सोमवार, 31 मार्च 2014

राजतन्त्र-सामंतवाद और प्रजातंत्र के दोष तथा लोकतंत्र

             
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            राजतन्त्र-सामंतवाद  और प्रजातंत्र के दोष तथा लोकतंत्र 

अवधारणा :  राजतन्त्र  में राजा  देश का स्वामी होता है। सामंतवाद में सामंत सामूहिक रूप से  देश के  स्वामी होते हैं।  देश के लोग भी ऐसा ही मानते हैं।   उत्तराधिकार में उनके वंशजों को स्वतः यह अधिकार मिलता रहता है।  प्रजातंत्र में प्रजा चुनाव में मतदान द्वारा यह  अधिकार जिन प्रतिनिधियों को सौंपती है , उन्हें देश का राजा समझती है। प्रधानमन्त्री, मुख्यमंत्री ( या राष्ट्रपति) भी स्वयं को राजा समझते हैं। लोकतंत्र तभी कहा जायगा जब जनता स्वयं को देश का स्वामी समझती हो , शासन पर उसका नियंत्रण हो और सरकार  के लोग भी स्वयं को राजा न समझ कर  यह समझें कि जनता राजा है और उन्हें उनके हित में कार्य करना है।  
   प्रजातंत्र में मंत्रियों का  विचार एवं व्यवहार सामंतों जैसा ही होता है।  वे कर्मचारियों ही नहीं वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारीयों को भी नौकर  और स्वयं को शासक समझते हैं तथा बड़ी हे दृष्टि से देखते हैं।  २०१३ के दिल्ली के विधान सभा चुनावों में  आम आदमी पार्टी का गठन हुआ। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं द्वारा  उनके सदस्यों को बिलबिलाते कीड़े  कहा गया तो भाजपा नेता द्वारा आम-अमरुद पार्टी। भारत  के  केंद्रीय मंत्री ने उनकी चुनाव में भारी सफलता के बबावजूद जोकर कहा।  सोनिया गांधी के दामाद  ने आम आदमी को हेय  दृष्टि से मैंगो मैन कहा था क्योंकि उसका शोषण करने में बहुत आनंद की  प्राप्ति होती है।  राजशाही में तो आम आदमी की गरिमा का प्रश्न नहीं होता है परन्तु राजा का बहुत सम्मान होता है , वह अच्छा हो या बुरा।  भारत के प्रजातंत्र में तो सरकार  के मुखिया प्रधान मंत्री की गरिमा भी नहीं रह गई है। लोकतंत्र में सभी व्यक्तियों की गरिमा होना आवश्यक शर्त है।  
प्रभुसत्ता :  राजतन्त्र में प्रभुसत्ता राजा में निहित होती है और सामंतवाद में सामंतों में।  वे देश के लोगों एवं संपत्ति का निजि  संपत्ति की भाँति  उपयोग कर सकते हैं। प्रजातंत्र में प्रभुसत्ता मंत्रिमंडल, अफसरशाही , न्यायालय एवं धन-बल से शक्तिशाली लोगों में वितरित होती है जो आपनी- अपनी शक्ति के अनुसार उसका उपभोग करते रहते हैं। मंत्री मंडल स्व इच्छानुसार योजनाएं और क़ानून बनाते हैं।  उनसे जनता का हित भी हो सकता है और उनका भी।  मंत्री घूंस लेकर किसी को ठेका दिलवा दें, किसी की नियुक्ति कर दें  या स्थानान्तरण कर दें अथवा योगयता के आधार पर जन हित में ये कार्य करें यह उनकी इच्छा पर निर्भर करता है।  न्यायालय अपनी प्रभुसत्ता शक्ति का उपयोग करके इसे निरस्त कर सकते हैं , मंत्री को दंड भी दे सकते है।  