कोई रिश्तेदारी नहीं है परन्तु हिंदी पत्रकारिता से जुड़े होने के कारण यह मेरा दायित्व है कि मैं उन तथ्यों पर प्रकाश डालूँ जिनसे इस देश और देश के लोगों का कल्याण हो सकता है . जहां तक म.प्र. सरकार के सहयोग का प्रश्न है तो जो राजधानी भोपाल की बस सेवा का नाम तक हिंदी में नहीं रखना चाहती है, उससे किसी हिंदी विद्वान के सम्मान की आशा करना ही व्यर्थ है .

पटना साहिब एवं बैजनाथ धाम

हमने यह यात्रा मार्च के अंत में की थी . हम भोपाल से इटारसी और वहां से पटना पहुंचे . पटना जंक्शन पर सामने ही पटना साहिब जाने वाली ट्रेन खड़ी थी .  हम दूसरी तरफ से उस ट्रेन में चढ़ गए और २० मिनट में पटना साहिब स्टेशन पहुँच गए . वहां रिक्शे से हम  पटना साहिब गुरुद्वारे गए . हम वहां पहली बार गए थे . कोई जानकारी नहीं थी . रिक्शे वाले ने हमें उनके काउंटर तक पहुंचा दिया जहाँ हमने गुरुद्वारे में ही एक वी आई पी कमरा ले लिया . किराया है २०० रुपये . अच्छे , खुले, बड़े  कमरे  हैं .  
      पटना साहिब सिखों के ५ बड़े तीर्थ स्थानों में से एक है . वहां सिखों के दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म हुआ था . प्राचीन गुरुद्वारा है परन्तु शहर उससे भी बहुत प्राचीन है . अतः उसमें अपेक्षा कृत कम स्थान है और घनी आबादी में है , सड़कें संकरी हैं . नहा- धोकर हमने दरबार साहिब में दर्शन किये , प्रसाद ग्रहण किया . उसके बाद हमने लंगर छका . गुरुद्वारे में हमने म्यूजियम देखा . उसमें सिख इतिहास को चित्रों एवं उनके नीचे लिखी टिप्पणी द्वारा बहुत सहज तरीके से जीवंत किया गया है . उसे देखकर सिख धर्म की कुर्बानियों ,सेवा भाव तथा जन कल्याणकारी कार्यों को अच्छी प्रकार समझा जा सकता है . दरबार साहिब में हमने गुरु गोबिंद सिंह जी के अस्त्र- शस्त्रों के भी दर्शन किये .
       दूसरे दिन हम गुरुद्वारे की बसों से निकटवर्ती चार प्रमुख अन्य गुरुद्वारों में भी गए . प्रत्येक गुरुद्वारे का अलग इतिहास है . उसे जानकर सिख गुरुओं के महान कार्यों को समझा जा सकता है . बस यात्रा लगभग ४ घंटे की थी . बस में बैठे हुए हमने पटना शहर भी देख लिया जो अन्यथा संभव नहीं था . हम प्रातः गुरुद्वारे से नाश्ता करके निकले थे , लौट के आये तो लंगर का प्रसाद लिया और वहां से स्टेशन के लिए प्रस्थान किया .

