सोमवार, 3 नवंबर 2014

सिमेस्टर प्रणाली का अंत

   म. प्र. के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में स्नातक स्तर पर अंततः सिमेस्टर प्रणाली समाप्त करने की घोषणा कर दी गई है. सिमेस्टर प्रणाली २००८ में प्रारंभ करने के साथ ही विवादों में थी. अब जब उसने सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्र्था को आत्मसात कर लिया था, अचानक उसे समाप्त कर दिया गया. दो माह पूर्व कहा गया था कि छात्रों के मध्य मतदान करवाया जायगा कि इसे समाप्त करें या जारी रखें. फिर शासन ने स्वयं  ही निर्णय ले लिया. यदि मतदान करवाया जाता तो छात्र सिमेस्टर प्रणाली के पक्ष में ही मत देते . इसलिए नहीं कि यह अच्छी प्रणाली है अपितु इसलिए कि कुछ सुस्थापित महाविद्यालयों को छोड़कर अधिकांश महाविद्यालयों में छात्रों को मुफ्त के अंक मिल रहे थे. निजी महाविद्यालयों में तो अंक देना महाविद्यालयों और वहां कार्यरत शिक्षकों की मजबूरी थी अन्यथा वहां पढ़ेगा कौन ?
      सिमेस्टर प्रणाली को समाप्त क्यों करना पड़ा ? परीक्षा लेने और समय पर परिणाम देने में विश्वविद्यालयों के कुलसचिवों ने असमर्थता व्यक्त कर दी है . सरकार को चाहिए था कि इसे जारी रखती परन्तु उसने आगामी सत्र से इसे बंद करने की घोषणा कर दी. दरअसल जब से व्यापमं की परीक्षाओं के घोटाले सामने आये हैं जिसमें पूर्व उच्च शिक्षा मंत्री से लेकर अनेक अधिकारी जेल में पड़े हैं, परीक्षा घोटालों से कुलपति और कुलसचिव भयभीत होने लगे हैं. दूसरे, सिमेस्टर प्रणाली से उच्च शिक्षा की जो दुर्गति हुई है वह सर्व विदित है. केंद्र में कांग्रेस सरकार थी तो यह दुर्गति राज्य के लिए वरदान थी क्योंकि कांग्रेस पहले से ही शिक्षा व्यवस्था चौपट करने और उसका व्यवसायीकरण करने में रूचि ले रही थी. परन्तु मोदी सरकार आने से संदेह की स्थिति बनने लगी. वे सदैव योग्य और कुशल छात्रों के निर्माण की बात कर रहे हैं. संभव है कि राज्य सरकार को लगा हो कि पहले ही स्थिति सुधार ली जाए.
   २००८ में मैं शासकीय स्नातकोत्तर महविद्यालय सीहोर में प्राचार्य था. अप्रेल माह में बरकतुल्लाह विश्विद्यालय में प्राचार्यों और कुलसचिवों की सभा का आयोजन उच्च शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव एवं आयुक्त के द्वारा किया गया था. मैंने असुविधाओं के मध्य इसे प्रारम्भ करने का विरोध किया था जबकि अधिकांश महाविद्यालयों के प्राचार्यों ने आयुक्त के भय के कारण इसकी प्रशंसा की. वे प्राचार्य जानते ही नहीं थे कि इसमें क्या समस्याएँ आयेंगी . मैंने कहा कि वार्षिक परीक्षा करवाने में प्रायोगिक कार्यों के साथ तीन माह से अधिक समय लगता है . यदि उतनी ही बड़ी दो परीक्षाएं करवाई जाएँगी तो सात माह तो परीक्षा में ही लग जाएंगे. तीज-त्यौहार के और ग्रीष्मावकाश में भी एक माह तो लगेगा ही . दोनों सिमेस्टर में  छात्रों को प्रवेश देने में भी  में भी एक-एक माह का समय लगेगा. शिक्षक कुछ निजी अवकाश भी लेंगे. तो वर्ष में पढ़ने के दिन ही कितने मिलेंगे जब कि सरकार चाहती है कि न्यूनतम १८० दिनों की पढ़ाई कक्षाओं में होनी चाहिए. यह कैसे संभव होगा ? बाद में विश्विद्यालयों में सिमेस्टर के साथ वार्षिक परीक्षाएं भी करवाईं गईं अर्थात वर्ष भर परीक्षाएं ही होती रहीं. शासन ने आदेश दिए कि सतत परीक्षाओं के बावजूद सभी कक्षाएं भी नियमित रूप से लगनी चाहिए तो सरकारी फर्जीवाड़े की भांति सारी नियमित कक्षाएं भी होती रहीं. चार माह में प्रत्येक विषय के टेस्ट और मूल्यांकन भी हुए. सरकार अनेक छात्रवृत्तियां बांटती है . अतः अनेक छात्र छात्रवृत्तियों के लिए प्रवेश ले लेते हैं . सबका टेस्ट में सम्मिलित होना ही संभव नहीं होता था और यदि कोई फेल हो गया तो उसका दुबारा तब तक टेस्ट लेना होता था जब तक वह