व्यक्ति शक्तिशाली हो   तो योगयता न रखते हुए भी बिना घूंस दिए अपने सारे काम करवा सकता है।  नक्सली सरकार को नहीं मानते।  वे कर देना तो दूर, अपने प्रभाव के क्षेत्र में लोगों से धन वसूलते हैं और लोग उनकी सत्ता को स्वीकार करते हुए उन्हें शासक की भाँति  स्वयं धन देते हैं।  लोकतंत्र में प्रभसत्ता सामूहिक रूप से जनता में निहित रहती है।  जनता संविधान के अनुसार जिसे जिस कार्य की शक्ति प्रदान करती है , उतनी प्रभुसत्ता का उसे  जनहित में उपयोग करना चाहिए। 
शासन की स्थापना : राजतन्त्र में शासन या स्वतन्त्र राज्य की स्थापना राजा की शक्ति से होती है।  सामंतवाद में सामंतों की शक्ति के अनुसार उन्हें शासन में अधिकार मिलते हैं।  प्रजातंत्र में मतदाताओं  द्वारा सरकार की स्थापना होती है, मतदाताओं के मत चाहे जैसे भी मिलें। 
     पहले राजा अपना राज्य स्थापित करने या उसका विस्तार करने के लिए अन्य राज्यों पर आक्रमण करते थे जिसमे भरी धन लगता था और जान-मॉल की भी भारी क्षति भी होती थी।  भारत के इतिहास में मध्य युग अर्थात मुस्लिम एवं अंग्रेजों के काल में विजयी  राजा और उसकी सेना द्वारा  लूट एवं कत्ले आम सामान्य बातें थीं।प्रजातंत्र में चुनावों में बहुत धन व्यय होता है जिसमें काले धन की मात्रा  बहुत रहती है परन्तु यह धन भ्रष्टों की तिजोरियों से निकल कर जनता तक पहुँचता है।  अतः वैसी क्षति या अपव्यय नहीं होता  जैसा  युद्धों में होता  था ।
   युद्धों के काल में देश एवं धर्म के नाम पर युद्ध करने के आलावा सैनिकों को यह भी कहा जाता था कि विजयी होने पर उन्हें  लोगों को लूटने , मारने, दास  बनाने जैसे अनेक अधिकार मिलेंगे। क्रूर एवं चरित्रहीन  विजयी राजा-सुल्तान  और उसके सैनिक हत्याएं , लूटपाट , बलात्कार जैसे कार्य आनंद पूर्वक करते थे।  राजा उन्हें धन और भूमि भी देते थे।  इसमें साधारण जनता कष्ट भोगती थी।  प्रजातंत्र में चुनाव जीतने के लिए नेता वोटरों को सस्ता अनाज, मुफ्त के प्लाट, मकान, बिजली , कर्ज माफी, घरेलू मंहगे सामान आदि देने का वायदा करते हैं जिसके लिए करों का बोझ उस भोली- भाली जनता को ढोना पड़ता है जो कानून का पालन करती है। सिर्फ सत्ता सुख की कामना करने वाले नेताओं में अच्छे चरित्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।  
   उस युग में धर्म, जाति,वंश के नाम पर लोगों में शासकों के प्रति श्रद्धा - भक्ति पैदा की जाती थी। अनेक शासक भय फैलाकर भी जनता को अपने वश में  रखते थे।  प्रजातंत्र में वोटरों से झूठे वायदे करके, धन देकर,  जाति ,वर्ग,धर्म, क्षेत्रीयता, वंश आदि के नाम से सम्मोहित करके अथवा  डरा-धमका कर  वोट प्राप्त कर लिए जाते हैं।