                          बैजनाथ धाम

   पटना साहिब स्टेशन से हम ट्रेन द्वारा जसीडीह के लिए चल पड़े . बैजनाथ धाम स्टेशन से कितना दूर है , रात्रि में वहां जाने के लिए कोई  वाहन वहां मिलेगा या नहीं , रात्रि में रास्ते में लूट- पाट  तो नहीं होती है, जैसे अनेक प्रश्न दिमाग में दौड़ रहे थे . ट्रेन में हमारे सहयात्री रवि भूषण तथा उनका परिवार था . उन्होंने हमें आश्वस्त किया कि वहां बहुत साधन मिलेंगे और कोई चिंता की बात नहीं है .रात्रि ९ बजे जब हम जसीडीह स्टेशन पर उतर कर बाहर आये तो वहां बहुत चहल-पहल थी .बाहर अनेक ऑटो रिक्शा और शेयर ऑटो रिक्शा खड़े थे . वे देवघर के लिए आवाजें लगा रहे थे . बैजनाथ धाम जिला देवघर का मुख्यालय है . वहां  देवघर रेलवे स्टेशन भी है जहाँ से प्रातः ६ बजे से रात्रि १०  बजे तक लोकल ट्रेन कई चक्कर लगाती है .वहां का केन्द्रीय स्थान लाईट टावर है जो स्टेशन से ३-४ सौ मीटर दूर होगा . वहीँ पास में बस स्टैंड भी है .  रवि भूषण उसी क्षेत्र में एक कंपनी में अधिकारी हैं . उन्हें लेने गाड़ी आई तो उन्होंने हमें भी बैठा लिया और रास्ते में बैजनाथ धाम में होटलों के मध्य लाईट टावर चौक में उतार दिया .
  वहां  आस – पास के होटल या तो भरे हुए थे या  मंहगे थे . हमने एक रिक्शे वाले से कहा तो वह हमें थोड़ी दूरी पर एक होटल में ले गया . हमारे कमरे में प्रवेश करते ही एक बुजुर्ग पंडा आ गया . वह हमें दूसरे दिन मंदिर दर्शन कराने ले जाना चाहता था . पंडों के नाम से ही पसीने छूटने लगते हैं कि पता नहीं क्या गुल खिलाएंगे . हमने उससे कहा कि हम स्वयं दर्शन कर लेंगे , उसकी आवश्यकता  नहीं है . वह चला गया . प्रातः हम तैयार हुए कि वह सामने आ गया और बोला कि वह हमें दर्शन करवाएगा . हमारे मना करने पर भी वह हमारे साथ मंदिर तक चलता गया . मंदिर एक-डेढ़  किलोमीटर दूर होगा. लाईट टावर से एक किमी होगा . चौक के आगे सकरी सड़क है . रिक्शा एवं ऑटो वहां तक आते-जाते रहते हैं . वहां के मावे एवं पेड़ों का स्वाद अच्छा है . हमें दूरी का अंदाज नहीं था .हमें लगा कि मंदिर पास में ही होगा अतः हम पैदल चलते गए . पंडा साथ चल ही रहा था .रास्ते में और पण्डे भी मिले परन्तु एक पण्डे को साथ देखकर वे कुछ नहीं बोले . यदि वह साथ न होता तो दूसरा पंडा पकड़ लेता अर्थात बिना पण्डे के मंदिर में प्रवेश असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है . 
    मंदिर परिसर में  प्रवेश करते ही वह सक्रिय हो गया .यहाँ जूते- चप्पल उतारो , यहाँ से फूल लो , यहाँ से गंगा जल लो . जब हमने गंगा जल के दाम पूछे तो विक्रेता ने बताया २५ रूपये में करीब १०० मिली और वह भी साफ़ नहीं था . मैंने पण्डे से कहा कि हम इसे नहीं लेंगे , जल से अभिषेक करेंगे . पण्डे ने कहा कि जल से अभिषेक नहीं कर सकते तो हमने कहा कि हम बिना अभिषेक के ही दर्शन कर लेंगे . पंडा हमें किसी भी कीमत पर छोड़ने को तैयार नहीं था . खत्री जी ने उससे कहा कि हम उसे २१ रुपये दक्षिणा देंगे , वह तैयार हो गया . उसने हमें तत्काल एक युवा पण्डे के हवाले कर दिया .
