मंगलवार, 13 अगस्त 2013

हिंदी-हिंदी जपने से कोई लाभ नहीं होगा

अगस्त २०१३ में पाकिस्तानियों ने ५ भारतीय सैनिकों को मार दिया था . एक समाचार चैनेल पर बहस हो रही थी . उसमें एक पाकिस्तानी प्रवक्ता को भी सम्मिलित किया गया था . जब हमारे एक व्यक्ति ने उनके लिए शहीद शब्द का प्रयोग किया तो पाकिस्तानी ने तुरंत आपत्ति की कि शहीद शब्द तो उनका है , हम उसका उपयोग कैसे कर सकते हैं . भार्गव हिंदी –अंग्रेजी शब्दकोष में शहीद का अर्थ दिया है ‘ धर्म के लिए मरने वाला मुस्लिम’ . यह शब्दकोष पुराना है, देश पर मर-मिटने वालों के लिए इस शहीद शब्द का प्रयोग वर्षों से होता आ रहा है परन्तु हिंदी शब्दकोष में भी शहीद का अर्थ ‘देश पर आत्मोत्सर्ग करने वाला’ नहीं लिखा हुआ है . उसके लिए हिंदी शब्द है हुतात्मा . उस बहस में भारतीयों के पास इसका कोई उत्तर नहीं था . इसलिए जब कोई व्यक्ति विदेशी से बात करे और उसे यह ज्ञात हो जाये कि इसकी अपनी कोई भाषा नहीं है तो उसके मन में उसके प्रति सच्चा सम्मान कभी नहीं हो सकता . विदेशी समझ जाता है कि इसमें राष्ट्र गौरव की कोई भावना नहीं है क्योंकि इनका देश अत्यंत पिछड़ा हुआ है .

अनेक ऐसे भक्त देखे जा सकते हैं जो भगवान का नाम जपते रहते हैं परन्तु उनका व्यवहार मानवता के सर्वथा विपरीत होता है . कुछ लोग तो दूसरों का सर्वदा अहित ही करते रहते हैं . उनके लिए ‘मुंह में राम बगल में छुरी’ की कहावत बनाई गई है . कुछ ऐसा ही हाल म. प्र. सरकार का है . जो हिंदी प्रेम तो ऐसे प्रदर्शित करती है जैसे परम देश भक्त हों . लेकिन जब बी आर टी एस भोपाल के नाम करण की बात आई तो फट से नाम रख दिया “माई बस “. बस शब्द तो हिंदी ने गृहण कर लिया है परन्तु “माई” शब्द की हिंदी नहीं कर पाए . हिंदी विश्वविद्यालय खोलने का ढोंग करने से हिंदी का विकास नहीं होगा न ही हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्तान का नारा देने से होगा जब तक अन्दर पवित्र भावना नहीं होगी . हिंदी नाम रखने में शर्म आ रही थी तो उर्दू में ही रख देते, कोई अन्य भारतीय भाषा में रख देते . हिंदी –संस्कृत का इतना अपमान कम से कम भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाली भाजपा को तो शोभा नहीं देता और वह भी म.प्र. में . ‘माई बस’ नाम के लिए भोपाल की महापौर कृष्णा गौर ही उत्तर दाई नहीं हैं पूरी भाजपा है . संघ ने इस पर आपत्ति क्यों नहीं की , यह भी आश्चर्यजनक है .

हिन्दू अपनी प्राचीन संस्कृति और गौरव की प्रशंसा करते हुए नहीं थकते हैं . रसायन शास्त्र में कणाद ऋषि का नाम आदर से लिया जाता है कि उन्होंने सर्व प्रथम कहा था कि पदार्थ सूक्ष्म कणों से मिलकर बना होता है जिसे परमाणु कहते हैं . इसी प्रकार हम चिकित्सा, गणित, ज्योतिष आदि अनेक विषयों में अपने प्राचीन विद्वानों के नाम लेते हैं . उन्होंने काम किये थे तो उनका नाम लेना अच्छी बात है , उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित किया जाना चाहिए