  प्राचीन समय में भी अनेक राजा-सामंत  अपढ़ होते थे। अपढ़ व्यक्ति भी अपने तीव्र आक्रमणों से विजय प्राप्त करते थे. उनके सैनिक होने के लिए पढ़ाई- लिखाई की कोई आवश्यकता नहीं थी . उसी  प्रकार  प्रजातंत्र में भी अपढ़ और अयोग्य व्यक्ति शासनाधिकार प्राप्त कर लेते हैं तथा वोटरों के लिए शिक्षा एवं ज्ञान  कोई शर्त नहीं है। यह भी अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य है कि भारत में तो अनेक पढ़े-लिखे , ज्ञानी और योग्य व्यक्ति मतदान करने ही नहीं जाते हैं। भारत के प्रजातंत्र में सांसद- विधायक भी , जो स्वयं को महान ज्ञानी और योग्य समझते हैं, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति के चुनाव के समय एवं संसद में महत्वपूर्ण विषयों पर मतदान के समय कभी स्वेच्छा से , कभी बहिष्कार के नाम पर सदनों से गायब हो जाते हैं। यदि मूर्ख और अपढ़ कहे जाने  वाले लोग भी वोट न डालें तो यहाँ पुनः प्रत्यक्ष राजशाही स्थापित हो जाती , प्रजातंत्र भी न रहता।इसलिए प्रजातंत्र के लिए यह कहना कि इसमें अपढ़- शिक्षित , सदाचारी-दुराचारी, छोटे-बड़े सभी का  वोट सामान होना अनुचित है, तर्क सांगत नहीं है क्योंकि यह सैनिक शक्ति से सत्ता परिवर्तन की तुलना में बहुत-बहुत अच्छा है।  
   पूर्व में शासन पर अधिकार शक्तिशाली राजा का होता था।  योद्धा, धनी  एवं धर्म गुरु सत्ता में अच्छे पद प्राप्त कर लेते थे।  ये पद उत्तराधिकार में चलते रहते थे।  प्रजातंत्र में भी सब लोग चुनाव नहीं लड़ सकते हैं।  उसके लिए धन, बल, क्षत्रप का सहयोग , पूर्व नेता का सम्बन्धी जैसे गुण होना आवश्यक है। भारत में तो अनेक विभागों में किसी व्यक्ति या अधिकारी के निधन होने पर उसके निकट सम्बन्धी को नौकरी दे दी जाती है जैसे वह  विभाग उनकी निजी संपत्ति हो।  उसमें योगयता को भी नहीं देखा जाता है।  
  राजतन्त्र में कमजोर शासक खोने पर आतंरिक षड्यंत्रों एवं बाह्य आक्रमणों के कारण सत्ता अस्थिर रहती थी।  उसी प्रकार प्रजातंत्र में भी विपक्षियों के कारण कमजोर सरकारें भंग हो जाती हैं।  
   लोकतंत्र में उक्त दोषों का यथा सम्भव निराकरण हो जाता है।  
राजशाही स्वतः चलती रहती थी परन्तु प्रजातंत्र में ४ या ५ वर्ष बाद नेताओं को जनता के सामने जाकर वोट के लिए हाथजोड़ने पड़ते है , सच स्वीकार करना पड़ता है कि वे सेवक हैं।  जनता की बातें हे नहीं आक्रोश का सामना भी करना पड़ता है और अनेक प्रतिष्ठित नेता चुनाव में हार भी जाते हैं।  जो जीत जाते हैं वे प्रजा पर शासन करने के लिए राजा बन जाते हैं समाचारपत्र और मीडिया उनकी बारम्बार स्तुति करते हैं कि उनका राज स्थापित हो गया।  
शासन का संचालन:   राजतन्त्र में राजा के आदेश ही क़ानून और न्याय होते थे।  किसी से अप्रसन्न हुए तो सीधा मृत्यु दंड दिया।  क़त्ल करना, हाथी से कुचलवाना, ऊंचाई से नीचे फेंकना आदि क्रूर तरीकों से विद्रोहियों और अपराधियों को मरवा दिया जाता था।  बाद में दंड संहिता तथा अन्य कानूनों का विकास किया गया जिसके अनुसार सज़ा का प्रावधान होता था परन्तु न्यायलय राजा-नवाब एवं धनवानों का पक्ष लेते थे।  कभी गरीब जके भी बात सुनी जाती थी तो उस राजा की कीर्ति दूर-दूर तक फैल जाती थी।  