   प्रातः ९-१० बजे  के मध्य का समय था . उस दिन कोई ज्यादा भीड़ नहीं थी . १०० लोग भी नहीं थे . वहां पंक्ति बनाने के लिए रेलिंग नहीं है . धक्का- मुक्की ही एक सहारा है . उस युवा पण्डे ने खत्री जी से कहा कि अपनी दोनों बाहें सामने करे , मुझे कहा कि मैं उसकी ओर मुंह करके दोनों बाँहों के बीच में खड़ी हो जाऊं . फिर उसने भी अपने हाथ लम्बे करके खत्रीजी कि बाँहों को पकड़ लिया और खत्री जी ने उसकी बाहों को . कुल मिलाकर ऐसा दृश्य बना जैसे खत्रीजी गाड़ी हों , मैं सवार और पंडा उसे खींचने वाला . हम देश में सभी ज्योतिलिंगों के दर्शन कर चुके हैं . यह नया तरीका हमने बैजनाथ धाम में देखा . वह हमें घसीट कर भीड़ में ले जानी लगा . पहली किश्त में अन्दर बरामदे तक ले गया और दूसरी में मंदिर के अन्दर . मंदिर में जाने – आने का एक छोटा सा द्वार है . वहाँ रोक थी . गर्भ गृह खाली होने के बाद अन्दर जाने देते हैं . हम अन्दर गए तो पैर बड़ी कठिनाई से रखे हुए थे . जितने लोग ठूंस सकते थे अन्दर ढूंस दिए . पण्डे ने हमें दीवार से सटा  के खड़ा कर दिया कि चलने की जगह बने तो ज्योतिर्लिंग तक ले चलें . ५ मिनट में हिलने- डुलने लायक जगह हो गई . गेट पर खड़ा एक व्यक्ति हाथ में मोटी प्लास्टिक तीलियों से बना एक पतला झाडू नुमा बंच लेकर सबको आगे हांक रहा था . हम दो थे , किसी समूह में ४, ६ या ज्यादा लोग भी हो सकते हैं . जब सबको एक साथ खींचा जायेगा तो धक्का – मुक्की होनी ही है . यदि वहां पंक्ति व्यवस्था होती तो समय भले ही कुछ ज्यादा लगता परन्तु सबको अच्छे से दर्शन हो जाते . धक्कों के कारण लोग प्रसाद के डब्बों को , जल के लोटों को ऊपर करके छलकते हुए ले जा रहे थे . धक्कों में बच्चे. बड़े ,बूढ़े, स्त्रियाँ सभी आनंद ले रहे थे . प्रवेश करने से पूर्व पण्डे ने समझा दिया था कि पाकेटमारों से सावधान रहना . बहरहाल हमने ज्योतिलिंग के दर्शन किये , पण्डे ने फूल अर्पित करवा दिए , पूजा करवा दी , दो मिनट लगे होंगे . रेले से बाहर आ गए .
      बाहर आकर बुजुर्ग पण्डे को तय २१ रूपये दिए , वह चुप था , हमने १०० रूपये और दिए और युवक को भी २१ रूपये दिए . उसने विवाद नहीं किया . बाद में उसने बताया कि दोपहर बाद भीड़ नहीं होती है . खत्रीजी की भांजी और दामाद दो वर्ष पूर्व गए थे , उन्हें बिना किसी परेशानी के अच्छे से दर्शन हो गए थे. फिर पण्डे ने कहा कि उनके संघ को भी दान देना होता है . हम उसके साथ गए , वहां हमने ५१ रूपये दिए . किसी ने इस पर कहीं  विवाद नहीं किया . परन्तु ओंकारेश्वर में एक पण्डे ने कुछ न लेने की  बात पर शार्टकट ४-५ मिनट में पूजा करवा दी और १०१ रूपये लेकर ब्राह्मण भोजन के नाम पर १००० से ५०० रुपयों की मांग करने लगा और झंझट करने लगा .अतः मन में भय बना रहता है कि पता नहीं बाद में ये क्या करेंगे.