आचार्य राम चन्द्र शुक्ल ने १९४० के दशक में मनोविज्ञान के अनेक व्यावहारिक विषयों , उत्साह, श्रद्धा-भक्ति, करुणा, लज्जा-ग्लानि, लोभ, घृणा, ईर्ष्या, भय, क्रोध और बैर पर उत्कृष्ट मौलिक निबंध लिखे हैं . परन्तु इन विषयों को मनोविज्ञान विषय में सम्मिलित नहीं किया गया . यदि उनके विचारों को गंभीरता पूर्वक समझ लिया जाय और व्यवहार में लाया जाय तो अनेक सामाजिक, आर्थिक, आप्राधिक तथा विधिक समस्याओं को घटने से पहले ही रोका जा सकता है जिनसे आज लोग त्रस्त हैं . परन्तु उन विचारों को हिंदी विषय के निबंधों तक ही सीमित रखा गया . रजत पथ में अप्रेल-मई २०११ के अंक में उन सभी निबंधों का सार-संक्षेप दिया गया था . उस पत्रिका के साथ मैंने मैंने अनेक प्राध्यापकों से अनुरोध किया कि उन्हें मनोविज्ञान विषय में सम्मिलित किया जाय . सबने एक ही समस्या बताई कि अब कोई प्राध्यापक यह नहीं कर सकता है . पाठ्यक्रम में सुधार तभी संभव है जब म.प्र. शासन का उच्च शिक्षा विभाग इसमें रूचि ले . उसकी पहल पर माननीय राज्यपाल, जो विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति भी हैं, उस विषय के प्राध्यापकों की संयोजन समिति की बैठक बुलायंगे तो उसमें ही कोई विषय जोड़े या घटाए जा सकते हैं . अतः प्राध्यापकों ने निजी स्तर पर कोई परिवर्तन करने में असमर्थता व्यक्त कर दी .

मैंने उस पत्रिका की प्रतियों के साथ, जो उन निबंधों के महत्त्व को दर्शाती हैं, म.प्र. के उच्च शिक्षा मंत्री से लिखित में अनुरोध किया, माननीय राज्यपाल जी से भी निवेदन किया तथा मुख्यमंत्री जी को पत्र लिखा . इस पर न तो कोई व्यय होना था न यह कार्य किसी के विपरीत था . परन्तु इस पर आज तक कोई कार्यवाही नहीं हुई . राजनीतिज्ञ कोई काम तभी करते हैं जब उन्हें कोई लाभ दिखे . इस काम से क्या लाभ होना था ? आचार्य रामचंद्र शुक्ल न तो कोई प्राचीन काल के हैं जिन्हें भारतीय संस्कृति के गौरव शाली व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया जा सके और न ही उनका नाम सरकार की लोकप्रियता में वृद्धि कर सकता है . संभवतः इसीलिए मेरे अनुरोध पर ध्यान नहीं दिया गया .

जहां तक विश्विद्यालय के पप्राध्यापकों का प्रश्न है, अधिकांश लोग अंग्रेजी के विद्वान् हैं . उन्हें हिंदी कम समझ आती है . दूसरे किसी तथ्य को तभी स्वीकार करने की पारम्परा है जब कोई विदेशी विद्वान् उसे अच्छा कह दे . इसलिए स्वतन्त्र भारत के ६६ वर्षों में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक, विधिक, धार्मिक आदि किसी भी क्षेत्र में कोई मौलिक कार्य सामने नहीं आया है . आज इसीलिए हम देश की अर्थ व्यवस्था सुधारने के लिए विदेशी पूंजीपतियों की चिरौरी कर रहे हैं . देश में मेधावी युवकों को विदेश जाने के लिए बाध्य किया जाता है और वे जब वहां अपना काम और नाम स्थापित कर लेते हैं तो हम उन भारतीयों पर झूठा गर्व करते हैं . इनसे देश का कोई हित होने वाला नहीं है .यदि ये निबंध किसी विदेशी के होते तो हमारे प्राध्यापक उन्हें सर-आँखों पर लेते .

चीन और चीनी भाषा की प्रगति का यही मुख्य कारण है कि १९४९ में माओत्सेतुंग ने जब चीन पर आधिपत्य स्थापित किया , उसने सर्वप्रथम अंग्रेजी दां प्राध्यापकों और विद्वानों को निकाल बाहर किया और श्रम केन्द्रों में भेज दिया कि देश में कोई काम हो या न हो पर काम होगा तो अपनी भाषा में होगा , अपने देश की परिस्थितियों के अनुसार होगा .

मैंने अनेक हिंदी विद्वानों तथा साहित्यकारों से भी इस पर चर्चा की परन्तु किसी ने इस पर कोई पहल नहीं की क्योंकि आचार्य शुक्ल जी का आपना कोई गुट नहीं है . शुक्ल जी से मेरी भी कोई रिश्तेदारी नहीं है परन्तु हिंदी पत्रकारिता से जुड़े होने के कारण यह मेरा दायित्व है कि मैं उन तथ्यों पर प्रकाश डालूँ जिनसे इस देश और देश के लोगों का कल्याण हो सकता है . जहां तक म.प्र. सरकार के सहयोग का प्रश्न है तो जो राजधानी भोपाल की बस सेवा का नाम तक हिंदी में नहीं रखना चाहती है, उससे किसी हिंदी विद्वान के सम्मान की आशा करना ही व्यर्थ है .

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