प्रजातंत्र में व्यवस्थापिका क़ानून बनाती है , कार्यपालिका उसके अनुसार कार्य करती है और तथा कथित स्वतन्त्र न्यायालय न्याय करते हैं। राजशाही की भांति यहाँ भी न्यायालय शासक वर्ग एवं धनी  लोगों का पक्ष लेते हैं।  कुछ अपवादों को छोड़कर  भारत के न्यायालय वर्षों तक निर्णय ही नहीं देते हैं।  परन्तु ये न्यायालय अनेक बार अपराधियों को कड़ी सज़ा शीगघ्र  ही दे देते हैं और कभी-कभी बड़े लोग और  मंत्री तक इनकी चपेट में आ जाते हैं और सज़ा - जेल भुगतते हैं। लोकतंत्र में कार्य व्यवस्था इस प्रकार होगी कि लोग अपराध करें ही नहीं , करें तो अपराध की प्रकृति और समय के अनुसार उन्हें प्रायश्चित का दंड दिया जाय और कठोर सज़ा केवल आदतन और क्रूर अपराधियों को ही दी जाये।  इस दृष्टि से अमेरिका के न्यायालय बहुत सक्रिय  एवं सक्षम हैं।  वहाँ भ्रष्टाचार में लिप्त गवर्नार को तीन वर्ष के अंदर १४ वर्ष के कारावास की  सज़ा इसलिए सुना दी गई कि उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया था और अपने कार्यों पर दुखी भी था।  
     राजा-नवाबों के  शासन के अधिकारी उनके निकट के सम्बन्धी या राजा के चहेते होते थे।शासन में हरम से भी दखल होते थे।  प्रजातंत्र में यद्यपि योगयता के आधार पर अधिकारीवर्ग की नियुक्ति के लिए संस्थाएं बनाई गई हैं परन्तु  ये नियुक्तियां  भारी घूंस, नेता -अफसरों से रिश्तेदारी  एवं जाति-धर्म के  आधार पर भी होती रहती हैं।  भोपाल में इन दिनों मेडिकल कालेजों में प्रवेश एवं नौकरियों में नियुक्ति के लिए भारी घूंस देने का भंडाफोड़ हुआ है। राज्यों में तो कर्मचारियों-अधिकारियों का स्थानांतरण  भी मंत्रियों की आय का बड़ा साधन बन गया है। राजशाही में प्रशासनिक नियुक्तियां राजा करता था और नया राजा प्रायः उसमे बदलाव कर देता था।  प्रजातंत्र में सत्तारूढ़ दल बदलते रहता हैं अतः स्थाई एवं प्रशिक्षित नौकरशाही अनिवार्य हो जाती है। बदलती सरकारें इसी नौकरशाही के भरोसे पर चलती रहती है। 
  राजशाही में राजा की आय का स्रोत जनता से प्राप्त कर, विदेशों पार आक्रमण से लूटा गया धन और सामंतों द्वारा दी गई भेंटें होती थीं।  राजा -सुल्तान उस राशि का उपयोग स्वेच्छानुसार करते थे।  अपने महल बनवाना, किले बनवाना, खाने-पीने और वस्त्रों पर व्यय करना, सेना व्यय तथा ऐश-ओ -आराम के अनेक साधन होते थे।  वे अपने चहेतों को भी दिल खोलकर धन बांटते थे।  उत्सवों पर दान- दक्षिणा भी करते थे।  अपने सम्मान एवं कीर्ति में वृद्धि के आयोजनों पर भी जम कर व्यय करते थे।उसी जनता धन से बनवाए गए उनके राजमहल एवं किले वर्त्तमान में मंहगे और आलीशान होटलों में परिवर्तित हो गए हैं और उनकी आय एवं प्रतिष्ठा के सूचक बन गए हैं।  100