    हमने उसी परिसर में स्थित अन्य  मंदिरों में भी दर्शन किये . हर मंदिर और मोड़ पर पण्डे हाथ फैलाए दक्षिणा मांग रहे थे भले ही कोई एक रुपया दे  .कुछ  हिन्दू लोग बहुत बड़े भक्त होते हैं . वे चाहे – अनचाहे सभी मूर्तियों को नहलाते जाते हैं जिससे परिसर में चारों ओर किच-किच मची रहती है. साफ-सफाई की फुर्सत किसे है ? बस सबको पैसा चाहिए .दर्शन करके हम बाहर आये और रिक्शे से चौक तक आ गए . वहां ऑटो या रिक्शे के रेट  ढीक हैं , कभी थोड़ा मोलतोल करना पड़ता है .चौक पर एक ही ठीक स्थान दिखा जहां हमने भोजन किया . उसके बाद हमने एक ऑटो किया आसपास के स्थानों को दिखने के लिए . वह ६०० रूपये मांग रहा था हमने ५५० कहा .हमें तो वहां के किसी स्थान या दूरी का पता था नहीं , उसके विश्वास पर घूमने चल पड़े .
   देवघर से ४५ किमी दूर वासुकी नाग मंदिर है . परिसर में अन्य मंदिर भी हैं . वहां भी वैसी ही अव्यवस्थाएं तथा गंदगी है . बाहर चढ़ाने के लिए अनेक चीजें मिलती रहती हैं जबकि अन्दर उन्हें चढाने नहीं दिया जाता है . अतः फूल - प्रसाद के आलावा हमने कुछ नहीं लिया और बिना पण्डे के ही दर्शन किये . वहां कोई जबरन पीछे लगा भी नहीं . लौटते  में हम अनेक स्थानों को देखते हुए आये . रास्ते में त्रिकुटा पहाड़ी पर स्थित तपोवन में गए . यह रामायण काल के प्रसिद्ध  जटायु कि पहाड़ी कही जाती है .  त्रिकुटा पहाड़ी पर वृक्षावलियों के मध्य एक सन्यासी का आश्रम था जो  आज भी है . वहां वानरों की  संख्या बहुत अधिक है परन्तु किसी को परेशान  करते नहीं देखा . पहाड़ी पर चढ़ने के लिए ट्राली व्यवस्था है परन्तु समयाभाव के कारण हम ऊपर नहीं जा सके जहां जटायु का स्मारक है . वहां भ्रमण करना अच्छा लगा .इसके पश्चात मार्ग में हमने नौलखा मंदिर देखा .यह आधुनिक शैली का है .साथमें आश्रम परिसर भी है . हम उसके बाद श्री जगत बंधु आश्रम , श्री बालानंदन आश्रम , मोहन  मंदिर ( बंद था ) तथा नंदन पार्क गए .ये सभी स्थान वहां के प्रसिद्द गुरुओं के आश्रम हैं . वहाँ पर मंदिर, उनकी मूर्ती या समाधि स्थित हैं . सभी स्थान रमणीक हैं और देखने योग्य हैं .
   लगभग साढ़े पांच घंटे कि यात्रा के बाद हम देवघर लौटे . सभी स्थानों के बारे में ऑटो चालक ने संक्षिप्त जानकारी दे दी थी . उसने किसी स्थान पर यह भी नहीं कहा कि इतनी देर में वापस आ जाओ . उसका व्यवहार बहुत अच्छा था और ४५ किमी जाकर वापस घुमाते हुए लाने का किराया भी बहुत ठीक था .
  देवघर में हमने समाचार पढ़ा कि झारखण्ड राज्य के  १६.५ हजार करोड़ रूपये के २०१२-१३ के लिए स्वीकृत   सालाना योजना व्यय  में से राज्य के निकम्मे अफसर – नेता ५००० करोड़ रूपये  व्यय ही नहीं कर पाए . ३१ मार्च रविवार के दिन उन्होंने ताबड़तोड़ १५०० करोड़ रूपये निकाल लिए . शेष राशि लेप्स हो गई . ऐसे अयोग्य शासकों- प्रशासकों  वाला प्रदेश कहाँ से तरक्की करेगा ? यह देखकर डा खत्री के  राजतपथ के पूर्व अंक में प्रकाशित लेख की सत्यता दृष्टि गोचर हुई कि ‘नौकर देश का निर्माण नहीं कर सकते ‘.
        हम बैजनाथ धाम से राजगीर  जाना चाहते थे परन्तु हमें कोई मार्ग बताने वाला ही न था , न होटल वाला और न बस स्टैंड पर . अतः अगले दिन प्रातः हम देवघर से ट्रेन द्वारा जसीडीह पहुंचे और वहां से पैसेंजर नुमा एक्सप्रेस ट्रेन से अपरान्ह वापस  पटना पहुंचे .     
   