अच्छे अंकों में पास न हो जाए . जो एक टेस्ट में आ नहीं रहा है उसे अनेक टेस्टों में बुलाना , कई बार बुलाना कैसे संभव था. तत्कालीन उच्च शिक्षा आयुक्त ने वर्षों से पढ़ा रहे प्राध्यापकों को छात्रों की उपस्थिति लेना, टेस्ट लेना, नम्बर देना आदि सब कुछ सिखा दिया कि फर्जी रिकार्ड कैसे बनाने हैं . सिमेस्टर दौड़ने लगे , बिना परेशानी के छात्र घर बैठे पास होने लगे . विज्ञान विषयों के छात्रों के उन महाविद्यालयों में भी  भी नियमित टेस्ट होते रहे जहाँ उन विषयों के एक भी नियमित शिक्षक नहीं थे. प्रोजेक्ट वर्क के लिए प्रदेश भर में दुकानें खुल गईं . ले दे कर छात्रों ने तीन महीने का प्रशिक्षण भी प्राप्त कर लिया. उसके अंक भी बटोर लिए. छात्र खुश ही खुश . सरकार की योजना सफल .
  उक्त बैठक में मैंने दूसरी समस्या रखी कि इतनी सारी परीक्षाओं का परीक्षाफल समय पर कैसे निकलेगा. उस समय बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय में एक वर्षीय पीजीडीसीए पाठ्यक्रम  में सिमेस्टर प्रणाली लागू थी जिसमें एक-डेढ़ हजार छात्र पढ़ते थे . उसका परीक्षाफल दो वर्ष के पूर्व नहीं आ पाता था. मैंने आयुक्त से कहा कि जब इतने कम छात्रों के परीक्षाफल में एक के स्थान पर दो वर्ष लगते हैं तो  सिमेस्टर प्रणाली में हज़ारों छात्रों का परीक्षाफल समय पर कैसे निकलेगा ? आयुक्त ने बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय के कुलसचिव संजय तिवारी से पूछा कि परीक्षा की क्या स्थिति होगी . आयुक्त का भयंकर भय था . कुलसचिव ने बिना कुछ सोचे समझे कह  दिया कि वे सब सिमेस्टर परीक्षाएं एक माह में करा लेंगे . मेरी आपत्तियां दरकिनार करते हुए जुलाई २००८ में  सिमेस्टर प्रणाली लागू कर दी गई.  उस समय मेरे महाविद्यालय में बॉटनी विभाग में मात्र एक प्राध्यापिका थी . बी.एस-सी. प्रथम वर्ष से लेकर एम.एस-सी. तक ४०० छात्र थे. एक पद  और था जिस पर नियुक्ति निश्चित नहीं रहती थी. मैं उस प्राध्यापिका से सभी कक्षाएं लेने, उनमे नियमित टेस्ट करवाने, अंक देने , पढ़ाने, प्रायोगिक कार्य करवाने के लिए कैसे कह सकता था जो पूर्णतः असंभव है ? मेरे न रहने पर सब कार्य वहां ही नहीं पूरे प्रदेश में सुचारू रूप से चुपचाप होते रहे.  
   प्रदेश में अगले तीन वर्षों तक बिना पढ़ाई के परीक्षाएं होती रहीं . परीक्षाफल एक वर्ष विलम्ब से आते रहे. उसके बाद सिमेस्टर प्रणाली में एक विषय का एक प्रश्न पत्र किया गया जैसा मैंने प्रारम्भ में कहा था. परन्तु तब भी परीक्षाफल बहुत विलम्ब से निकलते रहे. कभी-कभी तो ऐसा भी हुआ कि एक सिमेस्टर के  परीक्षा फल निकलने के एक माह की अंदर ही अगले  सिमेस्टर की परीक्षाएं प्रारम्भ हो गईं. बिना पढ़े छात्र पास भी होते गए. सिमेस्टर प्रणाली से यह तो सिद्ध हो गया है विद्यार्थी के भविष्य निर्माण में शिक्षक की आवश्यकता नहीं है. सबको एकलव्य बना दिया.
  सिमेस्टर प्रणाली भोपाल के उच्च शिक्षा उत्कृष्टता संस्थान , शासकीय सरोजिनी नायडू स्नातकोत्तर महाविद्यालय और शासकीय महारानी लक्ष्मी बाई स्नातकोत्तर महविद्यालयों में अनेक वर्षों से सफलता पूर्वक चल रही है क्योंकि वहां प्राध्यापकों की संख्या पर्याप्त है . प्रदेश के अन्य  महाविद्यालयों में भी शिक्षक : छात्र का अनुपात १:३० किया जाता तथा महविद्यालय स्वायत्त बनाए जाते जिससे वे अपने महविद्यालयों की परीक्षाओं के लिए विश्वविद्यालय पर निर्भर न रहते तो छात्रों का भला होता तथा सिमेस्टर प्रणाली से राज्य का शिक्षा स्तर उठता . यदि वर्तमान में म.प्र. शासन का उद्देश्य पुनः शिक्षा व्यवस्था को सुधारना है तो सिमेस्टर प्रणाली की समाप्ति के निर्णय का स्वागत किया जाना चाहिए.

                                   


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