प्रजातंत्र में भी मंत्री अफसर जनता से प्राप्त धन को अपनी इच्छानुसार उपयोग करते हैं। वे  प्रधानमंत्री , मुख्यमंत्री चुने जाने  पर राजा- महाराजाओं जैसे उत्सव्  आयोजित किये जाते हैं ताकि जनता समझ सके कि अब वे ही उनके राजा है - दाता  हैं।ये नेता जब भी कोई कार्य करते हैं जनता को यह एहसान दिखने से नहीं चूकते कि वे उनके लिए  कार्य  करवा रहे हैं जबकि वह  सारा धन जनता धन होता है। वे जनता धन का जम कर दुरूपयोग करते हैं , बर्बाद करते हैं और भ्रष्टाचार करते हैं। इसलिए अनेक नेता अल्प काल में ही बिना कोई उद्योग-व्यवसाय किये  अरबपति हो गए।  
  राजतंत्र में जन हित के कार्यों पर राजा बहुत कम व्यय करते थे।  प्रजातंत्र में बहुत व्यय करते हैं।  इसलिए भ्रष्टाचार के बावजूद जनता के लिए बहुत काम होता रहता है। सदियों से चले आ रहे भारत और स्वतंत्रता के ६६ वर्ष बाद अब तक के  भारत में कितना अंतर है !  
  पहले राजा के दरबारी उसकी चापलूसी करते थे। प्रजातंत्र में पार्टी के नेता अपने बड़े नेताओं, मंत्रियों,मुख्यमंत्री और प्रधान मंत्री के गुणगान करते हैं , वे चाहे कितने भी निकम्मे एवं भ्रष्ट हों। भारत के विदेश मंत्री  सलमान खुर्शीद कहते हैं कि सोनिया गांधी सारे देश की माँ  हैं ! कभी कांग्रेस के अध्यक्ष देवकांत बरुआ कहते थे कि इन्दिरा भारत है और भारत इन्दिरा  है।  चापलूसी  राजदरबार का स्थायी भाव रहा है।  ये चापलूस ही शासन को बर्बाद करते रहे हैं। 
        लोकतंत्र में यथासम्भव  योग्य लोगों को ही नियुक्त किया जायगा अतः शासन अच्छा होगा। उसमें शासक वर्ग को यह ध्यान रखना होता है कि राष्ट्र का धन जनता का धन है , उनका नहीं और यथा सम्भव उसका सदुपयोग करना है।  दुरूपयोग करने पर पश्चिमी देशों में सज़ा के कड़े प्रावधान  हैं।  भारत जैसे देश में प्रजातंत्र में काम करने, न करने , मक्कारी करने या गलत करने पर कर्मचारी पर प्रायः कोई आरोप नहीं लगता है।  यदि वे तिकड़म से अपने वरिष्ठ अधिकारियों को खुश रख सकते हैं तो उन्हें नौकरी में वेतन के साथ नियमित पदोन्नतियां भी मिलती जाती हैं।  देश-प्रदेश में अनेक विभाग घाटे में चले गए और बंद होने के कगार पर अ गए और अनेक तो बंद भी हो गए जिनमें जनता का अरबों रुपया लगा हुआ था परन्तु उनके प्रशासक नियमित रूप से पदोन्नत होते गए। लोकसभा में तथा विधानसभाओं में सदस्य न स्वयं कम करते हैं और न काम करने  देते हैं  परन्तु वे अपने वेतन-भत्ते  नियमानुसार पूरे लेते हैं क्योंकि प्राचीन सामंतों की भाँति जनता धन का दुरूपयोग करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझते हैं।  
लोकतंत्र में काम न करने वाले लोग अपने पद पर नहीं रह पाएंगे और दूसरों के कार्य में बाधा पहुंचाने वालों को सज़ा दी जायगी। 