    

        

बुधवार, 26 जून 2013

प्रलय और फ़रिश्ते

प्रलय और फ़रिश्ते
चार धाम यात्रा को आए
देश के कई भागों से भक्त ,
स्त्री,पुरुष,शिशु,युवा वृद्ध
कई दुर्बल थे ,कई सशक्त.१.
मौसम था अत्यंत सुहाना
भक्तों में थी भरी उमंग,
जय हर-हर,जय बद्रीश्वर
जय यमनोत्री-गंगोत्री की तरंग.२.
ध्यान-अर्चना भक्त कर रहे
सघन मेघों ने चाल चली, 
चुपके-चुपके सबको घेरा
व्यूह रचना कुछ ऐसी की.३.
प्रलय मचे कोई भाग न पाए
छोटे–बड़े का न कोई भेद,
पल भर भी कोई सोच न पाए
वह गोरा हो या हो श्वेत.४.
नभ में तीव्र गर्जना करके
क्षण भर में यूं मेघ फटे,
परमाणु बम हाथों में लेकर
जैसे हों यमराज डेट.५.
नभ में भारी विस्फोट हुआ
फटे मेघ सब एक ही साथ,
तिनके से सब बहने लग गए
किसी के कुछ आया न हाथ.६.
हिमालय के श्रृंग टूट-टूट कर
लुढ़के जलधारा के संग,
रास्ते में जो कुछ भी आया
बहा ले गए अपने संग.७.
प्रलय ने रूप धरा विकराल
उफनती धारा में था आक्रोश,
नदी-नाले सब रौद्र हुए
विनाश का उरमें ले कर जोश.८.    
पर्वत मालाएं टूट रही थीं
भवन गिरे मिट्टी की भांति,
क्षण भर में वीरान हुआ सब
विलुप्त हुई मंदिर की कांति.९.
स्त्री-पुरुष,बड़े और छोटे
जल-विप्लव में लीन हुए,
हाहाकार मचाते थे स्वर
केदार घाटी में विलीन हुए.१०.
कारें बहीं, मोटरें बह गईं
बड़े-बड़े घर -हाट बहे
उनमें जो जन-माल निहित था       
तांडव में सब अदृश्य हुए.११.
जीवित जो जन शेष रहे
विकराल काल के मुंह में थे,
पत्थर थे किसी को कुचल रहे
कोई उफनती नदीमें बहते थे.१२.
जिनमें साहस था भरा हुआ,  बुद्धि भी जिनकी सक्रिय थी,
वे ऊंचाई पर जा पहुंचे
जीव की आस असीमित थी.१३.
वे जल-विप्लव को देख रहे
असहाय थे बंधु  बचाने को,     
उनके प्रिय सामने बिछुड़ रहे
जीवन था मृत्यु में जाने को.१४.
मेघों का तांडव शांत हुआ
लोगों की साँसे चलती थीं,
सड़कें टूटीं, खाई बन गईं
उस दृश्यसे आत्मा डरती थी.१५.
सामान बह गया नदियों में
भोजन पानी भी पास न था,
पत्थरों की राह अजनबी थी,
जीवित बचनेका मार्ग न था.१६.   
कुछ यहाँ, कुछ वहां पड़े हुए
जीवन की घड़ियाँ गिनते थे,
हे ईश्वर! अब तो दया करो
कर वद्ध प्रार्थना करते थे.१७.
लोगों की जान बचाने को      
भारतीय जवान बढ़े आगे,
कोई धरती पर कोई आसमाँ में 
जन-जन को बचाने को भागे.१८.
कोई नदी पर पुल थे बाँध रहे,
कोई रस्सी से मार्ग बनाते थे,
असहाय और रोगी लोगों को
कोई  कन्धों पर ले जाते थे.१९.
उनके पास जो भोजन था
उसको भी थे वे बाँट रहे,
बस एक ही जज़्बा दिल में था 
सही सलामत सब निकलें.२०.
हेलीकाप्टर आपरेशन कर
दूर फंसे हुए  लोग निकाले,
जितना भी संभव हो सकता
जी-जान से जुटे थे मतवाले.२१.
हज़ारों को जीवन दान दिया
निज घर पहुंचे आबाद हुए,
सब एक ही बात रहे कहते
फ़रिश्ते वहां  साकार हुए.२२.
श्रम और साहस से कार्य किया
सेना ने हार नहीं मानी,
जनता की सेवा करने में
दे दी अपनी भी क़ुरबानी.२३.