 प्राचीन काल में छोटे राजा-सामंत सम्राटों को कर के अतिरिक्त भी विशेष अवसरों पर भेंट- उपहार देते थे, युद्ध में उनकी सहायता करते थे।  इसके बदले सम्राट भी उन्हें दरबार में ऊंचे पद और जागीरें देते थे।  प्रजातंत्र में भी जो लोग नेताओं को चुनावों में सहयोग करते हैं , उनकी सरकार बनने  पर नेता उन्हें अनेक प्रकार से लाभ पंहुचाते हैं। उद्योगपतियों को करों में छूट , उनके तथा अन्य वोटरों के लाभ के लिए क़ानून बनवाना , उन्हें भूखंड और ठेके देना जैसे अनेक कार्य करते हैं।  जो लोग मंत्रियो - अफसरों को घूंस देते हैं उनके कम भी आसानी से होते जाते हैं।  यह भी राजतंत्र का परिवर्तित रूप ही है जिसे सब भ्रष्टचार कहते हैं परन्तु ऐसा सदियों से चला आ रहा है। पहले राजा-सम्राट यह लेन -देन  का कार्य सर्वजनिक  रूप से करते थे  जबकि वर्त्तमान नेता  यह छुपकर करते हैं क्योंकि वे जानते हैं या पूर्णतयः गलत है भ्रष्टाचार है , समानता के नियमों के विपरीत और संविधान का उल्लंघन है।  
 इस सन्दर्भ में एक अन्य समानता भी  है पहले जब सम्राट कमजोर होते थे तो उनके आधीन छोटे राजा-नवाब उन्हें कर देना बंद कर देते थे। वे जनता से प्राप्त कर को अपने कोष में रख लेते थे, अपनी सेना और मित्रों की संख्या में वृद्धि करते रहते थे और अवसर देख कर स्वतन्त्र शासक बन जाते थे। 
 प्रजातंत्र में  जब शीर्ष नेता कमजोर होते हैं तो उनके दल एवं बाहर के छोटे या नए नेता भ्रष्टाचार द्वारा धन जामा करते जाते हैं और अवसर मिलने पर स्वतन्त्र दल या गुट बना लेते हैं और धीरे-धीरे बड़े सामंत बनते जाते हैं और कालान्तर में अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करके राजाओं की भाँति  व्यवहार करने लगते हैं। भारत में विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। 
  धन के विषय में एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि राजशाही में राजा जनता कर को जनहित में उपयोग न करके अपने कोष में रख लेते थे जिसपर  आक्रमणकारी विजयी  राजा अधिकार कर लेते थे। 
 महमूद गजनवी, तैमूरलंग, अहमदशाह अब्दाली , नादिरशाह जैसे लुटेरे और अंग्रेज देश का अकूत धन अपने देशों में ले गए।  प्रजातंत्र में भ्रष्टाचार से कमाए गए धन को उद्योगपति , व्यापारी, अफसर, नेता स्वयं विदेशों में जमा कर आते हैं जिसका वे स्वयं शायद ही उपयोग कर पाएं।  ऐसे अनेक लोगो के आकस्मिक निधन के बाद वह सारा धन विदेशियों का स्वतः हो जाता है।  
    लोकतंत्र में धन का उचित उपयोग करने पर नियंत्रण रहेगा अतः ऐसी स्थिति निर्मित नहीं होगी।   
    राजशाही में राजा के कमजोर होने पर दरबार में गुटबंदी होने लगती थी जिससे शासन का स्तर गिरता जाता था। प्रजातंत्र में गुटबंदी और सामंतों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के कारण अस्थिरता उत्पन्न होती रहती है।
   प्रजातंत्र पर कुछ अन्य आक्षेप भी किये गए हैं कि उसमें सांस्कृतिक विकास बाधित होते हैं एवं यदि वैज्ञानिक आविष्कारों के पूर्व प्रजातंत्र हो जाता तो ये आविष्कार ही न हो पाते।  राज्याश्रय में सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सीमित लोगों को ही प्रोत्साहन दिया जाना सम्भव था जबकि अब जनता के सहयोग से सांस्कृतिक विकास द्रुत गति से हो रहा है।  मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में ही शासन के सहयोग से वर्ष भर विश्वस्तरीय सांस्कृतिक आयोजन निःशुल्क होते रहते हैं , कलाकारों एवं सहितीकारों को अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कार वितरित किये जा रहे हैं।  शिल्पकारों के लिए शासन की और से अनेक हाट लगाए जा रहे हैं , उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शिल्प को स्थापित करने में सहयोग दिए जा रहे हैं।  अमेरिका में संगीत कार्यक्रमों में लोग १००-२०० डालर की टिकटें लेकर जाते हैं जिससे सांस्कृतिक विकास स्वतः होता जाता है।  फिल्मों के विकास  को देखें तो यह भी जन समर्थन के कारण तीव्र गति से बढ़ा  है।  इसी प्रकार अमेरिका में लोकतंत्र १७७६ से है।  वहाँ वैज्ञानिक आविष्कार सर्वाधिक हुए हैं  जबकि भारत जैसे अनेक देशों में राजतंत्र के चलते न तो वैज्ञानिक आविष्कार हुए न ही क्षेत्र का विकास हुआ।  हाँ, प्रजातंत्र में कुछ अल्पज्ञानी लोग इसमें रूकावट डालने के प्रयास करते हैं।  १९८० के दशक में भारत ने उपग्रह छोड़ा था जो असफल रहा।  उस समय कुछ समाजवादी किस्म के नेताओं का कहना था कि इतना धन व्यर्थ कर दिया इसको गरीब लोगों में बाँट देते तो वे कुछ अच्छा खा-पी लेते।आज भारत में जो संचार क्रांति हुई है , भारत ने अनेक उपग्रह बनाए हैं और मिसाइलें छोड़ी हैं , यह उसी असफलता को सुधरने के बाद सम्भव हुआ है।  भारत के मंगल मिशन पर ४५० करोड़ रूपये व्यय होने पर भी कुछ सुगबुगाहट थी कि इससे क्या लाभ होगा।  भोपाल में ४५० करोड़ रूपये व्यय करके मिसरोद से बैरागढ़ का २४ किमी मार्ग बनाया गया है जो बनते ही टूटने लगा  है और जिससे नगर के लाखों लोग कष्ट का अनुभव कर रहे हैं।  अतः प्रत्येक काल में विभिन्न स्तरों पर विघ्न संतोषी जीव बोलते रहते हैं परन्तु काम होते जा रहे हैं।  यही प्रजातंत्र की राजतन्त्र पर सफलता है। 
  प्रजातंत्र को बहुसंख्यकों का अल्पसंख्यकों पर अत्याचारी शासन भी कहा गया है।  इतिहास खता है कि विश्व में हिन्दू राजाओं को छोड़कर सभी धर्मों के लोगों ने अल्पसंख्यकों पर क्रूर अत्याचार किये हैं।  जन जागृति  के साथ पश्चिमी दार्शनिकों ने धर्म के शासन में हस्क्षेप के विरुद्ध  अपने विचार दिए जिनका धीरे- धीरे प्रचार- प्रसार हुआ।  अब पश्चिमी देशों में या जिन देशों में  ईसाई बहुसंख्यक हैं, शासन द्वारा अल्प संख्यकों पर अत्याचारों को रोका गया है और उन्हें अपना धर्म पालन करने की स्वतंत्रता भी दी गई है , कुछ अपवाद हो सकते हैं।  परन्तु मुस्लिम देशों में राजशाही हो या प्रजातंत्र , अन्य धर्मावलम्बियों को जन-माल की क्षति आज भी उठानी पड़ती है क्योंकि वे राज्य को इस्लाम के प्रचार-प्रसार का एक साधन मानते हैं और काफिरों से घृणा करते हैं।  यद्यपि अब उनमें भी कुछ परिवर्तन आने लगे हैं परन्तु आज भी मुस्लिम देशों के शासक और अन्य देशों के मुस्लिम नेता सत्ता में आगे बढ़ने के लिए धर्म का अवलम्बन लेना  अपने धर्म का ही अंग मानते हैं।  भारत में तो अल्पसंख्यकों अनेक अधिकार संविधान द्वारा दिए गाये हैं जबकि बहुसंख्यकों को कोई अधिकार नहीं हैं।  भारत में हिन्दू द्वारा संचालित स्कूल में हिन्दू धर्म की शिक्षा देने पर मीडिया  और अनेक हिन्दू विरोधी नेता हंगामा करने लगते हैं।  इसके विरोध में सरकार और न्यायलय भी कार्यवाही कर सकते हैं परन्तु यदि किसी अल्पसंख्यक द्वारा स्कूल संचालित किया जा रहा तो उसमें भले ही हिन्दू बच्चों और शिक्षकों की संख्या उनके धर्म वालों से अधिक हो , वे अपने धर्म आधारित पाठ, प्रार्थनाएं एवं अन्य कार्य कर सकते हैं। अतः प्रजातंत्र को बहुसंख्यकों का अल्पसंख्यकों पर शासन कहना उचित नहीं है।
  प्रजातंत्र पर यह भी आक्षेप है कि आपातकाल में जैसे बाह्य आक्रमण के समय सारिशाक्ति राष्ट्राध्यक्ष को सौंपनी पड़ती है अर्थात प्रजातंत्र को स्थगित करना पड़ता है।  राष्ट्र का जीवन सर्व प्रथम विचारणीय है।  उसके लिए यदि वे किसी एक , जैसे राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री को अधिकार देते हैं तो उचित भी है क्योंकि एक देश में रहने वाले लोग , वे सत्ता पक्ष में हों या विपक्ष में, अंततः हैं तो एक , परस्पर शत्रु तो नहीं हैं  क्योंकि प्रजातंत्र में भी विपक्ष की सहमति एवं सहयोग लेने का पूरा प्रयास किया जाता है।  अतः यह भी आरोप निराधार है।   
 नियंत्रण  : राजा सर्वोच्च होता है उस पार किसी का नियंत्रण नहीं होता है।  राज्य एवं कीर्ति बढ़ती है तो उसकी और घटती है तो उसकी।  परन्तु अच्छे शासक अपने सलाहकार या मंत्रिमंडल की सहमति से ही शासन करते थे। प्राचीन  भारत में  राजा भी दंड अर्थात शासन संहिता के आधीन रहकार कार्य करते   थे।  उन्हें परामर्श देने के लिए मंत्रियों के अतिरिक्त धर्मगुरु भी होते थे जो नैतिकता पर आधारित शासन चलाते थे जिसमें मनुष्य की गरिमा भी रहती थी।फिर भी राजा स्वेच्छाचारी होते थे।  भरी सभा जिसमें उनके पिता राजा धृतराष्ट्र , दादा भीष्मपितामह और गुरु द्रोणाचार्य भी उपस्थित थे,  में दुःशासन द्वारा द्रौपदी का चीर हरण और हिटलर - मुसोलिनी द्वारा विपक्षियों की हत्याएं जैसी घटनाएं प्रदर्शित करती हैं कि राजा पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं होता था।   
प्रजातंत्र में  मंत्रियो पर भी क़ानून लागू होते हैं जिनके अनुसार दोषी पाए जाने  पर उन्हें भी साधारण नागरिक की भांति दंड भोगना पड़ता है।  पश्चिमी देशों तथा  जापान में लोकतंत्र में भ्रष्टों को शीघ्र सज़ा मिल जाती है जबकि भारत जैसे देश में बहुत विलम्ब से या सज़ा मिल ही नहीं पाती  है।प्रजातंत्र में उचित नियंत्रण लागू कर दिए जाँय तो  वह लोकतंत्र हो जायगा जिसमें आम आदमी राजा होगा , सबकी गरिमा होगी   और सब मिलकर राज्य व्यवस्था का संचालन करेंगे।     
       
   
   
     







    



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